जगन्नाथ प्रसाद रत्नाकर । Biography of Jagannath Prasad Ratnakar in Hindi Language!

1. प्रस्तावना ।

2. जीवन वृत एवं कृतित्व ।

3. उपसंहार ।

1. प्रस्तावना:

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रीतिकाल के पश्चात् जब ब्रजभाषा के हास का युग प्रारम्भ हो गया और भारतेन्दुयुगीन कविता के गद्या के लिए खड़ी बोली की रचना होने लगी, हालांकि पद्या के लिए जिस तरह की ब्रजभाषा का प्रयोग होता था, उसमें न तो मधुरता थी और न ही सरसता थी । धीरे-धीरे खड़ी बोली ब्रजभाषा का स्थान लेने लगी ।

ऐसे समय में रत्नाकरजी ने ब्रजभाषा में उद्धव-शतक, हिंडोला, समालोचनार्थ, हरिश्चन्द्र, कलकाशी, श्रुंगार लहरी, गंगा विष्णु लहरी, रत्नाष्टक, वीराष्टक, गंगावतरण आदि रचनाएं लिखकर ब्रजभाषा को मुहावरे, लोकोक्ति, संगीतात्मकता एवं संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण, क्रिया के रूपों में शुद्ध रूप प्रदान किया । ललित पद-योजना ब्रजभाषा की अनुपम योजना के कारण वे आधुनिक हिन्दी के ब्रजभाषा के अन्तिम कवि के रूप में जाने जाते हैं ।

2. जीवन वृत एवं कृतित्व:

कवि जगन्नाथ प्रसाद रत्नाकर का जन्म वाराणसी में सन् 1886 में हुआ था । उनके पिता पुरुषोत्तम दासजी हिन्दी के अच्छे काव्य प्रेमी एवं फारसी के विद्वान् थे । वे भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के अच्छे मित्र भी थे । रत्नाकर को 5 वर्ष की अवस्था में पढ़ने हेतु मदरसे भेजा गया । सन् 1891 में वे क्वीन्स कॉलेज काशी में फारसी विषय में बी॰ए॰ करने के बाद कानून की पढ़ाई पूरी करने में लग गये ।

उन्होंने ”साहित्य सुधा नीति” मासिक पत्रिका का सम्पादन भी किया । उर्दू, फारसी, संस्कृत, मराठी, बांग्ला, पंजाबी भाषा के सफल लेखक विद्वान् आलोचक ज्योतिष, गणित, विज्ञान, वैधक, दर्शन शास्त्र के ज्ञाता, रत्नाकरजी की मृत्यु 21 जून, 1932 में हुई । उनकी रचनाओं में भक्ति-भावना की प्रधानता, सगुणोपासना, प्रेम-तत्त्व का निरूपण, श्रुंगार रस की प्रधानता, प्रेमपूर्ण हाव-भावों का चित्रण, वियोग वर्णन, रीतिकालीन परम्परा का पूर्ण आग्रह मिलता है ।

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रस, छन्द, अलंकार, भाव-योजना की दृष्टि से “उद्धप शतक” उनकी सर्वाधिक प्रौढ़ एवं श्रेष्ठ रचना है । भ्रमरगीत पर आधारित इस रचना के अर्थगाभीर्य एवं छन्द गौरव के कई उदाहरण ध्यान देने योग्य हैं । कृष्ण के प्रति अपने अनन्य एकनिष्ठ प्रेम का प्रतिपादन तो सभी जगह हुआ ।

कृष्ण का भी गोपियों के प्रति अनन्य भाव किस तरह व्यक्त होता है, जरा ध्यान दीजिये:

विरह विथा की कथा अकथ, अथाह महा,

कहत वनै न जो प्रवीन सुकबीन सौ ।

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कहै रत्नाकर बझावन लगे ज्यौ कान्ह,

उधौ को कहन हेतु ब्रज जुवतीन सो ।

गहवरि आयौ गरौ भभरि अचानक त्यों,

प्रेम भरयों चपल चुचाई पुतरीनि सो

नैकु कही बैननि अनेक कही नैननि सों ।

रही सही सोऊ कहि दीनी हिचकिनी सो ।।

उद्धव के ब्रज जाते ही गोपियां उनके प्रेम सन्देश को पाने के लिए कितनी उत्कण्ठा एवं आकुलता-व्याकुलता से दौड़ पड़ती हैं । उस भाव विहल दशा का कितना रमणीय चित्रण कवि ने किया है !

भेजे मनभावन के उधव के आवन की ।

सुधि ब्रज गांवनि मैं पावन जबै लगी ।

कहै रत्नाकर गुवालिनी की झौरि-झौरी ।

दौरि-दौरि नन्द पौरि आवन तबै लगी ।

उझकि-उझकि पदरंजनी के पंजनि पै ।

पेखि-पेखि पाती छाती छोहनि छै लगी ।

हमको लिख्यौ है कहा, हमको लिख्यो है कहां

हमको लिख्यो है कहा कहन सबै लगी ।।

गोपियों की वाग्विदग्धता, बुद्धिचातुर्य एवं अकथ अटूट अनन्य प्रेमभाव की मदिरा को पीकर जब वे मथुरा लौटते हैं, उनकी दशा कैसी हो जाती है ! परम्परित रूपक में द्रष्टव्य है !

प्रेम मद छाके पग-परक कहां के कहां,

थाके अंग नैननि सीतलता सुहाई है ।

कहै रत्नाकर यों आवत चकित उधौं,

मानो सुधियात कोऊ भावना भुलाई है ।

धारत धरायैं ना उदार अति आदर सौ,

सारत बहोलनि जो आसु अधिकाई है ।

एक कर राजे नवनीत जसुदा को दियौ,

एक कर बसी बर राधिका पठाई ।।

ऐसी मौलिक भावना जगन्नाथ प्रसाद रत्नाकरजी ने ‘उद्धव शतक’ में स्थान-स्थान पर की है ।

3. उपसंहार:

सारांश यह है कि जगन्नाथ प्रसाद रत्नाकर ने अपनी भाषा एवं भाव में सूर की मधुरता, नन्ददास की संगीतात्मकता, देव की अनुप्रासप्रियता, पदमाकर की नादात्मकता, बिहारी की-सी कलात्मकता, घनानन्द की लाक्षणिकता का समावेश कर ब्रजभाषा का अंगार करने का उत्कृष्ट कार्य किया है ।

यह भाव प्रेषणीयता के साथ-साथ उक्ति वैचित्र्य एवं अभिव्यंजना कौशल मैं सभी कवियों की भाषा से सर्वश्रेष्ठ ठहरती । अपनी भाषा में व्याकरण सम्मत तथा एकरूपता का समावेश करके उसे पूर्णतया सुगठित एवं प्रौढ़ बना दिया ।

इतने सुकुमार भावों की व्यंजना में चित्रात्मकता, संगीतात्मकता के साथ और प्रभावोत्पादक बना दिया था । पद लालित्य नाद-सौन्दर्य की दृष्टि से उनकी भाषा अपने पाण्डित्य में मुखर है । जगन्नाथ प्रसाद रीतिकाल के ब्रजभाषा के अन्तिम व सर्वश्रेष्ठ कवि हैं ।

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