Read this article in Hindi to learn about the three main approaches used for the study of public administration. The approaches are:- 1. परंपरावादी दृष्टिकोण (Classical or Traditional Approach) 2. व्यवहारवादी दृष्टिकोण (Behavioral Approach) 3. व्यवस्था दृष्टिकोण (System Approach).

किसी विषय या शास्त्र का अध्ययन विद्वानगण जिस नजरिये से करते है, उसे अध्ययन का दृष्टिकोण या उपागम कहा जाता हैं । यह नजरिया ऐतिहासिक हो सकता है, कानूनी हो सकता हैं या मनोवैज्ञानिक हो सकता है ।

इन सभी दृष्टिकोणों का आधार या तो आगमनात्मक पद्धति हो सकती है, या निगमनात्मक । पहली पद्धति (आगमानात्मक) प्राकृतिक विज्ञानों के अध्ययन में प्रमुखत: प्रयुक्त होती रही है, जिसका उद्देश्य विशेष घटना का अध्ययन (पर्यवेक्षण और परीक्षण द्वारा) करके सामान्य सिद्वान्तों का निरूपण करता है ।

दूसरी निममनात्मक पद्वति सामान्य से विशिष्ट सिद्धान्त की तरफ बढ़ने में मदद करती है । इसे सामाजिक विज्ञान बहुधा प्रयुक्त करते हैं । लेकिन इस पद्वति में पर्यवेक्षण पर अत्यधिक निर्भरता तथा पर्यवेक्षण का किसी एक निश्चित दृष्टिकोण पर स्थिर नहीं होना- दो ऐसी बाते है, जो सामाजिक विज्ञानों में इस अध्ययन पद्धति की उपयोगिता को तो सीमित करती ही हैं, इन लक्षणों से युक्त आगमानात्मक पद्वति को भी अपनाने पर जोर देती है ।

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अतः सामाजिक विज्ञानों के अध्ययन में सभी संभव पद्धतियों का अध्ययन करके प्राप्त निष्कर्षों को समस्याओं के समाधान में प्रयुक्त किया जाता है । लोक प्रशासन में समय-समय पर कई अध्ययन पद्धतियाँ अपनाई गयीं, और उनका विकास किया गया, जिन्हें हम दृष्टिकोण या उपागम के नाम से भी जानते हैं ।

लोक प्रशासन के जन्म से लेकर (1887) द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति तक के 60 वर्षों में पारम्परिक उपगमों की भरमार रही, जिन्होंने लोक प्रशासन का अध्ययन सरंचनात्मक, औपचारिक या कानूनी दृष्टिकोण से किया । ये अध्ययन ऐतिहासिक और वर्णनात्मक किस्म के थे । इनमें मुख्य बल प्रशासनिक ढांचे, उनकी संस्थाऐं, कार्मिक प्रशासन, वित्तिय प्रशासन आदि पर था ।

द्वितिय विश्वयुद्ध के बाद इन उपागमों के विरूद्ध प्रतिक्रिया स्वरूप नवीन और आधुनिक उपागम अस्तित्व में आये जिनमें संगठन की सरंचना के स्थान पर संगठनात्मक व्यवहार और पर्यावरण के साथ उसके सम्बन्धों पर अधिक बल दिया गया । बाद में इसमें समग्र दृष्टिकोण के रूप में व्यवस्था उपागम भी आकार जुड़ गया ।

1. परंपरावादी दृष्टिकोण (Classical or Traditional Approach): 

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व्हाइट, विलोनी, एण्डरसन, गुलिक, उर्विक, फेयोल आदि इसके प्रमुख समर्थक है। इसे संगठनात्मक, कानूनी, ऐतिहासिक, व्याख्यात्मक, विचारात्मक और विशुद्ध दृष्टिकोण भी कहा जाता हैं । इनकी दृष्टि संगठन के ढांचे तक सीमित है । ये उस ढांचे के बाहर नहीं देखते । विलोबी, व्हाइट, एण्डरसन इसके प्रारम्भिक अध्येता रहे । फेयोल, मुने, उर्विक, गुलिक ने कतिपय सिद्धान्तों के माध्यम से संगठन की संरचना को स्पष्ट करने का प्रयास किया ।

इस दृष्टिकोण की संकीर्ण मनोवृति के कारण आलोचना की गयी है । इसने लोक प्रशासन को संगठन के ढांचे तक सीमित कर दिया, इससे अध्ययन शास्त्र के रूप में उसका दावा संदिग्ध होने लगा । इन अध्ययन दृष्टिकोणों में व्यख्याओं, वर्णनों की तो भरमार है, लेकिन उनमें विश्लेषण और तार्किक विवेचना का अभाव है ।

इस दृष्टिकोण ने अपने अध्ययनों में निम्नलिखित अध्ययन पद्वतियों का प्रयोग किया है:

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i. ऐतिहासिक पद्धति:

ये मूलत: सामाजिक विज्ञानों के अध्ययन की ही पद्धति है । इसमें वर्तमान संस्थाओं के स्वरूप का अध्ययन. उनके अतीत की स्थिति के आधार पर किया जाता है । वस्तुत: यह दृष्टिकोण यह बताता है, कि वर्तमान प्रशासनिक संस्थाओं का स्वरूप पहले कैसा था, और किस प्रकार उसका विकास होकर, वर्तमान स्वरूप प्राप्त हुआ ।

उदाहरण के लिए भारत में सचिवालय का वर्तमान स्वरूप अतीत में विकास की किन प्रक्रियाओं का परिणाम रहा है, यह ऐतिहासिक पद्धति से ही ज्ञात हो सकता है । यह इस विश्वास पर आधारित है, कि किसी भी विषय के गम्भीर अध्ययन के लिए उसकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि का ज्ञान बेहद आवश्यक है विशेषकर यथेष्ट ज्ञान के लिए आवश्यक है, कि भूतकाल में उसके स्वरूप का अध्ययन कर, उसे वर्तमान प्रशासनिक सिद्धान्तों के साथ सम्बन्धित किया जाये ।

एल. डी. व्हाइट की पुस्तकें क्रमश: ”द फेडरेलिस्ट” (1948) और “द जेफरोसियन्स” (1951) जेक्सोसिएन्स, द रिपब्लिक इरा आदि संघीय अमेरिका के प्रशासन के प्रारम्भिक वर्षों के बारे में ज्ञान उपलब्ध कराती हैं।

ii. कानूनी पद्धति:

पश्चिमी यूरोप के देशों में कानून के दो रूप प्रचलित हैं, संवैधानिक और प्रशासनिक । यहां राजनीति का अध्ययन संवैधानिक दृष्टि से तथा लोक प्रशासन का अध्ययन प्रशासनिक विधि की दृष्टि से किया जाता है । इस दृष्टिकोण में लोक प्रशासन का अध्ययन कानून के एक अंश के रूप में किया जाता है । इसके मुख्य स्रोत हैं । संविधान, कानून संहिताएं, न्यायिक निर्णय, अन्य नियम, उपनियम ।

इस उपागम का मुख्य ध्यान बिन्दु है, संगठनों की कानूनी वर्तमान संस्थाओं का जन्म किस कानूनों के तहत् हुआ है, तथा इनके औपचारिक संगठन, कार्य, अधिकार आदि की कानूनी आधार क्या है प्रशासनिक व्यवस्था को देश के कानूनी ढांचे के अन्तर्गत कार्य करना पड़ता है, अतः यह दृष्टिकोण उपयोगी तो है, लेकिन संगठन के अनौपाचारिक स्वरूप की उपेक्षा के कारण यह लोक प्रशासन के अध्ययन का अपूर्ण उपागम है । इस पद्धति का दोष यह है कि इसमें सामाजिक-मनोवैज्ञानिक, पारिस्थितिकीय और वैज्ञानिक दृष्टि का अभाव है । गुडनाउ इसके मुख्य प्रवर्तक थे ।

iii. विषय-वस्तु पद्धति:

यह लोक प्रशासन का अध्ययन करने के लिए उसकी विशेष सेवाओं और उनके कार्यक्रमों को अध्ययन के लिए चुनती है । जैसे पुलिस, रक्षा, शिक्षा, आदि का अध्ययन । इंग्लैड व भारत में यह लोकप्रिय है । यह तकनीकों के स्थान पर उस क्षेत्र विशेष के अध्ययन पर अधिक बल देता है, जिसमें उन तकनीकों को लागू करना पड़ता है । इंग्लैण्ड और भारत जैसे देशों में प्रशासन के विभिन्न क्षेत्रों तथा शिक्षा, स्वास्थ्य, रक्षा, गरीबों की सहायता राजस्व वसूली आदि के अध्ययन को लम्बे समय से अपनाया जा रहा है ।

अमेरिका में भी नगरीय शासन का अध्ययन इस दृष्टिकोण से होता आया है, यद्यपि राष्ट्रीय स्तर अब प्रयोग होने लगा है । इस दिशा में वहां एक पुस्तक गास और वाल्कट ने लिखी है, ”लोक प्रशासन और संयुक्त राज्य का कृषि विभाग” ।

इस अध्ययन का दर्शन इस तरह से निहित है कि संगठन या प्रशासन उद्देश्य प्राप्ति का साधन मात्र है, स्वयं साध्य नहीं है । साध्य तो विषयवस्तु है, और उसका अध्ययन साधनों जितना ही या उससे अधिक ही महत्वपूर्ण है ।

iv. वैज्ञानिक प्रबंध पद्धति:

यह दृष्टिकोण तकनीकी या संस्थागत दृष्टिकोण का ही एक रूप है। इस अध्ययन दृष्टिकोण के प्रणेता फ्रेडरिक टेलर है । यद्यपि इसे पूर्व भी अन्य विद्यानों ने प्रयुक्त किया था, लेकिन लोकप्रिय बनाने का श्रेय टेलर के प्रयत्नों को ही जाता है ।

टेलर के अनुसार निजी या लोक छोटे या बड़े सभी संगठनों में अकार्यकुशलता और अव्यवस्था का बाहुल्य है, जिसे वैज्ञानिक प्रबंध का प्रयोग करके ही दूर किया जा सकता है । इन सभी क्षेत्रों में काम करने के एक समान सर्वोतम मार्ग या तरीके खोजे और स्थापित किये जा सकते हैं ।

अमेरिका में टेलर का वैज्ञानिक प्रबंध व्यापक रूप से विस्थापित हुआ और निजी उद्योगों की भांति लोक प्रशासन में भी इसके तत्वों को अपनाया जाने लगा । मानवीय तत्वों की उपेक्षा के कारण इस पद्धति की तो आलोचना हुई ही, लोक प्रशासन जैसे व्यवहार आधारित शास्त्र में वैज्ञानिक पद्धति की सीमितता भी इसकी आलोचना का कारण बनी । यह अमेरिका में लोकप्रिय है ।

v. जीवन वृत्तात्मक पद्धति:

वस्तुत: यह ऐतिहासिक पद्धति से प्रेरित है । इसके अंतर्गत प्रसिद्ध प्रशासकों के अनुभवों तथा उनके कार्यों के रिकार्ड का अध्ययन करके वर्तमान समस्याओं के हल खोजने का प्रयत्न किया जाता है । ये वृत्तांत स्वयं प्रशासक लिखते हैं या कोई अन्य लडका इंग्लैड और अमेरिका में यह लोकप्रिय है ।

भारत में विगत दशकों में कुछ पुस्तकें लिखी गई, जैसे कोल की “दी अनटोल्ड स्टोरी” गॉडगिल की “गवर्नमेंट फ्राम इनसाइड” नरूला की “ए टेल टोल्ड बाइ एन इडियट” धर्मवीर की “द मेमोआर्यस ऑफ ए सिविल सर्वेन्ट” । इसका दोष यह है कि प्रशासक प्रशासकीय बातों को कम और राजनीतिक बातों को ज्यादा लिखते हैं ।

vi. राजनीतिक पद्धति:

जो सम्बन्ध ऐतिहासिक और जीवन संस्मरणात्मक पद्धति में हैं, लगभग वही विषय वस्तु दृष्टिकोण और राजनीतिक पद्वति में हैं । राजनीतिक दृष्टिकोण तकनीकी या अराजनीतिक दृष्टिकोण की अपर्याप्तता का परिणाम रहा है । इसने भी माना कि प्रशासन ध्येय प्राप्ति का साधन मात्र है ।

ध्येयों को तय करने का काम राजनीतिक प्रणाली का है, और प्रशासन को राजनीतिक संरचना के दायरे में रहकर ही काम करना होता है । प्रशासन वस्तुत: राजनीतिक मूल्यों का ही एक तत्व या भाग है, और उसकी समस्याऐं राजनीतिक समस्याऐं ही होती है ।

अमेरिका में जान गास, पाल एपिलबी ने इस दृष्टिकोण का ही उपयोग अपने अध्ययनों में किया है । इसका महत्व दो तथ्यों में निहित है, प्रथम अच्छी से अच्छी सरकार से भी स्वशासन बेहतर होता है । अर्थात उनमें विरोध नहीं होता दूसरा यह कि कुशलता और मितव्ययिता के लिए लोक तान्त्रिक मूल्यों को नहीं त्यागा जा सकता है ।

अपितु इन मूल्यों के मार्ग में भी यदि कुशलता बाधा बने तो उसे त्याग देना चाहिए। इस पद्धति के आलोचक कहते है, कि राजनीतिक निकटता प्रशासन के भ्रष्टाचार या भाई-भतीजावाद में पुन: धकेल सकती हैं । जॉन गॉस, एपीलबी आदि ने इस दृष्टिकोण का समर्थन किया है ।

vii. दार्शनिक उपागम:

यह भी प्रशासनिक अध्ययन के प्राचीनतम उपागमों में से एक रहा है । शांति पर्व (महाभारत) प्लुटो की रिपब्लिक, हाब्स की लेवियाथन, लॉक की “ट्रिटिस आन सिविल गवर्नमेंट” इस उपागम से संबंधित की गयी रचनाएं है । स्वामी विवेकानंद, पीटर सेल्फ आदि भी इसके समर्थक माने जाते है ।

viii. अराजनीतिक या संस्थागत उपागम या तकनीकी दृष्टिकोण:

यह दृष्टिकोण राजनीति-प्रशासन द्धिभाजकता का समर्थक है । यह मानता है कि प्रशासन की जिम्मेदारी मात्र नीति-क्रियान्वयन की है । इन नीतियों के क्रियान्वयन की तकनीकों में ही उसे पारंगत होना चाहिए । लुथर गलिक ने इन तकनीकों को “पोस्टकार्ब” की संज्ञा दी ।

19वीं सदी के अंतिम समय में अमेरिकी प्रशासन व्यापारिक प्रबन्ध की तुलना में अकार्यकुशलता तथा अव्यवस्था का शिकार था । प्रशासन में भ्रष्टाचार, रिश्वत भाई-भतीजावाद का बोलाबाला था, और माना गया कि व्यापार में इनके अभाव ने ही उसे अधिक समृद्धशाली बनाया हैं, और इसका कारण यह था कि व्यापार में राजनीतिक हस्तक्षेप नहीं था ।

अत: प्रशासन को भी कार्य कुशल, मितव्यीय बनाने के लिए अराजनीतिक होना चाहिए तथा उन तकनीकों में कुशल होना चाहिए जो इन उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए अनिवार्य है । इस पर पहली पुस्तक विलोबी ने लिखी ”लोक प्रशासन के सिद्धान्त” जिसमें उक्त बातों का वर्णन किया गया है ।

यह दृष्टिकोण विषय वस्तु को अपूर्णता से प्राप्त था । जिस क्षेत्र में तकनीकें लागू करनी है, उसकी जानकारी के बगैर तकनीकों को सफलतापूर्वक लागू नहीं किया जा सकता हैं ।

नये उपागमों का प्रादुभार्व:

उपरोक्त उपागमों या दृष्टिकोणों की अपूर्णता के कारण थे प्रशासन में अनौपचारिक सरंचना की उपेक्षा, प्रशासन और बाह्य पर्यावरणीय के मध्य सम्बन्धों की अवहेलना, प्रशासन के प्रति कठोर यान्त्रिक रवैया अपनाना आदि । प्रतिक्रिया स्वरूप नये उपागम इन कार्मियों की पूर्ति प्रकट होने लगी ।

यद्यपि वे भी अपने आप में पूर्ण नहीं रहे तथापि उन्होने उसकी लोक प्रशासन के अध्ययन के नये द्वार खोले और एकान्तता और को इससे भी बढ्‌कर उन्होंने इसे व्यवहारिक वैज्ञानिक शास्त्र बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई यह उपागम द्वितीय महायुद्ध (1939-1945) के बाद स्थापित हुए ।

डवाइट वाल्डो ने इसलिए 1940 के दशक को लोक प्रशासन के अध्ययन क्षेत्र में विभाजक रेखा की संज्ञा दी ।

वस्तुत: इसके बाद के उपागम जिन नवीन प्रवितियों के वाहक थे वे थे:

(i) राजनीति-प्रशासन द्विभाजकता अस्वीकृति ।

(ii) कार्यकुशलता मितव्ययिता के साथ सामाजिक- आर्थिक कल्याण के नय प्रशासनिक लक्ष्यों का आगमन ।

(iii) भिन्न संस्कृतियों में सार्वभौमिक सिद्धान्तों की वैधता अमान्य घोषित ।

(iv) राष्ट्रों के उदय के साथ तुलनात्मक और पारिस्थितिकीय अध्ययन पद्धतियों पर बल ।

(v) प्रबन्ध क्षेत्र की विश्लेषणात्मक नवीन तकनीकों गणीतीय पद्धतियों को प्रशासनिक समस्याओं के समाधान में प्रयुक्त करना ।

2. व्यवहारवादी दृष्टिकोण (Behavioral Approach):

यह द्वितीय विश्व युद्ध के बाद व्यापक रूप से प्रयुक्त होने लगा । विशेषकर हर्बट साइमन ने इसे लोकप्रिय बनाया । इसके बीज 1930-1940 के मध्य मेयो और बर्नाड के अध्ययनों में देखे जा सकते है, जब विभिन्न सामाजिक परिस्थितियों में मानवीय व्यवहार के वैज्ञानिक अध्ययन पर जोर दिया गया था ।

मेयो के हाथार्न प्रयोगों से निकले मानव सम्बन्ध उपागम को व्यवहारवाद के रूप में पहले बर्नाड और बाद में साइमन ने विकसित किया । विनर, सायरस, हेडी, स्ट्रोकस, रिग्स आदि ने इसी दृष्टिकोण को अपने अध्ययन का माध्यम बनाया । यह दृष्टिकोण संगठन में मानवीय व्यवहार का वास्तविक अध्ययन (मूल्यमुक्त) करता है । यह औपचारिक संगठन को स्वीकार करता है लेकिन मात्र उसे ही संगठन नहीं मानता । इसके अनुसार संगठन “कैसा होना चाहिए” के स्थान पर “वह कैसा है” यह ज्यादा महत्वपूर्ण है ।

यह चार पद्धतियां अपनाता है:

i. मनोवैज्ञानिक:

राजनीति शास्त्र को प्रभावित करने के बाद प्रबन्ध और प्रशासन में भी मनोवैज्ञानिक का प्रभाव बढ़ने लगा है । प्रशासन एक सामूहिक व्यवहार होता है, जिससे व्यक्तिगत व्यवहार होता है, जिसमें व्यक्तिगत व्यवहार की भी विशिष्ट भूमिका होती है । प्रशासन में इसे सर्वप्रथम मिस मेरी पार्कर फीलट ने प्रयुक्त किया ।

उनके अनुसार संगठन में कार्यरत व्यक्तियों और उनके समूहों की इच्छाऐं पूर्वाग्रह, मूल्य आदि उनके व्यवहार को प्रभावित करते है, अत: प्रशासन का अध्ययन हो जाता है । ये समूह औपचारिक संगठन के भीतर जिन अनौपचारिक संगठनों को निर्मित करते है । वे उनकी मनोवैज्ञानिक प्रतिक्रियाओं के ही परिणाम होते है ।

ये संगठन औपचारिक संगठन को महत्वपूर्ण ढंग से प्रभावित और परिवर्तित तो करते ही है, उसकी कमियों की भी पूर्ति करते हैं । लेकिन इस पद्धति का प्रयोग औद्योगिक संगठनों में ही अधिक हुआ है, और वहां तो “औद्योगिक मनोविज्ञान” नाम की एक शाखा ही निर्मित हो गयी है ।

ii. केस पद्धति:

अमेरिका में जन्मी और विकसीत इस पद्धति में प्रशासन की किसी भी समस्या का अध्ययन उसका एक प्रकरण बनाकर किया जाता है । किसी समस्या के घटने पर उसका समाधान किस प्रकार किया गया और जो परिणाम प्राप्त हुआ, वह समाधान हेतु लिये गये निर्णयों के कितना अनुकूल रहा इसका सांगोपांग अध्ययन ही ”केस पद्धति” कहलाता है ।

इसके तहत पुराने मामलों का सम्पूर्ण विवरण समस्या का स्वरूप, उसकी परिस्थितियों, समाधान के लिए अपनायी गयी प्रक्रिया, प्राप्त परिणाम आदि का विश्लेषण रिकार्ड रूप में रखा जाता है । इसके अध्ययन से प्रशासकों को भारी समस्याओं निपटने में सहायता मिलती है ।

अमेरिका इस पद्धति का जन्मदाता है । वहां सामाजिक अनुसंधान परिषद की लोक प्रशासन परिषद ने घटना अध्ययनों को प्रकाशित करने का काम शुरू किया । 1952 में इस पद्धति का पहला प्रयोग ”इण्टर युनिवर्सिटी केस प्रोग्राम” में पेश किया गया ।

हेराल्ड स्टाइड ने ”लोक प्रशासन और नीति-प्रशासन” में ऐसे 20 मामलों का प्रकाशन किया । भारत में लोक प्रशासन संस्थान तथा मसूरी स्थित राष्ट्रीय प्रसाशन अकादमी (प्रशासक नामक पत्रिका में) ”केस स्टडी” प्रकाशित कर रहे है ।

जयदीप सिंह द्वारा सम्पादित ग्रन्थ ”केस स्टडिज इन पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन” में कई शोध प्रकरणों का उल्लेख किया गया है । इन अध्ययनों का जब व्यापक पैमाने पर प्रयोग होने लगेगा तब अनुभव आधारित निर्णयों के प्रयोग से सुनिश्चित सिद्धान्तों की स्थापना में मदद मिलेगी ।

इन अध्ययनों का प्रयोग प्रशासन में उसी प्रकार होने लगेगा जैसे न्यायिक प्रशासन, चिकित्सकीय विज्ञान में होता है । लेकिन इस हेतु पद्धति की इस त्रुटि को दूर करने की जरूरत है, जिसमें औपचारिक तकनीकों को इतना अधिक महत्व दिया जाता है कि समस्या के गम्भीर पक्ष उपेक्षित रह जाते हैं । प्रशासनों को इस अध्ययन पद्धति के प्रयोगकर्ताओं के साथ सहयोग करने की भी जरूरत है ।

iii. सांख्ययिकी परिणाम पद्धति:

यह कड़े, तथ्य आदि पर आधारित ऐसी पद्धति है जिसमें परिणामों को मापा जाता है । प्राकृतिक विज्ञानों के अध्ययनों में वैज्ञानिक पद्धति प्रमुख रूप से प्रयुक्त होती है, क्योंकि वहां ज्ञान को आकड़ों या तथ्यों में मापा जा सकता है ।

लोक प्रशासन जैसे सामाजिक विज्ञानों में जहां मूल्य जैसे अमापने योग्य तत्वों का ही बाहुल्य है, इस पद्धति की सीमित उपयोगिता है । फिर भी दो ऐसे क्षेत्र चिन्हित किये गये है, जहां यह प्रयुक्त हो सकती है ।

एक प्रशासनिक नीति पर जनमत की प्रतिक्रिया को जानने में और दूसरे प्रशासनिक एजेन्सी में किये गये काम के परिभाषा को मापने जैसे टाइपिस्ट का काम, स्टैनोग्राफर का काम, पत्र छँटाई का काम आदि ।

इससे काम में लगने वाले कामिकों की संख्या को निकाला जा सकता है, उनकी बजट व्यवस्था निर्धारित की जाती हैं । एक मापन पद्धति लागत-लेखा पद्धति है, जिसमें किसी सवा या काम के ईकाई भाग के व्यय को कलित किया जाता है । प्रारम्भिक धीमी गति के बाद इन पद्धतियों का प्रयोग प्रशासन में निरंतर बढ रहा है । वैसे इसमें भी निजी प्रशासन अग्रणी है ।

अमेरिकी प्रशासन ने इसका अधिकाधिक प्रयोग किया है । विशेषकर रिडले/साईमन के नगर-सेवा मापन सिद्धान्त के विकास के बाद । चूंकि लोक प्रशासन में मापे जाने वाले आकड़ों, परिणामों का कम प्रयोग होता है अत: यहां इसकी सीमित उपयोगिता है ।

iv. पारिस्थितकीय पद्धति:

लोक प्रशासन में पारिस्थिकीय का अर्थ वह बाहरी वातावरण है, जो सामाजिक-अर्थिक, राजनीतिक आदि के प्रभाव से निर्मित हुआ है । यह देश की संस्कृति होती है । इसमें स्थित प्रशासन की अपने इस पर्यावरण के साथ अंत क्रिया होती रहती है, और दोनों एक दूसरे को प्रभावित करते हैं ।

यदि प्रशासन को जीवित रहना है, तो उसे पर्यावरणीय परिवर्तनों के अनुकूल अपने को निरंतर परिवर्तित करना पडेगा । गाँस ने इसका सर्वप्रथम प्रयोग लोक प्रशासन में किया था, लेकिन फ्रेडरिग्स ने इसका खूब विकाम किया ।

3. व्यवस्था दृष्टिकोण (System Approach):

व्यवस्था उपागम का बर्टन लेंफी ने जीव विज्ञान में प्रथम प्रयोग किया था । सामाजिक विज्ञानों में सर्वप्रथम समाजशास्त्र में टालकाट पारसंस ने अपनी पुस्तक ”द सोशियल सिस्टम” (1953) में इसका प्रयोग किया । राजनीति शास्त्र में डेविड ईस्टन ने जबकि लोक प्रशासन में सर्वप्रथम बर्नार्ड ने इसका उपयोग किया था ।

लोक प्रशासन में व्यवस्था विश्लेषण के क्षेत्र में सबसे बड़ा योगदान हर्बट साइमन तथा चेस्टर बर्नाड का है । व्यवस्था उपागम संगठन का आधुनिक सिद्धांत है, जो 1950 के बाद विकसित हुआ । लोक प्रशासन में व्यवस्था दृष्टिकोण अन्त: सैद्धान्तिक दृष्टिकोण कहा जा सकता है, क्योंकि यह संगठन को उसकी सम्पूर्णता में समझने का प्रयास करता है और इस हेतु पूर्व के सभी सिद्धान्तों या दृष्टिकोणों में समन्वय स्थापित कर देता है ।

इसके पूर्व तक के दृष्टिकोण संगठन के किसी विशेष पक्ष के विश्लेषण तक ही सीमित रहे । यहजकोल द्रोर पहले विद्वान थे जिन्होंने सभी सिद्धान्तों में अन्त: सम्बन्धों को ढूंढा । संक्षेप में कहें तो व्यवस्था या प्रणाली दृष्टिकोण अन्य दृष्टिकोणों का एकीकृत स्वरूप है । इस दृष्टिकोण ने ही अन्य प्रचलित दृष्टिकोणों यथा शास्त्रीय, व्यवहारवादी, पारिस्थितिकीय आदि सभी के अन्त: संबंधों और उनमें निहित अर्थ को स्पष्ट किया है ।

चेस्टर बर्नाड ने ‘प्रशासनिक संगठन’ को एक ‘व्यवस्था’ के रूप में देखा जो कि मानवीय क्रियाओं से मिलकर बनती है तथा सदस्यों के प्रयास जो कि समन्वित होते है, इन क्रियाओं को एक ‘व्यवस्था’ में बदल देते हैं । इस प्रकार ‘प्रशासनिक-संगठन’ ‘सहकारी प्रयासों की एक व्यवस्था’ है।

एक व्यवस्था में कई भाग होते हैं जो अंतनिर्भर होते हैं । इसका अर्थ है कि एक भाग में परिवर्तन होने पर उसके अनुसार दूसरे भागों में भी परिवर्तन होता है । व्यवस्था उपागम के अनुसार संगठन भी एक व्यवस्था है जिसके अंतर्गत अन्य उपव्यवस्थाऐं होती हैं ।

इसी प्रकार कोई भी व्यवस्था एक पर्यावरण के अंतर्गत कार्य करती है । इस व्यवस्था की सभी उपव्यवस्थायें इसी एक पर्यावरण के अधीन होती हैं । प्रत्येक व्यवस्था एक सीमा में रहकर कार्य करती है । यह सीमा उसको उसके पर्यावरण से पृथक करती है ।

i. सरंचनात्मक-कार्यात्मक उपागम:

यह व्यवस्था दृष्टिकोण का ही संरचनात्मक कार्यात्मक स्वरूप हैं । इसे दो मानव शास्त्रियों मैलिनोवस्की तथा रेडक्लिफ ब्राउन ने विकसित किया । गेब्रिअल, आलमण्ड, एप्टर, पारसन्स, रिग्स, मर्टन ने इसका खूब प्रयोग किया है । इसके दो आधार हैं- संरचना और कार्य । सभी सामाजिक संरचनाएँ कुछ कार्यों को निर्धारित करती हैं ।

सभी संरचनाएं आवश्यक नहीं कि समान कार्य ही करें । यह जरूरी नहीं कि यदि कहीं कोई संरचना अनुपस्थिति है, तो उससे संबंधित कार्य नहीं हो रहे होंगे । इसकी मान्यता है, कि एक संरचना अनेक कार्य कर सकती है, तथा एक ही कार्य अनेक संरचनाओं द्वारा किये जा सकते हैं ।

एक कार्य दो या अधिक संरचनाओं को अंतर निर्भर कर देता है । कोई सामाजिक संरचना व्यवहार का ऐसा ढांचा होता है, जो सामाजिक व्यवस्था का एक मानक लक्षण हो । रिग्स ने एक समाज की 5 कार्यात्मक आवश्यकताऐं बतायी आर्थिक, सामाजिक, संचारिक, सांकेतिक और राजनीतिक । इनके आधार पर प्रशासनिक उपव्यवस्था का अध्ययन करके उसने तीन प्रसिद्ध माडल दिये थे – एग्रोरिया, ट्रांसिशिया और इन्डस्ट्रिया ।

इसके बाद से ही विचारक इस उपगम को तुलनात्मक लोक प्रशासन के अध्ययन में प्रयुक्त कर रहे हैं । इस उपागम में विकसित और विकासशील समाजों की प्रशसनिक पद्धतियों के बीच अंतर के महत्वपूर्ण विषयों की ढूंढ निकाला ।

ii. लोक नीति उपागम:

सरकारों के कल्याणकारी कार्यक्रमों में लगातार वृद्धि होने से लोक प्रशासन में नीति विषयक अध्ययनों की मांग भी बढ रही है । इससे लोक प्रशासन सामाजिक रूप से अधिक प्रासंगिक भी हो रहा है विशेषकर राजनीति-प्रशासन द्विभाजकता के स्थान पर दोनों के परस्पर सम्बन्धों की प्रगाढ़ता पर बल देने से प्रशासन का विश्लेषण लोक नीतियों के सन्दर्भ में किया जाना अधिक व्यवहारिक हो गया है ।

iii. राजनीतिक-आर्थिक उपागम:

एन्थोनी डाउन्स और टूलाक जैसे अर्थशास्त्रियों ने राजनीतिक समस्याओं के समाधान हेतु अर्थशास्त्र की विधियों और माडलों का प्रयोग करके इस अंतर विषयक उपगम को जन्म दिया । राजनीति शास्त्र की अर्थशास्त्र से इस निकटता का फायदा उसके एक अंग या उससे घनिष्ट संबंधित लोक प्रशासन को भी मिला ।

iv. मार्क्सवादी सर्वहारा उपागम:

मार्क्स ने लोक प्रशासन की मशीनरी (नौकरशाही) को शासक वर्ग के हाथों में ऐसा हथियार माना जो समाज के शोषण के लिए ही बनाया गया था । मार्क्स के अनुसार नौकरशाही की यह मशीनरी ही परिवर्तन को जन्म देगी तथा इसका अंत होने पर उसका कार्य समाज स्वयं ग्रहण कर लेगा ।

तब व्यक्तियों के स्थान पर वस्तुओं का प्रशासन होगा । मार्क्स और लैनिन के विपरित समाजवादी देशों में अब अपनी नौकरशाही को सर्वहारा वर्ग के तंत्र का पर्याय कहना शुरू कर दिया है । इससे लोक प्रशासन के अध्ययन को नया आयाम मिला है ।

वलेग, डंकरली, माउसेलिस, ब्रैवरमैन ने लोक प्रशासन का अध्ययन इस ”सर्वहारा तन्त्र” के सन्दर्भ में किया हैं । उपर्युक्त उपगमों, पद्धतियों के विश्लेषण उपरान्त एक बात ठोस रूप से कही जा सकती है, कि इनमें से प्रत्येक की लोक प्रशासन के अध्ययन में अपनी विशेष भूमिका तो है, लेकिन वह अपने आप में सम्पूर्ण नहीं है ।

स्पष्ट है, कि लोक प्रशासन के अध्ययन विश्लेषण में आवश्यकतानुसार इस सभी का प्रयोग करना होगा, तभी यह वांक्षित परिणाम दे पायेगा । इन सभी उद्देश्यों, पद्धतियों को अब विरोधी नहीं मानते हुए परस्पर सहयोगी और परिपूरक माना जाने लगा है, जो एक विषय के रूप लोक प्रशासन की परिपक्वास्था का परिचायक है ।