लोक प्रशासन का महत्व | Importance of Public Administration in Hindi!

आधुनिक युग में प्रशासन की बढती गतिविधियों न इसका महत्व एक शास्त्र और क्रिया दोनों रूपों में बढाया है । प्रशासन का महत्व प्राचीन काल में भी था जब समाजीकरण की प्रक्रिया के एक अन्तर्निहित तत्व के रूप में प्रशासन की संस्थापना और विकास होता रहा ।

विकसित होते समाजों की एक अनिवार्य आवश्यकता सुव्यवस्थित प्रशासन और उसमें निरन्तर वृद्धि की होती है। यह वृद्धि एक सीमा तक आकार में भी होती है और उसकी कार्यक्षमता और कार्यप्रणाली में तो यह निरन्तर अपेक्षित रहती है ।

वर्तमान राज्यों में लोक प्रशासन के महत्व में गुणात्मक परिवर्तन लाने के पीछे जो सर्वाधिक महत्वपूर्ण कारक तत्व है वह राज्य की लोक कल्याणकारी भूमिका है । इस एक फैक्टर ने ही राज्य पर विभिन्न क्षेत्रों में अनेकों दायित्व डाल दिये हैं और इनकी पूर्ति के लिए राज्य की निर्भरता प्रशासन पर ही है ।

ADVERTISEMENTS:

लोक प्रशासन प्रत्येक राज्य का एक अनिवार्य लक्षण है, चाहे वह पूंजीवादी है, समाजवादी हो या अधिनायकवादी हो और इनमें से प्रत्येक में उसकी भूमिका अधिकाधिक महत्व की है क्योंकि राज्य का दर्शन प्रत्येक प्रणाली में व्यक्तिवादी के स्थान पर सामुदायिक, अहस्तक्षेप से हस्तक्षेपनीय और नियामक से जनहितकारी हो गया है ।

कुछ प्रणालियों में तो इन सकारात्मक प्रवृत्तियों पर अत्यधिक बल दिया जाता है । यदि आज भी समाज में सबसे अधिक कार्य-दायित्वों के बोझ से लोक प्रशासन दबा हुआ है और प्रत्येक व्यक्ति या समुदाय को अपनी कतिपय आवश्यकता की पूर्ति का एकमात्र स्रोत या विकल्प यही नजर आता है, तो इसके पीछे राज्य की यह भावना है जो संपूर्ण समाज को सुखी, निष्कंटक और शांतिपूर्ण जीवन ज्ञापन देने का संकल्प उठाये हुये हैं ।

इस भावना ने प्रशासन को घरों के भीतर किचन, शौचालयों से लेकर उसके बाहरी पर्यावरण में घटित प्रत्येक गतिविधि तक व्याप्त कर दिया है । इसीलिए डिमाक यदि आज के राज्य को ”प्रशासकीय राज्य” की संज्ञा देत हैं तो कोई चूक नहीं करते हैं ।

राज्य और प्रशासन के कार्यों में भारी बढोतरी का कारण मात्र राजनीतिक दर्शन में परिवर्तन ही नहीं है, अपितु इसके पीछे कुछ अन्य सहायक कारण भी मौजूद रहे हैं – जैसे औद्योगिकीकरण और अनुषंगी शहरीकरण में वृद्धि, जनसंख्या में दूतगामी वृद्धि, महायुद्धों के परिणामों से उपजी स्थिति आदि ।

ADVERTISEMENTS:

उक्त सभी कारक तत्वों ने समाज को ”वृहत समाज” में तबदील कर दिया और इसके लिए “बड़ी सरकार” अस्तित्व में आयी । एम. मार्क्स के अनुसार बड़ी सरकारों को अपने विस्तृत कार्यकलापों को संपन्न करने के लिए बड़े संसाधनों की आवश्यकता होती है अर्थात एक व्यापक उद्देश्यों और आकार वाली प्रशासनिक मशीनरी ।

1. लोक कल्याणकारी प्रशासन:

आज का राज्य लोक कल्याणकारी है । उसने अपने नागरिकों की सर्वागीण उन्नति के लिए तथा उन्हें विस्तृत सुख-सुविधा प्रदान करने के लिए अपना विस्तार और हस्तक्षेप जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में कर लिया है । राज्य अपने इन दायित्वों की पूर्ति वैसी ही भावना से ग्रस्त प्रशासन के माध्यम से ही कर सकता है । अत: प्रशासन भी लोक कल्याणकारी है या उसे ऐसा होना चाहिए । उल्लेखनीय है कि पहले राज्य और उसका प्रशासन ”पुलिस” स्वरूप का था, जो जनकल्याण के स्थान पर राज्य पोषित अवधारणा से ग्रस्त था ।

उसके कार्य सीमित थे, जबकि अब “जनकल्याण” कर्ता के रूप में उसके कार्यों का दायरा असीमित और अपरिमित है । इन बढते दायित्वों ने लोक प्रशासन के अध्ययन को सर्वाधिक महत्वपूर्ण बनाया है । वस्तुत: लोक कल्याणकारी अवधारणा के एक पहलू ने ही लोक प्रशासन के महत्व को जमीन से उठाकर आसमान पर बैठा दिया है ।

2. प्रशासकीय राज्य की संकल्पना:

लोक कल्याण की अवधारणा ने ही पुलिस राज्य को प्रशासकीय राज्य में बदला है । मनुष्य की देखभाल एक आया की भांति करने के राज्य के उद्देश्य ने प्रशासन को समग्र जीवन की प्रत्येक गतिविधि, अवस्था तक विस्तृत कर दिया है । गर्भस्थ शिशु की देखभाल (टीकाकरण अन्य स्वास्थ्य जांच) से लेकर उसके सुरक्षित प्रसव, शिक्षा और रोजगार की व्यवस्था करने तक लोक प्रशासन पग-पग पर मानव की सेवा में लगा रहता है ।

ADVERTISEMENTS:

फाइनर के अनुसार वह झूले से लेकर कब्र तक मानव के साथ है । मानव की निर्भरता अपने प्रशासन पर निरन्तर बढ़ती जा रही है । प्रशासन पर दबाव भी उसी अनुपात में बड़ रहा है । वस्तुत: समाज का स्वरूप जिस प्रकार बड़े समाज के रूप में रूपान्तरित हुआ है, तदनुरूप प्रशासन भी बड़ी सरकार के साधन के रूप में बड़ा प्रशासन हो गया है । वस्तुत: राज्य समाज तक प्रशासन के माध्यम से पहुंचता है और समाज को प्रशासन ही सेवा प्रदाय करता दिखायी देता है, अतएव डिमॉक, वाल्डो जैसे विद्वानों ने आज के राज्य को प्रशासकीय राज्य की संज्ञा दी है ।

3. सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन का साधन:

तृतीय विश्व के अनेक राष्ट्रों में सामाजिक, आर्थिक सिमताओं की खाई अत्यन्त गहरी है । भारत जैसे विकासशील देशों में आर्थिक शक्तियों के केन्द्रीकरण और जनसंख्या बस्फोट ने भूखमरी, बेकारी, गरीबी जैसी समस्याओं को गम्भीर बना रखा है, वही सामाजिक रूप से ऊंच नीच, छूआछूत जैसी भावनाओं ने भी समाज को जकड़ रखा है ।

राज्य द्वारा इनकों मिटाने के संवैधानिक संकल्पों, नीति प्रदर्श को साकार करने का दायित्व लोक प्रशासन के कंधों पर है । पं नेहरू के अनुसार- “प्रशासन सभ्यता का रक्षक मात्र ही नहीं अपितु सामाजिक आर्थिक परिवर्तन का महान साधन” ।

4. सभ्यता का रक्षक:

डोनहम ने बहुत पहले कह दिया था कि यदि हमारी सभ्यता नष्ट होती है तो यह प्रशासन की असफलता का परिणाम होगा । वस्तुत: आधुनिक खोजों ने जहां जनता को अनेक सुविधाएँ मुहैया करवायी है, वही अराजक, असंतोषी समाज विरोधियों के हाथों में तोड़-फोड़ के साधन भी दे दिए हैं ।

इनसे समाज की सुरक्षा का दायित्व प्रशासकों पर है । इसी प्रकार आधुनिक युग की प्रवृत्तियों ने जनता की आकांक्षाएं बेतहाशा बड़ा दी हैं, वह सरकार से नीति की नई अपेक्षा करने लगी है । औद्योगिकीकरण आदि न जहां पर्यावरण के लिए खतरा पैदा किया है, वही उसकी तकनीकों का एक परिणाम बेकारी और गरीबी के टापुओं के रूप में प्रकट हुआ है । इससे समाज में असंतोष पनप रहा है ।

प्रशासन को न सिर्फ भौतिक लाभों को हर तबके तक पहुंचाना है, अपितु उनकी निरन्तर आपूर्ति भी सुनिश्चित करना है, अन्यथा असंतोष का ज्वालामुखी समाज, सभ्यता सबको इतिहास की वस्तु बना देगा । एल. डी. व्हाइट के अनुसार प्रशासन आधुनिक जीवन की आशा, अच्छी जिन्दगी का साधन है ।

5. प्रशासन: एक नैतिक कार्य:

आधुनिक दुष्प्रवृत्तिया सभ्यता को रौंद रही है, समाज में व्याभिचार आदि को बढावा दे रही है और समाज नैतिक पतन की ओर अग्रसर है । ऐसे समय प्रशासन को ही राज्य निर्देशानुसार समाज में शुचिता, नैतिकता सुनिश्चित करने के लिए कदम उठाना है, अनैतिकता को नियन्त्रित करना है और सभ्यता को सुरक्षित रखना है । टीड ने प्रशासन को नैतिक कार्य और प्रशासक को नैतिक अभिकर्ता इसीलिए कहा है ।

6. प्रशासन एक अनिवार्यता:

जनता के लिए नीति का निर्माण राजनीतिज्ञ करते हैं, लेकिन इन्हें अमल में लाने वाला प्रशासन जब तक सक्रीय नहीं होता, उन नीतियों का कोई मूल्य नहीं है । हरमन फाइनर के अनुसार, ”किसी देश का संविधान कितना ही श्रेष्ठ हो, मंत्रीगण कितने ही योग्य हों, बिना दक्ष प्रशासकों के शासन सफल नहीं हो सकता ।”

7. नीति को व्यवहारिक रूप देना:

व्यवस्थापिका नीति का मोटा मसौदा बना देती है, उसे व्यवहारिक रूप प्रशासन ही देता है, जो जनता के सम्पर्क में रहता है और सामाजिक आवश्यकता आदि से भलीभांति परिचित होता है ।

8. सामाजिक स्थिरता में योगदान/समाज का प्रेरणा स्रोत:

परिवर्तनशील सामाजिक जीवन में पुराने और नये मूल्यों के मध्य उचित समन्वय स्थापित कर लोक प्रशासन सामाजिक स्थिरता सुनिश्चित करता है । वह सामाजिक प्रगति के स्वस्थ्य तत्वों को प्रोत्साहित कर, आर्थिक-सामाजिक उन्नति की बाधाओं को दूर कर भी सामाजिक स्थायित्व को आधार प्रदान करता है । जोशिया स्टाम्प के अनुसार लोक प्रशासन समाज को प्रेरणा देने वाला स्रोत है ।

9. आपातकालीन या युद्धकालीन सेवा:

युद्धकालीन परिस्थितियों में लोक प्रशासन सम्पूर्ण जनशक्ति, देश के संसाधन आदि का संगठन-निर्देशन प्रतिरक्षा के लिए करता है । वह देश में वस्तुओं, सेवाओं के उत्पादन, वितरण को ऐसे समय भी सुचारू रूप से बनाए रखने में योगदान देता ।

10. प्रशासन: सर्वाधिक महत्व हासिल करता विषय:

जिस प्रकार से समाज में तीव्र परिवर्तन हो रहे हैं, उसी प्रकार से प्रशासन को भी बदलना पड़ रहा है । उसके संगठन, कार्यों में अनेक परिवर्तन हो रहे है । वस्तुत: प्रशासन को बदलती परिस्थितिनुसार रूपान्तरित होना जरूरी है, अत: उसका अध्ययन विश्लेषण दिनोदिन महत्व हासिल करता गया है । यदि शासन प्रबन्ध के स्वरूप पर से ध्यान हट गया तो समाज और राज्य ढह जाएंगे ।

फाइनर के शब्दों में कुशल प्रशासन सरकार का एकमात्र अवलम्ब है, जिसकी अनुपस्थिति में राज्य ही क्षत-विक्षत हो जाएगा । स्पष्ट है कि प्रशासन के विषय का अध्ययन अत्यधिक महत्वपूर्ण हो गया है । बेयर्ड ने भी कहा है कि प्रशासन से अधिक महत्वपूर्ण अन्य विषय नहीं है । लोक प्रशासनों को चुनौतियों से निपटने के ढंग, नीतियों में समन्वय स्थापित करने की विधियां, कार्मिकों को अनुशासित करने के तरीके आदि का ज्ञान कराकर प्रशासन नेतृत्व का विकास करता है ।

उपर्युक्त सन्दर्भों में कहा जा सकता है कि राज्य हो या समाज, हमारी भौतिक प्रगति सभी का आधार प्रशासन है । लोक प्रशासन सरकार की वह एकमात्र एजेन्सी है जिसने व्यवस्था कायम रखी है, प्रगति हेतु शांति सुनिश्चित की है, उपलब्धियों को जनता तक पहुँचाना है और इस प्रकार से मानव जाति के लिए एक निश्चितता मुहैया करवायी है ।

लेकिन अनेक देशों में लोक प्रशासन अनेकानेक विकृतियों से ग्रस्त है, विशेषकर विकासशील पिछड़े देशों के प्रशासन में भाई-भतिजावाद, भ्रष्टाचार, विलम्ब, अहम जैसी भावनाएं विध्यमान है, जिससे यह जन रक्षक प्रशासन ही जन भक्षक बन जाता है, जनता के शोषण का तन्त्र बन जाता है और उसकी छवि धूमिल हो जाती है । नौकरशाही को आज भी समाज अपना हितैषी या मित्र मानने के बजाय उससे डरता है। इससे उसका महत्व संदेह के घेरे में आ जाता है ।

निष्कर्षत:

लोक प्रशासन अपनी तमाम कमियों के बावजूद आधुनिक समाजों का केन्द्र बना हुआ है । यदि उसमें खामियां है, तो उन्हे दूर करने के लिए चिंतन किया जा रहा है, उनमें खुबियां हैं तो उन्हें और नया स्वरूप दिया जा रहा है । ग्लैडन का कथन उपयुक्त है कि ”हम चाहें या न चाहें लोक प्रशासन अब एक अनिवार्य आवश्यकता बन गया है ।

यदि हम सोचते है कि इसका विस्तार अधिक हो गया है तो उसे सीमित करने के लिए अध्ययन करना होगा, यदि इसे सामाजिक कल्याण का साधन समझते हैं तो इसका अध्ययन इसलिए करना होगा कि इसे अधिक क्षमतावान बना सकें । वस्तुत: लोक प्रशासन प्रत्येक नागरिक के अध्ययन, चिंतन, मनन का विषय बन गया है ।

11. लोक कल्याणकारी राज्य में लोक प्रशासन:

आधुनिक राज्य लोक कल्याणकारी है या ऐसे स्वरूप की तरफ उन्मुख है, अर्थात उन्होंने अपना ध्येय समाज के प्रत्येक व्यक्ति के कल्याण का बना लिया है । निसन्देह व्यक्ति या समाज का कल्याण करने के लिए राज्यों के पास कोई अलाद्‌दीन का चिराग नहीं है । इसके लिए उन्हें अपने प्रशासन पर ही निर्भर रहना है ।

लोक कल्याणकारी राज्य का अर्थ होता है मानव मात्र को संपूर्ण भौतिक सुख-सुविधाएँ मुहैया कराना, उनकी कठिनाइयों की दूर करना ओर उन्हें यह एहसास कराना कि उनके हर कदम पर राज्य सहायता हेतु उपलब्ध है ।

प्रो. कैन्ट के अनुसार- ”एक लोक कल्याणकारी राज्य वह है जो नागरिकों को विस्तृत सुविधाएं/सेवाएं प्रदान करें ।”

पं. जवाहरलाल नेहरू के शब्दों में- ”लोक कल्याणकारी राज्य के मूलाधार हैं- सबके लिए समान अवसर, अमीर-गरीब के अन्तर को मिटाना तथा जीवन स्तर ऊँचा उठाना ।”

संक्षेप में, ”लोक कल्याणकारी राज्य वह है जिसने वे सब गतिविधियाँ अपने लिए स्वीकार की है, जिनका संबंध जनता के सभी पक्षों के समान उत्थान और प्रगति से है ।”

ये लोक कल्याणकारी गतिविधियां विविध सामाजिक-आर्थिक पक्षों से विस्तृत रूप में संबंधित होती हैं, जैसा भारतीय संविधान के निर्देशक तत्वों में वर्णित है । जनता को सभी बुनियादी सुविधाएं उपलब्ध कराना ऐसे राज्यों का पहला लक्ष्य होता है ।

शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, परिवहन, पेयजल प्रत्येक नागरिक की पहुँच में हो- इसके प्रयत्न राज्य करता है । समाज के वंचित तबकों के लिए विशेष योजनाएँ बनायी जाती है, निःशक्तों, बुढ्डों, बच्चों, महिलाओं पर विशेष ध्यान दिया जाता है तथा प्रत्येक मानवीय, प्राकृतिक या भौतिक आपदा के समय प्रभावितों की विशेष मदद की जाती है ।

ऐसे दृष्टिकोण के चलते राज्य के क्रियाकलापों का अत्यधिक विस्तार हो जाता है और उन्हें अंजाम देने वाले तत्व के रूप में लोक प्रशासन पर इन कार्यों के साथ उम्मीदों का बोझ भी अत्याधिक बड़ जाता है । वस्तुत: एक लोक कल्याणकारी राज्य का प्रशासन भी सैंधान्तिक रुप से लोक कल्याणकारी हो जाता है ।

उसके आकार के साथ कार्यकुशलता में भी वृद्धि इन दायित्वों की पूर्ति के लिए बेहद जरूरी होती है । समय पर जनता को समुचित सेवाएं सुलभ हो सके यह प्रशासन के समक्ष एक बडी चुनौती होती है ।

उसे गर्भ से लेकर कब्र तक मानव के साथ जुड़े रहकर सामाजिक सुरक्षा का वाहक बनना होता है । इतनी सब जिम्मेदारियों को पूरा करने के लिए समाज में शांति-व्यवस्था सुनिश्चित रखने की उसकी चिरकालिक परम्परागत भूमिका भी अत्यधिक महत्व की हो जाती है ।

12. लोकतंत्र में लोक प्रशासन:

लोकतंत्र आज के विश्व में सर्वाधिक प्रचलित शासन प्रणाली है । अमेरिका और पश्चिमी यूरोप के देशों में यह कॉफी समय से कार्यरत है । यहीं से इसका प्रचार प्रसार तृतीय विश्व के अनेक देशों में हुआ है । अब्राहम लिंकन की प्रसिद्ध परिभाषा ”लोकतंत्र जनता का, जनता द्वारा, जनता के लिए शासन है ।”

लोकतंत्र की एक संपूर्ण परिभाषा बनी हुई है । लोकतंत्र के प्रमुख लक्षण होते हैं- जनता द्वारा प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से चुने गये प्रतिनिधियों द्वारा देश की नीतियों का निर्धारण, जनता से शासकवर्ग का संबंध, जनता सर्वोपरी न कि शासक वर्ग, जनता को अपनी पसंद-नापसंद व्यक्त करने का अधिकार और अवसर, प्रशासन जनता के प्रति उत्तदायी आदि ।

वस्तुत: ”लोकतंत्र” शासन की एक खुली प्रणाली या व्यवस्था है जिसमें शासन-प्रशासन जनता के सामने रहकर काम करते हैं और जनता से उनके महत्व की बाते नहीं छिपायी जाती । इसमें आम और खास के स्थान पर सभी को समान मानकर चला जाता है ।

यूँ तो प्रशासन एक सार्वत्रिक अवधारणा है तथा सभी प्रकार की शासन प्रणालियों में इसके आधारभूत तत्व लगभग एक से होते हैं, तथापि राज सत्ताओं का स्वरूप प्रशासनिक स्वरूप को काफी हद तक निर्धारित करता है ।

इसलिए लोकतंत्र में प्रशासन का ”लोकतांत्रिक” स्वरूप एक अनिवार्य जरूरत हो जाता है; यद्यपि व्यवहार में ऐसा हो ही, यह निश्चित नहीं है । भारत में स्वतंत्रता के पश्चात् लोकतांत्रिक सरकार गठित हुई लेकिन उसे जो प्रशासन मिला वह लोकतांत्रिक अनुभवों वाला नहीं था तथा आज तक उसका अधिनायकवादी गैर लोकतांत्रिक चरित्र जब तब विवाद ग्रस्त चर्चा का विषय बन जाता है ।

लोकतांत्रिक प्रशासन की मुख्य विशेषता राजनीतिक निर्देशन और उत्तरदायित्व है । इसका सीधा अर्थ यह है कि प्रशासकों को मंत्रियों की इच्छानुसार कार्य करना है तथा अपने कार्यों के लिए व मंत्रियों के माध्यम से ही व्यवस्थापिका के प्रति उत्तरदायी होते है ।

ऑर्डवे टीड लोकतांत्रिक प्रशासन में ”जनसहभागिता” को प्रमुखता देते हैं । लोक नीतियों के निर्माण एवं क्रियान्वयन में जनभागीदारी को व्यापक रूप से आमंत्रित किया जाना चाहिए । यह निचले स्तर पर स्वशासन संस्थाओं से लेकर ऊपर सलाहकारी प्रबधकीय बोर्डों तक विस्तृत रूप में अपनायी जानी चाहिए ।

इससे प्रशासन में सचेत-पर्यावरण प्ररिप्रेक्ष्य का विकास होता है । प्रशासकों को जनता की ईच्छाओं को समझने का मौका तो मिलता ही है इस सहभागिता के माध्यम से वे अपनी कठिनाइयों, उद्देश्यों को भी जनता तक पहुंचा सकते हैं । लोकतांत्रिक प्रशासन, अन्य प्रशासनों की तुलना में अधिक खुला होता है । उसके क्रिया-कलाप सार्वजनिक आलोचना के लिए सदैव प्रकट रूप में होते है ।

पारदर्शिता इस प्रशासन की विशेषता है । ऐसे प्रशासनों को लोकमत का आदर करना होता है । उसे जाति, क्षेत्रवाद आदि संकीर्णताओं को त्यागना पड़ता है और सामूहिक लक्ष्यों की प्राप्ति समाज के सभी वर्गों के साथ सहकारी संबंधों के माध्यम से करना । लोकतंत्र के दो प्रमुख स्तंभ स्वतंत्रता और समानता को प्राप्त करना लोकतांत्रिक प्रशासन का घोषित प्रयोजन है ।

इस हेतु भारत जैसे अनेक लोकतांत्रिक देशों ने नियोजन जैसी समाजवादी पद्धति अपनायी है । वैसे लोकतंत्र में स्वतंत्रता पर तथा समाजवाद में समानता पर अत्यधिक बल दिया जाता है । दोनों लक्ष्यों की प्राप्ति प्रशासन के सामने एक बडी चुनौती बन जाती है क्योंकि समानता प्राप्त करने के लिए कुछ स्वतंत्रताओं (सम्पत्ति रखने की स्वतंत्रता आदि) पर अंकुश भी लगाना पड़ता है ।

13. विकासशील समाजों में लोक प्रशासन:

विकासशील शब्दावली से आशय है, ”विकास की और अग्रसर” । यह सामान्यतया तृतीय विश्व के उन देशों के लिए प्रयुक्त होती है जो पराधीनता में अनेकों वर्षों तक जकड़े रहे और अपना स्वाभाविक विकास खो बैठे । औद्योगिक पिछड़ापन, आधारिक संरचना का अभाव तथा समाजिक सेवाओं की निम्न दशायें इनकी पहचान है ।

इन्हें जो प्रशासन विरासत में साम्राज्यवादियों से मिला, वह विकास कार्यों के स्थान पर मात्र नियामक कार्यों में ही प्रशिक्षित और अनुभवी था अत: स्वतंत्रता के बाद की विकासात्मक आवश्यकताओं को पूरा करने में लड़खड़ा गया ।

द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद उपनिवेशवाद के पतन से तृतीय विश्व में ऐसे अनेक राष्ट्र स्वतंत्र रूप से सामने आए जिनकी सामाजिक, आर्थिक, प्रशासनिक स्थितियां कॉफी समानताएं रखती थी यद्यपि भिन्न-भिन्न देशों के अधीन रहने के कारण इनके राजनीतिक ढाँचों में अंतर रहा है तथा इतिहास, संस्कृति आदि के मामलों में भी कॉफी भिन्नताएं इनके मध्य पायी जाती है ।

इन राष्ट्रों में कोई भी राजनीतिक प्रणाली हो, राजनीतिक स्थिरता का अभाव बना हुआ है । कहीं लोकतंत्र शासन को अपनाया तो गया है लेकिन राजनीतिक दलों और नेताओं का लोकतांत्रिक तरीकों में कम विश्वास है । बहुधर्मी और बहुभाषी समाजों में राजनीतिक व्यवस्था और प्रशासन पर विभिन्न दबाव पड़ते है, सरकार को अपना बहुत सा समय इनसे उत्पन्न तनावों को नियंत्रित करने में खपाना पड़ता है ।

संक्षेप में इन देशों की विभिन्न विशेषताएं/लक्षण निम्नानुसार है:

1. राजनीतिक और विकासात्मक संरचना में अंतर के बावजूद सभी देशों के कुछ सामान्य लक्ष्य हैं जिन्हें प्राप्त करना है, जैसे आधारभूत संरचना का निर्माण,

सामाजिक सेवाओं का विस्तार, औद्योगिक और कृषि विकास ।

2. सामाजिक आर्थिक पिछड़ापन, भारी आर्थिक विषमताएं, समाज का शोषणवादी चरित्र ।

3. राजनीतिक अस्थिरता ।

4. विभिन्न क्षेत्रों में अनेक विरोधाभासों का सह-अस्तित्व । रिग्स ने इन समाजों को ट्रांसीशिया (बाद में प्रिज्मेटिक) कहा जो कृषि से औद्योगिक अर्थव्यवस्था की तरफ बड़ रहे हैं ।

रिग्स ने इनके ये लक्षण गिनाएं:

(i) औपचारिकताएं- संवैधानिक, शैक्षिक, प्रशासनिक ।

(ii) विषमांगताएं- अनेक भौगोलिक, आर्थिक विरोधाभास, कलेक्टस की उपस्थिति, बहुलमानकीयवाद ।

(iii) परस्पर व्यापन- विभिन्न क्षेत्रों का परस्पर हस्तक्षेप ।

ईराशार कैन्सकी ने 5 प्रमुख लक्षण बताए:

1. राजनीतिक विशिष्ट वर्गों (सभी दलों) में विकास के मुद्दों पर आम एका होता है । ये सामान्य लक्ष्य होते हैं, कृषि और औद्योगिक उत्पादन में वृद्धि, जीवन स्तर उन्नत करना, विशेषकर पिछड़े तबकों को ऊपर उठाना तथा राष्ट्रीय एकीकरण इत्यादि ।

2. नेतृत्व के लिए सार्वजनिक क्षेत्र का सहारा लिया जाता है, नौकरशाही पर निर्भरता अधिक रहती है, असफल लक्ष्यों की संख्या अधिक रहती है तथा नागरिक अशांति का बाहुल्य बना रहता है ।

3. आर्थिक नैराश्य के वातावरण में भाषायी, जातिय दंगे आदि होते रहते हैं ।

4. आधुनिक और परंपरागत अभिजन वर्गों के मध्य बड़ा अंतर मौजूद रहता है ।

5 भ्रष्टाचार, भाई-भतिजावाद, असंतुलित विकास, करिश्माई नेतृत्व तथा नौकरशाही की अधिक बड़ी भूमिका इसके अन्य लक्षण हैं ।

ऐसे समाजों में विद्यमान प्रशासन अनेक कमियों, समस्याओं से ग्रस्त है, यथा:

1. ऐसे समाजों में अधिकांश लोकतांत्रिक शासन प्रणाली अपनायी गयी है, लेकिन प्रशासकगण अलोकतांत्रिक मनोवृत्ति से ग्रस्त हैं ।

2. जिस अनुपात में समाज की कक्षाएं बड़ रही है उस अनुपात में प्रशासनिक साधनों का विकास नहीं हो पा रहा है ।

3. नौकरशाही के आकार में अधिक वृद्धि हो गयी है, जबकि उसकी गुणवत्ता घटी हैं (पार्किसन लॉ इफेक्ट) ।

4. प्रशासकीय नैतिकता का अभाव सर्वत्र दृष्टिगत होता है, अर्थात जनता की अज्ञानता और अशिक्षा का फायदा उठाकर नीतियों-निर्णयों को इस तरह कार्यान्वित किया जाता है, जिनसे प्रशासन की स्वार्थ पूर्ति हो सके ।

5. जिसे नौकरशाही प्रवृत्ति कहा जाता है, वैसा उत्तरदायित्व विहिन प्रशासन विद्यमान है ।

6. ऐसा प्रशासनिक नेतृत्व विकसित नहीं हो पाया है जो राजनीतिक अस्थिरता के दौर में देश का नेतृत्व कर सके ।

7. प्रशासन में विशेषज्ञों के स्थान पर सामान्यज्ञों का बोलबाला है ।

8. विकास कार्यों के लिए आवश्यक निपुणता का प्रशासन में अभाव है । विशेषकर प्रबंधकीय क्षमता और तकनीकी योग्यता का अभाव है ।

9. प्रशासन विकास कार्यों के स्थान पर गैर उत्पादक और गैर विकासात्मक गतिविधियों में अधिक समय और धन खर्च करता है ।

10. प्रशासन का मॉडल स्वदेशी न होकर पश्चिमी देशों से उधार लिया गया है ।

11. रूप और वास्तविकता के बीच व्यापक विरोधाभास है, जिसे रिग्स ने ”रूपवाद” (Formalism) की संज्ञा दी ।

उक्त समस्याओं से ग्रसित विकासशील समाजों के प्रशासन के सामने दोहरी चुनौतियाँ हैं- एक तो उन्हें जनता की उठ रही मांगों को पूरा करना है, दूसरे अपनी औपनिवेशिक प्रवृत्तियों को त्यागकर उक्त उद्देश्य को पूरा करने योग्य स्वयं को बनाना है ।

उसे कर्त्तव्यपरायण, कार्यकुशल और सक्रिय बनाने के अलावा संवेदनशील, उत्तरदायी तथा पेशेवर बनाने की भी जरूरत है । वह जनता को स्वामी मानकर सेवक के रूप में उसकी सेवा करें । ऐसा तभी संभव है जब वह अपने को जनता से, उनकी समस्याओं से भावनात्मक रूप से जोड़ ले ।

इन समाजों की सरकारों ने जो लोकतांत्रिक, समाजवादी लक्ष्य निर्धारित किये है उनके प्रति पूर्ण निष्ठा प्रशासन को रखना चाहिए । नियोजन पद्धति के माध्यम से संतुलित विकास के लक्ष्यों की प्राप्ति भी प्रशासन के रवैये पर निर्भर है, इस बात का अहसास उसे होना चाहिए ।

त्वरित विकास हेतु नौकरशाही प्रवृत्ति वाली अड़ियल व्यवस्था त्यागकर कार्यकुशलता से पूर्ण निजी प्रबंध की प्रगतिशील कार्य पद्धतियों, खोजों आदि से लाभ उठाना होगा । उसे यह स्वीकारना होगा कि विकसित देशों की सफलता में निजी क्षेत्र का योगदान अधिक रहा है, अत: वह अपने यहां इन क्षेत्रों के औद्योगिक, व्यवसायिक क्रियाकलापों में बाधक बनने के बजाय उन बाधाओं को दूर करें जो इनके विकास को अवरूद्ध किये हुए है । उसे निजी क्षेत्रों के साथ सहयोगात्मक और समन्वयात्मक दृष्टिकोण अपनाने की जरूरत है ।

इन देशों में प्रशासन में जनता की भागीदारी को बढ़ाना- राज्य के साथ प्रशासन का भी उत्तरदायित्व है । प्रशासन को स्थानीय शासन संस्थाओं के साथ मित्रतापूर्ण बरताव करना चाहिए तथा अधिकारों के इन संस्थाओं की और हस्तांतरण को अपनी शक्तियों में कटौती के रूप में न देखकर राष्ट्र निर्माण में उनके अभिनवीकरण के रूप में लेना चाहिए ।

उसकी सबसे बड़ी जिम्मेदारी ऐसे समाजों में व्याप्त घोर असामनता के अभिशाप से लड़ने की है, वंचित तबकों के प्रति विशेष समर्थन व्यक्त करने की है तथा उन्हें समाज के शोषण चक्र से मुक्त कर खुली हवा में सांस लेने योग्य बनाने की है । ऊंच-नीच, सामाजिक-आर्थिक विषमताओं की गहरी खाई को दूर करने का सबसे महत्वपूर्ण दायित्व है । अर्थात विकासशील देशों में लोक प्रशासन की भूमिका गुणात्मक अधिक है ।

प्रश्न यह है कि इन मापकों को वर्तमान प्रशासन क्योंकर अपनाएगा ? जब तक प्रशासन की भर्ती व्यवस्था आरोपण से पूरी तरह मुक्त होकर उपलब्धि आधारित नहीं हो जाती, समाज में शिक्षा और जागरूकता अपेक्षित स्तर तक नहीं पहुँच जाती और स्वयं राजनीतिक व्यवस्था अपनी इच्छाशक्ति में दृढ़ता और निष्पक्षता का समावेश नहीं करती हम मात्र प्रशासन से रूपान्तरण की अपेक्षा करके स्वयं के साथ धोखा ही करेंगे ।

14. विकसित समाजों में लोक प्रशासन:

ऐसे समाजों को ”विकसित” की श्रेणी में रखा जाता है जिन्होंने औद्योगिकीकरण के उच्चतम स्तर को प्राप्त कर अपनी आर्थिक-सामाजिक संरचना को उच्च मानवीय विकास के अनुरूप ढाल लिया है । आधुनिक समाज और विकसित समाज को साधारणतया पर्याय के रूप में प्रयुक्त किया जाता है ।

इन समाजों ने परंपरागत शैली के स्थान पर आधुनिक जीवन शैली को अपनाया है । विकास का अर्थ समाजशास्त्री मानवीय पहलुओं के विकास से लगाते हैं- जैसे समाज में समानता और न्याय की स्थापना, सामाजिक सेवाओं में बढोत्तरी व्यक्ति की स्वतंत्रता आदि ।

अर्थशास्त्री इसका आधार औद्योगिक और कृषि उत्पादन में वृद्धि, प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि आदि को बनाते है । हम विकसित और आधुनिक समाज उन्हें मानेंगे जो अपनी सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक सभी अवस्थाओं में न्यायपूर्ण और प्रगतिशील मानकों को स्थापित करने एवं बनाये रखने में सफल रहे है ।

विद्वानों ने विकसित समाजों की कतिपय विशेषताएं इस प्रकार बतायी हैं:

i. औद्योगिकीकरण का उच्च स्तर, कृषि पर कम निर्भरता ।

ii. उत्पादन और सेवाओं के प्रत्येक क्षेत्र में आधुनिकतम तकनीकों का उपयोग ।

iii. प्राप्त लाभों का अपेक्षाकृत समान और न्यायपूर्ण वितरण ।

iv. पुरस्कार उपलब्धि आधारित न कि आरोपण (भाई-भतिजावाद, सिफारिश, रिश्वत) आधारित ।

v. सामान्य प्रशासकों के स्थान पर विशेषज्ञों का प्रत्येक क्षेत्र में बोलबाला ।

vi. उच्च विशेषीकृत सेवाएं ।

vii. सरकारी संगठन की इकाईयाँ सामाजिक-आर्थिक परिवर्तनों के अनुकूल स्वयं को बदलने की क्षमता से पूर्ण होती हैं ।

उक्त विशेषताओं से युक्त समाज की नौकरशाही या लोक प्रशासन भी उच्च मानकों से युक्त रहता है । विकसित समाज के प्रशासक को भी विकसित प्रशासन की संज्ञा दी जाती है ।

विकसित प्रशासन उच्च विशेषीकरण से युक्त होता है, जिसमें प्रत्येक कार्य-क्रिया के लिए एक पृथक संरचना होती है । उच्च विशेषीकरण का स्वाभाविक परिणाम ”विशेषज्ञता” के रूप में सामने आता है । अत: यहां प्रशासन में भी अन्य क्षेत्रों की भांति ”विशेषज्ञों” की प्रधानता है ।

यहां राजनीतिक और प्रशासन के कार्य स्पष्ट रूप से बटे होते है, उनमें परस्पर आच्छादन या हस्तक्षेप नहीं होता । राजनीतिक निर्णय करना राजनीतिज्ञों का तथा प्रशासनिक निर्णय करना प्रशासकों का अधिकार तथा दायित्व होता है ।

सभी के कार्य और भूमिका उनकी योग्यता पर आधारित होती है । सरकारी पदों पर कार्यरत व्यक्तियों को जनता उन पदों के सर्वथा योग्य मानती है । राजनीतिक चेतना का उच्च स्तर होता है । नीतियों के निर्माण में जनमत की अत्यधिक भागीदारी सुनिश्चित होती है । उनके क्रियान्वयन में भी प्रशासन को जनता से उतना ही सहयोग मिलता है ।

यहां प्रशासन अपने को जनता का सेवक समझता है और प्रत्येक सेवा व्यवसायिक आधार पर दी जाती है । लोक सेवा एक पेशा या व्यवसाय समझा जाता है जिसका आधार शैक्षिक पृष्ठभूमि, जीविका विन्यास और योग्यता आधारित चयन प्रक्रिया है ।

राजनीतिक स्थायित्व के कारण- प्रशासन भी कॉफी विकसित होता है, उसकी राजनीतिक प्रक्रिया में भूमिका स्पष्ट रूप से निर्धारित होती है तथा संस्था का अस्तित्व ग्रहण कर लेती है, व्यवहार में यद्यपि वह राजनीतिक एजेन्सीयों के प्रभावी नीति निर्देशन में होता है ।

ईराशार कैन्सकी ने विकसित देशों के प्रशासन के प्रमुख लक्षण इस प्रकार गिनाएँ है:

i. बड़े आकार वाली विशेषज्ञ नौकरशाही ।

ii. प्रशासन सरकार के सभी अंगों के अधीन काम करता है ।

iii. पेशेवर नौकरशाही ।

फैरल हडी ने निम्नलिखित विशेषताएं बतायी हैं:

i. बड़ा आकार ।

ii. उसका उद्देश्य राजनीति द्वारा निर्धारित नीतियों को लागू करना है ।

iii. नौकरशाही की पेशेवर अवधारणा ।

iv. उच्च विशेषीकरण

v. राजनीतिक प्रक्रिया में प्रशासन की स्पष्ट भूमिका ।

vi. प्रशासन पर प्रभावी नीति नियंत्रण ।

इस प्रकार विकसित समाजों का प्रशासन अधिक कार्यकुशल, अधिक विधि संगत और अधिक उत्तरदायित्व पूर्ण होता है । उसका संगठन विशाल होता है जो विभिन्न कार्यों को विशेषीकरण के आधार पर सम्पन्न करता है । संगठनात्मक और कार्यात्मक रूप में यह नौकरशाही के वैबेरियन मॉडल के अनुरूप होती है ।

सभी विकसित समाजों में प्रशासन की उक्त सभी जो प्रशासनिक लक्षणों को कॉफी हद तक प्रभावित और निर्धारित करता है । ये विशेषताएं समान रूप से विद्यमान हों, ऐसा आवश्यक नहीं होता है । प्रशासन को सामाजिक-सांस्कृतिक पर्यावरण के परिप्रेक्ष्य में विश्लेषित करना होगा । फिर भी विकसित समाजों के उक्त लक्षण आमतौर पर सामान्य रूप से पाये जाते हैं और इनकी सामाजिक संस्कृति भी लगभग समान होने से इनमें बहुत कम विचलन देखने को मिलता है ।

वस्तुत: इन समाजों के प्रशासन पर यहां की औद्योगिक गतिविधियों और उनके परिणामों पर जबर्दस्त प्रभाव पड़ता है । इस क्रियाकलापों से भौतिक समृद्धि के साथ अनेक विशिष्ट चुनौतियाँ भी प्रकट हुई हैं जैसे- शहरीकरण के दुष्प्रभाव, गन्दी बस्तियों, सामाजिक अपराधों में वृद्धि आवास समस्या, दुषित औद्योगिक-व्यवसायिक प्रतिस्पर्धा आदि ।

इन सबसे सामाजिक ढाँचे को बचाना वस्तुत: सभ्यता को बचाने या मानव को सुरक्षित रखने के लिए अनिवार्य है । सतत विकास विकसित समाजों के लिए आज की महत्वपूर्ण चुनौती है । इस अवधारणा को साकार करने के लिए प्रशासन की भूमिका को भी नया अर्थ ग्रहण करना जरूरी हो गया है ।

भावी पीढी के लिए संसाधनों को सुरक्षित छोडनें की यह विकासात्मक अवधारणा यूं तो पूरे विश्व की चिता है लेकिन भौतिकवादी विकसित समाजों के लिए अधिक चिंताजनक है जिन्होंने अपने संसाधनों के साथ विकासशील और पिछड़े देशों के संसाधनों का भी अंधाधुंध दोहन किया है ।

स्पष्ट है कि विकासशील समाजों में प्रशासन की जहां गुणात्मक भूमिका अधिक है, वही विकसित समाजों में मात्रात्मक भूमिका अधिक है । प्रशासनों को औद्योगिक क्रांति के लाभों को जनता के प्रत्येक वर्ग तक ले जाना है तथा उच्चतम औद्योगिक क्षमता को बनाये रखने का उपक्रम भी निरन्तर करते रहना है ।

उसके सामने सबसे बड़ी चुनौती यह है कि एक तरफ औद्योगिक क्रांति का लाभ भी लेना है, तो दूसरी ओर उससे उत्पन्न वर्तमान भयावह समस्याओं मसलन पर्यावरण प्रदुषण, ग्लोबल वार्मिंग, सामाजिक विघटन आदि से निजी प्रयासों के साथ समन्वय करके निपटना भी है ।

चुंकि लोक प्रशासन विषय का जन्म और विकास विकसित समाजों के पर्यावरण से प्रेरित प्रशासन के स्वरूप और उसकी समस्याओं के लिए कल्पित उपागमों पर ही आधारित रहा है, अत: एक शैक्षिक आन्दोलन के रूप में भी लोक प्रशासन पर इन समाजों की चुनौतियों के समाधान में भूमिका अपेक्षित है ।