Read this article in Hindi to learn about:- 1. लोक सेवा का अर्थ और परिभाषाएं (Meaning and Definitions of Civil Service) 2. लोक सेवकों के वर्ग (Classes of Civil Servants) 3. इतिहास (History) and Other Details.

लोक सेवा का अर्थ और परिभाषाएं (Meaning and Definitions of Civil Service):

लोक सेवा का अर्थ है, सरकारी सेवकों का संगठन, जिन्हें सरकार अपने कार्यों के लिए नियुक्त करती है । लोक सेवाएं सरकारी सेवाएं हैं । राज्य द्वारा नियोजित वे सभी कार्मिक जो जनता की देखभाल में लगे है ”लोक सेवा” के सदस्य होते हैं । लेकिन इसमें सैनिक कार्यों में लगे राज्य के कार्मिक शामिल नहीं है । इससे राज्य की सेवाओं के दो भाग प्रकट होते है सैनिक शाखा और असैनिक शाखा । लोक सेवा का सम्बन्ध असैनिक शाखा से है ।

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ब्रिटेन में ”लोक सेवा” को जो अर्थ दिया गया है, कमोबेश वही इसका वास्तविक अर्थ स्वीकार किया जाता हैं । यहां लोक सेवा से आशय ”ताज के सेवकों” से है, जो ”असैनिक” रूप से भर्ती किए गए हैं, और जिन्हें संसद द्वारा स्वीकृत धनराशि से ही वेतन दिया जाता हैं, लेकिन इनमें राजनैतिक और न्यायिक पदाधिकारी शामिल नहीं हैं ।

ब्रिटेन में ”लोक सेवा” में मात्र केन्द्रीय कार्मिकों का ही समावेश किया गया है और स्थानीय सरकार के कार्मिकों को इससे बाहर रखा गया है । इसके विपरित अमेरिका और भारत में सभी राजकीय कार्मिकों को लोकसेवा में रखा गया हैं, चाहे वह केन्द्र के हो या राज्य के या स्थानीय प्रशासन के ।

लोक सेवा राजनीतिक कार्यपालिका की अधीनस्थ कार्यपालिका होती हैं, लेकिन राजनीतिक कार्यपालिका की अस्थायी प्रकृति के विपरित स्थायी (लम्बी अवधि के लिए नियुक्त) होती है । इसी प्रकार राजनीतिज्ञों के लिए योग्यता या कार्यकुशलता का कोई मापदण्ड इस प्रकार निर्धारित नहीं होता जैसा कि ”लोकसेवा” के लिए हैं ।

परिभाषाएं (Definitions):

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टामलिन आयोग (1929) ने ब्रिटेन में लोक सेवा की परिभाषा इस प्रकार दी थी- ”ताज के अधीन वे सेवक जो संसद से वेतन प्राप्त करते है” (जो न्यायिक और राजनैतिक नहीं है) । यही परिभाषा लगभग सभी देशों में लागू होती है ।

हरमन फाइनर (ए.प्रीमियर ऑफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन)- ”लोक सेवा से आशय कार्मिकों के ऐसे निकाय से है, जो स्थायी, वैतनिक, व्यावसायिक और कार्यकुशल हैं ।”

ग्लैडन- ”ताज के वे सेवक जो राष्ट्र की सेवा में (राजनीति से बिना प्रभावित हुए) तन-मन से जुटे है तथा जो स्थायी, वैतनिक और व्यावसायिक है ।”

लोक सेवकों के वर्ग (Classes of Civil Servants):

यह एक प्रश्न हैं, कि क्या लोक सेवाओं का कोटिकरण किया जाना चाहिए ? फाईनर ने ब्रिटिश लोक सेवा के तीन मुख्य वर्ग बतायें- प्रशासनिक, तकनीकी तथा प्रहस्तनीय । प्रशासनिक वर्ग में उच्च लोक सेवक आते हैं, जो नीति-निर्धारण और नीति-क्रियान्वयन दोनों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं । तकनीकी या प्राविधिक वर्ग में विशिष्ट विधा में पारंगत ”विशेषज्ञ” कार्मिक आते हैं- जैसे डाक्टर, अभियन्ता, वैज्ञानिक आदि । प्रहस्तनीय या निष्पादकीय वर्ग में वे कार्मिक आते हैं, जो उक्त दोनों वर्ग से प्राप्त आदेशों का वास्तविक क्रियान्वयन करते हैं । क्रियात्मक रूप से ही हम इस वर्ग विभाजन को स्वीकार कर सकते हैं, संरचनात्मक दृष्टिकोण से तो सभी राजकीय कर्मचारी मात्र ”लोक सेवक” होते हैं ।

लोक सेवा का इतिहास (History of Civil Service):

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”लोक सेवा” शब्द आज से मात्र 150 वर्ष पूर्व ही अस्तित्व में आया । 1841 में इसका प्रथम बार प्रयोग ब्रिटेन के प्रधानमंत्री रार्बट पोल ने किया था । भारत में शासन कर रही ईस्ट इण्डिया कम्पनी के असैनिक कार्मिकों के लिए यह शब्द इस्तेमाल किया गया । तथापि लोक सेवा का अस्तित्व प्राचीनकाल से ही हैं ।

यदि पुरातात्विक स्रोतों पर आधारित निष्कर्षों पर विश्वास करें तो सिन्धु घाटी में लोक सेवा का एक सुव्यवस्थित तन्त्र दिव्यमान था और वह योजनाबद्ध नगर- निर्माण, जल- निकासी प्रबंधन, व्यापार- व्यवसाय नियमन, कर संग्रह, शांति- व्यवस्था जैसे उन कार्यों में लगा था, जो आज की लोक सेवा के बाँट, दशमलव प्रणाली का प्रयोग, ईमारतों स्नानघरों की विशेषताएं, धातु गलन की भटिटयां, डाकयार्ड- प्रबंधन आदि यह प्रदर्शित करते है, कि लोक सेवा वैज्ञानिक अन्वेषणों में भी सफलता पूर्वक लगी हुई थी ।

सिन्धु सभ्यता की समकालीन, सूमैरियन या मेसोपेटामिया सभ्यता और मिश्री- सभ्यता ने सिंचाई तन्त्र का जो पद सौपानिक ढांचा खड़ा किया था । उससे भी प्रतीत होता हैं, कि आज से 5,000 वर्ष पहले ही ”लोक सेवा” के महत्व को समझ लिया गया था । वैदिक युग और समकालिन यूनानी सभ्यता के समय राज्य में विभिन्न कार्यों को करने हेतु आशिक रूप से विशेषीकृत नौकरशाही जन्म ले चुकी थी । भारत में चाणक्य था, कौटिल्य ने ”अर्थशास्त्र” के माध्यम से लोक सेवा के गठन, कार्य, दायित्व आदि का सांगोपांग वर्णन किया है ।

यह कृत्ति 325-300 ई.पूर्व के मध्य लिखी गयी । यह समय चन्द्रगुप्त मौर्य का हैं, जिसका कौटिल्य प्रधानमंत्री था । तीसरी सदी ई. पूर्व से लेकर पहली सदी ईस्वी सन् के मध्य का समय विभिन्न देशों में लोक संबंध के खड़े होने का समय हो रहा है ।

रोमन साम्राज्य, मौर्य साम्राज्य, चीन आदि में लोक सेवाओं का विकास हुआ । चीन में इसका विकास इतना हुआ कि उसे प्राचीन लोकसेवा का घर विद्वानों ने कहा है । वस्तुत: प्राचीन काल में लोक सेवा का सर्वप्रथम गठन दूसरी सदी ई.पू. चीन में ही हुआ प्रमाणित होता है । 6वीं सदी से 12वीं सदी के मध्य तांग और तांग और चुंग वंश के समय इसका अत्यधिक विकास हुआ ।

इस समय जो स्वरूप लोकसेवा से ग्रहण किया वह चीनी क्रान्ति (1912) के समय तक का रहा । इस लोकसेवा की विशेषता की प्रतियोगिता परीक्षा के आधार पर भर्ती । तीन चरणों वाली लिखित परीक्षा के आधार पर मात्र 1 प्रतिशत उम्मीदवारों को चुना जाता था । गोपनीयता हेतु नाम के स्थान पर अंकों का प्रयोग उम्मीदवारों के होता था ।

परीक्षा की विषय वस्तु प्राचीन चीनी साहित्य था । भारत में मुगलकाल के दौरान (अरबी, फारसी, भारतीय) तीनों के सम्मिश्रण से निर्मित लोकसेवा का वर्णन

”आइन-ए-अकबरी” (अबुल फजल) में मिलता है । उधर में पुर्नजागरण ने तथा पूंजीवादी आवश्यकताओं को सामन्तवाद के विकल्प के रूप में लोक सेवाओं को विकसित करने की प्रेरणा दी ।

व्हाईट के अनुसार- ”फ्रान्स के रिशिल्यु ने, जर्मनी के ने, इंग्लैण्ड के हैनरी अष्ट्म प्रावधानों तथा ऐलिजाबेथ ने आधुनिक सिविल सेवा का श्री गणेश कर था ।”

आधुनिक सिविल सेवा (Modern Civil Services):

जिस तरह प्राचीन लोक सेवा को स्थापित और विकसित करने का श्रेय चीन को है उसी प्रकार आधुनिक लोक सेवा के विकास का श्रेय प्रशा (जर्मनी) को है । 17वीं सदी 19वीं सदी के मध्य प्रशा के ”एलेक्टर्स” (शासकगण) ने अपने नगरों में सुदृढ़ शास्त्र व्यवस्था स्थापित की जो केन्द्रीकृत थी ।

वंशानुगत सामन्तों के स्थानों पर योग्यता आधारित और चसनित नौकरशाही की नियुक्तियां की गयी । इन्हें बाद में सैनिक कार्यों के बजाय मात्र नागरिक प्रशासन से संबंधित कार्य ही सौंपे । 1794 में एक सामान्य नियम संहिता बनी, जिसमें कार्मिक भर्ती के विस्तृत प्रावधान किए गए, मसलन भर्ती प्रक्रिया लिखित और मौखिक परीक्षा, उसके लिए आवश्यक अर्हता (डिग्री) आदि । इस कोड से ही आधुनिक सिविल सेवाओं की स्थापना मानी जाती है । 1857 से प्रतियोगिता परीक्षा के माध्यम से भर्ती होने लगी ।

जिस समय प्रशा में आधुनिक सिविल सेवा का बीजारोपण हो रहा था, लगभग उसी समय फ्रान्स राज्य क्रान्ति की परिस्थितियों से गुजर रहा था । इसी क्रान्ति की अवधि (1789-1815) के दौरान राजतन्त्र उखाड़ फेंका गया और राजा के सेवक राज्य के सेवक बन गये । नेशनल कन्वेंशन ने फ्रान्स की प्रशासकीय ईकाइयों का पुर्नगठन व्यवस्थित रूप से किया- जलो, अरोन्डीसेमेन्द एवं कानूनों के रूप में ।

“कौंसील डी एटा” (कास्युमलैन्ट शासन) पर हावी नेपोलियन ने इनमें प्रत्यक्ष रूप से नियुक्तियां की । नियुक्त अधिकारीगण अपने क्षेत्रों में सामाजिक और नियद्यमिकीय गतिविधियों के लिए उत्तरदायी बनाये गये । नेपालियन ने अत्यधिक केन्द्रीकृत शासन प्रणाली स्थापित की । उसके पतन के बाद पुन: स्थापित राजा चर्च और राष्ट्रीय सभा-सदनों के मध्य छिड़े सत्ता-संघर्ष ने ”लोकसेवा” में अनुग्रह प्रणाली की पुर्नजीवित कर दिया ।

तृतीय गणतन्त्र (1871) के समय इस प्रणाली को सुधारने के प्रयत्न आंशिक रूप से ही सफल रहे । 1946 के अधिनियम ने ही फ्रांस में ”लोकसेवा” को आधुनिक रूप दिया । संयुक्त राज्य अमेरिका के प्रथम राष्ट्रपति जार्ज वांशिगटन (1787-1797) ने लोक सेवा को निष्पक्षता और सच्चिरित्रता पर आधारित किया । लेकिन उनके उत्तराधिकारियों के समय से ये उच्च मानक एक-एक करके धाराशायी होने लगे, विशेषकर 1829 के बाद-जब जैक्सन राष्ट्रपति बने ।

जैक्सन ने लूट या अनुग्रह प्रणाली को खुलकर समर्थन किया तथा तर्क दिया कि किस तरह स्थायी व्यक्ति कामचोर और अस्थायी कार्मिक अधिक श्रम करने वाले होते है बाद में राष्ट्रपति विलियम हैरिसन के समय इस लूट प्रथा का अत्यधिक प्रयोग हुआ, साथ ही इसके दुष्परिणाम भी धीरे-धीरे सामने आने लगे, जैसे अकार्यकुशलता, गुटबन्दी, भ्रष्टाचार आदि । फलत: 1871 में कांग्रेस के अनुमोदन पर राष्ट्रपति ग्राण्ट ने प्रथम लोक सेवा आयोग का गठन किया, परन्तु बाद में कांग्रेस की रूकावट ने ही इसे अकाल मौत (1875) मार दिया ।

उधर न्यूयार्क प्रान्त ने अपनी लोक सेवा में सुधार के प्रयत्न शुरू किये (1877 में) । इस बीच एक धटना ने अमेरिकी लोक सेवा के इतिहास को झकझोर दिया 1881 में राष्ट्रपति गारफिल्ड की एक क्षुब्ध बेरोजगार द्वारा हत्या कर दी गयी । अब ”लोक सेवा सुधार” चुनावी मुद्दा बन गया, और जनता के समर्थन से उत्साहित होकर ”1883 का पैण्डलटन अधिनियम” कांग्रेस ने पारित कर ”संयुक्त राज्य लोक सेवा आयोग” के गठन की मंजूरी दी ।

राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त 3 सदस्यीय आयोग योग्यता के आधार पर भर्ती हेतु परीक्षाएं आयोजित करने लगा । वह अपना प्रतिवेदन राष्ट्रपति को देता, जो उसे कांग्रेस में उसकी स्वीकृति हेतु प्रस्तुत करता । इसी अधिनियम में यह प्रावधान किया गया कि लोक कार्मिक राजनीतिक रूप से तटस्थ रहेंगें और उन्हें निश्चित अवधि के पूर्व सामान्तया नहीं हटाया जा सकेगा ।

उक्त अधिनियम ही अनेक संशोधनों के साथ आज भी अमेरिकी लोक सेवा का आधार बना हुआ है । यद्यपि सेवानिवृति अधिनियम (1920), पदवर्गीकरण अधिनियम (1923), हैंच अधिनियम (1939 एवं 40) और नियोजन एवं प्रशिक्षण अधिनियम (1958) भी लोक सेवा के परिवर्धन, परिष्करण हेतु विभिन्न समय में अस्तित्व में आऐं ।

इनमें हैंच अधिनियम का जिक्र करना जरूरी है, जिसने सरकारी सेवकों की प्रत्येक राजनीतिक गतिविधि पर रोक लगायी । वे किसी दल के सदस्य भी नहीं हो सकते । यद्यपि उन्हें मताधिकार का प्रजातान्त्रिक अधिकार पूर्ववत प्राप्त हैं ।

लोक सेवा सुधार अधिनियम, 1978 (Public Service Reform act, 1978):

इस अधिनियम ने पैण्डलटन अधिनियम की कमी को पूरा किया । इसका महत्वपूर्ण प्रावधान था, लोक सेवा आयोग का समापन (1979) तथा उसके कार्यों का 4 भागों में विकेन्द्रीकरण । अब आफिस पर्सोनल मैनेजमेन्ट, मैरिट सिस्टम प्रोटेक्शन बोर्ड, फेडरल लेबर रिरेशन अथारिटी तथा ईक्वल एम्पलायमेन्ट औपचुईनीटी कमीशन समाप्त आयोग के कार्यों को करते हैं ।

साथ ही इसने ”सिनियर एक्जीटीव सर्विस” नाम से नयी सेवा स्थापित की । 1978 के सुधार अधिनियम में सुधार जैसी बहुत सी बाते हैं, जैसे कार्मिकों की कार्यक्षमता बढ़ाने का उपाय करना । इस हेतु उनकी गैर कार्य गतिविधियों पर रोक लगाना, प्रबन्ध- प्राधिकार और कार्मिक सुरक्षा को संतुलित रूप से समाहित करना इत्यादि । अमेरिकी लोक सेवा में निरन्तर हेतु सुधारों कतिपय पदों पर नियुक्ति गैर प्रतियोगिता के आधार पर होती हैं ।

हरमन फाईनर ने परीक्षाओं के निम्नस्तर पर घोर आपत्ति की है । साथ ही अमेरिकी लोकसेवा में ”प्रशासनिक विद्वता” में विश्वास के सिद्धान्त को मान्यता प्राप्त नहीं होता, ऊंची उम्र में भी भर्ती (35 वर्ष तक) आदि अन्य दोष फाइनर ने गिनाये है । वस्तुत: हुवर आयोग (1949) ने ”वरिष्ठ सिविल सेवा” स्थापित करने की अनुशंसा की थी । S.E.S. में 5 वेतन स्केल हैं, और प्रत्येक व्यक्ति को उसकी योग्यता के अनुरूप काम आबंटित किया जाता है ।

संख्यात्मक शक्ति (Numerical Power):

हम सभी पार्किन्सन के नियम या नौकरशाही के उठते हुए पिरामिड से परिचित है । पार्किन्सन के अनुसंधानों ने नौकरसाहि के आकार में प्रति वर्ष 5.75 प्रतिशत औसत वृद्धि का उल्लेख किया है ।

लोक सेवा एक जीवन वृत्ति के रूप में (Civil Service as a Career):

इससे आशय कार्मिकों द्वारा लोक सेवा को एक पेशे या व्यवसाय के रूप में अपनाने से हैं । यद्यपि लोक सेवा प्राचीन समय में ही चीन, मिस्र और भारत में गठित कर ली गयी थी परंतु एक वृत्ति (कैरियर) के रूप में उसका विकास वर्तमान समय में ही हुआ है ।

हरमन फाईनर ने अपनी पुस्तक ”ए प्रिमियर आफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेरशन” में लोक सेवा को एक वृत्ति के रूप में व्यवस्थापित किया है । मैक्स वैबर ने अपने ”नौकरशाही माडल” में भी आर्दश नौकरशाही को ”जीवनवृत्ति” के रूप में देखा । कार्मिकों का लोक सेवा में आने का उद्देश्य किसी अन्य प्रकार से लाभ कमाना नहीं होता, अपितु महीने उपरान्त प्राप्त होने वाली ”वेतन-उपलब्धि” और भविष्य में अच्छे कार्य के पुरूस्कार के रूप में ”पदोन्नति” की आशा है ।

यद्यपि भारत, चीन, मिश्र जैसे देशों में लोक सेवा का व्यवस्थित संगठन प्राचीनकाल में ही खड़ा कर लिया गया था । लेकिन इसका वृत्ति के रूप में विकास आधुनिक काल में ही हुआ हैं । आज की एकमात्र महाशक्ति अमेरिका में भी 1883 से ही योग्यता आधारित लोक सेवा का प्रारम्भ हुआ जिसने लोक सेवा को एक वृत्ति के रूप में अपनाने हेतु प्रतिभाओं को आकर्षित किया । इससे कुछ समय पूर्व ही यह काम ब्रिटेन (1955) में शुरू हुआ था ।

एल.डी.व्हाइट. एक वृत्ति के रूप में इसके विकास का श्रेय प्रशा के राजा फ्रेडरिक महान, इंग्लैड के राजा हेनरी अष्टम और रानी एलिजाबेथ तथा फ्रांस के मंत्री रिशिलिएं को देते है । इन्होंने उस समय की सामंतवादी प्रशासनिक व्यवस्था के स्थान पर योग्यता आधारित नौकरशाही को अपनाना शुरू किया था । मैक्स वेबर ने अपनी आदर्श नौकरशाही को ”वृत्ति नौकरशाही” (जीवन वृत्ति नौकरशाही) के रूप में प्रस्तुत किया । हरमन फाइनर, ग्लैडन आदि की परिभाषायें भी लोक सेवा को वृत्ति सेवा के रूप में ही प्रस्तुत करती है ।