Read this article in Hindi to learn about the views of C.I. Barnard on human relations.

चेस्टर इरविंग बर्नार्ड (1886-1961) ने एम.पी. फॉलेट द्वारा शुरू की गई सिद्धांत को और विकसित किया । उन्होंने था संगठन का एक सामाजिक व्यवस्था के रूप में देखा । उन्हें ‘सामाजिक व्यवस्था स्कूल’ का आध्यात्मिक पिता माना जाता है ।

बर्नार्ड को लोक प्रशासन में व्यवहारवादी आंदोलन के अग्रणियों में से एक माना जाता है । दरअसल, वे पहले पूर्ण व्यवहारवादी हैं । उन्होंने प्रशासन और प्रबंधन के सामाजिक-मनोवैज्ञानिक कारकों पर जोर दिया । उनके लिए प्रशासन एक सहकारी सामाजिक कार्यवाही है ।

बर्नार्ड के विचारों ने हरबर्ट साइमन के निर्णय निर्माण सिद्धांत, क्रिस आर्गिरिस, रेंसिस लिकर्ट और डगलस मैकग्रेगर के नव मानव संबंधी, अब्राहम मास्लोव और फ्रेडरिक हर्जवर्ग के प्रेरणा सिद्धांत, फिलिप सेल्जनिक के संस्थागत मॉडल और सांगठनिक विश्लेषण के व्यवस्था उपागम को प्रभावित किया ।

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सांगठनिक व्यवहार की समझ में बर्नार्ड का योगदान प्रशासनिक चिंतन के विकास के अहम मील के पत्थरों में से एक है । उनकी रचनाओं में दि फंक्शस ऑफ दि एक्जिक्युटिव (1938) और ऑर्गनाइजेशन एंड मैनेजमेंट (1948) शामिल हैं ।

बर्नार्ड द्वारा प्रतिपादित प्रमुख अवधारणाएँ और सिद्धांत निम्न है- एक सहकारी व्यवस्था के रूप में औपचारिक संगठन बर्नार्ड ने संगठन को ”दो या अधिक व्यक्तियों के सोचे-समझे तौर पर समन्वित गतिविधियों की व्यवस्था” के रूप में परिभाषित किया ।

उन्होंने कहा कि कोई संगठन तब अस्तित्व में आता है जब लोग एक-दूसरे से बातचीत कर पाने में सक्षम हों और एक समान उद्देश्य की प्राप्ति के लिए एक दूसरे की मदद करने के इच्छुक हों ।

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अत: बर्नार्ड के अनुसार संगठन के तीन तत्व होते हैं:

(i) संचार,

(ii) सहकारी सेवा की इच्छा और

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(iii) समान प्रयोजन (उद्देश्य) ।

एक नैसर्गिक व्यवस्था के रूप में अनौपचारिक संगठन:

बर्नार्ड ने अनौपचारिक संगठन को ”व्यक्तिगत संपर्कों के योग और लोगों के संघीय समूह के रूप में परिभाषित किया है । वे मानते थे कि अनौपचारिक संगठन नैसर्गिक संगठन होते हैं और औपचारिक संगठनों (जो कृत्रिम होते हैं) को जन्म देते हैं । दोनों ही संगठन अनिवार्य रूप से सह अस्तित्व में रहते हैं ।

बर्नार्ड के अनुसार औपचारिक संगठन अनौपचारिक संगठनों द्वारा जीवंत और परीक्षित होते हैं, जो ये काम करते हैं:

(i) उन अमूर्त तथ्यों, मतों, सुझावों संदेहों का संचार, जो बिना मुद्दा बने औपचारिक रास्तों से नहीं गुजर सकते ।

(ii) सेवा करने की इच्छा और वस्तुगत प्राधिकार की स्थिरता को नियंत्रित करके संगठन की अखंडता को कायम रखना (सामाजिक मनोवैज्ञानिक एकीकरण) ।

(iii) वैयक्तिक अखंडता, आत्मसम्मान और स्वतंत्र चयन के अहसास को बनाए रखना । बर्नार्ड अनौपचारिक संगठन को ”व्यक्तियों के व्यक्तित्व को औपचारिक संगठन के उन प्रभावों के विरुद्ध कायम रखने के माध्यम के रूप में देखते हैं जो व्यक्तित्व का विघटन करते हैं ।”

योगदान-संतुष्टि संतुलन का सिद्धांत:

बर्नार्ड के अनुसार एक संगठन का जीवित बने रहना इसके भागीदारों के योगदानों और संतुष्टि के बीच संतुलन पर निर्भर करता है । भागीदार संगठन में योगदान करते हैं, संगठन भागीदारों को संतुष्टि देता है । उन्होंने बताया कि व्यक्तिगत भागीदार संगठन में तभी तक रहेगा जब तक उसके प्रोत्साहन उसके योगदानों पर भारी पड़े (व्यक्तिगत संतुष्टि के अर्थों में) । दूसरे शब्दों में, संगठन तब तक जीवित रहता है जब तक उसमें यह क्षमता होती है कि वह व्यवस्था के संतुलन को बनाए रखने के लिए पर्याप्त मात्रा में प्रभावी प्रोत्साहन दे सके है ।

अत: बर्नार्ड ने क्लासिकीय आर्थिक मनुष्य अवधारणा को खारिज कर दिया और संगठन में लोगों की प्रेरणा के संबंध में मानव संबंधवादियों के साथ मोटे तौर पर सहमति जताई ।

उन्होंने चार विशिष्ट प्रेरणाओं के लिए संतुष्टि के चार स्रोतों की खोज की:

(i) भौतिक प्रेरणा जैसे धन,

(ii) उपाधि के लिए वैयक्तिक गैर भौतिक अवसर,

(iii) काम की वांछित भौतिक स्थितियाँ,

(iv) आदर्श कल्याण, जैसे कामगारी का गौरव आदि ।

किंतु बर्नार्ड ने कहा कि- ”आजीविका स्तर से आगे भौतिक प्रेरणा अप्रभावी होती है ।”

उन्होंने चार प्रकार के ‘सामान्य प्रोत्साहक’ भी बताए । वे हैं:

(i) सहयोगियों के साथ अनुकूलता पर आधारित जुड़ा हुआ आकर्षण ।

(ii) आदत में ढली पद्धतियों और दृष्टिकोणों के अनुसार काम करने की स्थितियों का अनुकूलन ।

(iii) घटनाओं के दौरान बढ़ी हुई भागीदारी के अहसास का अवसर ।

(iv) दूसरों के साथ संपर्क-संचार की स्थितियाँ, सामाजिक संबंधों में वैयक्तिक आराम पर आधारित स्थिति ।

प्राधिकार का स्वीकृति सिद्धांत:

बर्नार्ड ने वेबर व फेयॉल द्वारा समर्पित प्राधिकार के पारंपरिक (क्लासिकीय या स्थितिगत या औपचारिक) सिद्धांत को खारिज कर दिया । उन्होंने प्राधिकार के स्वीकृति सिद्धांत की वकालत की । इस सिद्धांत के अनुसार श्रेष्ठतर के प्राधिकार की वैधता का आधार अधीनस्थ द्वारा इसकी ‘स्वीकार्यता’ है । अर्थात् श्रेष्ठतर प्राधिकार का प्रयोग तभी कर सकता है जब वह अधीनस्थ द्वारा स्वीकारा जाता हो ।

बर्नार्ड प्राधिकार को किसी औपचारिक संगठन में संचार (क्रम) के चरित्र के रूप में परिभाषित करते हैं जिसकी बदौलत यह संगठन के सहायक या सदस्य द्वारा उन कामों के निर्धारक या संचालक के रूप में स्वीकारा जाता है जिन्हें वह ‘संगठन के सम्बंध में’ करता है या नहीं करता है ।

बर्नार्ड ने कहा कि कोई अधीनस्थ किसी संचार को प्राधिकृत तभी मानेगा जब निम्न चार शर्तें एक साथ पूरी होती हों:

(i) जब वह संचार समझता हो (अर्थात् बोधगम्यता) ।

(ii) जब संगठन के उद्देश्यों से संचार असंगत न हो ।

(iii) जब पूर्ण रूप से संचार उसके व्यक्तिगत हितों के अनुकूल हो ।

(iv) जब वह संचार के अनुसार कार्य करने के लिए मानसिक और शारीरिक रूप से सक्षम हो (अर्थात् सुगमता) ।

बर्नार्ड के अनुसार प्राधिकार की स्वीकार्यता को संगठन के किसी भागीदार के तटस्थता के क्षेत्र से सहायता मिलती है । उन्होंने कहा कि जब तक आदेश इस क्षेत्र में पड़ेंगे तब तक वे माने जाएँगे । अत: कार्यकारियों को इस क्षेत्र में पड़ने वाले आदेश ही देने चाहिए । तटस्थता के क्षेत्र की सीमा योगदान संतुष्टि संतुलन द्वारा निर्धारित होती है ।

संचार के सिद्धांत:

बर्नार्ड ने संचार के सात सिद्धांत बताए जो किसी संगठन में वस्तुगत प्राधिकार को स्थापित करने और बनाए रखने के लिए महत्वपूर्ण है:

(i) संचार के मार्ग निर्धारित होने चाहिए ।

(ii) संगठन के हर व्यक्ति के पास संचार का एक निर्धारित औपचारिक मार्ग होना चाहिए ।

(iii) संचार की रेखा को जितना संभव हो, प्रत्यक्ष और छोटा होना चाहिए ।

(iv) संचार केंद्रों के रूप में कार्य कर रहे व्यक्तियों की योग्यता पर्याप्त होनी चाहिए ।

(v) संचार की पूर्ण औपचारिक रेखा का सामान्यत: पालन होना चाहिए ।

(vi) संगठन के काम करते समय संचार की रेखा में बाधा नहीं आनी चाहिए ।

(vii) हर संचार प्रभावित होना चाहिए ।

निर्णय निर्माण में रणनीतिक कारक:

बर्नार्ड ने निर्णय निर्माण के सिद्धांत में एक महत्वपूर्ण योगदान दिया । उन्होंने व्यक्तिगत निर्णय निर्माण की बजाय सांगठनिक निर्णय निर्माण पर जोर दिया । सांगठनिक निर्णय निर्माण सोचे समझे आकलन और चिंतन का नतीजा है जबकि व्यक्तिगत निर्णय निर्माण अचेतन स्वत: स्फूर्त और प्रतिक्रियाशील कारकों का नतीजा है ।

इस प्रकार संगठन द्वारा लिए गए निर्णय ज्यादा तर्कसंगत और तार्किक होते हैं बजाय व्यक्तियों द्वारा लिए गए व्यक्तिगत निर्णयों के । बर्नार्ड ने कहा कि किसी निर्णय निर्माता को संगठन के उद्देश्यों की पूर्ति को प्रभावित करने वाले प्रासंगिक तथ्यों (अंगों) को अप्रासंगिक और नकारात्मक तथ्यों से अलग करना चाहिए ।

इसके लिए स्थितियों का विश्लेषण कर रणनीतिक कारकों की तलाश (निर्धारण) की जरूरत होती है । इन कारकों को नियंत्रित और परिवर्तित किया जाना चाहिए क्योंकि वे सांगठनिक निर्णय निर्माण को प्रभावित करते हैं ।

कार्यकारी कार्य:

बर्नार्ड ने टिप्पणी की- ”कार्यपालिकाओं के काम किसी संगठन की जीवंतता और सहनशीलता के लिए जरूरी सभी कामों से उस हद तक जुड़े होते हैं जिस हद तक उन्हें औपचारिक तालमेल के जरिए पूरा किया जाना चाहिए । कार्यकारी कार्य संगठन के नहीं होते, किंतु यह वह विशिष्टीकृत काम हैं जो संगठन को सक्रिय बनाए रखते हैं ।”

उन्होंने निम्न तीन कामों को कार्यपालिका के मूल कार्य माना:

1. संगठन में संचार तंत्र को स्थापित करना और बनाए रखना ।

2. अधीनस्थों को सांगठनिक उद्देश्यों के लिए मेहनत के लिए प्रेरित करके उनसे मूल प्रयास और सेवाएं सुरक्षित करना ।

3. प्रयोजन और उद्देश्यों का निर्धारण और परिभाषन ।

हरबर्ट साइमन ने अपने सीमित तार्किक मॉडल के जरिए बर्नार्ड के विचारों को आगे विकसित किया । उन्होंने अधिकाधिक व्यवहार की जगह संतोषकारी व्यवहार की वकालत की । अधिकाधिक व्यवहार की वकालत वेबर, फेयॉल, टेलर आदि जैसे क्लासिकीय चिंतकों ने की थी । प्रशासनिक अध्ययन में वह व्यवहारीवादी उपागम के सबसे महत्वपूर्ण प्रतिनिधि हैं ।

मानव संबंध स्कूल (एल्टन मेयो व अन्य) (Human Relations School [Elton Mayo and Others]):

संगठन के मानव संबंध सिद्धांत सांगठनिक विश्लेषण के क्लासिकीय उपागम की प्रतिक्रिया के रूप में 1930 के दशक में अस्तित्व में आया । टेलर, फेयॉल, गुलिक, अरविक व वेबर जैसे क्लासिकीय चिंतकों ने संगठन के औपचारिक ढाँचे पर बल दिया और संगठन के मानव तत्व की उपेक्षा की ।

दूसरे शब्दों में- उन्होंने संगठन की एक यांत्रिक दृष्टि अपनाई और संगठन में व्यक्तियों के व्यवहार के सामाजिक और मनोवैज्ञानिक पहलुओं की उपेक्षा की । यह क्लासिकीय उपागम की गंभीर असफलता थी जिसने मानव संबंध उपागम को जन्म दिया ।

मानव संबंध सिद्धांत को मानवतावादी सिद्धांत, सामाजिक-आर्थिक सिद्धांत और नव क्लासिकीय सिद्धांत के रूप में भी जाना जाता है । अमेरिकी समाजशास्त्री एल्टन मेयो को ‘मानव संबंध सिद्धांत का पिता’ माना जाता है ।

उन्होंने शारीरिक, आर्थिक, सामाजिक और मनोवैज्ञानिक पहलुओं को ध्यान में लेते हुए मजदूरों के व्यवहार और उत्पादक क्षमता के अध्ययन पर अपना ध्यान केंद्रित किया । उन्होंने इस उपागम को ”रोगजाँच पद्धति” कहा । उन्होंने 1923 में फिलाडेल्फिया की एक कपड़ा मिल में पहला शोध कार्यक्रम शुरू किया और उसे ‘प्रथम जाँच’  कहा ।

उनकी प्रमुख रचनाएँ हैं- दि हयूमन प्रॉब्लम्स ऑफ एन इंडस्ट्रियल सिविलाइजेशन (1933), दि सोशल प्रॉब्लम्स ऑफ एन इंडस्ट्रियल सिविलाइजेशन (1945) और दि पॉलिटिकल प्रॉब्लम्स ऑफ एन इंडस्ट्रियल सिविलाइजेशन (1947) । अन्य विद्वान, जिन्होंने मानव संबंध सिद्धांत के विकास में योगदान दिया, उनमें एफ.जे. रोथलिस्बर्गर, विलियम जे.डिक्सन, टी. नार्थवाइटहे,ड डब्ल्यू. लॉयड, ई.वॉर्नर व एल.जे.हेडंरसन प्रमुख हैं ।