Read this article in Hindi to learn about:- 1. प्राचीन भारत में वित्तीय प्रशासन (Financial Administration in Ancient India) 2. मुगलकाल में वित्त प्रशासन (Finance Administration in the Mughal Period) 3. ईस्ट-इण्डिया कम्पनी (East India Company) and Other Details.

प्राचीन भारत में वित्तीय प्रशासन (Financial Administration in Ancient India):

चार शताब्दी ईसा पूर्व चाणक्य कौटिल्य ने सर्वप्रथम लोक वित्त के सिद्धांतों का प्रतिपादन किया था । कौटिल्य ने आय तथा व्यय का वर्गीकरण किया था । भूमिकर आय का मुख्य साधन था ।

कौटिल्य के अनुसार भूमिकर, कुल उत्पादन का 1/10 से 1/6 तक रखा जाना चाहिये । प्राचीन भारतीय वित्त प्रशासन में ‘घाटे के बजट’ का कोई अस्तित्व नहीं था । ब्रिटिश-पूर्व भारत में केवल ‘मुहम्मद-बिन-तुगलक’ ने 1330 ई. में घाटे की अर्थ व्यवस्था को अपनाया था ।

मुगलकाल में वित्त प्रशासन (Finance Administration in the Mughal Period):

मुगलकाल में प्रत्यक्ष करों में भूराजस्व, आयकर आदि सम्मिलित थे । अप्रत्यक्ष करों में सीमा शुल्क, बिक्री, चुंगी, अबकारी आदि सम्मिलित थे । गैर-कर आय मुस्लिम वित्तीय प्रशासन की महत्वपूर्ण विशेषता थी । राजस्व प्रशासन के आधारभूत ढांचे का निर्माण शेरशाह शूरी ने किया था ।

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उसके दीवान राजा टोडरमल ने भूराजस्व को निर्धारित तथा एकत्रित करने की नियमावली का निर्माण किया था । यद्यपि मुगलों की भू-राजस्व पद्धति रैयतवाड़ी थी तथापि मुगलों ने भू-राजस्व के लिए एक मध्यवर्ती संबंध पद्धति की भी व्यवस्था की थी, जिसको बाद में सन् 1793 में लार्ड कार्नवालिस ने ‘स्थायी बन्दोबस्त’ में परिवर्तित किया ।

ईस्ट-इण्डिया कम्पनी के अधीन वित्त प्रशासन (Finance Administration under East India Company):

कम्पनी के वित्तीय प्रशासन की शुरूवात सन् 1765 (बक्सर की लड़ाई) के पश्चात् हुई । भारत के वित्त पर कम्पनी का पूर्ण स्वामित्व था तथा भारत से प्राप्त धन कम्पनी की व्यापारिक आय मानी जाती थी । ब्रिटिश संसद अत्यधिक भ्रष्टाचार होने पर ही कम्पनी के प्रशासन में हस्तक्षेप करती थी तथा समय-समय पर सुधार अधिनियम पारित करती थी ।

गवर्नर जनरल की अधिकारिता केवल बंगाल तक होती थी । युद्ध के समय गवर्नर-जनरल प्रान्तों के उपलब्ध का धन का उपयोग कर सकता था अन्यथा प्रान्तीय वित्त पर, प्रान्त के ‘गवर्नर’ का स्वामित्व होता था । सन् 1833 के अधिनियम के द्वारा यह व्यापारिक कंपनी एक प्रशासकीय तन्त्र के रूप में परिवर्तित हो गयी तथा भारतीय वित्त का केन्द्रीयकरण कर दिया गया ।

किसी भी प्रान्तीय सरकार को गवर्नर जनरल की पूर्व स्वीकृति के बिना किसी नये पद का सृजन करने अथवा नये वेतन, अनुतोषिक अथवा भत्ते देने की शक्ति नहीं रही । वित्त सचिव को सन् 1854 में भारत का महालेखाकार बनाया गया ।

ब्रिटिश शासन के अधीन वित्त प्रशासन (Financial Administration under British Rule):

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राज्य सचिव (सक्रेटरी आफ स्टेट-इन कौंसिल) वित्तीय पद्धति के मुख्य नियंत्रक थे । “गवर्नर-जनरल-इन कौंसिल” केवल प्रदत्त वित्तीय अधिकारियों का प्रयोग करते थे तथा वित्त विभाग भारतीय वित्त का संरक्षक होता था । मुख्य नियंत्रक के पास लेखा तथा लेखा परीक्षा का दोहरा उत्तरदायित्व था । अंग्रेजों ने भारत में वित्तीय पद्धति को ब्रिटिश वित्तीय पद्धति के अनुसार ढाला । इसलिए डेविड बारबोर ने वैल्वी आयोग के समक्ष कहा था कि- ”हम अपने वित्तीय सिद्धांत इंग्लैण्ड से लेते है ।”

ब्रिटिश कालीन वित्तीय सिद्धांत:

भारतीय वित्त प्रशासन ब्रिटिश संसद के प्रति उत्तरदायी था किन्तु क्रियात्मक रूप में यह ”राज्य-सचिव” के प्रति उत्तरदायी होता था ।

सन् 1870 ई. में लार्ड मेयो द्वारा प्रस्तावित वित्तीय सिद्धांत के उद्देश्य थे:

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1. आर्थिक ढांचे में स्थिरता लाना ।

2. केन्द्र तथा प्रान्तीय सरकारों के कार्यों था भावनाओं में एकरूपता लाना ।

3. स्वशासन के विकास के अवसर उत्पन्न करना ।

4. यहां के मूल निवासियों तथा यूरोपवासियों में और अधिक सहयोग सुनिश्चित करना ।

सन् 1877 में लार्ड लिटन ने वित्तीय विकेन्द्रीकरण के संबंध में दूसरा महत्वपूर्ण कदम उठाया । भू-राजस्व, अबकारी स्टाम्प, सामान्य प्रशासन, लेखन सामग्री, कानून तथा न्याय एवं कर राजस्व केन्द्र से प्रान्तों को हस्तान्तरित कर दिये गये ।

सन् 1882 में लार्ड रिपन ने आय तथा व्यय की निम्नलिखित तीन श्रेणियां बनायी:

1. शाही,

2. विभाजित,

3. प्रान्तीय ।

लार्ड कर्जन ने सन् 1904 में स्थायी बन्दोबस्त को संशोधित करके अर्द्ध-स्थायी बना दिया ।

शाही विकेन्द्रीकरण आयोग ने निम्नलिखित मुख्य सिफारिशें दी:

1. गवर्नर-जनरल को प्रान्तों को दिये गये राजस्व में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए ।

2. प्रान्तों की आवश्यकताओं के अनुसार ही राजस्व का बंटवारा करना चाहिए ।

3. अवशिष्ट राजस्व के कुछ मुख्य शीर्षों में से राजस्व निश्चित अंश के रूप में केन्द्र द्वारा लिया जाना चाहिए ।

उपर्युक्त प्रस्तावों को सन् 1912 में भारत सरकार ने अपना लिया । इसके अनुसार राजस्व का वितरण प्रान्तों के राजस्व के स्थान पर प्रान्तों की आवश्यकताओं पर आधारित किया गया ।

सन् 1919 के अधिनियम ने विकेन्द्रीकरण तथा उत्तरदायित्वों को दो भागों में विभक्त किया, जिसमें केन्द्र को 47 विषय तथा प्रान्तों को 52 विषय दिये गये । जो विषय स्पष्ट न हो उस पर गवर्नर-जनरल इन कौंसिल का निर्णय सर्वोपरि माना गया ।

इस व्यवस्था से केन्द्र के वित्त में घाटा अपेक्षित था, जिसे लार्ड मैस्टन अधिनिर्णय के द्वारा पूरा करने की व्यवस्था की गयी । सन् 1935 का अधिनियम प्रान्तीय स्वायत्ता की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम था । इसके अनुसार केन्द्र और प्रान्तों के विषयों को तीन सूचियों में बांटा गया- संघीय, प्रान्तीय तथा समवर्ती सूची ।

सन् 1936 में सर आटो निम्यर अधिनिर्णय द्वारा केन्द्र तथा प्रान्तों में वित्तीय स्रोतों का विभाजन किया गया । भारत सरकार के सन् 1935 के अधिनियम ने भारतीय वित्त प्रशासन के प्रजातन्त्रीय मार्ग को प्रशस्त किया ।

स्वतन्त्रता पश्चात् वित्त प्रशासन (Post Independence Finance Administration):

a. स्वतन्त्रता के पश्चात् वित्तीय क्षेत्र में सबसे पहली समस्या देशी रियासतों के वित्तीय एकीकरण की थी । इस समस्या से निबटने के लिए अक्टूबर 1948 को वी.टी. कृष्णमाचारी की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया गया ।

b. 1 अप्रैल 1950 को सभी देशी रियासतों में वित्तीय एकीकरण की प्रक्रिया सम्पन्न हुई । जम्मू तथा कश्मीर के साथ एकीकरण 14 मई 1954 को हुआ ।

c. भारतीय संविधान में कर लगाने, उन्हें उगाने तथा उनसे एकत्रित धन को वितरित करने की उचित व्यवस्था की गयी है । सन् 1968-69 से परम्परागत या रूढ़िवादी बजट के स्थान पर निष्पादक बजट को भारत सरकार तथा अन्य बहुत से राज्यों ने अपनाया । स्वतन्त्रता के पश्चात् सामाजिक-आर्थिक लाभ और लागत विश्लेषण के आधार पर निर्णय लेने की व्यवस्था की गयी ।

d. सन् 1972 में लोक निवेश बोर्ड का तथा योजना आयोग में परियोजना प्रभाग का गठन किया गया ।

e. वित्तीय सुधारों में एक महत्वपूर्ण कदम के तहत सन् 1976 में भारत सरकार के लेखांकन को लेखा परीक्षण से अलग कर दिया गया ।