Read this article in Hindi to learn about:- 1. लोक निगम की आवश्यकता (Requirement of Public Corporation) 2. लोक निगमों के कार्यक्षेत्र या उद्देश्य (Scope or Purpose of Public Corporation) 3. इतिहास (History) 4. विशेषताएं (Characteristics) and Other Details.

लोक निगम की आवश्यकता (Need for Public Corporation):

आधुनिक औधोगिक क्रान्ति ने आर्थिक क्रियाओं को बहुत बढ़ा दिया और निजी पूंजी का महत्व बढ़ने लगा । ऐसे समय साम्यवाद विकसित होने लगा जिसकी मांग थी कि आर्थिक साधनों पर सामूहिक स्वामित्व हो । इस मांग से समाज को बचाने के लिए पूंजीवादी राष्ट्रों ने बीच का रास्ता तलाशा । यह था सरकार द्वारा आम जनता से संबंधित उत्पादन सेवा को सरकारी स्वामित्व में लेना, शेष निजी हाथों में बने रहने देना ।

सरकार उत्पादन और सेवा से संबंधित कार्यों के लिए और उनकी पूर्ति के लिए धन आदि की व्यवस्था हेतु अनेक उद्यम स्थापित करने लगी । इन उद्यमों का प्रबंध संचालन करने की समस्या सामने आई अर्थात् इन्हें कौन चलाये और कैसे चलाये ।

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विभाग चलाये, सरकारी कंपनी चलाये या सरकार किसी कंपनी को ठेके पर दे दें या निजी उद्यमियों के साथ मिलकर इनका संचालन करे या विभाग के अधीन लेकिन उससे स्वतंत्र निगम प्रणाली अपनाई जाये । सरकार ने अधिकांशतया निगम प्रणाली को अन्य उपायों के साथ प्रयुक्त किया ।

क्योंकि:

1. इन उद्यमों या सेवाओं को व्यावसायिक दृष्टिकोण से संचालित करना जरूरी होता है, जबकि विभागीय पद्धति, लालफीताशाही और नौकरशाही ही से ग्रस्त रहती है ।

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2. इन्हें आंतरिक प्रशासन संचालन की पूर्ण स्वतंत्रता देनी थी ताकि विभाग की दुषप्रवृत्तियों से इन्हें बचाया जा सके ।

लोक निगमों के कार्यक्षेत्र या उद्देश्य (Scope or Purpose of Public Corporation):

लोक निगम 3 उद्देश्यों की पूर्ति के लिए बनाया जाता है:

1. साख की स्थापना – जनता के पैसों को इकट्ठा करके औद्योगिक और गैर औद्योगिक वित्तीय आवश्यकताओं की पूर्ति करना । जैसे, जीवन बीमा निगम ।

2. औद्योगिक विकास हेतु – जैसे, औद्योगिक वित्त निगम, औद्योगिक विकास निगम ।

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3. किसी क्षेत्र या स्थान का संपूर्ण विकास करने हेतु – यह बहुउद्देश्यीय निगम होते हैं । जैसे, भारत का दामोदर घाटी निगम, अमेरिका का टेनिस घाटी निगम ।

लोक निगम का इतिहास (History of Public Corporation):

निगम प्रणाली प्राचीन समय से ही अस्तित्ववान रही है, यद्यपि उन निगमों की संगठन संरचना जन का आधुनिक निगमों के साथ तुलना करना बेईमानी होगी तथापि उनकी गतिविधियों और उद्देश्यों को हम आधुनिक निगमों प्रणाली में भी देख सकते हैं । भारत में व्यापारियों कारीगरों आदि की अपनी-अपनी संगठित श्रेणी होती थी ।

आधुनिक युग में ब्रिटेन में वास्तविक निगम प्रणाली का प्रचलन सर्वप्रथम हुआ । ब्रिटेन भी ऐसा देश है जहां निगमों की पद्धति कॉफी पुरानी है । ये प्राचीन निगम अपनी मुद्रा रखते है तथा इनमें स्थायी उत्तराधिकार पाया जाता था । 19वीं शताब्दी में यहां निजी निगमों के साथ ही कुछ ऐसे सरकारी निगम अस्तित्व में आये जो कतिपय प्रविधिक, सांस्कृतिक गतिविधियों में संलग्न थे । इन्हें सरकारी नियंत्रण से स्वायत्ता हासिल थी ।

19वीं सदी में ही आस्ट्रेलिया में ”रेलवे प्रबंध” हेतु निगम प्रणाली को अपनाया गया था । ब्रिटेन ने भी ‘ट्रिनही हाऊस’ चैरिटी कमीशन आदि के लिए 19वीं सदी के पहले पूवार्ध में ही निगम गठित कर लिये थे । 1906 में फोर्ट ऑफ लंदन अथॉरिटी को निगम रूप में स्थापित किया गया । अमेरिका ने 1904 में अपना पहला लोक निगम ”पनामा रेड-कोर्ट कंपनी” के रूप में स्थापित किया ।

उपरोक्त सभी निगम आधुनिक निगमों की आवश्यक शर्तों को कुछ हद तक ही पूरा करते थे । निगम-प्रारूप के पूर्णतः अनुरूप तो ”ब्रिटिश ब्राडकास्टिंग कॉरपोरेशन” था जो 1927 में स्थापित हुआ । अतः इसे ही पहला वास्तविक लोक निगम माना जाता है । आधुनिक निगम प्रणाली का जन्मदाता इंग्लैण्ड है ।

भारत में लोक निगमों का इतिहास स्वतंत्रता के बाद ही शुरू होता है । स्वतंत्रता के पूर्व ”रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया” 1934, ही एक मात्र लोक निगम था । 1948 में कुछ महत्वपूर्ण निगम स्थापित हुये- पूर्नवास वित्त निगम, दामोदा घाटी विकास निगम, औद्योगिक वित्त विकास निगम तथा औद्योगिक-कार्मिक राज्य बीमा निगम ।

1953 में इण्डियन एयर लाइन तथा एयर इण्डिया इंटरनेशनल दो निगम स्थापित हुए । 1956 में जीवन बीमा निगम की स्थापना । भारत में लोक निगम केंद्र और राज्य दोनों बहुसंख्यक स्थापित हुए है । इनकी स्थापना विधायिका के विशेष कानून द्वारा की जाती है यद्यपि कार्यपालिका भी इन्हें स्थापित करती रही है ।

व्यापक अमेरिका में यद्यपि निगम प्रणाली का सबसे व्यापक उपयोग किया जाता है, तथापि इन पर सरकारी नियंत्रण निरन्तर बड़ता रहा है । प्रारंभिक स्वतंत्रता को बाद के कुछ अधिनियमों ने कॉफी सीमित कर दिया । निगम-नियंत्रण एक्ट (1945) आदि महत्वपूर्ण है जिन्होंने निगमीय स्वतंत्रता का एक तरह से अपहरण कर लिया है ।

लोक निगम के प्रकार (Types of Public Corporation):

विद्वानों ने लोक निगमों के कुछ प्रकार बताये हैं । जैसे स्त्रोत के आधार पर लोक निगम संवैधानिक और संविधानेत्तर दो प्रकार के हो सकते हैं । संवैधानिक निगमों को संसद अपने विशेष अधिनियम से निर्मित, निजी संगठनों द्वारा निर्मित आदि आते हैं । भारत में पहले प्रकार के उदाहरण हैं- जीवन बीमा निगम, यू. टी. आई. आदि । दूसरे प्रकार के उदाहरण हैं- भारतीय खाद्‌य निगम, राष्ट्रीय कोयला विकास निगम, टाटा कॉरपोरेशन आदि ।

स्वामित्व और नियंत्रण के आधार पर लोक निगमों को तीन श्रेणीयों में रखा जाता है- सरकारी निगम जो सरकार द्वारा स्थापित किये जाते हैं । इनमें सरकार की पूर्ण या आशिक पूंजी लगी होती है तथा इसी अनुपात में सरकार का स्वामित्व रहता है ।

जैसे एल.आई.सी. राज्य व्यापार निगम आदि । दूसरा मिश्रित निगम जिसमें सरकारों पूंजी और प्रतिनिधित्व दोनों आंशिक रूप से मौजूद रहते हैं, किन्तु नियंत्रण और स्वामित्व उसका नहीं होता । अन्तर्राष्ट्रीय वित्त निगम इसका उदाहरण है ।

तृतीय वे निगम जो निजी क्षेत्रों द्वारा गंभीर आपत्ति हो सकती है । क्या लोक निगमों में निजी निगम शामिल है? लोक शब्द निगम को मात्र सार्वजनिक विषय-वस्तु बना देता है, अतः लोक निगम मात्र उन निगमों को ही कह सकते हैं जिनमें सार्वजनिक पूंजी लगी हो और सरकार द्वारा स्थापित हो ।

टाटा कॉरपोरेशन निगम का एक प्रकार हो सकता है, लोक निगम का नहीं । इसी प्रकार अन्तर्राष्ट्रीय वित्त निगम को पूंजी और प्रतिनिधित्व के आधार पर ही लोक निगम की श्रेणी में आशिक रूप से रखा जा सकता है ।

अतः लोक निगम के मोटे तौर पर दो ही प्रकार ही कह सकते हैं- विधायिका द्वारा निर्मित और कार्यपालिका द्वारा निर्मित लोक निगम । कार्यपालिका द्वारा निर्मित निगमों पर विभाग जैसा नियंत्रण आ जाता है और उनकी निगमीय स्वतंत्रता का लोप हो जाता है ।

सामान्यतया 3 प्रकार प्रचलित हैं:

1. राजकीय निगम:

इन्हें सरकारी या लोक निगम भी कहते हैं । यह सरकार द्वारा स्थापित होते हैं । जिनकी पूरी पूंजी सरकार की होती है अतः सरकार का ही संपूर्ण नियंत्रण होता है । जैसे, ओएनजीसी ।

2. मिश्रित निगम:

इसमें सरकारी और निजी दोनों पूंजी लगी होती है । नियंत्रण किसका होगा यह प्रत्येक के अंश पर निर्भर करेगा । वैसे सरकार अपना अधिक अंश रखकर नियंत्रण रखती है लेकिन अंतर्राष्ट्रीय वित्त निगम में सरकार का बहुत कम अंश होने से उस पर उसका नियंत्रण नहीं है ।

3. निजी निगम या व्यक्तिगत निगम:

यह निजी उद्यमियों द्वारा स्थापित किये जाते है । इनका सरकार से कोई लेना देना नहीं होता जैसे टाटा कॉरपोरेशन, सिंधिया नेवीगेशन, ओबेराय होटल । यह वस्तुतः निगम का प्रकार है, लोक निगम का नहीं ।

नोट:

निजी क्षेत्र के निगम जैसे, टाटा कॉर्पोरेशन । यह लोक निगम नहीं है ।

भारत में लोक निगम:

दो प्रकार से स्थापित:

1. संसद द्वारा – संसद अधिनियम बनाकर लोक निगम को स्थापित कर देती है ।

2. कार्यपालिका द्वारा – मंत्रिमण्डल अपने निर्णय द्वारा लोक निगमों को स्थापित कर सकती है । जैसे ओएनजीसी (1994 से कंपनी प्रारूप में)

लोक निगमों की विशेषताएं (Characteristics of Public Corporations):

1. विशेष अधिनियम या कार्यपालिका आदेश द्वारा निर्मित – इसमें उसके उद्देश्य कार्यविधि, सीमाएं, प्रारंभिक पूंजी आदि का वर्णन होता है ।

2. सरकारी स्वामित्व – लोक निगम पर सरकार का स्वामित्व होता है इसलिए नियंत्रण भी उसी का होता है ।

3. विभागीय व्यवस्था – प्रत्येक निगम किसी विभाग से संबंधित होता है ।

4. विभाग से स्वतंत्र – विभाग के अधीन होने पर भी वह उसके नियमों से बंधा नहीं होता है । निगम के अपने प्रशासन संबंधी नियम होते हैं ।

5. मंत्री से संबंध – यद्यपि विभागीय मंत्री का नीतिगत प्रश्नों को लेकर निगम पर नियंत्रण होता है और वह निगम के प्रबंध संचालक मंडल की नियुक्ति भी करता है तथापि मंत्री आंतरिक संचालन में हस्तक्षेप नहीं कर सकता ।

6. बोर्ड या आयोग प्रणाली – निगम का संचालन एक निर्देशक के अधीन नहीं होता अपितु निर्देशक के अधीन नहीं होता अपितु निर्देशकों के समूह (बोर्ड या आयोग) पर ये दायित्व रहता है ।

7. स्वतंत्र वैधानिक अस्तित्व – निगम सरकारी स्वामित्व में रहते हुए भी न्यायालयीन वाद विवादों में पृथक् अस्तित्व रखता है । उस पर मुकदमा, सरकार पर मुकदमा नहीं होता ।

8. वित्तीय स्वतंत्रता – निगमों पर संसद और कार्यपालिका का कठोर वित्तीय नियंत्रण नहीं होता है । वे अपने धन का विनियोग करने तथा ऋण लेने के लिए स्वतंत्र होते हैं ।

9. क्रय-विक्रय की स्वतंत्रता – वह सरकारी टेंडर प्रक्रिया से बंधा नहीं होता ।

10. कार्मिकों के मामलों में स्वतंत्रता – निगम अपने कर्मचारियों की भर्ती करने के लिये स्वतंत्र होता है । वह पदोन्नति में वरिष्ठता के स्थान पर योग्यता को आधार बनाता है । उसके कार्मिकों पर सरकारी आचरण नियम लागू नहीं होते ।

11. व्यवसायिक लेखांकन – निगमों का लेखांकन विभाग जैसा नियम आधारित नहीं होता । यह आय-व्यय की दृष्टि से नहीं अपितु इस व्यावसायिक दृष्टिकोण से होता है कि वह मुनाफे में जा रहा है या हानि में ।

12. जनहित – लोक निगम पद्धति निजी दृष्टिकोण से संचालित होती है लेकिन उसका उद्देश्य सरकारी होता है-जनता को न्यूनतम कीमत पर अधिकतम सुविधा देना ।

लोक निगम की  समितियां (Committees of Public Corporation):

इस दिशा में सरकार ने दो समितियां गठित की थी:

1. ए. डी. गोरावाला समिति ।

2. एम.सी. छागला समिति ।

गोरवाला समिति, लोक निगमों की स्वायत्ता पर गठित हुई थी जबकि छागला समिति मुदंडा कांड को लेकर जीवन बीमा निगम की कार्यप्रणाली पर सुझाव देने हेतु गठित की गई थी ।

इनके निष्कर्ष निम्नलिखित थे:

1. विभाग निगमों की स्वायत्ता को सीमित कर रहे हैं, बार-बार हस्तक्षेप के द्वारा ।

2. मंत्री नीति की आड़ लेकर आंतरिक कार्यों में भी हस्तक्षेप करता है ।

3. लोक निगमों के कार्मिकों में प्रबंधकीय योग्यता और तकनीकी क्षमता का आभाव है ।

4. लोक निगमों में गबन और घोटाले की प्रवृत्ति है ।

5. जीवन बीमा निगम का अध्यक्ष ऐसे व्यक्ति को बनाया जाना चाहिए जिसे शेयर मार्केट का गहरा ज्ञान हो ।

6. निगम की राशि सुरक्षित स्थानों पर निवेश की जानी चाहिए ।

लोक निगमों का विनिवेश- एक्जिट पॉलिसी (Disinvestment of Public Corporations – Exit Policy):

उदारीकरण के एक पहलू के रूप में सरकार के सामने एक्जिट पालिसी या विनिवेश की नीति को अपनाना प्रारंभिक रूप से एक आर्थिक मजबूरी माना गया । जो अब आर्थिक राजनीति बन गया । अर्थात् सरकार ने इसे अपने राजकोषी घाटे को कम करने के अपनाया था लेकिन अरूण शौरी के कथन के संदर्भ में कहे तो सरकार ने बाद में इसे एक सिद्धान्त बना दिया है कि वह क्रियाकलापों में प्रत्यक्ष भूमिका नहीं निभाएगी और इसीलिए विशुद्ध वाणिज्यिक प्रकृति के उद्योगों का विनिवेश कर वहां से बाहर निकल आई ।

परंतु आलोचकों का कहना है कि सरकार इससे अपनी लोक कल्याणकारी अवधारणा से पीछे हट रही है । जनता को उनकी महत्वपूर्ण आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए लोक निगम जिस प्रकार सक्रिय रहे उनके विनिवेश से जनहित और निगम का यह संबंध भंग हो जाएगा ।

फिर मात्र कुछ निगमों के घाटे के कारण अन्य लाभप्रद निगमों को बेचना किस प्रकार तार्किक या उचित आर्थिक निर्णय हो सकता है । जिन निगमों में घाटा भी है उनका कारण निगम पद्धति का दोष नहीं अपितु राजनैतिक हस्तक्षेप या आधुनिक प्रबंध व तकनीक का अभाव रहा है । अतः उपक्रमों को बेचने का निर्णय घाटे का सही उपचार नहीं है ।

उपरोक्त आलोचनाओं में दम दिखाई देता है । लेकिन सरकार जिस भूमण्डलीकरण से जुड़ चुकी है उसके फायदा को तभी प्राप्त किया जा सकता है जब हम अपनी आर्थिक गतिविधियों को विशुद्ध आर्थिक सिद्धांतों के आधार पर चलाए । दूसरे शब्दों में सरकार स्वयं आर्थिक या वाणिज्यिक गतिविधियों में प्रत्यक्ष हिस्सा न ले अपितु सुविधा प्रदाता, नीति नियामक और पर्यवेक्षक की भूमिका को सशक्त ढंग से निभाए ।

संपूर्ण विश्लेषण का सार यह है कि लोक निगम सहित समस्त सार्वजनिक उपक्रमों के लिए एक उपक्रम मण्डल का गठन कर दिया जाना चाहिए । जिससे उनके संचालन, प्रबंधन और यहां तक कि विनिवेश या बंद करने के बारे में बाहयकारी निर्णय करने में संपूर्ण स्वायत्ता प्राप्त हो ।

जिस प्रकार बाल्को को स्टाल लाइट को मात्र 541 करोड़ में बेच दिया । उससे विनिवेशीकरण में भी लाभ-हानि ज्यादा दिखाई देती है । और इसीलिए सरकार की विनिवेश नीति में सिद्धांत व्यवहारिक रूप से कटघरे में खड़े हो जाते है ।

सरकार ने 2003 विनिवेश की नीति को निवेश की नीति का नाम देकर निवेश मंत्रालय कर दिया है जो मुख्यतः लोक निगमों को शुद्धीकरण के लिए कार्य करेगा । यदि उदारीकरण की नीति गंभीर है तो उससे निपटने के नीति, निवेश, विनिवेश प्रत्येक संदर्भ में प्रत्येक उतनी ही आवश्यक है ।

लोक निगमों – लाभ और समस्याएं (Public Corporations – Benefits and Problems):

लोक निगम ने सरकार को प्रत्यक्ष रूप से व्यापार में उतरे बिना, आर्थिक क्रियाओं को निजी प्रशासन की विशेषताओं के साथ सम्पन्न करने का अवसर दिया है । इनका सबसे बड़ा लाभ यही है कि इनके कार्यों में पर्याप्त ”लोच” रहती हैं, निजी उद्यमों की प्रेरणाएं पायी जाती है तथा सरकारी नियम बद्धता न्यूनतम होती है ।

विभागीय कठोर प्रतिबन्ध से मुक्त रहने के कारण कार्य के प्रति स्वाभाविक उत्साह और उत्प्रेरणा इनमें विद्यमान रहती है । वित्तीय स्वतंत्रता के कारण ये विभिन्न स्त्रोतों से धन उपार्जित कर सकते हैं तथा जहां अधिक लाभ की संभावना हो, वहां अपनी निधि का निवेश भी कर सकते हैं ।

राजनीतिक दबावों से मुक्ति इन्हें कार्य करने के लिए स्वतंत्र वातावरण मुहैया कराती है और विवादों से दूर रहकर ये व्यापारिक हितों और सेवाओं को सम्पन्न कर सकते हैं । अपने कार्मिकों पर प्राप्त स्वायत्त नीति के कारण वे कार्यकुशलता तथा मितत्ययिता के पर्याय बन सकते हैं ।

उपरोक्त लाभों को देखकर निगम प्रणाली बेहद आकर्षण और विकल्पहिन प्रतीत होती है लेकिन वह अनेक ऐसी समस्याओं से मुक्त है, जिसने उसकी उपयोगिता को सीमित कर दिया है । निगम प्रणाली में अनेक संचालनागत समस्याएं विद्यमान है । सबसे महत्वपूर्ण समस्या तो यही है कि निगमों की स्वायत्ता और संसदीय या जन-उत्तरदायित्व में संतुलन कैसे बिठाया जाए?

एक समस्या क्षेत्राधिकार का लेकर है । लोक निगम और सरकारी एजेन्सी में क्षेत्राधिकार को लेकर विरोध खड़ा हो जाता है । आर्थिक उदारीकरण के दौर में व्यक्तिगत क्षेत्र के साथ लोक निगमों को कठिन प्रतिस्पर्धा करना पड़ रही है । यही नहीं निजी क्षेत्र की कंपनियों ने निगमों के योग्य कार्मिकों को भी आकर्षण सुविधाएं देकर अपनी ओर खींच लिया है ।

इनकी दूसरी महत्वपूर्ण समस्या राजनीतिक हस्तक्षेप की है । संसदीय उत्तरदायित्व की आड़ में मंत्री निगमों के आन्तरिक संचालन में भी अधिकाधिक हस्तक्षेप करने लगते हैं । निगमों के निर्देशक मण्डलों में सरकारी नौकरशाहों की उपस्थिति से कार्यपालिका का यह हस्तक्षेप द्विगुणित हो जाता है ।

भारत में लोक निगमों को उक्त समस्याओं के साथ ही जिन अन्य समस्याओं से भी निरन्तर जूझना पड़ रहा है उनमें महत्वपूर्ण है- घाटे की प्रवृत्ति । अधिकांश निगम आशिक या अधिक घाटे की स्थिति के शिकार होकर अपनी साख खो बैठे हैं । इसके पीछे विभागों जैसी कार्य शैली तो जिम्मेदार है ही, गबन या घोटाले की प्रवृत्ति भी उतनी ही जिम्मेदार है ।

राजनीतिक हस्तक्षेप और वित्तीय स्वायत्ता के हनन को भी इससे जोड़ा जा सकता है । इनकी स्वायत्ता को लेकर ए.डी.गोरवाला ने अपने प्रतिवेदन में कहा था कि ”भारत की निगम व्यवस्था में सिद्धांत और व्यवहार में बहुत अधिक अंतर है । सिद्धांत में निगम की अधिक से अधिक स्वायत्ता का समर्थन किया जाता है लेकिन व्यवहार में मंत्री संसदीय संतुष्टि के नाम पर इनकी वित्तीय दशा पर अधिकाधिक नियंत्रण रखने का प्रदान करता है ।”

उन्हीं के अनुसार बजट अनुदान तथा विदेशी विनिमय के भुगतान के संबंध में निगम स्वायत्ता को धूल में मिलाया गया है । फलस्वरूप इनकी स्थिति की विभागीय प्रबंध जैसी होती जा रही है । निगम अपनी स्वयात्ता के लिए प्रयत्नशील है जबकि विभाग उन्हें अपनी श्रेणी में लाने का प्रयास कर रहे हैं ।

मुन्दड़ा कान्ड (1957) से लेकर हाल ही के यू.टी.आई. घोटाले तक में एक बात और स्पष्ट रूप से सामने है कि निगमों की स्वायत्ता का विभाग दुरूपयोग करने से भी नहीं चुकते हैं । वे अपने पूंजी सार्वजनिक लाभ के क्षेत्र में निवेशित करने के स्थान पर उन व्यक्तियों के उद्योगों में लगाते रहे है जिनमें लाभ के स्थान पर हानि हुई है, और ऐसा संबंधित विभागों के अनावश्यक हस्तक्षेपों का ही परिणाम रहा है ।

निगमों की खस्ता हालत के लिए उन्हीं को दोषी ठहराने वाले भी कम नहीं है । अनुमान समिति ने केन्द्रीय जल एवं शक्ति आयोग की धीमी प्रगति के पीछे सांगठनिक और कार्य पद्धति गत दोषों को जिम्मेदार ठहराना । औद्योगिक वित्त निगम पर नियुक्त ”कृपलानी समिति” (1953) में निगम की आलोचना करते हुए कहा कि इनकी प्रगति धीमी है तथा उपयुक्त और उचित नियोजन पद्धति का अभाव है, साथ ही ढीले वित्तीय प्रबंध ने भी इन्हें अपव्ययी और अकार्यकुशल व्यवस्था बना रखा है । इन आलोचनाओं के संदर्भ में यह मत प्रकट किया जाता है कि निगमों पर जब तक मजबूत कार्यपालिकीय और संसदीय नियंत्रण स्थापित नहीं किया जाता, उनसे अपने उद्देश्यों में सफलता की अधिक आशा नहीं की जा सकती ।

वस्तुतः निगमों की हालत इतनी भी खराब नहीं है कि हम उनकी तरफ से पूरी तरह निराश हो जाए । अनेक निगम ऐसे है जिन्होंने लाभ के साथ ”जनहित” का उद्देश्य प्राप्त किया है । इनमें से कुछ निगमों की गणन ”नवरत्न” नामक विशिष्ट उपक्रमों की श्रेणी में भी किया गया है । जो निगम घाटे में है उनके पीछे सरकार का अनुचित हस्तक्षेप, विदेशी मुद्रा और तकनीकी प्राप्त करने में रूकावटें जैसे गैर प्रबंधकीय कारण अधिक जिम्मेदार जिन्हें दूर किया जाना चाहिए ।