लोक सेवक: वेतन ग्रेड, भत्ते और अधिकार | Read this article in Hindi to learn about:- 1. सरकारी कर्मचारियों  की वेतन (Pay or Compensation of Civil Servants) 2. सरकारी कर्मचारी  की भत्ते (Allowances of Civil Servants) 3. अवकाश लाभ (Leave Benefits) 4. सेवानिवृत्ति लाभ (Retirement Benefits) 5. अधिकार (Rights) 6. अनुशासनिक कार्यवाही (Disciplinary Action).

Contents:

  1. सरकारी कर्मचारियों की वेतन (Pay or Compensation of Civil Servants)
  2. सरकारी कर्मचारी की भत्ते (Allowances of Civil Servants)
  3. सरकारी कर्मचारी की अवकाश लाभ (Leave Benefits of Civil Servants)
  4. सरकारी कर्मचारी की सेवानिवृत्ति लाभ (Retirement Benefits of Civil Servants)
  5. लोकसेवकों के अधिकार (Rights of Civil Services)
  6. अनुशासनिक कार्यवाही (Disciplinary Action of Civil Servants)

1. सरकारी कर्मचारियों की वेतन (Pay or Compensation of Civil Servants):

किसी सरकारी कर्मचारी की सेवा-शर्तें में सम्मिलित हैं- वेतन, भत्ते, समय-समय पर वेतन बढ़ोतरी, अवकाश, पदोन्नति, सेवाकाल या सेवा से निष्कासन, स्थानांतरण, प्रति नियोजन, विभिन्न प्रकार के अधिकार, अनुशासनात्मक कार्यवाही, छुट्टियाँ, काम के घंटे तथा पेंशन, भविष्य निधि, उपदान जैसे सेवानिवृत्ति लाभ । इस प्रकार इनके अंतर्गत वर्गीकरण, भर्ती और प्रशिक्षण के अलावा कार्मिक प्रशासन का पूरा क्षेत्र आता है ।

इसे पारिश्रमिक, पगार या तनख्वाह भी कहते हैं । आधुनिक राज्य में लोकसेवकों की कार्यकुशलता के लिए एक उचित और पर्याप्त पारिश्रमिक व्यवस्था अत्यंत आवश्यक है । लेकिन लोकसेवकों के वेतनमानों के निर्धारण के लिए कोई एक सिद्धांत नहीं है । वास्तव में वेतनमानों को तय करते समय अनेक सिद्धांतों पर विचार किया जाता है ।

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समान कार्य के लिए समान वेतन:

लोकसेवकों के वेतनमान तय करने का यह सबसे महत्त्वपूर्ण सिद्धांत है । वेतन की दरें किसी व्यक्ति के प्रति पक्षपात पर आधारित नहीं होनी चाहिए । दूसरे शब्दों में, वेतनमान पद (काम) के लिए होने चाहिए न कि अलग-अलग लोगों के लिए । काम जितनी ऊँची कोटि का हो, उसका पारिश्रमिक उतना ही ऊँचा और निम्न कोटि के काम से अधिक होना चाहिए ।

बाहरी रोजगार से अनुरूपता:

सरकारी कर्मचारियों के वेतनमान निजी क्षेत्र के वेतनमानों के उचित रूप से तुलनात्मक हों । अर्थात, सरकारी कर्मचारियों को वेतन उस दर से मिलने चाहिए जो उसी परिस्थिति में बाहरी रोजगार से मेल खाते हों अन्यथा समाज की प्रतिभा निजी क्षेत्र में चली जाएगी ।

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डाक-तार कर्मचारियों के वेतनों के मामले पर विचार करते समय ब्रिटेन के औद्योगिक न्यायालय ने अपने 1935 के निर्णय में इसी सिद्धांत का समर्थन किया था ।

निर्वाह व्यय:

सरकारी कर्मचारियों के वेतन पर्याप्त और औचित्यपूर्ण होने चाहिए । उनका संबंध निर्वाह व्यय से होना चाहिए । परंतु निर्वाह व्यय सारे देश में एक समान नहीं होता है अपितु यह एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में ज्यादा या कम होता है ।

कर्मचारियों के वेतनमान तय करते समय ऐसी क्षेत्रीय विभिन्नताओं का ध्यान रखना आवश्यक है । निर्वाह व्यय में परिवर्तनों के साथ वेतनमानों को बदलना और समायोजित करना चाहिए ।

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देश की आर्थिक स्थिति:

सरकारी कर्मचारियों की वेतन योजना देश की प्रति व्यक्ति आय से जुड़ी होनी चाहिए । सरकार की वित्तीय स्थिति देश की आर्थिक स्थिति पर निर्भर है । संयुक्त राज्य अमरीका, ब्रिटेन, फ्रांस और जर्मनी जैसे विकसित देशों के लोगों की कर भुगतान क्षमता भारत, ब्राजील जैसे विकासशील देशों के लोगों से कहीं अधिक है । स्पष्ट है कि विकासशील देशों की तुलना में विकसित देशों के लोकसेवकों के वेतनमान कहीं अधिक ऊंचे हैं ।

राज्य एक आदर्श नियोक्ता:

सरकारी कर्मचारियों के वेतनमान निर्धारित करते समय एक अन्य सिद्धांत का भी ध्यान रखना आवश्यक है कि राज्य को एक आदर्श नियोक्ता की तरह व्यवहार करना चाहिए ।

ब्रिटिश लोकमेवा पर टॉमलिन रॉयल कमीशन (1929-31) ने आदर्श नियोक्ता शब्द की तीन भिन्न-भिन्न व्याख्याओं का उल्लेख किया था:

(i) आदर्श नियोक्ता वह है जो वेतन तथा अन्य सेवा-शर्तों के मामले में समाज के दूसरे नियोक्ताओं से आगे है ।

(ii) समाज में राज्य को अग्रिम श्रेणी के नियोक्ताओं में से एक होना चाहिए, इसके लिए उसका सबसे आगे चलना जरूरी नहीं है ।

(iii) यह अपने कर्मचारियों के प्रति राज्य के उत्तरदायित्व पर ही जोर देता है इसके परे और किसी पर नहीं ।

‘आदर्श नियोक्ता’ शब्द की सामान्य व्याख्या है । अत: राज्य को चाहिए कि वह अपने कर्मचारियों के लिए ऐसे वेतनमान निर्धारित करें जो निजी क्षेत्र के नियोक्ताओं के लिए आदर्श का काम करें ।

प्रभावशीलता बनाए रखना:

सरकार को वेतनमानों का निर्धारण इस तरह करना चाहिए कि अपेक्षित योग्यताओं और क्षमता वाले कर्मचारी उसकी और आकर्षित हों और सरकारी सेवा में बने रहें । ब्रिटेन में राज्य कर्मचारियों के वेतन और सेवा-शर्तों के बारे में एंडरसन कमेटी (1923) न इसी सिद्धांत पर जोर दिया था ।

इसने इस सिद्धांत का प्रतिपादन किया कि कुशल कर्मचारियों को, भर्ती करने और बनाए रखने के लिए सरकार को उतना (वेतन) देना चाहिए जितना आवश्यक है । भारत में इस सिद्धांत को इस्लिंग्टन आयोग (1912) ने भी न्यायोचित बताया था ।

अन्य सिद्धांत:

वेतनमान तय करने में उपरोक्त के अलावा निम्नलिखित बातों का भी ध्यान रखना चाहिए:

1. सामाजिक सरोकार अर्थात् उच्चतम ओर न्यूनतम वेतनों क बीच अंतर कम से कम होना चाहिए ।

2. सरकारी नीति जो राजनीतिक विचारधारा और इसके आचरण पर आधारित होती है ।

3. विधान जैसे कि न्यूनतम वेतन अधिनियम ।

4. काम की जोखिमपूर्ण और खतरनाक प्रकृति ।

5. कर्मचारी यूनियन जो सामूहिक सौदेबाजी के अपने सिद्धांत से सरकार पर दबाव डालती है ।


2. सरकारी कर्मचारी  की भत्ते (Allowances of Civil Servants):

वेतन के अतिरिक्त सरकारी कर्मचारी अनेक प्रकार के भत्तों के अधिकारी हैं ।

इनका विवरण निम्न है:

i. महँगाई भत्ता (डी.ए.):

यह कीमतों और निर्वाह व्यय में बढ़ोतरी की प्रतिपूर्ति के लिए दिया जाता है ।

ii. मकान किराया भत्ता (एच.आर.ए.):

यह शहरों में मकानों के बढ़ते हुए किरायों की प्रतिपूर्ति के लिए दिया जाता है । यह उन कर्मचारियों के अतिरिक्त सबको दिया जाता है जिनको सरकार की ओर से आवास मिले हुए हैं । इसका भुगतान मूलवेतन और कार्यस्थल के संदर्भ में किया जाता है; सरकारी कर्मचारी के आवास का स्थान चाहे कोई हो ।

iii. नगर प्रतिपूर्ति भत्ता:

यह बड़े शहरों में दैनिक जीवन आवश्यकताओं के लिए दिया जाता है, जहाँ छोटे शहरों और कस्बों के मुकाबले कीमतें अधिक होती हैं । यह भी मूल वेतन और काम के स्थान के संदर्भ में बिना इस पर किए दिया जाता है कि कर्मचारी का आवास कहाँ है ।

iv. यात्रा भत्ता (टी.ए.):

यह सरकारी काम पर यात्रा में आने वाले खर्चों को पूरा करने को दिया जाता है । इसके लिए कर्मचारियों के वेतन के आधार पर उनको छह प्रवर्गों (श्रेणियों) में बाँटा गया है ।

v. दैनिक भत्ता (डी.ए.):

यह रहने, खाने तथा फुटकर खर्चें की पूर्ति के लिए दिया जाता है ।

vi. वाहन भत्ता (सी.ए.):

यह उस कर्मचारी को दिया जाता है जिसे बहुत अधिक, या अपने मुख्यालय से छोटी दूरी के लिए यात्रा करना जरूरी होता है लेकिन जिसके लिए वह यात्रा भत्ते का दावा नहीं कर सकता ।

vii. अवकाश यात्रा भत्ता (एल.टी.सी.):

जो सरकारी कर्मचारी एक वर्ष का सेवाकाल पूरा कर लेता है वह अवकाश यात्रा भत्ते का पात्र हो जाता है । यह उसे तथा उसके परिवार वालों को 2 वर्ष में एक बार अपने गृहनगर जाने के लिए मिलता है । इसके अलावा चार वर्ष में गृहनगर जाने के लिए दो में से एक एल.टी.सी. के बदले वह भारत के किसी भी स्थान पर जाने के लिए यह भत्ता ले सकता है ।

viii. चिकित्सा भत्ता:

सरकारी कर्मचारी अपने परिवार सहित नि:शुल्क चिकित्सा पाने का अधिकारी है । वह जो भी खर्च करेगा उसकी प्रतिपूर्ति कर दी जाएगी । यह इलाज के असाधारण खर्च की स्थिति में किया जाता है ।

ix. बाल शिक्षा सहायता:

इसके अंतर्गत सरकारी कर्मचारियों को निम्न सुविधाएँ प्राप्त हैं:

(i) बाल शिक्षा भत्ता,

(ii) शिक्षण शुल्कों की प्रतिपूर्ति और

(iii) छात्रावास आर्थिक सहायता ।

प्राथमिक, माध्यमिक और उच्चतर माध्यमिक कक्षाओं के लिए बाल भत्ते की दर 50 रु. प्रति बालक है । पाँचवे वेतन आयोग ने इसे 100 रु. करने की सिफारिश की थी ।

x. वर्दी भत्ता:

अपने सरकारी काम करते समय पुलिस, चपरासी जैसे कर्मचारियों के वर्गों को विशेष वस्त्र पहनने होते हैं । उनको विशेष वर्दी भत्ता दिया जाता है ।

xi. प्रतिपूरक भत्ता:

इसमें अग्रलिखित भत्ते आते हैं- संयुक्त पर्वतीय प्रतिपूरक भत्ता, हानिकर जलवायु भत्ता, आदिवासी क्षेत्र और दूरस्थ स्थान/सीमा क्षेत्र/दुर्गम क्षेत्र/अशांत क्षेत्र भत्ता । पाँचवे वेतन आयोग की सिफारिश है कि इन भत्तों को ‘विशेष प्रतिपूरक भत्ते’ के अधीन रखना चाहिए ।


3. सरकारी कर्मचारी  की अवकाश लाभ (Leave Benefits of Civil Servants):

सरकारी कर्मचारियों को अनेक प्रकार अवकाश लाभ भी प्राप्त हैं । परंतु छुट्टी का दावा अधिकार के रूप में नहीं किया जा सकता है । दूसरे शब्दों में छुट्टी स्वीकृत करने वाला प्राधिकारी किसी भी छुट्टी को देने से इनकार कर सकता है और उसे वापस कर सकता है ।

लेकिन वह देय छुट्टी और जिसकी प्रार्थना की गई है उस छुट्टी को, कर्मचारी की प्रार्थना के सिवाय बदल नहीं सकता । इसके अलावा राष्ट्रपति की स्वीकृति के बिना किसी भी प्रकार की छुट्टी लगातार पाँच साल से अधिक के लिए नहीं दी जा सकती ।

विभिन्न प्रकार की छुट्टियों का स्पष्टीकरण नीचे किया गया है:

i. आकस्मिक छुट्टियाँ:

मूलतया यह अप्रत्याशित जरूरतों को पूरा करने के लिए थोड़े समय के लिए दी जाती हैं । आकस्मिक छुट्टी पर गए कर्मचारी को ड्‌यूटी से अनुपस्थित नहीं माना जाता है । उसका वेतन रोका नहीं जाता । इसको विशेष आकस्मिक छुट्टी के अतिरिक्त किसी दूसरे प्रकार की छुट्टी से नहीं जोड़ा जा सकता । पाँचवे वेतन आयोग ने एक कैलेंडर वर्ष में 8 दिनों की आकस्मिक छुट्टी की सिफारिश की है ।

ii. अर्जित छुट्टी:

इसको विशेषाधिकार छुट्टी भी कहा जाता है । यह कर्मचारी को कुछ समय के लिए विश्राम करने के उद्देश्य से दी जाती है । कर्मचारी के छुट्टी खाते में अर्जित छुट्टी को पहले से जमा किया जाता है जो प्रत्येक कैलंडर वर्ष की पहली जनवरी से पहली जुलाई तक 15-15 दिन की दो किश्तों में होती है ।

सेवानिवृत्ति के लिए तैयारी की छुट्टी के मामले में अर्जित छुट्टी 180 दिन के लिए अन्यथा एक बार में 120 दिन के लिए ली जा सकती है । यह 300 दिन तक अर्जित होती है, जिसका रिटायरमेंट पर भुगतान हो जाता है ।

iii. अर्ध वेतन छुट्टी:

यह छुट्टी उस समय भी विकल्प के रूप में दी जाती है जब अर्जित छुट्टी जमा होती है । यह या तो मेडिकल प्रमाण पत्र पर दी जाती है अथवा निजी मामलों पर । इसलिए इसे बीमारी की या निजी मामलों की छुट्टी भी कहते हैं । हालाँकि इन दोनों के उद्देश्य अलग-अलग होते हैं फिर भी उनको 1933 में आधा-वेतन छुट्टी योजना के साथ रखा गया ।

iv. अध्ययन छुट्टी:

यह उस कर्मचारी को स्वीकृत की जाती है जो उच्चतर सेवा का कोई विशेष कोर्स कर रहा होता है, या ऐसा विशेषज्ञ व्यावसायिक अथवा तकनीकी प्रशिक्षण ले रहा हो जिसका उसके कार्यभार से प्रत्यक्ष एवं निकट का रिश्ता हो अथवा जो लोकसेवक के रूप में उसकी सोच को व्यापक बनाने तथा क्षमता को बढ़ाने में सहायक होता है ।

इस छुट्टी का पात्र वह होता है जिसने कम से कम पाँच साल का सेवाकाल पूरा कर लिया हो । पाँचवे वेतन आयोग ने सिफारिश की है कि अध्ययन छुट्टी एक बार में अधिक से अधिक 24 महीनों की होनी चाहिए और सेवा के दौरान अधिकतम 36 महीनों की ।

v. प्रसूति छुट्टी:

यह उन विवाहित अथवा अविवाहित महिला कर्मचारियों का दी जाती है जिनके दो से कम जीवित बच्चे होते हैं । इसमें पूरा वेतन दिया जाता है और इसे हर प्रकार की छुट्टी से जोड़ा जा सकता है । सभी वेतन वृद्धियों तथा पेंशन के लिए इसे सेवा में गिना जाता है । पाँचवें वेतन आयोग ने सिफारिश की है कि सेवा में गर्भावस्था के दौरान प्रसूति छुट्टी कुल मिलाकर 135 दिनों के लिए दो बार में दी जानी चाहिए ।

vi. पैतृत्व छुट्टी:

यह ऐसे पुरुष सरकारी सेवकों को उनकी पत्नी के प्रसव के दौरान 15 दिन के लिए दी जाती है जिनके जीवित बच्चे दो से कम होते हैं । इसमें पूरा वेतन दिया जाता है और इसको किसी भी अन्य प्रकार की छुट्टी के साथ जोड़ा जा सकता है ।

vii. असाधारण छुट्टी:

यह तब दी जाती है जब कोई और छुट्टी स्वीकार्य नहीं हुई हो अथवा कर्मचारी विशेष रूप से जब इसी छुट्टी की प्रार्थना करता है । स्थायी अधिकारियों के मामले में यह पाँच वर्ष से अधिक की नहीं दी जा सकती । परंतु वह किसी सवैतनिक छुट्टी का अधिकारी नहीं होता है ।

viii. अन्य छुट्टियाँ:

ऊपर उल्लेखित छुट्टियों के अतिरिक्त सरकारी कर्मचारी परिवर्तित छुट्टी, विशेष अपंगता छुट्टी, चिकित्सालय छुट्टी, विशेष आकस्मिक तथा अन्य छुट्टियों के भी अधिकारी हैं ।


4. सेवानिवृत्ति लाभ (Retirement Benefits of Civil Servants):

सेवा-निवृत्ति लाभ के लिए धन जुटाने के निम्न तीन उपाय हैं:

1. अंशदायी पद्धति में कर्मचारी का योगदान पूरा होता है (वेतन कटौतियों के द्वारा) ।

2. आंशिक अंशदान पद्धति में सेवा-निवृत्ति लाभ की लागत में कर्मचारी और सरकार दोनों भागीदार होते हैं ।

3. गैर-अंशदायी पद्धति में सेवा-निवृत्ति लाभों की लागत केवल सरकार उठाती है ।

भारत में सेवा-निवृत्ति के लाभों के निम्नलिखित रूप प्रचलन में हैं:

i. पेंशन:

यह सेवानिवृत्त सरकारी कर्मचारी को उसके शेष जीवनकाल तक हर माह मिलने वाली धनराशि है । सभी मामलों में इसका परिकलन संपूर्ण औसत पारिश्रमिक के 50% के रूप में किया जाता है । परंतु यह न्यूनतम 1275 रु. प्रतिमाह तथा सरकारी वेतन का अधिकतम 50% होनी चाहिए । सारांश के लिए अधिकतम पेंशन 40% है ।

विभिन्न प्रकार की पेंशनें निम्न हैं:

1. अधिवर्षिता पेंशन, उस सरकारी कर्मचारी को दी जाती है जो अधिवर्षिता (Superannuation) की निश्चित अवधि अर्थात 58-60 वर्ष की आयु प्राप्त करने के बाद सेवानिवृत्त हुआ है ।

2. सेवा-निवृत्ति पेंशन, उस सरकारी कर्मचारी को दी जाती है जो सेवा की निश्चित अवधि को पूरा करने के बाद, परंतु अधिवर्षिता की आयु पूरी होने से पूर्व सेवानिवृत्त हुआ है (अर्थात स्वैच्छिक अथवा समयपूर्व सेवानिवृत्ति) ।

3. असमर्थता पेंशन, उस सरकारी कर्मचारी को दी जाती है जो शारीरिक अथवा मानसिक दुर्बलता के कारण सेवानिवृत्त हुआ हो और जिसके कारण सेवा करने के लिए वह स्थायी रूप से असमर्थ हो गया हो ।

4. क्षतिपूर्ति पेंशन, उस कर्मचारी को दी जाती है जिसका स्थायी पद समाप्त हो गया हो और उसी पदस्थिति के वैकल्पिक रोजगार का प्रबंध संभव नहीं हो अथवा निचले पद का प्रस्ताव स्वीकार्य नहीं हो ।

5. अनिवार्य सेवानिवृत्ति पेंशन, उस सरकारी कर्मचारी को दी जाती है जिसे दंड के रूप में सेवा से अनिवार्य रूप से सेवानिवृत्त कर दिया गया हो ।

6. अनुकंपा भत्ता, उस सरकारी कर्मचारी को दिया जाता है जिसको बुरे आचरण के लिए सेवा से हटा या निकाल दिया गया हो । इसको भी पेंशन माना जाता है परंतु यह धनराशि उस धनराशि के दो-तिहाई से अधिक स्वीकार्य नहीं होती जो उसे क्षतिपूर्ति पेंशन के रूप में सेवानिवृत्ति के बाद मिलती है ।

7. क्षति पेंशन, उस सरकारी कर्मचारी को दी जाती है जिसको सरकारी कार्य के दौरान शारीरिक/मानसिक क्षति पहुँची है । इसको असमर्थता पेंशन भी कहा जाता है ।

8. परिवार पेंशन, उस सरकारी कर्मचारी के परिवार को दी जाती है जिसकी सेवाकाल में या सेवानिवृति के बाद मृत्यु हो गई है । इसकी गणना कर्मचारी द्वारा लिए गए अंतिम वेतन अथवा सरकार में अधिकतम वेतन के 30% की समान दर पर की जाती है ।

ii. भविष्य निधि:

यह सेवा-निवृति लाभ का एक अन्य रूप है जो कर्मचारी को एक साथ एक मुश्त दिया जाता है । सेवानिवृत्ति लाभ की इस आंशिक रूप से अंशदायी पद्धति में कर्मचारी और सरकार दोनों का योगदान होता है ।

iii. उपदान:

कर्मचारी को उपदान (Gratuity) में एक मुश्त में अदा की जाती है । यह तरह-तरह की होती है जैसे- सेवा उपदान, सेवानिवृत्ति, उपदान, मृत्यु उपदान

इत्यादि ।

iv. छुट्टी भुनाना:

सेवानिवृत्त कर्मचारी अपनी संचित या अर्जित छुट्टियों को सेवानिवृत्त होने तक 300 दिन तक के लिए भुना सकता है (पांचवा वेतन आयोग) । अत: कर्मचारी को उसके अंतिम वेतन के बराबर धनराशि एक मुश्त दी जाती है ।

v. बीमा लाभ:

केंद्रीय सरकार कर्मचारी सामूहिक बीमा योजना (1980) में सेवा के दौरान कर्मचारी की मृत्यु हो जाने पर दोगुने लाभ वाली कम कीमत की अंशदायी बीमा सुरक्षा की व्यवस्था की गई है । इसके अतिरिक्त सेवानिवृत्ति पर उसके संसाधनों को बढ़ाने के लिए एक मुश्त भुगतान करने की भी व्यवस्था है ।


5. लोकसेवकों के अधिकार (Rights of Civil Services):

भारत में लोकसेवकों के अधिकार निम्नलिखित हैं:

i. संगठन का अधिकार:

भारत के संविधान की धारा 19 सभी नागरिकों को भाषण, अभिव्यक्ति, सभा और संगठन का अधिकार प्रदान करती है । परंतु राज्य को यह अधिकार भी है कि राष्ट्रीय हित में वह इन अधिकारों पर उचित प्रतिबंध लगा सकता है । इसके अतिरिक्त संविधान की धारा 309 विधायिका को सार्वजनिक सेवाओं और पद पर नियुक्त लोगों की भर्ती और उनकी सेवा-शर्तों को नियंत्रित करने का अधिकार देती है ।

इस प्रावधान के अंतर्गत बनाए गए आचरण नियम भी लोकसेवकों के मौलिक अधिकारों पर न्यायोचित प्रतिबंध लगाते है । अत: भारत में स्थिति यह हैं कि लोकसेवक किसी ऐसे सेवा संगठन के सदस्य नहीं बन सकते जिसको सरकार की मान्यता प्राप्त नहीं है । अत: जो संगठन मान्यता प्राप्त नहीं उसका सदस्य बनना एक अनुशासनात्मक अपराध है ।

सरकार केवल निम्नलिखित शर्तें पूरी करने वाले संगठनों को मान्यता देती है:

1. इसके सदस्य केवल सरकारी कर्मचारी हों ।

2. इसकी कार्यकारिणी का गठन केवल इसके सदस्यों के बीच से हो ।

3. राजनीतिक तौर पर निष्पक्ष हो ।

4. यह व्यक्तिगत मामलों को नहीं उठाए ।

इस मामले पर जगन्नाथ दास की अध्यक्षता में दूसरे वेतन आयोग में विस्तार से चर्चा की गई थी जिसने सिफारिश की थी कि:

1. जिस संगठन को सरकारी मान्यता नहीं है, उसकी सदस्यता प्राप्त करना अनुशासनात्मक अपराध न माना जाए और

2. मान्यता देने के नियमों को उदार बनाया जाए ।

ii. हड़ताल का अधिकार:

ब्रिटेन की तरह भारत में भी लोकसेवकों की हड़ताल पर रोक का कोई कानून नहीं है, परंतु आचरण संबंधी नियम लोकसेवक को किसी भी हड़ताल में भाग लेने से रोकते हैं । अत: लोकसेवकों की हड़ताल एक अनुशासनात्मक अपराध है ।

जगन्नाथ दास आयोग अर्थात दूसरे वेतन आयोग ने कहा था कि लोकसेवकों को हड़ताल का अधिकार नहीं होना चाहिए । भारत के प्रशासनिक सुधार आयोग ने ऐसे भी आगे बढ़कर लोकसेवकों की सभी हड़तालों पर पूर्ण प्रतिबंध लगाने की सिफारिश की ।

iii. राजनीतिक अधिकार:

संयुक्त राज्य अमरीका की तरह भारत ने भी लोकसेवकों के राजनीतिक अधिकारों पर कड़े प्रतिबंध लगा रखे हैं ।

आचरण नियमों के अनुसार लोकसेवकों को:

1. सक्रिय राजनीति में भाग नहीं लेना चाहिए ।

2. किसी राजनीतिक दल में शामिल नहीं होना चाहिए ।

3. किसी प्रत्याशी के पक्ष में प्रचार नहीं करना चाहिए ।

4. लोकसभा या विधानसभा के चुनाव नहीं लड़ने चाहिए ।

अत: मताधिकार के अतिरिक्त भारत में लोकसेवकों को कोई राजनीतिक अधिकार नहीं है परंतु कोई लोकसेवक सरकारी अनुमति से स्थानीय निकाय चुनाव लड़ सकता है ।

1954 में पहले वेतन आयोग की सिफारिश पर सभी मंत्रालयों में स्टाफ कमेटियों का गठन किया गया था । 1957 में उनका नाम बदलकर कर्मचारी परिषद कर दिया गया ।

इन परिषदों के लक्ष्य एवं उद्देश्य थे:

1. कर्मचारियों की शिकायतों से निपटने का तंत्र उपलब्ध कराना ।

2. सरकार और कर्मचारियों के बीच सेवा-शर्तों से संबंधित विवादों पर बातचीत और उनको निपटाना ।

3. कर्मचारी कल्याण को प्रोत्साहन ।

प्रत्येक मंत्रालय में दो कर्मचारी परिषदें थीं- वरिष्ठ कर्मचारी परिषद वर्ग-दो और तीन के लिए तथा कनिष्ठ कर्मचारी परिषद वर्ग चार के लिए । अत: वर्ग एक के कर्मचारी इस व्यवस्था से बाहर रखे गए थे । वे केवल सलाहकार थे ।

दूसरे वेतन आयोग ने पाया कि अपने लक्ष्यों और उद्देश्य को पूरा करने में ये परिषदें प्रभावशील नहीं रहीं ।

अत: इसने निम्नलिखित उपायों की सिफारिश की:

1. एक केंद्रीय संयुक्त परिषद का गठन किया जाए जो औद्योगिक एवं गैर-औद्योगिक लोकसेवकों के लिए ही ।

2. एक अनिवार्य मध्यस्थता ट्रिब्यूनल का गठन किया जाए जिसका कार्य वेतन, भत्तों, काम के घंटों तथा छुट्टियों के मामलों का निपटान करना हो ।

3. कर्मचारी संबंधों से जुड़े मामलों में श्रम मंत्रालय को महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करनी चाहिए । केंद्रीय सरकार के कर्मचारियों के लिए संयुक्त सलाहकार परिषद (JCM) का गठन करके उपरोक्त सिफारिशों को 1966 में लागू किया गया ।

यह ब्रिटेन की व्हिटले कौंसिल के नमूने पर बनी हैं । इसमें राष्ट्रीय परिषद, विभागीय परिषदें तथा स्थानीय परिषदें शामिल हैं । इसमें अधिकारियों और कर्मचारियों के प्रतिनिधियों की संख्या बराबर होती है ।

संयुक्त सलाहकार परिषद (जे.सी.एम) के निम्नलिखित सरोकार हैं:

1. भर्ती, पदोन्नति और अनुशासन संबंधी सामान्य सिद्धांत ।

2. सेवा-शर्तों से जुड़े सभी मामले ।

3. लोकसेवा की प्रभावशीलता में सुधार ।

4. कर्मचारियों का कल्याण ।

इसमें व्यक्तिगत मामलों को नहीं उठाया जाता है ।

जे.सी.एम. में निम्नलिखित के अलावा सभी कर्मचारी आते हैं:

a. ग्रुप ए (वर्ग I) के अधिकारी,

b. ग्रुप बी (वर्ग II) के अधिकारी केंद्रीय सचिवालय सेवा को छोड़कर,

c. औद्योगिक प्रतिष्ठानों में प्रबंधकीय या निरीक्षक स्तर पर सेवारत लोग,

d. संघ-राज्य क्षेत्र के कर्मचारी,

e. पुलिस कर्मचारी ।

अधिकारी और कर्मचारी के बीच असहमति की स्थिति में अनिवार्य मध्यस्थता का भी प्रावधान है । इसके लिए श्रम मंत्रालय के अधीन मध्यस्थता बोर्ड गठित किया गया है । भारतीय संसद के अभिभावी अधिकार के अधीन बोर्ड के निर्णय अंतिम हैं ।


6. अनुशासनिक कार्यवाही (Disciplinary Action of Civil Servants):

यह कार्यवाही उस लोकसेवक के विरुद्ध की जाती है जिसने अपने कार्य के दौरान आचरण संबंधी नियमों का उल्लंघन किया है ।

भारत में आचरण नियम निम्न हैं:

i. अखिल भारतीय सेवा (आचरण) नियम, 1954

ii. केंद्रीय लोकसेवा (आचरण) नियम, 1955

iii. रेलवे सेवा (आचरण) नियम, 1956

विधिवत अनुशासनिक कार्यवाही में छोटे तथा बड़े दंड देना शामिल हैं ।

छोटे दंड निम्न हैं:

a. नियंत्रण (सेंसर) या डांट-फटकार,

b. वेतन वृद्धि रोकना,

c. पदोन्नति रोकना,

d. आर्थिक नुकसान की वसूली ।

बड़े दंड हैं:

i. स्तर या पद घटाना,

ii. अनिवार्य सेवानिवृत्ति,

iii. सेवा से निष्कासन,

iv. सेवा से पदच्युत करना ।

निष्कासन और पदच्युति में अंतर यह है कि पहले वाली स्थिति कर्मचारी को भावी नौकरी के लिए अयोग्य नहीं बनाती है जबकि दूसरी स्थिति में वह भावी रोजगार के अयोग्य हो जाता है ।

अनुशासनिक कार्यवाही की प्रक्रिया के विभिन्न चरण निम्न हैं:

1. जिस कर्मचारी के विरुद्ध आनुशासनिक कार्यवाही शुरू की गई है, उससे स्पष्टीकरण माँगना ।

2. यदि स्पष्टीकरण संतोषप्रद नहीं, तो आरोप तय करना ।

3. कर्मचारी को सेवा से निलंबित करना ।

4. आरोपों की सुनवाई और कर्मचारी को अपने बचाव का अवसर देना ।

5. निष्कर्ष और रिपोर्ट बनाना ।

6. प्रस्तावित दंड के बारे में कर्मचारी को अपने बचाव का दूसरा अवसर देना ।

7. दंड का आदेश ।

8. अपील, यदि कोई है ।

लोकसेवक के विरुद्ध अनुशासनिक कार्यवाही को संविधान के निम्नलिखित प्रावधान नियंत्रित करते हैं:

1. किसी लोकसेवक को उसे नियुक्त करने वाले प्राधिकारी के अधीनस्थ प्राधिकारी द्वारा हटाया या निष्कासित नहीं किया जा सकता । (धारा 311)

2. जब तक कर्मचारी को अपने बचाव का अवसर नहीं दिया जाता है, न तो उसकी पदावनति की जा सकती है और न ही उसे हटाया या निष्कासित किया जा सकता है । (धारा 311)

अखिल भारतीय सेवाओं, केन्द्रीय सेवाओं (समूह क) एवं कुछ समूह ख की सेवाओं के संबंध में अनुशासनात्मक कार्यवाही कराने का प्राधिकार भारत के राष्ट्रपति के पास है । समूह ग और समूह घ की सेवाओं के कर्मचारियों के संबंध में अनुशासनात्मक कार्यवाही करने का प्राधिकार सम्बद्ध मंत्रालय के सचिव के पास होता है ।