Read this article in Hindi to learn about the urban local government in Rajasthan.

केन्द्र सरकार के द्वारा पारित 74वें संशोधन के अनुरूप राजस्थान सरकार राज्य के शहरों और कस्बों में नगरीय निकायों की स्थापना की । नगर निगम- उन वृहद नगरों के लिये जिनकी जनसंख्या कम से कम 5 हो । नगर परिषद- उन छोटे नगरों के लिये जिनकी जनसंख्या 1 लाख से अधिक और 5 लाख से कम हो । नगरपालिका बोर्ड – गांवों से नगरों की ओर संक्रमित क्षेत्रों क लिये । राजस्थान में 1 लाख से कम जनसंख्या वाले नगरीय प्रवृत्ति के क्षेत्रों में तीन प्रकार के बोर्ड (द्वितीय श्रेणी, तृतीय श्रेणी और चतुर्थ श्रेणी) स्थापित है ।

1. नगर निगम (Municipal Corporation):

राजस्थान में वर्ष 2007 का स्थिति में 3 नगर निगम थे, जयपुर, कोटा, और जोधपुर । ये तीनों निगम 1992-93 में स्थापित किये गये थे ।

नगर निगम की स्वायत्तता (Municipal Autonomy):

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नगर निगम एक कानूनी निकाय (बॉडी कारपोरेट) होता है ।

इस दृष्टि से:

(1) उसकी निगम मुद्रा (कॉमन सील) होती है ।

(2) वह एक वैध व्यक्ति जैसा अस्तित्व रखता है ।

ADVERTISEMENTS:

(3) वह संपत्ति का क्रय-विक्रय कर सकता है ।

(4) इस पर मुकदमा चलाया जा सकता है तथा यह दूसरों पर मुकदमा चला सकता है ।

नगर पालिकाओं की तुलना में नगर निगम अधिक शक्तिशाली होता है । बजट तैयार करने व खर्च करने की अधिक स्वतंत्रता के साथ ही उसे कर लगाने की अधिक शक्तियां भी मिली हुई है ।

नगर निगम की स्थापना/विघटन (Establishment / Dissolution of Municipal Corporation):

ADVERTISEMENTS:

राज्य सरकार नगर निगम बनने के मापदण्ड बनाती है, जैसे- जनसंख्या घनत्व आदि । राज्य सरकार ही किसी क्षेत्र को नगर निगम घोषित करती है । राज्य सरकार किसी क्षेत्र के नगर निगम का स्तर कम भी कर सकती है अर्थात उसे नगर परिषद में तबदील भी कर सकती है ।

नगर निगम की संरचना (Structure of Municipal Corporation):

नगर निगम के आंतरिक संगठन को दो भागों में देख सकते हैं:

i. राजनीतिक पदाधिकारी, जिसमें परिषद, मेयर, उपमेयर, और समितियां आती हैं ।

ii. प्रशासनिक कार्मिक वर्ग, जिसमें आयुक्त, अपर आयुक्त, उपायुक्त, विभिन्न अन्य अधिकारी और कार्मिक वृन्द आता हैं ।

(1) परिषद (Council):

प्रत्येक नगरीय निकाय में एक निर्वाचित परिषद होती है । यह नगर निकाय की ”विधायिका” होती है । जिसके सदस्य क्षेत्र के मतदाताओं द्वारा निर्वाचित ”पार्षद” होते हैं । ये पार्षद क्षेत्र के वार्डों से ”एक वार्ड-एक सदस्य” आधार पर चुने जाते हैं । कुछ पार्षद राज्य सरकार द्वारा नामपद भी किये जाते हैं जिन्हें ”एल्डरमेन” कहा जाता है ।

राजस्थान में तीन नगर निगम हैं- जयपुर, कोटा और जोधपुर । इनमें क्रमश: 70, 60 और 50 ”पार्षद संख्या” है । ये सभी सीधे निर्वाचित होते हैं । राजस्थान में ”एल्डरमेन” प्रथा नहीं है ।

सहयोजन प्रथा (Co-Habitation):

राजस्थान में नगर परिषदों में एल्डरमेन प्रथा तो नहीं है लेकिन 5 सदस्यों का सहयोजन अवश्य होता है । इनमें से 1 क्षेत्रीय सांसद, 1 क्षेत्रीय विधायक और 3 ऐसे व्यक्तियों को नामपद किया जाता है जिन्हें नगरीय शासन-प्रशासन का विशेष ज्ञान या अनुभव हो । लेकिन इन्हें परिषद में वोट देने का अधिकार नहीं होता है ।

पार्षद बनने की योग्यता (Ability to Become a Councilor):

राज्य सरकार अधिनियम बनाकर योग्यता/निर्योग्यता तय करती है ।

वर्तमान में योग्यताएँ हैं:

1. भारत का नागरिक हो ।

2. 21 वर्ष की आयु पूरी कर चुका हो ।

3. आयु को छोड़कर अन्य मामलों में विधायक बनने की योग्यता रखता हो ।

निर्योग्यताएं:

विधायक संबंधी निर्योग्यताएं पार्षद पद पर भी लागू होंगी ।

(2) मेयर (Mayor):

मेयर या महापौर नगर निगम का सर्वोच्च पदाधिकारी होता है । यह नगर का प्रथम नागरिक माना जाता है ।

निर्वाचन (Election):

मेयर या तो प्रत्यक्ष रूप से निर्वाचित होता है या पार्षदों द्वारा अप्रत्यक्ष रूप से । राजस्थान में यह अपने मध्य से पार्षदों द्वारा बहुमत के आधार पर चुना जाता है जबकि म.प्र. में सीधे मतदाताओं द्वारा ।

कार्यकाल (Tenure):

इसका कार्यकाल भी परिषद की भांति 5 वर्ष होता है यद्यपि अविश्वास प्रस्ताव द्वारा परिषद इसे एक वर्ष पश्चात कभी भी पदमुक्त कर सकती है ।

कार्य/शक्तियां (Work / Powers):

मेयर की विभिन्न राज्यों में भिन्न-भिन्न शक्तियां देखने को मिलती हैं । लेकिन एक सामान्य देखने को मिलती है । लेकिन एक सामान्य बात यह है कि मेयर को सहपरिषद राजनीतिक प्रमुख बनाया गया है, कार्यकारी प्रमुख नहीं ।

मेयर तीन स्थितियों में निर्णय लेता है:

1. स्वयं के स्तर पर,

2. मेयर-इन-कोंसिल (म.प्र.) या स्थायी समिति के साथ (राजस्थान) या

3. परिषद के साथ ।

लेकिन वह कार्य संचालन नहीं करता अर्थात् नीतियों के निष्पादन के दायित्व से वह मुक्त है । यह कार्य निगमायुक्त करता है । ग्रामीण-नागरिक संबंध समिति (1966) ने भी उसे कार्यकारी दायित्वों से पृथक रखने की सिफारिश की थी ।

(3) उपमेयर या उपमहापौर (Deputy Mayor):

पार्षदगण अपने मध्य में से ही एक उपमहापौर को चुनते हैं जो मेयर की अनुपस्थिति में परिषद का नेतृत्व करता है ।

(4) परिषद अध्यक्ष या सभापति (Speaker of Council):

विधानसभाध्यक्ष की भांति निगम परिषद का भी एक सभापति होता है जो पार्षदों द्वारा अपने मध्य में 5 वर्ष के लिये चुना जाता है । इसका प्रमुख कार्य है परिषद बैठकों की अध्यक्षता करना और उसकी कार्यवाही का संचालन करना । लेकिन यह व्यवस्था राजस्थान में नहीं है यद्यपि राजस्थान के लम्बित नगर पालिका संशोधन अधिनियम में यह प्रावधान प्रस्तावित है ।

(5) नगर आयुक्त (City Commissioner):

जिस प्रकार निगम की विधायी शक्तियां परिषद में निहित हैं, उसी प्रकार प्रशासकीय शक्तियां आयुक्त में निहित हैं । नगर निगम का प्रमुख प्रशासनिक अधिकारी नगर आयुक्त होता है । यह पद सर्वप्रथम मुंबई नगर निगम में 1888 में सृजित किया गया था ।

नियुक्ति (Appointment):

राज्य सरकार द्वारा इसकी नियुक्ति की जाती है । यह I.A.S. या परिष्ट R.A.S. होता है । यह राज्य सरकार की इच्छापर्यन्त ही नगर आयुक्त के पद पर रहता है ।

नगर आयुक्त के कार्य/शक्तियां (Municipal Commissioner’s Powers / Powers):

1. नगर आयुक्त परिषद की बैठकों में भाग लेता है और प्रशासनिक मुद्दों को स्पष्ट करता है । वह परिषद द्वारा चाही गयी जानकारी उपलब्ध कराता है ।

2. वह परिषद और उसकी समितियों द्वारा लिये गये निर्णयों के वैधानिक औचित्य का परीक्षण करता है । विधि विरूद्ध होने पर उन्हें कारण तथा प्रमाण सहित परिषद को लौटा देता है या राज्य शासन को सूचित करता है ।

3. परिषद/समितियों के निर्णयों को क्रियान्वित करता है ।

4. अपने को प्राप्त वित्तीय अधिकारों का उपयोग करके वित्तीय सीमान्तर्गत कार्यों की स्वयं की स्वीकृति देता है ।

5. परिषद को बजट मसौदा तैयार करने में मदद करता है ।

6. निगम के कार्मिक वृन्द पर कार्यकारी नियन्त्रण रखता है । उनके मध्य कार्य विभाजन और कार्य आवंटन करता है । कार्मिकों के समस्त कार्मिक मामलों- वेतन, भत्ते, अवकाश, पदोन्नति, प्रशिक्षण, अनुशासनात्मक कार्यवाही, पेंशन और भविष्य निधि इत्यादि का वह निर्णायक निस्तारण करता है ।

7. तृतीय और चतुर्थ श्रेणी के निगम कार्मिकों की नियुक्ति प्राय: नगर आयुक्त ही करता है ।

(6) समितियां (Committees):

निगम समितियों के माध्यम से अपना अधिकांश कार्य सम्बधित करता है ।

ये समितियां दो प्रकार की होती हैं:

1. वैधानिक और

2. परिषदीय (विधानेतर) ।

वैधानिक समितियां विधानमण्डल द्वारा निगम-अधिनियम में ही प्रस्तावित कर दी जाती हैं जबकि परिषदीय समितियां परिषद स्वयं निर्मित करती हैं । वैधानिक समितियों में सबसे प्रमुख है, स्थायी समिति ।

यह समिति मार्ग दर्शन समिति के रूप में कार्य करती है जो अनेक कार्यकारी, पर्यवेक्षकीय, वित्तीय और कार्मिक शक्तियों का उपयोग करती है । स्थायी समिति अपने में से एक अध्यक्ष चुन लेती है ।

राजस्थान संशोधित नगर पालिका अधिनियम के तहत एक अधिकार सम्पन्न ”कार्यकारी समिति” प्रावधानित है जो नगर निगम, नगर परिषद और नगर पालिका बोर्ड तीनों में कार्य करेगी ।

इसकी सदस्य संरचना होगी:

(i) प्रमुख, जो परिषद का अध्ययन/मेयर ही होगा ।

(ii) उपप्रमुख, जो-उपाध्यक्ष/उपमेयर ।

(iii) 7 सदस्य जो परिषद द्वारा अपने मध्य से चुने जाएंगे ।

(iv) अन्य समितियों के अध्यनों में से कुछ का चयन जो परिषद नियमानुसार करेगी ।

वार्ड समितियां (अनुच्छेद 243-ध या 243-एस) (Ward Committees):

1. तीन लाख से अधिक आबादी वाले नगरीय निकायों में वार्ड समितियों का गठन अनिवार्यत: होगा ।

2. वार्ड समिति की संरचना, उसमें शामिल क्षेत्र और उसके स्थानों को भरने की प्रक्रिया राज्य विधानमंडल तय करेगा ।

3. एक वार्ड समिति में एक या अधिक वार्ड रखे जा सकते हैं ।

4. वार्ड पार्षद भी उस वार्ड समिति का सदस्य होगा जिसके अंतर्गत उसका वार्ड आता है । ऐसा सदस्य वार्ड समिति का पदेन अध्यक्ष होगा ।

5. राज्य विधानमंडल वार्ड समितियों के अलावा भी अन्य समितियों को स्थापित कर सकती है ।

राजस्थान में कार्यरत तीनों नगर निगम चूंकि उपर्युक्त शर्त को पूरा करते हैं ।

अत: इन सभी में निम्नांकित प्रकार से वार्ड समितियों का गठन किया गया है, ऐसी प्रत्येक वार्ड समिति में:

(क) वार्ड समिति के क्षेत्र के भीतर वार्डों का प्रतिनिधित्व करने वाले परिषद के सदस्य, और

(ख) बोर्ड द्वारा नाम निर्देशित किए जाने वाले अधिकतम पांच सदस्य जिनकी आयु 25 वर्ष से कम न हो और जो नगरपालिका प्रशासन की विशेष जानकारी या अनुभव रखते हों । इस कोटि के सदस्यों को समिति की बैठकों में मत देने का अधिकार नहीं होगा ।

ऐसी समितियां अपनी प्रथम बैठक में से एक को समिति का अध्यक्ष निर्वाचित करेंगी । वार्ड समिति की कालावधि निगम की परिषद की कालावधि के समान होगी । ऐसी समितियों के कृत्य और कर्त्तव्य परिषद द्वारा निश्चित किए जाएंगे ।

2. नगर परिषद (City Council):

1994 में संशोधित राजस्थान नगरपालिका अधिनियम, 1969 के तहत राजस्थान में लघुत्तर नगरीय क्षेत्र (पूर्ण नगर लेकिन छोटा नगर) के लिये ”नगर परिषद” कार्यरत है । वस्तुत: यह नगरपालिका बोर्ड (संविधान में उल्लेखित नगर पंचायत का राजस्थानी संस्करण) का उन्नत स्तर है ।

गठन:

राज्य सरकार द्वारा छोटे नगरों में ”नगर परिषद” स्थापित की जाती है । इस हेतु सरकार ने 1 लाख से अधिक किन्तु 5 लाख से कम जनसंख्या को आधार बनाया है । तदनुरूप 2007 में राजस्थान में 11 नगर परिषदें स्थापित कीं ।

संगठन (Organization):

परिषद का संगठन निम्नलिखित घटकों के द्वारा होता है:

(1) परिषद (Council):

प्रत्येक नगरपरिषद की एक निर्वाचित परिषद होती है जिसके सदस्य पार्षद कहलाते हैं । नगरीय क्षेत्र उतने वार्डों में विभक्त होता है जितना राज्य शासन जनसंख्या के आधार पर घोषित करें । प्रत्येक वार्ड से एक पार्षद प्रत्यक्ष मतदान द्वारा चुना जाता है ।

इसके अलावा कुछ सदस्य सरकार नामजद भी करती है जिनकी संख्या तय नहीं है । परिषद का प्रमुख कार्य है, स्थानीय क्षेत्र के लिये दिये गये 18 विषयों पर नीतियों का निर्माण करना ।

(2) अध्यक्ष/उपाध्यक्ष (President / Vice President):

परिषद अपने मध्य में से ही बहुमत के आधार पर एक अध्यक्ष और एक उपाध्यक्ष को चुनती है । अध्यक्ष परिषद की बैठकों की अध्यक्षा करता है और प्रशासनिक वृन्द पर भी सामान्य और कार्यकारी नियंत्रण रखता है । इस प्रकार मेयर से अधिक शक्तिशाली भूमिका में नगर परिषद का अध्यक्ष होता है । वह नगर का प्रथम नागरिक माना जाता है । राजस्थान नगरपालिका अधिनियम, 1959 की धारा 67 एवं 78 में अध्यक्ष के कर्त्तव्य गिनाए गए हैं ।

जिनमें प्रमुख इस प्रकार हैं:

i. वह नगर परिषद या नगरपालिका की बैठक आमंत्रित करेगा और उनकी अध्यक्षता करेगा, जब तक कि कोई उपर्युक्त कारण उसे ऐसा करने से रोक न दे, वह बैठक का कार्य संचालन करेगा ।

ii. राजस्थान नगरपालिका अधिनियम द्वारा उसे सौंपी गई शक्तियों और कर्त्तव्यों का प्रयोग करेगा ।

iii. नगरपालिका के वित्तीय और कार्यकारी प्रशासन पर पर्यवेक्षण व नियंत्रण रखेगा ।

iv. नगरपरिषद/नगरपालिकाओं के हिसाब-किताब, रिकार्ड और कर्मचारियों से संबंधित मामलों का पर्यवेक्षण और नियंत्रण करेगा । नियमों के अधीन रहते हुए समस्त कार्मिक मामलों का समाधान करेगा तथा

v. नगरपालिका द्वारा पारित संकल्प की प्रतिलिपि सरकार द्वारा नियुक्त प्राधिकारी को प्रस्तुत करेगा ।

अध्यक्ष की अनुपस्थिति में उसके कार्यों, दायित्वों का निर्वहन उपाध्यक्ष करता है ।

(3) अधिशासी अधिकारी (Executive Officer):

नगर परिषद का प्रमुख प्रशासनिक अधिकारी ”अधिशासी अधिकारी” कहलाता है । वह अध्यक्ष के सामान्य नियंत्रण में रहते हुऐ नीतियों का क्रियान्वयन करने के लिये उत्तरदायी हैं । वह राज्य लोकसेना आयोग द्वारा चयनित होता है या अधीनस्थ कार्मिकों में से पदोन्नत भी होता है । कुछ बड़े नगरों की नगर परिषदों में अधिशासी अधिकारी के स्थान पर आयुक्त नियुक्त होते हैं । ये I.A.S. या वरिष्ठ R.A.S. होते हैं ।

(4) समितियां (Committees):

नगरपरिषद में भी नगर निगम की भांति दो प्रकार की समितियां पायी जाती हैं:

i. वैधानिक और

ii. विधानेतर ।

यहां स्थायी समिति सबसे अधिक प्रभावशाली समिति होती है । उन नगरपरिषदों में जहां जनसंख्या 3 लाख से अधिक है निगम की भांति ही वार्ड समितियों का गठन किया गया है ।

3. नगर पालिका बोर्ड (Municipal Board):

74वें संशोधन ने गांव से नगर की और संक्रमित क्षेत्र के लिये नगर पंचायत शब्दावाली इस्तेमाल की है, जिसे राजस्थान नगर पालिका संशोधन अधिनियम, 1994 में ”नगरपालिका बोर्ड” कहा गया है । इनकी संगठन संरचना नगर परिषद के समान ही होती है ।

राजस्थान में इन बोर्डों की तीन श्रेणियां हैं:

(1) प्रथम श्रेणी बोर्ड- 50 हजार से अधिक लेकिन 1 लाख से कम जनसंख्या वाले क्षेत्र ।

(2) द्वितीय श्रेणी बोर्ड- 25 हजार से अधिक लेकिन 50 हजार से कम जनसंख्या वाले क्षेत्र ।

(3) तृतीय श्रेणी बोर्ड- 25 हजार से कम जनसंख्या वाले क्षेत्र ।

स्पष्ट है कि श्रेणी नगरपालिका बोर्ड को “नगर परिषद” नामक द्वितीय स्तर के निकाय में शामिल किया जाता है ।

राजस्थान में नगरीय निकायों संख्या (Urban Bodies Number in Rajasthan):

नगर निगम- 3 (जयपुर, जोधपुर, कोटा)

नगर परिषद- 11

नगरपालिका बोर्ड- 168

(द्वितीय श्रेणी- 39, तृतीय श्रेणी-58, चतुर्थ श्रेणी- 71) ।