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लोक प्रशासन के क्षेत्र से मुख्य तात्पर्य इसके “अध्ययन की विषय वस्तु” का निर्धारण है । लोक प्रशासन में सरकार के मुख्य भाग अर्थात कार्यपालिका से संबंधित कार्य शामिल हो, या उसका विस्तार तीनों शाखाओं और उनके कार्यों तक माना जाय ।

क्षेत्र से संबंधित दूसरा मुद्‌दा यह है कि लोक प्रशासन नीति क्रियान्वयन तक सीमित है या नीति निर्माण में भी उसके प्रभावकारी भूमिका होती है । आधुनिक दृष्टिकोण ने प्रकृति के साथ ही लोक प्रशासन के क्षेत्र का व्याख्या को सरकार की नवीन अवधारणा से जोड़ा है । यह दृष्टिकोण राज्य के लोक कल्याणकारी स्वरूप में प्रशासन को प्राप्त बेहतर कार्यों और उत्तरदायित्व से जोड़कर काफी व्यापक स्वरूप प्रदान करता है, जो निरंतर विकासमान है ।

इस संदर्भ में मुख्य रूप से दो दृष्टिकोण प्रचलित हैं, जो इस प्रकार हैं:

1. व्यापक दृष्टिकोण (Comprehensive Approach):

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यह दृष्टिकोण दो बातें स्वीकार करता है:

(a) प्रथम- लोक प्रशासन सरकार के तीनों अंगों- कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका से संबंधित है ।

(b) द्वितीय- लोक प्रशासन क्रयान्वयन के साथ नीति निर्माण में भी भाग लेता है ।

डिमाक, निग्रो, फिफनर, वाल्डों, विलोबी, व्हाइट, एम. मार्क्स इसी दृष्टिकोण के तहत लोक प्रशासन को परिभाषित करते है । यहां एक विरोधाभास भी है । वह यह कि व्हाइट जैसे विद्वान इस दृष्टिकोण के एक भाग (सभी अंगो से संबंधित कार्य) का समर्थन करते हैं लेकिन दूसरे भाग (नीति निर्माण) पर वे खरे नहीं उतरते, अपितु प्रशासन नीति तक सीमित कर देते है ।

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अतः इस दृष्टिकोण के तहत वे सभी विद्वान रखे गये हैं जो इसके न्यूनतम एक भाग का समर्थन करते हों । समर्थक विद्वान कहते हैं की विधायिका में विधेयक पारित होते समय और न्यायपालिका में मुकदमें की सुनवाई के समय भी प्रशासनिक कार्यवाहियां होती हैं ।

अत: कार्यपालिका के साथ इन क्षेत्रों से संबंधित गतिविधियों को भी शामिल करने पर ही लोक प्रशासन का क्षेत्र पूर्ण बनता है । लेकिन आलोचकों को डर है कि इससे लोक प्रशासन का क्षेत्र अस्पष्ट और अव्यवहारिक हो जाएगा तथा उसका अपने मूल क्षेत्र (कार्यपालिका) से भटकाव भी संभव है । नीति निर्माण में घुसपैठ उसकी राजनीति विज्ञान से टकराहट को जन्म दे सकती है ।

2. संकुचित दृष्टिकोण (Narrow Approach):

यह व्यापक दृष्टिकोण का ठीक उल्टा है, अर्थात प्रथम तो लोक प्रशासन को मात्र कार्यपालिका तक सीमित कर देता है, दूसरे नीति निर्माण के क्षेत्र को भी उससे बाहर रखता है । साइमन, गुलिक, मैक्विन, मरसन जैसे विद्वान लोक प्रशासन को कार्यपालिका से ही मुख्यतः संबंधित करते है ।

इस लिहाज से देखा जाए तो लोक प्रशासन की विषय-वस्तु कार्यपालिका, उसके प्रकार, उसके कार्य, सामान्य प्रशासकीय क्रियाओं, संगठनात्मक समस्याओं, कार्मिक प्रशासन, वित्तीय प्रशासन एवं इन सबके लिए उत्तरदायित्व और नियंत्रण के उपाय तक केन्द्रीत हो जाती है । दूसरे शब्दों में विधि निर्माण और उसकी प्रक्रिया, न्याय-प्रशासन की गतिविधियां आदि उसकी परिधि से बाहर होगी ।

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यह दृष्टिकोण इस बात पर भी बल देता है कि नीति निर्माण राजनीतिज्ञों का काम है, प्रशासकों का नहीं । अर्थात यह दृष्टिकोण राजनीति-प्रशासन द्विभाजकता पर आधारित है । इस दृष्टिकोण का मुख्य लाभ सीमित लेकिन स्पष्ट क्षेत्र की प्राप्ति है, जिससे उसका व्यवस्थित और अधिक प्रभावशाली अध्ययन सुनिश्चित हो जाता है ।

लोक प्रशासन के कार्यों में महत्वपूर्ण सुधार अधिकाधिक संभव बन पड़ते हैं । इसका मुख्य दोष यह है कि लोक प्रशासन की व्यवहारिक भूमिका की उपेक्षा होती है । प्राय: देखा गया है कि सरकार के सभी कार्यों में प्रशासन की स्पष्ट भूमिका होती है ।

इसके अतिरिक्त प्रशासकगण 3 प्रकार से नीति-निर्माण से संबंधित होते हैं:

1. मंत्रियों को नीति निर्माण के लिए आवश्यक तथ्य, कड़े, परामर्श देते है,

2. निर्मित नीतियों, कानूनों को क्रियान्वित करने के लिए प्रशासनिक स्तरों पर उप-नीतियों के निर्माण की एक शृंखला बन जाती है,

3. अधीनस्थ विधान (प्रदन्त व्यवस्थापन) के तहत नीतियों का निर्माण करते हैं ।

(1) लोक प्रशासन कार्यपालिका का अध्ययन है या सम्पूर्ण सरकार का अध्ययन है:

i. संकुचित दृष्टिकोण:

मात्र कार्यपालिका तक ही लोक प्रशासन को सीमित रखना चाहिए । साइमन, पर्सी मेक्विन, लूथर गुलिक इस मत के प्रबल समर्थक हुए ।

लाभ:

लोक प्रशासन सीमित क्षेत्र में अधिक स्पष्ट रहेगा और उसकी अध्ययन सामग्री व्यवस्थित रहेगी ।

दोष:

प्रशासन की गतिविधियां विधायिका और न्यायपालिका में भी सम्पादित होती हैं, उनकी उपेक्षा होती है ।

संकुचित दृष्टिकोण के तहत लोक प्रशासन की विषयवस्तु मात्र कार्यपालिका से संबंधित मानी जाती है जैसे प्रशासनिक अधिकारी तन्त्र, सामान्य प्रशासन, कार्मिक प्रशासन, वित्तीय प्रशासन, प्रशासकीय नियन्त्रण और उत्तरदायित्व, सामग्री प्रबन्धन आदि ।

ii. व्यापक दृष्टिकोण:

लोक प्रशासन सरकार के तीनों अंगों से संबंधित है । विलोबी, व्हाइट, निग्रो, एफ.एम. मार्क्स, फिफनर इस मत के समर्थक हैं ।

लाभ:

लोक प्रशासन की व्यवहारिक भूमिका की स्वीकृति । विषयवस्तु अधिक पूर्ण बनती है ।

दोष:

विस्तारित क्षेत्र अस्पष्टता और भ्रम का कारण बनता है । लोक प्रशासन की राजनीतिक शास्त्र में घुसपैठ होती है ।

(2) लोक प्रशासन नीति क्रियान्वयन मात्र है या नीति निर्माण भी है:

ये दृष्टिकोण राजनीति-प्रशासन द्विभाजकता और उनके अंतर संबंधों को लेकर प्रकट हुएं है ।

संकुचित दृष्टिकोण:

लोक प्रशासन का मुख्य कार्य राजनीतिज्ञों द्वारा निर्मित नीतियों को क्रियान्वित करना है । नीति-निर्माण तो राजनीतिक कार्य मात्र हैं, प्रशासनिक नहीं । मरसन, विल्सन, गुडनाँऊ, व्हाइट, जैसे विद्वान इस मत के समर्थक हुए है । वस्तुत: यह दृष्टिकोण राजनीति-प्रशासन द्विभाजकता का पूर्णत: समर्थन करता है ।

लाभ:

स्पष्ट क्षेत्र की प्राप्ति और कार्य प्रणाली में अधिक अनुसंधान और सुधार संभव ।

दोष:

व्यवहारिक भूमिका की उपेक्षा ।

व्यापक दृष्टिकोण:

इसके अनुसार लोक प्रशासन व्यवहारिक रूप से नीति निर्माण में भी तीन प्रकार से भाग लेता है:

(i) राजनीतिज्ञों (मंत्रीगण) को आवश्यक तथ्य-सूचना के साथ सलाह देते हैं ।

(ii) प्रदत्त व्यवस्थापन के तहत नीतियों का निर्माण करते है ।

(iii) विभिन्न नीतियों को लागू करते समय भी उन्हें उप नीतियां निर्मित करना पड़ती है ।

इस दृष्टिकोण के समर्थक विद्वानों में नीग्रो, एपीलबी, डिमॉक, फिफनर आदि शामिल हैं ।

लाभ:

लोक प्रशासन की व्यवहारिक भूमिका स्वीकृत । लोक प्रशासन और राजनीति के अंतरसंबंधों की स्वीकृति । विषय क्षेत्र यथार्थ के निकट ।

दोष:

राजनीति शास्त्र का अतिक्रमण । लोक प्रशासन की मूल भूमिका के साथ टकराव और उसके वैज्ञानिक स्वरूप के मार्ग में बाधा ।

नोट:

लोक प्रशासन का मुख्य कार्य क्षेत्र नीति क्रियान्वयन है, लेकिन अपनी योग्यता, अनुभव के बल पर वह नीति निर्माण में भी भूमिका निभाता है, जिसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती । अतएव अध्ययन क्षेत्र में उसकी इस भूमिका का अध्ययन भी विश्लेषण योग्य है ।

(3) पोस्डकार्ब दृष्टिकोण (संकुचित दृष्टिकोण):

यह दृष्टिकोण दो कारणों से प्रकट हुआ:

(i) प्रबंधकीय विद्वानों द्वारा प्रशासन को प्रबंध मानना

(ii) एक सार्वभौमिक प्रशासनिक विज्ञान की उनकी संकल्पना ।

सर्वप्रथम फेयोल और उर्विक ने उन सिद्धान्तों की चर्चा की, जिनमें ‘पोस्तकार्ब’ की गतिविधियां सम्मिलित थीं । अन्तत: लूथर गुलिक ने 7 प्रबंधकीय कार्यों के अंग्रेजी शब्दों के प्रथमाक्षरों को लेकर POSDCORB विचारधारा प्रतिपादित की ।

P-प्लानिंग, अर्थात नियोजन । यह प्रशासन की पहली क्रिया है, जिसके तहत किये जाने वाले कार्यों की रूपरेखा तैयार की जाती है । इसके अन्तर्गत ही उद्देश्य प्राप्ति के लिए आवश्यक कार्य-नितियों का निर्धारण किया जाता है, जैसे क्या करना है, कौन करेगा, कैसे करेगा, कब करेगा आदि का आकलन और नियोजन ।

O-आर्गेनाइजिंग अर्थात संगठित करना । इसके अन्तर्गत प्रशासन कार्यों का विभाजन और आवंटन इस प्रकार करता है कि-

1. सही व्यक्ति को सही काम मिल सके ।

2. प्रत्येक व्यक्ति को कार्य के अनुपात में सत्ता सौंपी जा सके और तदनुरूप उसका उत्तरदायित्व तय किया जा सके ।

3. कार्मिकों के मध्य कार्य संबंधों को निर्धारित करना ।

S-स्टाफिंग अर्थात कार्मिक व्यवस्था । संगठन की आवश्यकतानुरूप व्यक्तियों की प्राप्ति, उनका प्रशिक्षण और पदस्थापना ।

D-डायरेक्टिंग अर्थात निर्देशित करना । कार्मिकों को कार्यों-उद्देश्यों की ओर प्रवृत्त करना तथा यह सुनिश्चत करना कि वे अपने कार्य निर्धारित अपेक्षानुरूप करें । इसमें नियन्त्रण शामिल है ।

Co– कोआर्डीनेटिंग अर्थात समन्वय करना । संगठन की सभी ईकाइयों, उपइकाइयों, कार्मिकों आदि के मध्य उद्देश्यों की एकता स्थापित करना, उनमें सहयोग या टीम भावना उत्पन्न करना तथा संघर्षों को टालना प्रशासन का प्रमुख काम है, जिसे समन्वय कहते है ।

R-रिर्पोटिंग या प्रतिवेदन । अधीनस्थ स्तरों की गतिविधियों से उच्च प्रबन्धक वर्ग प्रतिवेदन के माध्यम से अवगत होता है । ऊपर से अधीन स्तरों पर आदेश इसी आधार पर जारी होते हैं । इसके तहत उच्च-अधीनस्थ दोनों सूचित रहते हैं।

B-बजटिंग या वित्तीय व्यवस्था । प्रशासन पर ही अपनी समस्त वित्तीय जरूरतों को पूरा करने तथा आय व्यय की देखरेख की जिम्मेदारी होती है । लोक प्रशासन में वित्तीय जरूरतों का आकलन राजनीतिक कार्यपालिका करती है और प्रशासकगण तदनुरूप कार्य करते हैं।

विशेषताएं:

पोस्डकार्ब की विभिन्न विशेषताएं है:

(i) यह प्रशासन के क्षेत्र को निर्धारित करता है लेकिन पोस्डकार्ब ही प्रशासन का सम्पूर्ण क्षेत्र नहीं है ।

(ii) यह प्रशासन को प्रबन्ध के रूप में देखता है ।

(iii) यह प्रबन्धकीय तकनीकों का वर्णन है ।

(iv) यह प्रशासनिक क्षेत्र के सार्वभौमिक स्वरूप की वकालत करता है ।

(v) यह प्रशासनिक स्वरूपों के अन्तर को खारिज करता है ।

(vi) यह पोस्डकार्ब में निहित सिद्धान्तों के द्वारा ”प्रशासनिक विज्ञान” की प्राप्ति का एक आधार प्रस्तुत करता है ।

(vii) पोस्डकार्ब औपचारिक सांगठनिक सिद्धान्त है ।

(viii) यह प्रशासन के क्षेत्र से अधिक उसके सिद्धान्तों की व्याख्या करता है ।

(ix) यह प्रशासनिक कार्यों या सिद्धान्तों का सामान्यीकरण है । अर्थात इसे विशिष्ट रूप में ग्रहण नहीं किया जाता ।

(x) यह तकनीक उन्मुख है, विषय-उन्मुख नहीं ।

गुण:

पोस्डकार्ब के कतिपय गुण इस प्रकार हैं:

(i) प्रशासन के क्षेत्र के स्पष्ट निर्धारण का पहला प्रयास पोस्डकार्ब के रूप में हुआ ।

(ii) ये ऐसे कार्य हैं, जो सामान्यतया सभी प्रशासनों में पाए जाते हैं ।

(iii) पोस्डकार्ब के बगैर कोई प्रशासन नहीं हो सकता ।

(iv) प्रशासन के कार्यों को संक्षिप्त और व्यवस्थित रूप में प्रस्तुत किया, जिसे कोई भी समझ सकता है ।

दोष:

पोस्डकार्ब का दोष उसकी अपूर्णता में है, न कि शून्यता में । उसे प्रशासनिक कार्यों के एक भाग के रूप में स्वीकारा गया है, यद्यपि दूसरे भाग की उपेक्षा के कारण उसे आलोचित भी किया गया ।

(i) यह मात्र प्रशासन की तकनीकों तक सीमित है ।

(ii) यह एक कल्पनातीत दृष्टिकोण है, जिसमें आदर्शवाद अधिक तथा व्यवहारिक कम है ।

(iii) यह प्रशासन के क्षेत्र को अत्यन्त संकुचित कर देता है ।

(iv) यह पाठ्‌य विषय वस्तु की पूर्णत: उपेक्षा करता है- लेविस मेरियम की आलोचना ।

(v) यह मानवीय तत्व की उपेक्षा करता है- मानववादी या मेयोवादियों की आलोचना ।

(vi) यह एक स्वेच्छाचारी दृष्टिकोण है ।

(vii) पोस्डकार्ब जैसे सिद्धान्त कहावतों से अधिक कुछ नहीं- व्यवहारवादी साइमन की आलोचना ।

(viii) यह मात्र सामान्य तकनीकों का वर्णन करता है, क्षेत्र के प्रशासन के लिए आवश्यक विशिष्ट तकनीकों का

(ix) लोक प्रशासन के उद्देश्य स्पष्ट नहीं करता है ।

प्रमुख आलोचनाएं:

(i) लेबीस मेरियम की आलोचना:

पोस्डकार्ब प्रशासन के एक स्वरूप को ही प्रस्तुत करता है, जबकि दूसरे प्रमुख भाग को छोड़ देता है । किसी भी संगठन के विवेकपूर्ण प्रशासन के लिए उसकी पाठ्‌य विषय वस्तु की गहरी जानकारी आवश्यक है । पोस्डकार्ब मात्र वे तकनीक जिनके द्वारा प्रशासन किया जाना लेकिन जहां कार्य किया जाना है, वह अधिक महत्वपूर्ण है, जिसको पोस्डकार्ब में शामिल नहीं किया गया ।

(ii) मेयोवादियों की आलोचना:

हार्थन प्रयोगों ने सिद्ध कर दिया है कि संगठन में काम करने वाले मनुष्यों और उनकी सेवा-दशाओं की उपेक्षा करके उत्पादकता नहीं बढायी जा सकती । पोस्डकार्ब में इस तथ्य को नजर अंदाज किया गया है । पोस्डकार्ब तकनीकें तभी सफल हो सकती है, जबकि उनको प्रयुक्त करने वाले मनुष्यों की दशाओं और सम्बन्धों पर भी ध्यान दिया जाए ।

(iii) व्यवहारवादी साइमन की आलोचना:

पोस्डकार्ब सहित सभी यांत्रिकी सिद्धान्तों की आलोचना करते हुऐ साइमन ने इन्हें अव्यवहारिक और यांत्रिक कहा जो कहावतों से ज्यादा कुछ नहीं है । उसने पोस्डकार्ब की आलोचना ”क्षेत्र” के बजाय ”प्रशासनिक सिद्धान्तों” के रूप में की ।

नोट:

पोस्डकार्ब के प्रखर आलोचक व्यवहवादी ही थे ।

(4) पाठ्‌य विषय दृष्टिकोण:

पोस्डकार्ब की अपूर्णता और अव्यवहारिकता की प्रतिक्रिया हुई और लेविस मेरियम ने ”पब्लिक सर्विस आफ स्पेशल ट्रेनिंग” (1939) नामक पुस्तक में पोस्टकार्ड का स्वागत करते हुऐ भी इसे प्रशासन का मात्र एक पक्ष कहते हुऐ आलोचित किया ।

मेरियम के अनुसार प्रत्येक प्रशासन के दो पक्ष होते हैं:

(1) पाठ्य विषय वस्तु अर्थात वह क्षेत्र या समस्या जहां काम किया जाना है । लोक प्रशासन में ये क्षेत्र शिक्षा, सुरक्षा, स्वास्थ्य, परिवहन आदि होते है ।

(2) पोस्डकार्ब जैसी तकनीकें, जिनके द्वारा उक्त क्षेत्रों के लिए योजना बनाकर उन्हें क्रियान्वित किया जाता है ।

मेरियम के अनुसार पोस्डकार्ब ऐसी तकनीकें हैं, जो प्रत्येक क्षेत्र के लिए विशिष्ट होती है, क्योंकि प्रत्येक क्षेत्र की अपनी प्रकृति और विषय वस्तु होती है, जिसके अनुसार कतिपय विशिष्ट तकनीकों की जरूरत पडती है । उदाहरण के लिए स्वास्थ्य विभाग के लिए एक सामान्य योजना उसी प्रकार बनायी जाएगी, जैसी शिक्षा के लिए ।

लेकिन स्वास्थ्य योजना के लिए यह जानकारी जरूरी है कि यह किन लोगों (मरीजों) के लिए है, वर्तमान में स्वास्थ्य सेवाओं की स्थिति क्या है ? पूर्व में किए गए कार्यों का क्या प्रभाव हुआ है ? स्पष्ट है कि निचले स्तर के ये अन्तर अधिक महत्वपूर्ण है, जो स्वयं भी ”पोस्डकार्ब” को प्रभावित करते हैं । पोस्डकार्ब में इन्हीं गतिविधियों की उपेक्षा की गयी है ।

विशेषताएं: पाठ्य विषय दृष्टिकोण की विशेषताएं हैं:

(a) यह पोस्डकार्ड की अपूर्णता की प्रतिक्रियास्वरूप अस्तित्व में आया ।

(b) यह पोस्डकार्ब को पूर्णत: अस्वीकार नहीं करता, अपितु उस प्रशासन के एक कम महत्वपूर्ण भाग के रूप में स्वीकार करता है ।

(c) यह पोस्डकार्ब का विरोधी नहीं, अपितु परिपूरक है । अर्थात उसकी कमी को दूर करता है ।

मेरियम, लोक प्रशासन दो फलक वाली कैंची के समान एक औजार है । इसका एक फलक पोस्डकार्ब का ज्ञान है दूसरा फलक पाठ्‌य विषय वस्तु का ज्ञान है । प्रशासन तभी प्रभावशाली होगा जब दोनों फलक अच्छी तरह मौजूद हों ।

(d) यह दृष्टिकोण “पोस्डकार्ब” से अधिक महत्व ”पाठ्‌य विषय वस्तु” को देता है ।

(e) इसके अनुसार पाठ्‌य विषय वस्तु की भी अपनी विशेष तकनीके होती हैं, जिनकी उपेक्षा नहीं की जा सकती ।

(f) इस दृष्टिकोण का मुख्य बल उन कार्यों और सेवाओं पर है जो प्रशासनिक अभिकरण प्रदान करता है, न कि उनकों करने के तरीकों पर ।

(g) इसके अनुसार प्रत्येक प्रशासन की मुख्य समस्या उसकी पाठ्य विषय वस्तु से संबंधित होती है ।

(h) यह पाठ्य विषय वस्तु के माध्यम से प्रशासनिक क्षेत्र पर पर्यावरणीय प्रभाव को (आंशिक रूप से) स्वीकार करता ।

(5) लोक कल्याणकारी या आदर्शात्मक दृष्टिकोण:

यह दृष्टिकोण लोक प्रशासन को उतना ही लोक कल्याणकारी और आदर्शवादी मानता है, जितना कि राज्य को । लोक कल्याणकारी दृष्टिकोण ने राज्य के कार्यों और दायित्वों में भारी वृद्धि की है और परिणामस्वरूप लोक प्रशासन की एजेन्सी पर भी इनका उतना ही दायित्व आ गया है ।

लोक प्रशासन पर ही राज्य के इन उद्देश्यों की पूर्ति अवलम्बित है । वाकर के शब्दों में, ”लोक प्रशासन में संपूर्ण सरकार के कार्यकलाप समा गये है ।” वस्तुत: वे एक दूसरे में इतने अधिक व्याप्त हो गये हैं कि लोक प्रशासन और राज्य में आज कोई अंतर नहीं रह गया है । व्हाइट के अनुसार लोक प्रशासन अच्छी जिन्दगी का साधन बन गया है । जनता यह स्वीकार करने लगी है कि बिना प्रशासन के उसकी सुरक्षा और सुविधाएं क्षण में ध्वस्त हो जाएंगी ।

कई विद्वान लोक प्रशासन को राज्य के सामाजिक-आर्थिक दर्शन का प्रतिबिम्ब भी मानते हैं, क्योंकि वही है जो सामाजिक परिवर्तन करने तथा आर्थिक विषमता मिटाने का उत्तरदायित्व पूरा कर रहा है । नेहरू जी ने उसे सभ्यता के रक्षक के साथ सामाजिक आर्थिक परिवर्तन का “महान साधन” भी निरूपित किया ।

(6) सम्यक दृष्टिकोण:

यहां हम उक्त दृष्टिकोणों की आलोचना के बजाय वास्तविक स्थितियों पर आधारित लोक प्रशासन की वर्तमान अवस्था का वर्णन संक्षिप्त में कर रहे हैं । इसे सम्यक दृष्टिकोण कहने का उद्देश्य यह नहीं है कि पुराने दृष्टिकोणों के मध्य कोई साम्य ढूंढा जाये, या किन्हीं अतिवादी विचारों के मध्य बीच का रास्ता निकाला जाये, अपितु सिर्फ यह इस बात में सम्यक है कि इसमें वर्तमान संदर्भों और व्यवहारिक परिस्थितियों के प्रति यथायोग्य नजरिया रखे जाने की चिंता है ।

लोक प्रशासन की भूमिका, उसके कार्य और उसका संगठन राजनीतिक, सामाजिक पर्यावरण द्वारा कॉफी हद तक निर्धारित होता है, यह पारिस्थितिकीय और व्यवस्था उपागमों के अध्ययनों ने सिद्ध कर दिया है । इसलिये विकसित देशों के संदर्भ वाले लोक प्रशासन को विकासशील देशों के लोक प्रशासन से तुलना करना बेईमानी होगी ।

असल में लोक प्रशासन दोनों स्थानों पर मौजूद है लेकिन कर्तव्यों-दायित्वों में देश से देश तक, समाज से समाज तक इतने अंतर व्याप्त रहते है कि हम उनके लिए कोई एक दृष्टिकोण नहीं अपना सकते । विकासशील देशों में राज्य की भूमिका चुनौतीपूर्ण लोक कल्याण की है जबकि वहां का प्रशासन अलोकतंत्रीय भावना से ग्रस्त है । इस विरोधाभास को विकसित देशों में नहीं देखा जा सकता ।

क्या हम विकासशील देशों के लोक प्रशासन को लोक कल्याणकारी दृष्टिकोण के तहत विश्लेषित कर सकते हैं ? वास्तविकता तो यह है कि ऐसे देशों में प्रशासन राजनीति पर हावी होता है और उसकी अनेक जनकल्याणकारी नीतियों के क्रियान्वयन में बाधा भी डालता है ।

अतः इन व्यवहारिक पहलुओं की उपेक्षा लोक प्रशासन के क्षेत्र को एक पक्षीय (सैद्धांतिक) बनाकर उसमें सुधारों की प्रेरणा को समाप्त कर सकती है। आवश्यक है कि लोक प्रशासन का अध्ययन-विश्लेषण ”जनता” की स्थिति, मांग, अपेक्षा अर्थात संपूर्ण जन-संरचना को केंद्र में रखकर किया जाएं ।