द्रौपदी की जीवनी | Draupadi Kee Jeevanee | Biography of Draupadi in Hindi!

1. प्रस्तावना ।

2. द्रौपदी का प्रेरक चरित्र ।

3. उपसंहार ।

1. प्रस्तावना:

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जब-जब भारतीय संस्कृति के इतिहास में नारी के अपमान, प्रतिशोध, तिरस्कार, शोषण के साथ-साथ उसके सम्मान के दो विरोधी भावों की चर्चा होगी, तब-तब द्रौपदी का उल्लेख अवश्य होगा ।

द्रौपदी का चरित्र एक ऐसी दुर्भाग्यशालिनी नारी का चरित्र है जिसके जीवन में सुख कम, दुःख अधिक समाया हुआ था । उसे भगवान् श्रीकृष्ण जैसे अलौकिक अवतारी सखा का साथ मिला, यही उसके जीवन का परम सौभाग्य था, जिसने पग-पग पर द्रौपदी के सम्मान की रक्षा की ।

2. द्रौपदी का प्रेरक चरित्र:

द्रौपदी पांचाल देश के राजा द्रुपद की पुत्री थी, इसलिए उसे द्रौपदी कहा जाता है । राजा द्रुपद ने यज्ञ का आयोजन कर एक पुत्र और एक पुत्री की कामना की थी । अत: यज्ञ के फल के रूप में द्रौपदी का जन्म हुआ । उसे याज्ञसेनी कहा जाता है । द्रौपदी को कृष्णा भी कहा जाता है । पांचाल देश में जन्म लेने के कारण उसे पांचाली के नाम से भी जाना जाता है ।

द्रौपदी अत्यन्त रूपवती, गुणवती कन्या थी । उसके पिता द्रौपदी के लिए योग्य वर अर्जुन को ही मानते थे । हालांकि राजा द्रुपद के पुराने मित्र द्रोणाचार्य ने शत्रुतावश अर्जुन को यह आदेश दिया था कि वह राजा द्रुपद को बांधकर उनके सामने खड़ा कर दे । गुरा की आज्ञा मानकर अर्जुन ने ऐसा ही किया था ।

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द्रोणाचार्य ने द्रुपद का आधा राज्य भी छीन लिया, तथापि उन्होंने अर्जुन को क्षमा कर दिया था । राजा द्रुपद ने स्वयंवर का आयोजन किया था । सर्वश्रेष्ठ धनुर्धारी अर्जुन ने मत्स्य-बेधन की कठिन शर्त जीतकर द्रौपदी को स्वयंवर में जीता था ।

जब पांचों भाई द्रौपदी सहित अपने घर पहुंचे, उस समय कुन्ती घर के भीतर किसी काम में व्यस्त थीं । बाहर से पांचों भाइयों ने मां को आवाज देते हुए यह कहा: ”मां! जल्दी द्वारा खोलो । देखो! हम आपके लिए क्या लाये हैं ।”

कुन्ती ने द्वार खोले बिना ही उत्तर दिया: ”जो कुछ भी लाये हो, उसे आपस में बांट लो ।” बस फिर क्या था । माता के वचन का पालन करते हुए पांचों भाइयों ने आपसी सहमति से द्रौपदी को अपनी पत्नी मान लिया । द्रौपदी के जीवन का कुछ समय सुख में बीता था कि उसे कौरवों के कपट और छल का सामना करना पड़ा । दुर्भाग्य की ऐसी मार पड़ी कि जुए में पाण्डव राज्य से लेकर सब कुछ गंवा बैठे थे ।

वे द्रौपदी को भी दांव पर लगा चुके थे । कौरवों ने भरी सभा में द्रौपदी को न केवल अपमानित किया, अपितु दुर्योधन ने कांच महल में स्वयं के गिरने पर द्रौपदी की जो हंसी सुनी थी, उस अपमान का बदला लेने का उपयुक्त अवसर पाया था ।

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उसने दुःशासन को आदेश दिया कि वह एक वस्त्रा द्रौपदी को केशों समेत घसीटते हुए भरी सभा में पहले उसकी जांघ पर बैठाये, फिर सबके सामने उसे निर्वस्त्र करे । द्रौपदी केशों सहित घसीटती हुई लायी गयी । द्रौपदी रोती-गिड़गिड़ाती धृतराष्ट्र, भीष्म पितामह, गुरु द्रोणाचार्य, विदुर सहित अन्य लोगों से तथा अपने पतियों से सम्मान की रक्षार्थ भीख मांगती रही ।

सब मूर्तिवत बैठे हुए थे, सबकी संवेदनाएं जैसे मर चुकी थीं । दुःशासन ने द्रौपदी का चीर-हरण करना शुरू किया था कि द्रौपदी मूर्च्छित होते-होते भगवान् कृष्ण को मन से सहायतार्थ पुकारने लगी । भविष्य दृष्टा कृष्ण ने अपने चमत्कार से द्रौपदी के चीर को इतना बढ़ाया कि दुःशासन थक-हारकर बैठ गया ।

12 वर्ष के वनवास तथा 1 वर्ष के अज्ञातवास के बीच द्रौपदी ने ऐसी न जाने कितनी अपमानजनक घटनाओं तथा कष्टों का सामना किया । अज्ञातवास के समय उसने अपने पतियों के साथ दासियों, नौकरानियों-सा जीवन जीया । इस दौरान उसने जयद्रथ की कुदृष्टि से भी अपने शील की रक्षा की थी ।

एक दिन तो दुर्वासा मुनि 10 हजार शिष्यों सहित हस्तिनापुर के राजमहल में पहुंचे थे । दुर्योधन ने उनका तथा शिष्यों का अच्छा स्वागत-सत्कार किया । जाते समय दुर्वासा ने दुर्योधन को इच्छापूर्ति का वरदान मांगने को कहा । इस पर दुर्योधन ने कहा- ”मेरी इच्छा यह है कि आप मेरे भ्राता युधिष्ठिर के यहां वन में जाकर शिष्यों सहित भोजन ग्रहण कीजिये ।”

दुर्वासा ने दुर्योधन के कहने के अनुसार दोपहर को जाना स्वीकार किया । इधर दुर्योधन जानता था कि द्रौपदी के पास अक्षयपात्र है । इस समय वे सभी भोजन कर अक्षयपात्र को स्वच्छ कर रख चुके होंगे । दुर्वासा और उनके शिष्यों के जाने पर वे उन्हें भोजन नहीं करा पायेंगे और वे उनके शाप से ग्रसित होकर कष्ट भोगेंगे ।

इधर द्रौपदी भी भोजन कर चुकी थी । युधिष्ठिर धर्मसंकट में थे कि अक्षयपात्र के बिना वे दुर्वासा व उनके शिष्यों को भोजन कैसे करवाये ? द्रौपदी ने घबराकर योगेश्वर कृष्ण को करुण स्वर में पुकारा था । उसकी कातर ध्वनि सुनकर वे पलभर में वहां आ पहुंचे थे । द्रौपदी की व्याकुल दशा देखकर कृष्ण ने उसे कहा: ”बहिन! वह अक्षयपात्र ले आओ । मुझे जोरों की भूख लगी है ।”

द्रौपदी वह पात्र उठा लायी । उस पात्र के गले में शाक-भाजी का एक टुकड़ा अटका हुआ था । कृष्ण ने उसे निकालकर खाते हुए कहा- ”इस शाक-कण के द्वारा सम्पूर्ण जगत् की आत्मा मेरे साथ-साथ तृप्त हो जाये ।”

बस फिर क्या था, नदी से स्नान कर आने वाले दुर्वासा ऋषि व उनके शिष्यों का पेट भर गया । वे डकार लेते हुए युधिष्ठिर के यहां पहुंचे और उन्हें भोजन तैयार करवाने से मना कर दिया । इस प्रकार द्रौपदी ने सभी को धर्मसंकट से बचा लिया । प्रतिशोध की भावना से कौरवों ने तो द्रौपदी के भाई तथा उसके पांचों पुत्र (प्रतिविध्य, सुतसोभ, श्रुतकर्मा, शतानीक और श्रुतसेन) को अश्वत्थामा के द्वारा मरवाया ।

द्रौपदी ने इस असीम पुत्र-वध के दुःख को झेला था । द्रौपदी ने अपने भाई कृष्ण से महाभारत के युद्ध में अपने अपमान, तिरस्कार का एक-एक कर प्रतिशोध लेने हेतु आर्तस्वर में यही कहा था: ”पाण्डवों की कुलवधू द्रौपदी, द्रुपद सुता द्रौपदी, धृष्टद्युम्न की बहिन द्रौपदी, पांचों वीर पतियों की पत्नी द्रौपदी, कृष्ण की बहिन द्रौपदी को भरी-सभा में कितनी निर्लज्जता के साथ निर्वस्त्र करने का दुस्साहस किया गया ।

आप शत्रुओं से सन्धि करते समय मेरे एक-एक अपमान को न भूलना कृष्ण ।”  ऐसा कहकर द्रौपदी रो पड़ी थी । कृष्ण ने उसे आश्वस्त करते हुए कहा: ”जिन्होंने तुम्हारा अपमान किया है, वे सब मृत्यु को प्राप्त होंगे ।

उनकी स्त्रियां भी खून के आसू रोयेंगी ।” युद्ध हुआ । पाण्डवों की विजय हुई । द्रौपदी का यह महान हृदय था कि उसने गुरु पुत्र होने के नाते उस अश्वत्थामा को क्षमा कर दिया, जिसने उसके पांच पुत्रों और सहस्त्रों योद्धाओं की रातों-रात हत्या कर दी थी ।

3. उपसंहार:

इस महान् त्यागमयी, बलिदानी, सेवा तथा पतिपरायण नारी द्रौपदी ने अपने कर्तव्य कर्म का ईमानदारी से पालन करते हुए पग-पग पर अपने पतियों का साथ दिया । कुछ समय तक उसने हस्तिनापुर की पटरानी बनकर राजसी सुख भोगा और बाद में हिमालय की तीर्थयात्रा में अपना शरीर त्याग दिया । हतभागिनी द्रौपदी का यह दुर्भाग्य था कि उसे पांचों पतियों का अनिच्छापूर्वक वरण करना पड़ा । वह केवल दूसरों के लिए जीती रही ।

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