महात्मा जराथुस्त्र की जीवनी | Biography of Mahatma Zarathustra in Hindi Language!

1. प्रस्तावना ।

2. जीवन परिचय ।

3. उनके महान् कार्य ।

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4. उपसंहार ।

1. प्रस्तावना:

पारसी धर्म के प्रवर्तक महात्मा जरथुस्त्र एक लोकमंगल साधक थे । उन्हें पारसी पैगम्बर कहा जाता है । वे बड़े ईश्वरभक्त, सत्यवादी और अन्धविश्वास के प्रबल विरोधी थे ।  तत्कालीन सामाजिक जीवन में व्याप्त अधर्म और पापो को दूर कर उन्होंने अज्ञान व अन्धकार में डूबी हुई जनता को ज्ञान का प्रकाश दिया । उन्होंने यह बताया कि: ”सर्वशक्तिमान ईश्वर एक है । परोपकार तथा जीवमात्र के प्रति दया की भावना ही सदधर्म है ।”

2. जीवन परिचय:

महात्मा जरथुस्त्र का जन्म फारस देश के मीडिया नामक स्थान में अजरबेजान नगर में ईसा से 600 वर्ष पूर्व हुआ था । उनकी माता मीडिया प्रान्त के नरेश की पुत्री थीं और पिता बोरशसफ भी कई राज्यों के शासक थे । वे दोनों धर्मपरायण व सद्‌गुणी थे । जरथुस्त्र बाल्यावस्था से ही बड़े ही असाधारण प्रतिभा के धनी थे ।

धर्मशास्त्रों में उनकी गहन रुचि थी । उस समय फारस के समाज में धर्म चर्चाओं का बड़ा ही महत्त्व था । जरथुस्त्र की धर्म सम्बन्धी व्याख्या को सुनकर सगी विद्वान् का रह जाया करते थे । बोरशसफ जब वृद्ध होने लगे, तो उन्होंने अपने पांच पुत्रों में राज्य की सम्पत्ति बराबर-बराबर बांट देनी चाही, परन्तु तीसरे पुत्र जरथुस्त्र ने सम्पत्ति में हिस्सा लेने से मना कर दिया ।

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उनके पिता ने उनसे इसका कारण पूछा, तो उन्होंने उत्तर दिया: “मैंने सुविधाभोगी जीवन त्यागकर एक ऐसे जीवन की राह चुनी है, जो अज्ञान व अन्धकार में डूबे हुए लोगों को सच्चा धर्म सिखा सके । मेरे भीतर का ईश्वर  मुझे इस ओर प्रेरित कर रहा है । मैं भी दीन-दुखियों की तरह जीवन जीना चाहता  हूं ।”

राज्य का बंटवारा चार भाइयों में हो गया । जरथुस्त्र अपनी कमर पर छोटा-सा वस्त्र धारण कर महात्मा बुद्ध की तरह सत्य और ईश्वर की खोज में निरन्तर भटकते रहे । वे महात्मा तुर से मिले, जिनके स्नेह और प्रेमपूर्ण व्यवहार से दीक्षित होकर उन्होंने आत्मसाधना की । फिर एकान्त तप करने द्रोण पर्वत पर चले गये ।

एक गुफा में निराहार, निर्जल रहकर कठोर तप किया । भगवान बुद्ध की तरह उन्होंने तत्त्वज्ञान प्राप्त किया । 30 वर्ष की अवस्था में सीधी-सच्ची भाषा में गाथाएं कहीं, जो अवेस्ता {पारसियों का धर्मग्रन्थ} में संग्रहित हैं । प्रारम्भ में लोगों ने इसका मखौल उड़ाया, किन्तु उनकी वाणी का प्रभात ही कुछ ऐसा था कि दूसरे प्रान्तों में उनके नये धर्म में लोग दीक्षित होने लगे ।

उनके तर्कयुक्त, ओजस्वी व्याख्यान और उपदेशों का ऐसा प्रभाव हुआ कि वे आसपास के देशों  में भी फैलने लगा । उनके अनुयायियों की संख्या बढती चली ग् । अग्नि की उपासना करने वाले इस धर्म का मूल राग, द्वेष से दूर रहकर शान्ति का जीवन बिताना है । प्राणिमात्र के प्रति दया, करुणा का भाव तथा अन्धविश्वासों का विरोध इसका आधार है ।

3. उनके महान् कार्य:

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जरथुस्त्र ने जहां अन्धविश्वासों और रूढ़ियों से जकड़े हुए समाज को ज्ञान का प्रकाश दिया, वहीं धर्म का सच्चा ज्ञान कराया । कहा जाता है कि वे इतने दयालु थे कि एक बार उन्होंने भूख से छटपटाते हुए कुते को देखा, तो दौड़कर पास की बस्ती जाकर उसके लिए खाना मांग लाये, किन्तु उनके पहुंचने से पहले कुत्ता दम तोड़ चुका था ।

इस घटना से वे इतने दुखी हुए कि कई दिनों तक उनसे खाना तक न खाया गया । गोदामों से भूसा-चारा निकालकर भूखे जानवरों को खिला दिया करते थे । जब घर में पर्याप्त भोजन या चारा नहीं होता था, तो वे जंगल या इधर-उधर से चारा तथा भोजन एकत्र करके बूढ़े, असहाय, लंगड़े, भूखे जानवरों को खिलाया करते थे ।

उनके पास निरीह जानवरों की भीड़ सी लगा करती थी । एक परोपकारी गरीब को आटा बांटते देखा, तो वे भी उसके साथ बांटने लगे । उन्हें परोपकार में बड़ा आनन्द आता था । वे ईश्वर के सच्चे भक्त थे । एक जादूगर को धर्म के नाम पर अन्धविश्वास फैलाते देखा, तो उसे ऐसा फटकारा कि वह उनके पैरों पर गिर पड़ा ।

धर्म का सच्चा स्वरूप बताने वाले इस महात्मा को धर्म विरोधियों के छल-कपट का काफी सामना करना पड़ा । कई दुष्ट तो कुत्ते, बिल्ली, सुअर, चूहे आदि का सर कलम कर रख देते थे और बादशाह के कान भरते थे कि यह तो जरथुस्त्र की माया है । बादशाह ने प्रारम्भ में तो लोगों की इन बातों पर विश्वास करें-लिया, परन्तु बाद में उन्हें अपनी भूल का एहसास हुआ ।

इधर तोहरान का शासक कुमुक महात्मा जरथुस्त्र के प्रभाव से भयभीत था । उसने जरथुस्त्र के राज्य पर आक्रमण करके उस पर अपना अधिकार कर लिया था । बादशाह ने उन पर बिना किसी अभियोग के उन्हें मृत्युदण्ड दे दिया । उस समय उनकी आयु 77 वर्ष की थी ।

4. उपसंहार:

जरथुस्त्र ने अपने समय की अज्ञानता व अन्धविश्वास में जकड़ी हुई जनता को नया जीवन मूल्य दिया था । उनके जो धार्मिक आदर्श थे, वे आज भी महत्त्वपूर्ण बने हुए हे । करुणा, प्रेम, सदाचार, परोपकार का सन्देश देने वाले इस महात्मा ने नये धर्म का प्रचार {पारसी} किया । ईश्वर का आत्मसाक्षात्कार करने वाले इस महात्मा ने लोकमंगलकारी धर्ग की नींव रखी थी ।

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