Read this article in Hindi to learn about the development of civil services under the British rule in India.

ईस्ट इण्डिया कम्पनी द्वारा कलकत्ता, बंबई और मद्रास में तीन प्रेसडेन्सियां स्थापित कर ली गयी थी ।

यहां कंपनी के अंतर्गत तीन प्रकार के कार्मिक थे:

1. वाणिज्यिक कार्य में नियोजित कार्मिक,

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2. थल सैनिक और

3. नौ सैनिक ।

a. भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपनी व्यावसायिक आवश्यकताओं के लिए जिन कार्मिकों की भर्ती की उनका आधार योग्यता के स्थान पर अनुग्रह अधिक था ।

b. सत्रहवीं शती में कंपनी ने अपने वाणिज्यिक कार्य में नियोजित कार्मिकों को ”लोक सेवक” कहना शुरु किया, ताकि उन्हें ‘सेना’ और ‘नौ सेना’ के कार्मिकों से पृथक रखा जा सके ।

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c. इस प्रकार भारत में ”लोक सेवा” और ”लोक सेवा प्रणाली” की शुरुआत ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन काल में ही 17वीं शती में हो गयी थी ।

d. 1675 में कंपनी ने अपने कार्मिकों का 5 श्रेणियों में विधिवत श्रेणी करण किया:

(1) अपरेंटिस,

(2) राइटर,

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(3) फैक्टर,

(4) जूनियर मर्चेंट,

(5) सीनियर मर्चेंट ।

e. प्लासी (1757) और बक्सर (1764) युद्ध-विजय के बाद अंग्रेज भारत के सबसे धनवान ”बंगाल” सूबे के शासक बन बैठे ।

f. लार्ड क्लाइव ने इलाहाबाद संधि (1765) के प्रावधानों द्वारा बंगाल में द्वैध शासन प्रणाली की स्थापना की । इसके तहत राजस्व वसूली का अधिकार अंग्रेजों को मिला । अब लोक सेवकों को प्रशासनिक कार्य भी करने पड़े ।

g. वर्ष 1765 से ”लोक सेवक” शब्द का प्रयोग कंपनी के आधिकारिक अभिलेखों में होने लगा ।

लार्ड क्लाइव के सुधार एवं सिविल सर्विस का अस्तित्व में आना:

भारत में आधुनिक सिविल सेवा की शुरूआत बंगाल में अंग्रेजी राज्य की स्थापना के बाद की जरूरतों को पूरा करने हेतु की गयी । लार्ड क्लाइव दूसरी बार गवर्नर बनकर आया तब उसका उद्देश्य कंपनी के कार्मिकों के निजी व्यापार पर रोक लगाना था । उसने एक अनुबंध पत्र बनाया ।

जिन कार्मिकों ने इस पर हस्ताक्षर कर दिये और प्रतिज्ञा की, कि निजी व्यापार नहीं करेंगे वे कन्वेन्टेड सिविल सर्विस के सदस्य कहलाये । जिन्होंने हस्ताक्षर नहीं किये वे अनकन्वेन्टेड सिविल सर्विस के सदस्य कहलाये ।

इस पत्र में कार्मिकों की सेवा-शर्तों तथा अन्य नियमों का भी उल्लेख किया गया और फिलिप मेसन के शब्दों में इस प्रकार 1769 में इण्डियन सिविल सर्विस अस्तित्व में आयी । इस प्रकार कम्पनी की लोकसेवा “कन्वेन्टेड” और “अनकन्वेन्टेड” दो भागों में बंट गयी । (बाद में अनकन्वेन्टेड का लोप हो गया और 1892 में कन्वेन्टेड का स्थान इम्पीरियल सेवा ने ले लिया ।)

वारेन हेंस्टिग्स (1772-1785) के सुधार (Reform of Warren Hastings (1772-1785)):

इसके समय लोक सेवा में महत्वपूर्ण सुधार हुऐ । 1772 में वारेन हेंस्टिग्स ने द्वैध शासन का अंत कर बंगाल की सम्पूर्ण शासन व्यवस्था कम्पनीधीन की । जिला स्तर पर ”कलेक्टर” पद का सृजन हुआ और वह बाद में प्रशासनिक, न्यायिक, राजस्व सभी कार्यों का ”एकीकृत प्राधिकारी” बनाया गया । सन् 1781 की केन्द्रीकरण योजना के अनुसार राजस्व मंडल का गठन हुआ ।

कार्नवालिस का योगदान (Cornovolis Contribution):

कार्नवालिस द्वारा सन् 1787 में एक अन्य योजना के अंतर्गत जिला कलेक्टर के पदों में जिलाधीश, मजिस्ट्रेसी तथा न्याय प्रशासन का कार्य एकीकृत किया गया । वस्तुत: कार्नवालिस ने वारेन हेंस्टिग्स के कार्यों को पूर्णता तक पहुंचाया । कार्नवालिस को भारतीय सिविल सेवा का जनक कहा जाता है ।

कार्नवालिस ने पहले तो कलेक्टर्स को दीवानी, फौजदारी, राजस्व सभी अधिकार दिये, लेकिन 1793 में अपने ”कार्नवालिस कोड” (इसी नाम से यह संहिता प्रसिद्ध हुई) के द्वारा कलेक्टर से राजस्व अधिकार को छोड़कर शेष कार्य एक नये सृजित ”जिला न्यायाधीश” पद के साथ संलग्न कर दिये ।

सेटन कार के शब्दों में- ”कार्नवालिस कोड ने सत्ता की सीमाओं को परिभाषित किया, न्याय की भ्रूण हत्या के विरूद्ध नियमित अपीलीय व्यवस्था की पद्धतियां निर्मित की और राजस्व, पुलिस तथा दीवानी और फौजदारी न्याय के क्षेत्रों में भारतीय लोक सेवाओं की स्थापना की ।”

उसने कार्मिकों के वेतन में वृद्धि की लेकिन ”कुलीनता सिद्धान्त” में विश्वास के कारण वह भारतीयों को निम्न पद भी देने को तैयार नहीं था । उसने पदोन्नति में वरिष्ठता के सिद्धान्त को स्थापित किया । उसके सुधारों से लोक सेवा अधिक ईमानदार, कार्यकुशल और दक्ष बनी ।

कार्नवालिस की नीति के आधार थे:

a. उसे भारतीयों की निष्ठा, योग्यता पर विश्वास नहीं था ।

b. इसलिये भारतीयों को लोक सेवा में उच्च (कुछ मामलों में निम्न पद भी) पद देने को तैयार नहीं था ।

c. उसका तर्क था कि भारत में ब्रिटिश स्वरूप का शासन केवल अंग्रेजी अफसरों द्वारा ही संभव है ।

d. वह उच्च पद प्रभावशाली अंग्रेजों के लिये आरक्षित रखना चाहता था ।

लार्ड वेलजली द्वारा प्रशिक्षण की शुरूआत (Start of Training by Lord Welljely):

लार्ड वेलजली 1798 में गर्वनर जनरल बनकर आया । वह अपनी साम्राज्यवादी आवश्यकताओं के अनुरूप लोकसेवा को ढालना चाहता था, अतएव भारतीय भाषा, संस्कृति और परिस्थितियों से लोक सेवकों को परिचित कराने के उद्देश्य से मई सन् 1800 में कलकत्ता के फोर्ट विलियम में प्रशिक्षण कॉलेज की स्थापना की ।

नवंबर 1800 से 3 वर्षीय प्रशिक्षण शुरु हुआ । सन् 1806 में हार्टफोर्ड कैसल (इंग्लैंड) में प्रशिक्षण कालेज की स्थापना की गयी, जिसे बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स ने 1809 में लन्दन के निकट हैलिबरी में स्थानान्तरित करवा लिया । हैलिबरी में अध्ययन का स्तर अत्यधिक ऊंचा रखा गया, लेकिन 1858 में यह कॉलेज भारत में कम्पनी की सत्ता के साथ ही बन्द हो गया ।

चार्टर एक्टस और लोक सेवा (Charter Act and Civil Services):

A. 1833 के एक्ट में लार्ड विलियम बैंटिक (1926-1935) को भारत का गवर्नर जनरल सम्बोधित किया गया । इस एक्ट ने कम्पनी की लोक सेवा में भर्ती हेतु जन्म, लिंग, जाति, वर्ण, के भेदभाव के बिना भर्ती के समान अवसर सभी को देने की बात कही ।

विलियम बैंटिक ने वित्तीय जरूरतों के रहते तथा अपनी उदार भावना के कारण भी भारतीयों को उच्च पद देने की नीति अपनाई । मैकाले के सहयोग और राजा राममोहन राय के नैतिक समर्थन से प्रेरित होकर बैंटिक ने शिक्षा की मैकाले पद्धति अपनाई, जिसका उद्देश्य लोक सेवा के निम्न आधार का भी अंग्रेजीकरण करना था ।

B. 1853 का एक्ट क्रान्तिकारी था । इस दृष्टि से कि इसने लोक सेवा में भर्ती की ”खुली प्रतियोगिता” प्रणाली को जन्म दिया (भारत के सन्दर्भ में, कम्पनी की सेवा में) । सन् 1853 के चार्टर एक्ट से भारत में विधान परिषद की स्थापना हुई जिसमें 12 सदस्य होते थे ।

प्रशासनिक कार्यों को शीघ्रता से निपटाने हेतु बंगाल में लेफ्टिनेंट गवर्नर की प्रथम बार नियुक्ति हुई । इस एक्ट से कोर्ट ऑफ डायरेक्टर्स नियुक्ति संबंधी अपनी संरक्षक शक्तियों से वंचित हो गए और नियंत्रण बोर्ड द्वारा बनाए जाने वाले नियमों के तहत उच्च लोकसेवा हेतु आयोजित प्रतियोगिता में भारतीयों को भी शामिल किया गया ।

मैकाले समिति (Michaley Committee):

अधिनियम, 1853 के उक्त प्रावधानों को लागू करने के उपाय सुझाने हेतु 1854 में मैकाले समिति (भारतीय लोकसेवा से संबंधित) की नियुक्ति हुई ।

1854 में ही प्रस्तुत अपनी रिपोर्ट में इसने निम्नलिखित सिफारिशें की:

1. सिविल सेवाओं में भर्ती के लिये खुली प्रतियोगिता प्रणाली अपनाई जाएं ।

2. इस परीक्षा में प्रवेश के लिये अभ्यार्थियों की आयु 18 से 23 वर्ष हो ।

3. प्रतियोगी परीक्षा का आयोजन लंदन में ही हो ।

4. अभ्यार्थियों को अंतिम तौर पर नियुक्त करने से पहले कुछ समय के लिये परिवीक्षा (प्रोबेशन) पर रखा जाना चाहिए ।

5. हैलिबरी स्थित ईस्ट इंडिया कालेज प्रशिक्षण को बंद किया जाएं ।

6. प्रतियोगी परीक्षा का स्तर ऊंचा होना चाहिए ताकि गहन ज्ञान से युक्त अभ्यार्थियों का चयन सुनिश्चित हो सके ।

नियंत्रण बोर्ड ने सभी अनुशंसाओं को स्वीकार कर उन्हें लागू कर दिया । पहली खुली प्रतियोगिता का आयोजन लंदन में कराया गया । 1855 में गठित ब्रिटिश लोक सेवा आयोग को 1858 से इस प्रतियोगी परीक्षा के आयोजन की जिम्मेदारी सौंप दी गई । 1858 में ही हैलिबरी स्थित ईस्ट इंडिया कॉलेज को बंद कर लोकसेवकों को ब्रिटिश विश्वविद्यालयों में प्रशिक्षण दिया जाने लगा ।

ब्रिटिश ताज का शासन और लोकसेवा में परिवर्तन:

1858 में ”एक्ट फॉर बैटर गवर्नमेंट ऑफ इण्डिया” के नाम से पारित अधिनियम द्वारा 2 अगस्त, 1858 को ब्रिटिश संसद ने भारत का शासन कंपनी से लेकर ताज को सौंप दिया ।

1. अब यहां के लोक सेवक ब्रिटिश शासन के सेवक बन गये ।

2. सन् 1859 में लॉर्ड कैनिंग ने ‘पोर्ट फोलियो’ व्यवस्था की शुरूआत की जिसके अंतर्गत प्रशासन के कार्यों को विभिन्न शाखाओं में बांट दिया गया ।

3. सन् 1860 में ”भारतीय दण्ड संहिता” लागू हुई तथा सन् 1861 में सेना एवं पुलिस-कार्य को पृथक कर दिया गया ।

4. सन् 1861 के भारत परिषद अधिनियम के द्वारा प्रांतीय विधानसभाओं को कानून बनाने का अधिकार दे दिया गया । गवर्नर जनरल की परिषद में भारतीयों को नामांकित करने का प्रावधान किया गया ।

5. 1861 के भारत लोक सेवा अधिनियम ने लोक सेवा के कुछ उच्च महत्वपूर्ण पदों को आरक्षित कर दिया ।

6. सिविल सर्विस एक्ट 1870:

उच्च प्रशासकीय पदों पर भर्ती इंग्लैण्ड में होती थी और 1855 में ब्रिटेन में स्थापित लोक सेवा आयोग ही भारत के लिए भी इंग्लैण्ड में भर्ती करना था । 1853 के एक्ट्स ने भारतीयों को परीक्षा में सम्मिलित होने के अवसर दिये थे, लेकिन छंटनी पद्धति, अधिकतम आयु सीमा तथा इंग्लैण्ड में परीक्षा आदि कारणों ने भारतीयों के प्रवेश पर अप्रत्यक्ष प्रतिबन्ध लगा रखे थे । लेकिन 1870 के सिविल सर्विस एक्ट न इनमें से कुछ त्रुटियों को सुधारा और भारतीयों के प्रवेश को खोला ।

7. लेकिन उक्त एक्ट के प्रावधान 1879 में ही लागू हो पाये जब इसके लिये लिटन ने ”स्टेटयूरी सिविल सर्विस एक्ट” (प्रादेशिक सिविल सेवा), 1879 पारित करवाया । लिटन ने एक्ट के माध्यम से ”नामजदगी” द्वारा भारतीयों की भर्ती का रास्ता तलाशा ।

I.C.S. के कुल पदों का 1/6 प्रान्तीय सरकारी द्वारा ”उच्च सामाजिक स्थिति” वाले व्यक्तियों में से चयनित हेतु अनुशासित किया जाना था । इसने भारतीयों के आक्रोश को भड़काया ।

8. I.C.S. में भारतीयों की स्थिति और आयु:

1922 के पहले तक भारत में आई.सी.एस. की परीक्षा आयोजित नहीं की गयी । इसमें आयु भी कॉकी कम रखी गई थी जिसने भारतीयों के लिए प्रवेश के द्वार अपेक्षाकृत बंद रखे । आयु सीमा 1853 में 23 वर्ष रखी गई थी ।

1860 में इसे घटाकर 22 वर्ष, 1866 में 21 वर्ष और प्रतिक्रियावादी लार्ड लिटन ने 1879 में उम्र सीमा को अप्रत्याशित रूप से 2 वर्ष घटाया और अधिकतम आयु सीमा 19 वर्ष कर इसे भारतीय लोक सेवा के इतिहास में न्यूनतम स्तर पर पहुंचा दिया ।

वह भारतीयों से घृणा करता था और उन्हें शासन में उच्च पदों पर पहुंचने से रोकना चाहता था । 1864 में जाकर सत्येन्द्र नाथ ठाकुर (गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर के बड़े भाई) ही प्रथम भारतीय आई.सी.एस. बन सके । 1870 तक चार भारतीय ही आई.सी.एस. बने । 1876 तक यह संख्या 12 पहुंची ।

इण्डियन एसोसियन के सुरेन्द्रनाथ बनर्जी (जो स्वयं भी आई.सी.एस. उत्तीर्ण कर चुके थे) ने आयु सीमा को घटाने के विरूद्ध जबर्दस्त आन्दोलन चलाया । इण्डियन एसोसियन की मांग का समर्थन अन्य संगठन भी करने लगे तथा 1885 में कांग्रेस के पहले ही अधिवेशन में यह मांग रखी गयी कि लोक सेवा का भारतीयकरण किया जाना चाहिए तथा इसकी शुरूआत अधिकतम आयु सीमा को बढ़ाने और भारत में परीक्षा आयोजित करने के साथ की जाना चाहिए ।

उस समय लार्ड डफरिन भारत के वायसराय थे । उन्होंने भारतीयों की मांग पर विचार करने हेतु सर चार्ल्स एचिसन की अध्यक्षता में “एचिसन आयोग” नियुक्त किया ।

एचिसन आयोग (1886) [Achisan Commission (1886)]:

इसकी अनुशंसाएं 1887 में आयी जो इस प्रकार थी:

1. कनवेंटेड और अनकनवेंटेड के स्थान पर तीन सेवाएं साम्राज्यीय सेवा, प्रान्तीय सेवा और अधीनस्थ सेवा की स्थापना हो ।

2. साम्राज्यीय सेवा की परीक्षा इंग्लैण्ड में ही आयोजित हो और सब के लिए खुली प्रतियोगिता हो ।

3. प्रान्तीय और अधीनस्थ सेवाएं प्रान्तीय स्तर पर भारत में ही आयोजित हो और मात्र भारतीयों तक सीमित हो ।

4. लोकसेवा में भर्ती की अधिकतम आयु सीमा बढ़ाकर 23 वर्ष कर दी जाएं ।

5. स्टेटयूटरी भर्ती प्रणाली (लिटन कानून) समाप्त हो ।

6. इंपीरीअल सेवा (साम्राज्यीय सेवा) के कुछ पद प्रांतीय सेवा से पदोन्नति द्वारा भरे जाए ।

इसकी सभी अनुशंसाओं को मामूली फेरबदल के साथ स्वीकारा गया । इस अनुशंसा के आधार पर तीन सेवाएं खड़ी की गयी, इम्पीरियल सेवा, प्रान्तीय सेवा और अधीनस्थ सिविल सेवा । इम्पीरियल सेवा में भर्ती का अधिकार भारत मंत्री को था ।

अन्य अखिल भारतीय सेवाओं की स्थापना:

उपर्युक्त इम्पीरियल सेवाओं में I.C.S., I.F.S., I.P.S. आदि शामिल थी । 1892 में दो सेवाएं, इण्डियन सर्विस ऑफ इंजिनियर्स और इण्डियन वेटरनरी सर्विस अस्तित्व में आयी । 1897 में इण्डियन मेडिकल सर्विस, 1905 में इम्पीरियल पुलिस सर्विस (फ्रेजर कमीशन द्वारा अनुशंसित), 1906 में इण्डियन एजुकेशन सर्विस और 1907 में इण्डियन एग्रीकल्चर सर्विस की स्थापना हुई ।

इंस्लिगटन शाही आयोग (1912) [Insligton Imperial Commission (1912)]:

भारतीय लोक सेवा आयोग के स्वरूप पर विचार हेतु गठित इंस्लिगटन आयोग पर प्रथम विश्व युद्ध की छाया पड़ी ।

1915 में प्रस्तुत और 1917 में प्रकाशित इसकी रिपोर्ट में मुख्य अनुशंसाऐं थी:

1. भारत में भी लोक सेवा भर्ती परीक्षा आयोजित हों ।

2. उच्च पदों का 25 प्रतिशत भारतीयों के लिए आरक्षित हो । आरक्षित पदों में से कुछ प्रत्यक्ष भर्ती से तथा शेष प्रान्तीय सेवाओं से पदोन्नति द्वारा भरे जाए ।

3. साम्राज्यीय सेवा के निचले स्तर पर केन्द्रीय सेवा प्रथम और द्वितीय वर्ग की स्थापना की जाएं । उक्त अनुशंसाएं स्वीकार नहीं की जा सकी ।

सेक्रेटेरिएट प्रोसीजर कमेटी (Secretariat Procedure Committee):

सन् 1919 में ”सेक्रेटेरिएट प्रोसीजर कमेटी ” गठित हुई जिसने यह अनुशंसा की, कि एक “सेंट्रल स्टॉफ बोर्ड” बनाया जाए जो इम्पीरियल सचिवालय के सभी विभागों के लिये क्लर्क पदों पर भर्ती कर सके ।

यह अनुशंसा स्वीकार कर ली गई तथा एक अध्यक्ष तथा दो सदस्य क्रमश: शिक्षा व गृह विभाग से लेकर 1922 में ”सेंट्रल स्टॉफ सिलेक्शन बोर्ड” बनाया गया । यह इम्पीरियल सेक्रेटेरिएट सर्विस हेतु लिपिकों की भर्ती सन् 1926 तक करता रहा ।

भारत शासन अधिनियम (1919) का प्रभाव [Influence of Government of India Act (1919)]:  

भारत मंत्री मंटेग्यू ने अगस्त 1917 में घोषणा की, कि- ”हमारा उद्देश्य भारत में उत्तरदायी शासन की स्थापना करना हैं । निसंदेह इसका एक अर्न्तनिहित तत्व लोकसेवा को अधिकाधिक भारतीय परिस्थितियों में ढालना और उस पर मंत्रियों का नियन्त्रण स्थापित करना भी है ।”

मंटेग्यू-चेम्सर्फोर्ड सुधारों के नाम से मशहूर भारत शासन अधि., 1919 में निम्नलिखित महत्वपूर्ण सिफारिशें थी:

1. इसमें इंस्लिगटन आयोग की इस अनुशंसा को दोहराया कि सिविल सेवा परीक्षा इंग्लैण्ड के साथ भारत में भी हों ।

2. आई.सी.एस. में भारतीयों की संख्या बढ़ाई जाए । इस हेतु एक तिहायी पद भारतीयों के लिए आरक्षित हो जिसमें डेढ़ प्रतिशत की दर से भारतीयों की संख्या बढ़े ।

3. इन अधिकारियों (I.C.S.) के वेतन, पेंशन, भत्तों में बढ़ोतरी हों ।

4. भारत में भर्ती हेतु 5 सदस्यीय लोक सेवा आयोग स्थापित हो ।

5. मुस्लिमों को लोक सेवा के साथ अन्य सेवाओं में भी पृथक प्रतिनिधित्व दिया जाए ।

6. प्रान्तीय गवर्नर यूरोपियन अधिकारियों के हितों की विशेष देखभाल करें ।

उक्त सिफारिशों को लागू किया गया । यद्यपि लोक सेवा आयोग की स्थापना 1926 में जाकर हुई तथापि भारत में लोक सेवा की पहली परीक्षा 1922 में इलाहाबाद में सम्पन्न हुई । इलाहाबाद को इसलिए चुना गया क्योंकि यहां की व्यवस्थाएं परीक्षा के अनुकूल थी ।

1919 के अधिनियम ने ही लोक सेवा की सुव्यवस्थित संरचना प्रस्तुत की थी । अब तक स्थापित सभी अखिल भारतीय सेवाओं को “इम्पीरियल सेवा” के अंतर्गत लाया गया । रेलवे, डाक-तार, चुंगी सेवाओं को केन्द्रीय सेवा में रखा गया ।

प्रान्तों की लोक सेवाओं को प्रान्तीय लोक सेवा का नाम दिया गया । लेकिन इसने लोक सेवा को साम्प्रदायिक रंग भी दिया । एक तो मुसलमानों के लिए कुछ पद आरक्षित करके तथा दूसरा यूरोपियन अधिकारियों को सुरक्षा देकर ।

लार्ड ली आयोग (1923-24) [Lord Lee Commission (1923-24)]:

उच्च लोक सेवा के स्वरूप, संगठन, उसकी सेवा शर्तों पर विचार हेतु ब्रिटिश सरकार ने 1923 में ”लार्ड विसकांउट ली” की अध्यक्षता में एक शाही आयोग गठित किया, जिसने 1924 में प्रतिवेदन पेश किया ।

इसकी महत्वपूर्ण अनुशंसाएं थी:

1. लोक सेवा आयोग का गठन शीघ्र किया जाये, जो लोक सेवा में भर्ती के साथ उस पर अनुशासनात्मक नियंत्रण भी रखे ।

2. लोक सेवा को 3 वर्गों में विभक्त करना दूसरी अनुशंसा थी । प्रथम वर्ग में आई.सी.एस., आई.पी.एस., आई.एफ.एस. और आई.ई.एस. रखी जाये जिनकी नियुक्ति भारत सरकार करें ।

दूसरे वर्ग में हस्तांतरित सेवाएं, जैसे- भारतीय कृषि सेवा, पशु सेवा आदि हो । इनकी नियुक्ति प्रांतीय सरकार करें । तीसरे वर्ग में केंद्रीय सेवाएं रखी जाए जिनकी नियुक्ति भारत सचिव करें ।

इसने अखिल भारतीय सेवाओं में नियुक्ति और उस पर नियन्त्रण भारत सचिव के पास रखा जबकि प्रान्तीय सेवाओं (शिक्षा, कृषि, पशुचिकित्सा, जैसे- हस्तांतरित विषयों पर) में स्थानीय भर्ती अपनाने पर जोर दिया ।

3. इसने कतिपय अखिल भारतीय सेवाओं (कृषि, शिक्षा, पशु-चिकित्सा) को समाप्त करने की सिफारिश भी की ।

केन्द्रीय लोक सेवा आयोग का गठन (1926) [Constitution of Central Public Service Commission(1926)]:

भारत शासन अधिनियम (1919) के तहत इसका सर्वप्रथम प्रावधान किया गया था । ”ली आयोग” की अनुशंसा पर यह अंतत: 1926 में स्थापित हुआ । लेकिन अक्टूबर 1929 से ही इसने कार्य करना शुरू किया ।

भारत मंत्री (भारत सचिव) के आदेश से 5 सदस्यीय इस आयोग के पहले अध्यक्ष सर रोस बार्कर बनाये गये । आयोग को वे कार्य सौंपे गये, जिनकी अनुशंसा ”ली आयोग” ने की थी । 1935 के अधिनियम ने इसे “संघीय” लोक सेवा आयोग बना दिया ।

भारत शासन अधिनियम (1935) का प्रभाव [Influence of the Government of India Act (1935)]:

1. केन्द्र में संघीय लोक सेवा आयोग (F.P.S.C.) तथा राज्यों के लिए राज्य लोक सेवा आयोग के अलावा दो या अधिक राज्यों के लिए संयुक्त लोक सेवा आयोग की व्यवस्था इस अधिनियम ने की,

2. कुछ सेवाओं (चिकित्सा) को छोड़कर शेष सभी केन्द्रीय सेवाओं पर भारत मंत्री के स्थान पर गवर्नर जनरल और प्रान्तीय गवर्नरों का नियन्त्रण स्थापित किया गया ।

3. प्रान्तीय और अधीनस्थ सेवाएं विधायिका के नियन्त्रण में लायी गयी ।

4. I.C.S., I.P.S. और I.M.S. (इण्डियन मेडिकल सर्विस) को बनाये रखकर शेष अखिल भारतीय सेवाएं समाप्त कर दी गयी ।

लोकसेवा की 1947 के समय स्थिति (Status of Public Service in 1947):

लोक सेवा का वर्तमान परिदृश्य:

भारत की स्वतन्त्रता के उपरान्त प्रशासनिक तन्त्र के उद्देश्यों में भारी परिवर्तन हुआ, नियामिकीय प्रशासन से विकासात्मक प्रशासन की ओर । भारत में भारतीय सरकार की स्थापना के साथ ही प्रशासनिक तन्त्र का भी पुनर्गठन आवश्यक था ।

इण्डियन सिविल सर्विस I.C.S. का नामकरण “इण्डियन एडमिनिस्टेटिह सर्विस” (I.A.S.) किया गया, तथा भारतीय विदेश सेवा की स्थापना हुई । ”इण्डियन पुलिस सर्विस” (I.P.S.) यथावत बनी रही । सरदार पटेल ने I.C.S., I.P.S. हेतु प्रान्तों की स्वीकृति भी अक्टूबर 1946 में एक बैठक के माध्यम से प्राप्त कर ली ।

इस समय 600 के लगभग I.C.S. अधिकारी ब्रिटेन और पाकिस्तान लौट गये थे और मात्र 400 I.C.S. रह गये थे । भारतीय संविधान में I.A.S. और I.P.S. का जिक्र हुआ । नयी अखिल भारतीय सेवाओं की स्थापना हेतु राज्यसभा की विशेष पहल पर संसद को अधिकृत किया गया है । 1963 में एक प्रस्ताव तीन अखिल भारतीय सेवाओं की स्थापना का पारित किया गया ।

1966 में इनमें से मात्र भारतीय वन सेवा गठित की गयी । शेष दो भारतीय इंजिनियर्स सेवा और भारतीय चिकित्सा सेवा को अखिल भारतीय सेवा का स्वरूप नहीं दिया जा सका । सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार को शेट्टी आयोग की अनुशंसा स्वीकार कर ”अखिल भारतीय न्यायिक सेवा” गठित करने का निर्देश दिया (सन् 2002) है, यद्यपि अभी तक यह विचाराधीन है ।