Read this article in Hindi to learn about:- 1. संगठन का अर्थ (Meaning of Organisation) 2. संगठन की परिभाषाएं (Definitions of Organisation) 3. प्रक्रिया (Process). 4.  तत्व या लक्षण (Elements) 5. महत्व (Importance)6. प्रक्रिया (Process).

संगठन का अर्थ (Meaning of Organisation):

साइमन-थामसन-स्मिथबर्ग के शब्दों में – ”समस्याएँ संगठन का निर्माण करती हैं” । कार्यों को करने हेतु विभिन्न व्यक्तियों और सामग्रियों की आवश्यकता होती है । इन्हें इस तरह समूहबद्ध जाता है कि सही व्यक्ति को सही काम मिल सके, जिससे कि लक्ष्य आसानी से हो सके, यह कार्य व प्रक्रिया ही संगठन कहलाता है ।

संगठन दो शब्दों ‘सम’ और ‘गठन’ से मिलकर इससे तात्पर्य है – एक समान रचना । संक्षिप्त आक्सफोर्ड डिक्शनरी के अनुसार संगठन का अर्थ है तैयार करना व उसे कार्य रूप देना । आर्गेनाइजेशन ”आर्गेनिज्म” (अंग्रेजी भाषा का शब्द) उत्पन्न है, जिसका अर्थ है, ”अवयव” ।

संगठन के तीन विविध अर्थ:

1. संगठन करना:

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व्यक्तियों और सामग्रियों को लेकर एक समरुप ढांचे की रूपरेखा तैयार करना ।

2. संगठन निर्माण की प्रक्रिया:

अर्थात रूपरेखा के अनुसार कार्मिकों और सामग्रियों को जमाना ।

3. एक ढांचा:

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अर्थात स्वयं संगठन अस्तित्व में आना, जैसे रक्षा विभाग ।

प्रबंधकीय दृष्टिकोण से संगठन के दो अर्थ हैं:

1. सांगठनिक ढाँचा और

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2. प्रक्रिया ।

उर्विक संगठन की तुलना कार की डिजाइन से करते हुए कहते हैं एक कार अपने निर्माण की तीन प्रक्रिया से गुजरती है – डिजाइन, निर्माण प्रक्रिया और स्वयं तैयार कार । जिस प्रकार डिजाइन या रूपांकन का अर्थ निर्माण नहीं हैं और निर्माण का मतलब कार नहीं है उसी प्रकार संगठन का अर्थ उसका औपचारिक कार्यकारी ढांचा नहीं है ।

उर्विक के अनुसार संगठन मात्र उसकी डिजाइन (रूपाकंन) से संबंधित है । उर्विक ने संगठन को परिभाषित करते हुए कहा कि संगठन निश्चित उद्देश्य की प्राप्ति हेतु आवश्यक गतिविधियों के निर्धारण और उनके समूहीकरण से संबंधित एक कार्य है ।

संगठन का उर्विक ने जो अर्थ बताया है वह यांत्रिक दृष्टिकोण से प्रेरित है जो संगठन में मानवीय तत्व की उपेक्षा करता है । इस दृष्टिकोण का एकमात्र उद्देश्य संगठन को कतिपय सिद्धांतों पर आधारित एक निश्चित, स्पष्ट और सार्वभौमिक प्रक्रिया बनाना है ।

उपर्युक्त तीन अर्थों में से कौन सा अर्थ प्रशासनिक संगठन की प्रक्रिया के रूप में लिया जाये ? वस्तुतः विभिन्न विद्वानों ने इनमें से किसी एक या अधिक का प्रयोग किया है इसलिए संगठन के एक निश्चित अर्थ को परिभाषित करना कठिन रहा है ।

कोई इस ढांचे का रूपाकंन मानता है तो कोई स्वयं ढांचा । आधुनिक विचारकों में से अधिकांशतः इसे एक सामूहिक प्रक्रिया में लगे मनुष्यों के मध्य उचित संबंधों की स्थापना के रूप में परिभाषित करते हैं जो इसका व्यापक अर्थ दर्शाती है ।

संगठन की परिभाषाएं (Definitions of Organisation):

उर्विक – ”संगठन निश्चित उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु आवश्यक गतिविधियों का निर्धारण और उनका ऐसा समूहीकरण है ताकि वे विभिन्न व्यक्तियों को सौंपी जा सके ।”

एम मार्क्स – ”मुख्य कार्यपालक और अधीनस्थों को सौंपे गये कार्य को पूरा करने के लिए सरकार द्वारा स्थापित संरचना ही संगठन है ।”

व्हाइट – ”संगठन लक्ष्य प्राप्ति हेतु कर्तव्यों-उत्तरदायित्वों को आपस में बांटकर की जाने वाली कार्मिक व्यवस्था है ।”

मैक्फारलैंड – ”संगठन से आशय है, निश्चित व्यक्ति समूह द्वारा निश्चित उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए किये जाने वाले कार्य ।”

मूने – ”एक समान उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु बनने बाले प्रत्येक मानवीय समुदाय या संघ का ढांचा संगठन है ।”

ग्लैडन – ”संगठन का अर्थ है, उद्यम के उद्देश्यों में लगे कार्मिकों के संबंधी की प्रतिकृति ।”

फिफनर – ”व्यक्ति और व्यक्तियों, समूह और मध्य आयोजित संबंधों की ऐसी व्यवस्था, जिससे विभाजन हो सके संगठन है ।”

एम. गॉस – ”सामूहिक कार्य में लगे व्यक्तियों और समूहों के प्रयत्नों और क्षमताओं का ऐसा संबंध ही संगठन है जो न्यूनतम संघर्ष और अधिकतम संतोष के साथ लक्ष्य प्राप्त कर सके ।”

डिमॉक – ” संगठन संरचना और मानवीय जीवन दोनों है ।”

उक्त परिभाषाओं को दो समूहों में रख सकते हैं । अर्विक पहले समूह का प्रतिनिधि विचारक है जो संगठन के अर्थ उसके निर्माण की प्रारम्भिक अवस्था अर्थात रूपांकन सीमित रखता है । दूसरा समूह संगठन को कार्यरत मनुष्यों व्यवस्था मानता है और संगठन को निर्जीव ढांचे के पर सजीव संबंधों का जाल मानता है ।

मिलवर्ड ने ठीक ही लिखा है कि – ”संगठन कोई काम नहीं करता, अपितु बनाने वाले कार्मिक ही वास्तविक काम करते हैं ।”

संगठन के आवश्यक तत्व या लक्षण (Elements of Organisation):

1. यह व्यक्तियों का समूह है ।

2. इसका कोई न कोई उद्देश्य होता है ।

3. कार्य विभाजन (श्रम विभाजन) और कार्य विशिष्टकरण का आधार है ।

4. यह प्रबन्ध का यन्त्र है । इसके अभाव में प्रबन्ध अपने उद्देश्यों को समुचित रूप से प्राप्त नहीं कर सकता ।

5. यह एक क्रियात्मक विचारधारा है ।

6. समूह के उत्तरदायित्वों को निर्धारित करता है ।

7. यह भौतिक साधनों का इस्तेमाल करता है ।

8. समन्वय स्थापित करने वाली प्रबंधकीय मशीनरी की स्पष्ट पहचान ।

9. प्रशासन की पूर्व क्रिया ।

10. प्राधिकार तथा निर्देशन की शक्ति ।

कूण्टज-ओडोनेल – ”अधिकार संगठन की कुंजी है ।”

बर्नाड ने तीन तत्व बतलाए हैं:

1. सम्प्रेषण या संचार

2. सेवा या योगदान की भावना और

3. सामूहिक उद्देश्य ।

प्रभावशील संगठन के आवश्यक तत्व:

संगठन तभी सफल हो सकता है, जब वह प्रभावी हो ।

और प्रभावी संगठन के लिए उसमें निम्नलिखित तत्वों की उपस्थिति अनिवार्य मानी जाती है:

1. निश्चित उद्देश्य:

बिना उद्देश्य के कोई संगठन हो ही नहीं सकता । उद्देश्य एक या एक अधिक भी हो सकते हैं ।

2. उद्‌देश्योन्मुखी गतिविधियां:

संगठन में उद्देश्य प्राप्ति के लिए आवश्यक सभी गतिविधियां होनी चाहिएं । साथ ही अनावश्यक गतिविधियां नहीं भी होनी चाहिएं ।

3. परिवर्तनशीलता:

संगठन को गतिशील होना चाहिए । उसमें बदलती परिस्थितियों के अनुरूप अपने उद्देश्यों, संरचना और कार्यों में बदलाव लाने की लोचशीलता होनी चाहिए ।

ग्लैडन के अनुसार – ”संगठन इतना लोचशील हो कि सामयिक परिवर्तनों के अनुकूल स्वतः समायोजित होता रहे । जिस संगठन में परिवर्तन रूक जाता है, वह मरणासन्न है ।”

4. संवेदनशीलता:

संगठन को अपने ग्राहकों (सेवित व्यक्तियों) और कार्मिकों दोनों के प्रति पर्याप्त संवेदनशील होना चाहिए क्योंकि इन दोनों की संतुष्टि पर ही संगठन की सफलता अत्यधिक निर्भर करती है ।

5. सरलता:

ग्लैडन के अनुसार संगठन जितना सरल होगा उतना ही प्रभावी होगा । यहाँ सरलता से आशय जटिल नियम प्रक्रियाओं का अभाव और प्रभावपूर्ण संबंधों से है ।

6. प्रभावी संचालन:

संगठन तभी सफल होगा जब उसकी संरचना के साथ उसका संचालन भी प्रभावी हो ।

संगठन का महत्व (Importance of Organisation):

संगठन प्रत्येक प्रशासन का प्राण है । आदिम युग में ही संगठन का जन्म हो गया था, जब हिंसक प्राणियों से सुरक्षा के लिऐ, आदिम मानव को समूह बनाने (कबीला) की आवश्यकता महसूस हुई । यहां ”सुरक्षा” उद्देश्य था और ”समुहीकरण” उस उद्देश्य की प्राप्ति का समन्वित प्रयास । उस समय यह दोनों प्रक्रियाएं मिलकर ”संगठन” के रूप में साकार हुई ।

आधुनिक युग संगठित मानव का युग है, हम संगठनात्मक समाज में रह रहे हैं, संगठित प्रयासों से सीमा-सुरक्षा, आर्थिक-भौतिक उत्पादन और सामाजिक तुष्टिकरण को सुनिश्चित कर रहे है । सफलताएं संगठन पर आश्रित ही नहीं, उसका पर्याय होने लगी है और यही कारण है कि अब संगठन ही प्रशासन बन गया है ।

वास्तव में संगठन प्रशासन का शरीर और प्राण दोनों है । बिना संगठन के प्रशासन के अस्तित्व का संज्ञान नहीं होता । प्रत्येक क्रिया सांगठनिक व्यवहार का आधार बन रही है । अमितोई एतिजयोनी – ”हमारा समाज संगठनात्मक है । हम संगठन में जन्म लेते, संगठन में शिक्षा प्राप्त करते और अधिकांश समय भी संगठन में ही गुजारते हैं । हम संगठन को धन देते, संगठन में खेलते और संगठन में ही प्रार्थना करते हैं । हम में से अधिकांश संगठन में ही मर जाऐंगे और अत्येष्टि भी सबसे बड़े संगठन (अर्थात राज्य) में ही होगी ।”

प्रशासन निजी हो या सरकारी उसकी सफलता संगठनात्मक कुशलता पर ही निर्भर होती है । संगठन की असफलता सम्पूर्ण प्रशासन के उद्देश्यों को भस्मीसात कर देती है । अतएव प्रत्येक व्यवसाय में ”संगठन” पर सर्वाधिक ध्यान दिया जाता है । हर संस्था या व्यवसाय की स्थापना कुछ उद्देश्यों को लेकर होती है और इन उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु सर्वप्रथम ”संगठन” की आवश्यकता होती है क्योंकि एक अकेला व्यक्ति व्यवसाय के सभी कार्य स्वयं नहीं कर सकता ।

आज के युग में लोक प्रशासन ने अब तक के सबसे बड़े ”संगठन” का स्वरूप अख्तियार किया है और यह विशालकाय संगठन मानवजीवन को विस्तृत सुविधाएँ मुहैया करा रहा है । निजी प्रशासन भी वैज्ञानिक आविष्कारों को आधुनिक जीवन की सुविधाओं का आधार बनाकर अनेकानेक सेवाऐं, उपकरण समाज को मुहैया करा रहा है ।

निजी और लोक प्रशासन के संगठनों द्वारा किये गये अथक प्रयत्नों का ही परिणाम है कि विश्व में लोगों का जीवन स्तर उठ रहा है, गरीबी दूर होने लगी है, आधुनिक सुख सुविधाऐं अधिकांश लोगों को उपलब्ध हो सकी है और मनुष्य भौतिक रूप से अधिक सुखी अनुभव करने लगा है ।

अमितोई एतिजयोनी – ”मानव कल्याण और संगठनात्मक विवेक एक सीमा तक साथ-साथ चलते हैं ।”

संगठन पर मानव सभ्यता का भविष्य भी स्थिर होने लगा है । क्योंकि लोक प्रशासन, जिसके प्राण उसका संगठन है, यदि अपने लक्ष्यों में असफल हो जाता है तो सम्पूर्ण सभ्यता का पतन भी नहीं रोका जा सकता । संगठन के इतने व्यापक और विकल्पहीन महत्व के कारण ही उसको अधिकाधिक कुशल बनाने की दिशा में अनेक शोध कार्य विश्व में सर्वत्र संचालित हैं और उसे निश्चित सिद्धान्तों पर अवलम्बित करने के वैज्ञानिक प्रयास भी निरन्तर सक्रीय हैं ।

संगठन के इसी महत्व को अमेरिकी उद्योगपति एण्ड्रय कार्नेगी ने इस प्रकार रेखांकित किया है – ”हमारे कारखानें, परिवहन की सुविधाऐं, हमारा धन, सब कुछ ले लो । सिवाय संगठन के, हमारे पास कुछ न छोड़ो । मात्र चार वर्ष में ही, हम अपने को पुन: स्थापित कर लेंगे ।”

इस प्रकार संगठन मानवीय और भौतिक सामग्रियों का ऐसा समन्वित प्रयास है, जिसके बिना आज के मानव की कल्पना नहीं की जा सकती । मनुष्य की जरूरतों को पूरा करने के साथ सभ्यता के विकास और संरक्षण में संगठन की ही भूमिका निहित है । जरूरत इन प्रयासों को अधिकाधिक उद्देश्योन्मुख बनाने और रचनात्मक दिशा में रखने की है ।

संगठन प्रक्रिया (Process of Organisation):

प्रशासन द्वारा निर्मित योजना और उसके लिए आवश्यक गतिविधियों को आकार देने की प्रक्रिया का नाम संगठन है । मूने के अनुसार संगठन उसी समय प्रारम्भ हो जाता है जब उद्देश्य पूर्ति हेतु व्यक्ति मिल जुल कर प्रयास शुरू करते हैं ।

प्रशासन के निर्धारित लक्ष्य होते हैं । उनकी प्राप्ति विभिन्न गतिविधियों के माध्यम से ही हो सकती है । इन गतिविधियों को उनकी प्रकृति के अनुसार कतिपय वर्गों में समूहीकृत कर लिया जाता है, जैसे पर्यवेक्षणीय कार्य, लिपिकीय कार्य, तकनीकी कार्य, आदि ।

इन कार्यों को सम्पादित करने वाले कार्मिकों की भर्ती की जाती है और उन्हें ये कार्य आवश्यक अधिकारों-उत्तरदायित्वों के साथ सौंप दिये जाते हैं । संगठन की यहां तक की प्रक्रिया उसके आकार निर्माण तक की रहती है और संगठन का ढांचा कार्य करने की अवस्था में आ जाता है ।

स्पष्ट है कि संगठन मात्र रूपांकन (डिजाइन) नहीं है अपितु वह एक सम्पूर्ण प्रक्रिया और कार्य है । अर्थात उन मनुष्यों के मध्य कार्य और उत्तरदायित्वों का विभाजन है जो सामूहिक लक्ष्य के लिए सामूहिक रूप से प्रयत्नशील है । इसमें ढांचे के साथ ही कार्यरत मनुष्य भी उतने ही महत्वपूर्ण हैं ।

डिमाक के शब्दों मैं – ”संगठन संरचना और मानव जीवन दोनों ही है ।”

उर्विक – ”संगठन मात्र रूपांकन है । जिस तरह एक कार निर्माण की तीन प्रक्रिया हैं – डिजाइन, निर्माण की प्रक्रिया और स्वयं तैयार कार । इसी प्रकार संगठन सिर्फ डिजाइन से संबंधित है अर्थात उद्देश्य प्राप्ति के लिये एक औपचारिक ढांचे की रुपरेखा तैयार करना ।”

यहाँ उर्विक ने संगठन में मानव तत्व की उपेक्षा की । मानव को इसी प्रकार पुर्जा माना जिस प्रकार डिजाइन के बाद कार में पुर्जे फिट किये जाते हैं ।

गॉस – ”एक सामूहिक कार्य में लगे व्यक्तियों और समूहों के प्रयत्नों और क्षमताओं का ऐसा संबंध है जो कम से कम संघर्ष और अधिकतम संतोष के साथ लक्ष्य प्राप्त कर सके संगठन कहलाएगा ।”

अतः गॉस के अनुसार संगठन में मानव तत्व की उपेक्षा नहीं की जा सकती ।

निष्कर्षतः उर्विक का संगठन:

प्रारूप निष्क्रिय संगठन से संबंधित है क्योंकि कागज या दिमाग में संगठन की योजना बना लेने से संगठन आस्तित्ववान नहीं हो जाता है । प्रशासन के उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए संगठन की कार्यकारी अवस्था अनिवार्य होती है जो कार्मिकों को सहयोजित करने और उनके मध्य उचित श्रम विभाजन करने के बाद ही संभव है ।

उर्विक के इस कथन कि – ”संगठन की रूपरेखा या योजना का न होना क्रूर, अपव्ययशील तथा कुशलता विहिन है, उनके गुरु हेनरी फेयोल ने सुंदर जवाब दिया है कि यदि मानवीय तत्व को निकाल सकते तो संगठन का निर्माण बड़ा ही आसान होता ।”

किंतु हम संगठन का निर्माण मनुष्यों को समूहों में बाटकर और उन्हें काम सौंपकर ही नहीं कर सकते अपितु हमें उन्हें संगठन के अनुरूप ढालना और सही व्यक्ति को सही काम सौंपना भी आना चाहिये । उल्लेखनीय है कि फेयोल स्वयं यांत्रिक विचारधारा के समर्थक है ।

वस्तुतः उपरोक्त यांत्रिक और मानवीय संगठन के दृष्टिकोण क्रमशः औपचारिक और अनौपचारिक संगठनों के ही आधार तैयार करते हैं ।