वर्धमान महावीर की जीवनी | Biography of Vardhamana Mahavira in Hindi Language!

1. प्रस्तावना ।

2. उनका जन्म तथा परिचय ।

3. उनके विचार व कार्य ।

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4 उपसंहार ।

1. प्रस्तावना:

भारतीय धर्म में जाति-पांति तथा कर्मकाण्डों का जब बोलबाला हो रहा था, तब ब्राह्मणवादी हिन्दू धर्म से कुछ ऐसी शाखाएं प्रस्फुटित हुईं, जिन्होंने जाति तथा आडम्बरविहीन मानवतावादी धर्म की नींव रखी, जिनमें जैन धर्म का भी विशेष महत्त्वपूर्ण स्थान है । इस धर्म के प्रवर्तक महावीर स्वामी ही कहे जा सकते हैं । उन्हें जैन धर्म का 24वां तथा अन्तिम तीर्थकर माना गया है ।

2. उनका जन्म तथा परिचय:

महावीर का  जन्म वैशाली के समीप कुण्डग्राम में 527 ई॰ पू॰ एक क्षत्रिय परिवार में हुआ था । उनके पिता का नाम सिद्धार्थ था, जो ज्ञात्रिक कुल के राजा तथा कुण्डग्राम के राजा थे । उनकी माता का नाम त्रिशला था, जो लिच्छवी वंश के राजा चेटक की बहिन थीं । राजपरिवार में उत्पन्न होने के कारण उनका प्रारम्भिक जीवन सुख-सुविधाओं से पूर्ण था ।

उनका विवाह यशोदा नामक कन्या से हुआ था, जिनसे उनकी एक पुत्री थी । माता-पिता की मृत्यु के उपरान्त 30 वर्ष की अवस्था में वर्द्धमान महावीर ने संन्यास ग्रहण करने का विचार किया । गृहत्याग कर उन्होंने 12 वर्ष तक घोर व कठिन तपस्या के पश्चात् ऋजुगालक नदी के तट पर कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति की ।

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42 वर्ष की अवस्था में ज्ञान प्राप्त कर उन्होंने अपने जीवन का 30 वर्ष का समय धर्म-प्रचार में व्यतीत कर दिया । काशी, अंग, मगध, मिथिला, कौशल में प्राकर अपने धर्म का प्रचार किया । महावीर ने पावापुरी में जैनधर्म की स्थापना करने के बाद नालन्दा के घोषाल से मुलाकात की, जो एक महत्त्वपूर्ण घटना थी । 599 ई॰ पू॰ में वर्ष की आयु में पावापुरी में निर्वाण प्राप्त किया ।

3. उनके विचार तथा कार्य:

महावीर धर्म का जैन धर्म एक समानतावादी, कर्मवादी धर्म था, जिसमें आचरण की शुद्धता, नियमों के पालन आदि पर विशेष बल दिया गया । अनीश्वरवादी, कर्मवादी इस धर्म में पांच अणुव्रत-अहिंसा सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य आदि के पालन पर जोर दिया गया है । कैवल्य पद मोक्ष प्राप्त करने के लिए व्रत तथा तपस्या को भी महत्त्व दिया गया है ।

अहिंसा इसका मूलाधार है । सम्यक विचार, सम्यक ज्ञान, सम्यक आचरण इस धर्म का सार व तीन नेत्र हैं । ”अपना कर्तव्य करो, जहां तक हो सके मानवीय ढंग से करो । सभी जैन धर्म कर्म और मोक्ष में विश्वास रखते हैं ।”

जैन धर्म-दिगम्बर और श्वेताम्बर-दो सम्प्रदायों में अपनी विचारधारा के आधार पर बंट गया । दिगम्बर साधु दिशा को ही वस्त्र मानते हैं । वे वस्त्र धारण नहीं करते हैं । जबकि श्वेताम्बर केवल श्वेत वस्त्र धारण करते हैं । जैनधर्म का मुख्य उद्देश्य मोक्ष की प्राप्ति है ।

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जीवों के रूप में, देवताओं के रूप में भी आत्मा जन्म और मृत्यु के चक्र में फंसी हुई है । इसी से छुटकारा पाकर कैवल्य पद प्राप्त किया जा सकता है तथा मोक्ष की प्राप्ति करना इसका ध्येय है । प्रत्येक आत्मा में अनन्त शक्ति होती है । जैन धर्म का मानवमात्र के लिए यह सन्देश है कि वह रचय की सहायता से पूर्णता को प्राप्त करें ।

महावीर स्वामी ने जश्वीय ग्राम में ब्राहाणों के कर्मकाण्ड का तर्कपूर्ण खण्डन किया था । जिन ग्यारह ब्राह्मण याज्ञिकों को उन्होंने परास्त किया था, वे बाद में जैन धर्म में सम्मिलित हो गये । स्त्री और पुरुष दोनों ही उनके शिष्य थे ।

महावीर स्वामी ने जिस संघ का गठन किया था, वह भिक्षु-गिक्षुणी, श्रावक-श्राविका चार भागों में बटा हुआ था । भिक्षु पुरुष संन्यासी थे । भिक्षुणियां नारी संन्यासिनी होती थीं । श्रावक गृहस्थ होकर संघ के सदस्य होते थे । इसी तरह नारी श्राविका भी गहरथन होती थी ।

भिक्षु और भिक्षुणिओं को पांच महाव्रतों का पालन करना होता था और श्रावक-श्राविकाओं को अणुव्रत का पालन करना होता था । संन्यास ग्रहण करने के सरकार को निष्कमण सरकार कहते थे । यह संस्कार माता-पिता तथा किसी अभिभावक की अनुमति से ही सम्पन्न होता था ।

जैन साहित्य प्राकृत भाषा में रचे गये हैं । इसमें लिखे महावीर स्वामी के मौलिक उपदेश 14 ग्रन्थों में संकलित हैं, जिसे उपांग या मूलसूत्र कहा जाता है । जैन साहित्य को प्रमुखत: 6 भागों में विभक्त किया जा सकता है: 1. द्वादश अंग, 2. द्वादश उपांग, 3. दश प्रकीर्ण, 4. षष्ट छेद सूत्र, 5. चार सूत्र और 6. विविध सूत्र ।

4. उपरांहार:

जैन धर्म अपने सिद्धान्तों के आधार पर तो एक आदर्श धर्म था, किन्तु व्यावहारिक दृष्टि से नियमों तथा तपस्या की कठोरता एवं प्रचारको तथा सम्राटों के संरक्षण व प्रचार के अभाव में यह उत्तरोत्तर पतनोम्मुख हो गया । इसके समकक्ष प्रचलित बौद्ध धर्म अधिक व्यावहारिक व सरल होने के कारण लोकप्रिय हो चला था, जिसके फलस्वरूप जैन धर्म की उपेक्षा-सी हो गयी ।

महावीर स्वामी की पुत्री प्रियदर्शनी तथा दामाद से मतभेद होने के कारण उन्होंने अलग धर्म संघ बना लिया, जिसके कारण तथा अन्य कारणों से यह धर्म प्रभावित हुआ । किन्तु एकता, संगठन, साहित्य तथा दर्शन की दृष्टि से यह धर्म भारतीय धर्मो में श्रेष्ठ स्थान रखता है । इस धर्म का कठोरता से पालन करने वाले अनुयायी आज भी भारतवर्ष में विद्यमान हैं ।