जनसंख्या वृद्धि के सिद्धांत: शीर्ष 4 सिद्धांत | Theories of Population Growth: Top 4 Theories | Hindi!

Read this article in Hindi to learn about the four main theories used for studying the underlying principles of population growth. The theories are: 1. Malthus’s Theory of Population Growth 2. Marx’s Theory of Population 3. Optimum Population Theory 4. Demographic Transition Theory.

1. माल्थस का जनसंख्या वृद्धि सिद्धांत (Malthus’s Theory of Population Growth):

ब्रिटिश अर्थशास्त्री एवं जनांकिकी विशेषज्ञ प्रो. थॉमस रॉबर्ट माल्थस ने 1798 ई. में अपनी पुस्तक ‘An Essay on the Principle of Population’ में जनसंख्या वृद्धि के तत्कालीन यूरोपीय संदर्भ को ध्यान में रखते हुए जनसंख्या वृद्धि सम्बंधी जैविक अवधारणा का प्रतिपादन किया ।

यह अवधारणा कुछ निम्न आधारभूत मान्यताओं पर आधारित थी:

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i. जनसंख्या में वृद्धि ज्यामितीय गति से होती है, अर्थात् 1, 2, 4, 8, 16,…………।

ii. खाद्य पदार्थों के उत्पादन में वृद्धि अंकगणितीय रूप से होती है, अर्थात् 1, 2, 3, 4, 5,……..।

जनसंख्या के दोगुने होने की अवधि को माल्थस ने 25 वर्ष बताया था । उनके द्वारा बताए गए वृद्धि दर से दो सौ वर्षों में जनसंख्या एवं निर्वाह के साधनों का अनुपात 256 : 9 का हो जाएगा । इस प्रकार, जनसंख्या व खाद्यान्न की वृद्धि की अलग-अलग प्रवृत्तियों के कारण खाद्य-आपूर्ति की समस्या उत्पन्न होती है ।

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अतः यदि स्वयं के नैतिक नियंत्रणों के द्वारा जनसंख्या की वृद्धि दर पर नियंत्रण न पाया जाए तो प्राकृतिक कारणों अर्थात् दुर्भिक्ष, संक्रामक बीमारियों, युद्ध आदि के द्वारा व्यापक अकाल मृत्यु होती है । इस प्रकार जनसंख्या, खाद्य पदार्थों के अनुपात में संतुलित होने लगती है । वर्तमान समय में माल्थस का सिद्धांत शायद ही कहीं लागू होता है ।

परंतु, जनसंख्या वृद्धि को नियंत्रित करने की दिशा में एक मार्गदर्शक सिद्धांत के रूप में इसे पर्याप्त मान्यता प्राप्त है, क्योंकि माल्थस पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने जनसंख्या वृद्धि पर वैज्ञानिक रूप से अपना दृष्टिकोण प्रस्तुत किया था । भारत में 1921 ई. के पहले काफी हद तक माल्थस के सिद्धांत लागू होते थे, क्योंकि 1911-21 के दशक में जनसंख्या में वास्तविक गिरावट देखी गई ।

परंतु हरित क्रांति के पश्चात् खाद्यान्न उत्पादन में तीव्र वृद्धि हुई, तत्पश्चात् यह सिद्धान्त भारतीय संदर्भ में भी प्रासंगिक नहीं रहा । वस्तुतः 1951 ई. के पश्चात् औसतन खाद्यान्न वृद्धि दर 3.1% प्रति वर्ष की दर से रही है, जबकि जनसंख्या की अधिकतम वृद्धि दर 2.22% रही है ।

नव-माल्थसवादियों के अनुसार माल्थस का जनसंख्या वृद्धि नियम, तकनीकी क्रांति आने से कुछ समय के लिए टल भले ही जाए परंतु अंततः काफी हद तक लागू होता है । उदाहरण के लिए, भारत में हरित क्रांति, श्वेत क्रांति आदि के कारण खाद्यान्न उत्पादन में वृद्धि की दर जनसंख्या वृद्धि की तुलना में तेज रही है, परंतु खाद्यान्न की उत्पादन वृद्धि की अपनी सीमाएँ हैं ।

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अतः राष्ट्रीय कल्याण की दृष्टि से नैतिक नियंत्रणों द्वारा अथवा कृत्रिम उपायों से जनसंख्या वृद्धि पर नियंत्रण आवश्यक है । नव-माल्थसवादी सिद्धांत के अंतर्गत ही 1972 ई. में ‘क्लब ऑफ रोम’ (Club of Rome) के द्वारा प्रतिपादित, ‘अभिवृद्धि की सीमाएँ’ (The Limits to Growth) सिद्धांत अत्यधिक महत्व रखता है । यह मीडोज, रेंडर्स व बहरेन्स आदि विद्वानों द्वारा विकसित किया गया था ।

इस सिद्धांत के अनुसार, पृथ्वी अंतरिक्ष में घूमते हुए एक यान की भाँति है, जिसके संसाधन सीमित हैं । अतः जनसंख्या में तीव्र वृद्धि वैश्विक ध्वंस (Global Collapse) की स्थिति पैदा करेगी ।

उपर्युक्त सिद्धांत के द्वारा दिए गए मॉडल में पाँच तत्व शामिल थे:

i. जनसंख्या वृद्धि,

ii. कृषि उत्पादन (प्रति व्यक्ति खाद्यान्न उत्पादन),

iii. प्रति व्यक्ति औद्योगिक उत्पादन,

iv. प्राकृतिक संसाधन,

v. पर्यावरण प्रदूषण ।

क्लब ऑफ रोम ने इन पाँचों के संदर्भ में अधिकतम सीमा पर चर्चा की । उनके अनुसार 1970 ई. के उपयोग स्तर पर नवीनीकरण योग्य संसाधन 250 वर्षों में समाप्त हो जाएंगे तथा नवीनीकरण अयोग्य संसाधनों की भी अपनी सीमाएँ हैं । संसाधनों की तुलना में जनसंख्या वृद्धि अधिक होने की अवस्था 2100 ई. से पूर्व ही आ जाएगी, क्योंकि उस समय विश्व की जनसंख्या 10 अरब से अधिक होगी ।

अतः विश्व को चाहिए कि 2050 ई. तक जनसंख्या को शून्य वृद्धि (Zero Growth) पर स्थिर करने का प्रयास करें । इस लक्ष्य की प्राप्ति हेतु विकासशील देशों द्वारा जन्म दर घटाने की दिशा में ठोस प्रयास किया जाना आवश्यक है ।

2. मार्क्स का जनसंख्या सिद्धांत (Marx’s Theory of Population):

कार्ल मार्क्स ने जनसंख्या वृद्धि के संदर्भ में अपने विचार 1867 ई. में प्रस्तुत

किए । उनका यह जनांकिकी चिंतन जैविक अवधारणा पर नहीं वरन् साम्यवादी दर्शन से प्रभावित था, जो पूर्णतः सामाजिक-आर्थिक अवधारणा पर आधारित

है । उनके अनुसार वैश्विक समाज अमीर व गरीब, दो वर्गों में विभाजित होता है ।

गरीब श्रमिक वर्ग अपनी आय को बढ़ाने के लिए श्रम शक्ति के संग्रह व श्रमिकों की फौज तैयार करने पर बल देता है, जिससे उसमें जनसंख्या वृद्धि की गति अधिक होती है जबकि अमीर वर्ग धन संग्रह पर बल देते हुए श्रमिकों की अतिरिक्त शक्ति (Surplus Labour Force) को निरंतर सस्ता बनाए रखता है ।

इससे जन्मद, मृत्युदर एवं परिवार के आकार का मजदूरी स्तर से विपरीत सम्बंध होता है । इस प्रकार श्रमिकों के उस वर्ग में मजदूरी दर निम्न व मृत्यु दर अधिक होती है । जिन्हें बेरोजगार होने का भय अधिक होता है ।

3. अनुकूलतम जनसंख्या सिद्धांत (Optimum Population Theory):

इस सिद्धांत की उत्पत्ति जनसंख्या व संसाधनों के सम्बंधों के तुलनात्मक विश्लेषण से हुई है । ब्रिटिश अर्थशास्त्री एडविन केनन को इस सिद्धांत का जनक माना जाता है ।

उनके अनुसार किसी देश की अनुकूलतम जनसंख्या (Optimum Population) से अभिप्राय जनसंख्या के उस आकार से होता है, जो उपलब्ध संसाधन, पूँजी व वर्तमान प्रविधि की स्थिति में अधिकतम प्रति व्यक्ति आय प्रदान करता है ।

यदि वास्तविक जनसंख्या अनुकूलतम से अधिक होती है तो वह देश अति जनसंख्या का देश बन जाता है । इससे विपरीत, यदि वास्तविक जनसंख्या अनुकूलतम जनसंख्या से कम हो तो वह देश न्यून जनसंख्या वाला देश होता है ।

रॉबिन्सन ने अनुकूलतम जनसंख्या की स्थिति में प्रति व्यक्ति अधिकतम उत्पादन एवं कारसौन्डर्स ने प्रति व्यक्ति अधिकतम आर्थिक कल्याण की परिकल्पना की है । डाल्टन ने एडविन केनन के द्वारा व्याख्यायित अनुकूलतम जनसंख्या की स्थिति में प्रति व्यक्ति आय की संकल्पना की सहमति दी है ।

जनसंख्या व संसाधनों के सह-सम्बंध को निम्न सूत्र के द्वारा विवेचित किया गया है:

 

जहाँ, M = असंतुलन की मात्रा (Mal-Adjustment)

A = वास्तविक जनसंख्या (Actual Population)

O = आदर्श जनसंख्या है (Optimum Population)

यदि M धनात्मक है तो जनाधिक्य होगा और यदि ऋणात्मक है तो जनसंख्या न्यून होगी । इसी प्रकार यदि M का मान O के बराबर हो तो जनसंख्या व संसाधन के बीच सह-सम्बंधों की आदर्श व अनुकूलतम स्थिति होगी । वस्तुतः किसी भी देश की अनुकूलतम जनसंख्या स्थिर नहीं होती, क्योंकि अनुकूलतम जनसंख्या की अवधारणा एक गतिशील अवधारणा है ।

यह संसाधनों की मात्रा एवं गुणों में परिवर्तन के अनुसार परिवर्तनशील होती है । इसी प्रकार अल्प-जनसंख्या (Under Population) व अधिक जनसंख्या (Over Population) की अवधारणा भी गतिशील है । यह वास्तविक भी हो सकती है और सापेक्षिक भी । क्लार्क ने वास्तविक और सापेक्षिक तथा अल्प जनसंख्या व जनाधिक्य की अवधारणा प्रस्तुत की है ।

 

4. जनांकिकीय संक्रमण का सिद्धांत (Demographic Transition Theory):

इस सिद्धांत का विकास डब्ल्यू.एस. थाम्पसन (1929 ई.) और एफ. डब्ल्यू. नोटेस्टीन (1945 ई.) द्वारा किया गया था । बाद में सी.पी. ब्लेकर, क्लार्क, हैगेट आदि ने भी इसका समर्थन किया । इस सिद्धांत के अनुसार जनसंख्या में वृद्धि क्रमिक चरणों में होती है तथा प्रत्येक देश को इन अवस्थाओं से गुजरना पड़ता है ।

जनांकिकीविद् इसे ‘जनसंख्या चक्र’ तथा भूगोलवेत्ता इसे ‘जनांकिकी संक्रमण’ की संज्ञा देते हैं । इन विभिन्न अवस्थाओं में एक परंपरागत पशुपालक व कृषक समाज विकास की विभिन्न अवस्थाओं से गुजरते हुए अन्ततः एक औद्योगिक व नगरीय समाज में परिवर्तित हो जाता है तथा उसके अनुरूप ही विभिन्न अवस्थाओं में जनांकिकी संरचना में भी परिवर्तन दिखाई पड़ते हैं ।

कोलिन क्लार्क ने इस सिद्धांत का समर्थन करते हुए इसके नए प्रारूप को प्रस्तुत किया है तथा पूर्व परिकल्पित चार अवस्थाओं के अलावा एक पाँचवीं अवस्था की भी परिकल्पना की है ।

सिद्धांत की मूलभूत अवधारणा यह है कि ‘जनसंख्या वृद्धि एक जैविक प्रक्रिया है, किन्तु इसका निर्धारक संतानोत्पादक समूह की सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियाँ हैं, अर्थात् किसी भी समाज की आर्थिक व सामाजिक परिस्थितियों के आधार पर उसकी जनसंख्या वृद्धि की अवस्था का पता लगाया जा सकता है । इसके विपरीत जैविक कारक अर्थात् जन्मदर एवं मृत्युदर किसी भी समाज की आर्थिक एवं सामाजिक परिस्थितियों का द्योतक है ।’

प्रथम अवस्था (First Stage):

यह उच्च जन्मदर एवं उच्च मृत्युदर की धीमी जनसंख्या वृद्धि दर की अवस्था है । इसे जनसंख्या वृद्धि की अस्थिर अवस्था कहा जा सकता है । चूँकि इस अवस्था में जन्मदर व मृत्युदर दोनों ही प्रकृति पर आधारित होती है, अतः इसमें कभी धनात्मक तो कभी ऋणात्मक जनसंख्या वृद्धि होती है ।

इस अवस्था में जन्मदर व मृत्युदर दोनों ही 40 से 50 प्रति हजार के बीच होती है । यह वैसे देशों की विशेषता है, जहाँ समाज का ढाँचा परंपरावादी है । सामाजिक-आर्थिक पिछड़ेपन के कारण इस प्रकार के समाजों में उच्च जन्मदर व उच्च मृत्युदर मिलती है ।

एडम स्मिथ ने भी कहा है, कि जनांकिकी उर्वरता का अनुकूलतम वातावरण दरिद्रता द्वारा निर्धारित होता है, अर्थात् जो समाज जितना गरीब होगा, जनसंख्या वृद्धि उतनी ही तेज होगी । उदाहरण के लिए, इथियोपिया, सोमालिया, लाओस, पापुआ न्यू गिनी, कम्बोडिया आदि देश इस अवस्था के अंतर्गत लिए जा सकते हैं ।

द्वितीय अवस्था (Second Stage):

इसे जनसंख्या विस्फोट या संक्रमण की अवस्था भी कहते हैं । उच्च जन्मदर एवं घटती मृत्युदर इस अवस्था की प्रमुख विशेषता होती है । सामान्यतः जन्मदर 40 से 50 प्रति हजार एवं मृत्युदर 15 से 20 प्रति हजार के बीच होती है ।

विश्व के अधिकतर विकासशील देश इसी अवस्था में हैं, जहाँ चिकित्सा-सुविधा के विस्तार से मृत्युदर में तो कमी आ गई है, परंतु सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों में विशेष अंतर नहीं होने के कारण जन्मदर में अपेक्षित कमी नहीं आ पाई है । इस अवस्था वाले देशों में बेरोजगारी, अशिक्षा, बुनियादी सेवाओं की कमी, खाद्यान्न की कमी आदि की समस्या प्रमुख होती है ।

परंतु श्रमिकों की आपूर्ति बढ़ने से ‘सघन जीवन निर्वाह कृषि’ व अन्य विकास कार्य भी प्रारंभ होते हैं । उदाहरण के लिए अफ्रीका, लैटिन अमेरिका, म्यांमार, लाओस, इण्डोनेशिया, ईरान, सउदी अरब आदि इस अवस्था में आते देश हैं ।

तृतीय अवस्था (Third Stage):

यह जनसंख्या वृद्धि में ह्रास की प्रवृत्ति की अवस्था है । साक्षरता में प्रसार, छोटे परिवार के प्रति जागरूकता एवं बढ़ते हुए सामाजिक-आर्थिक विकास के कारण जन्मदर में कमी आती है तथा मृत्युदर भी घटता जाता है । इस अवस्था में जन्मदर 20 से 30 प्रति हजार तथा मृत्युदर 10 से 15 प्रति हजार होता है ।

इस प्रकार, इस अवस्था में धीमी जनसंख्या वृद्धि होती है । यह अवस्था पूर्वी यूरोप, मध्य एशिया, चीन आदि देशों में देखने को मिलती है । भारत भी इस अवस्था में 1991 ई. से प्रवेश कर गया है । उदाहरण के लिए इजरायल, पुर्तगाल, स्पेन, चिली आदि इस अवस्था में आते देश हैं ।

चतुर्थ अवस्था (Fourth Stage):

यह जनसंख्या वृद्धि की स्थिर अवस्था है । इस अवस्था में जन्मदर एवं मृत्युदर दोनों ही न्यून हो जाते हैं । जन्मदर 10 से 15 प्रति हजार एवं मृत्युदर 10 से कम प्रति हजार होती है । यह विकसित समाज की विशेषता है । G-8 के देश सिंगापुर, हांगकांग, पश्चिमी यूरोप के देश आदि इसी अवस्था में आते हैं । भारत के इस अवस्था में पहुँचने की संभावना 2021 ई. तक है ।

पाँचवीं अवस्था (Fifth Stage):

इस अवस्था को कोलिन क्लार्क ने ऋणात्मक वृद्धि की अवस्था कहा है, क्योंकि यहाँ यद्यपि मृत्युदर न्यून होती है, परंतु पारिवारिक संस्थाओं एवं विवाह जैसे मूल्यो के पतन के कारण जन्मदर, मृत्युदर से भी कम रहता है । यह अत्यधिक विकसित एवं तकनीकी समाज का द्योतक है ।

1970 ई. के बाद इस तरह की प्रवृत्ति देखी गई है । यह एक प्रकार से ‘जातीय संहार’ या ‘जनांकिकी अपरदन की अवस्था’ कही जा सकती है । स्विट्‌जरलैंड, बेल्जियम, आइसलैंड आदि देश एवं विकसित देशों के नगर एवं महानगर इस अवस्था में है ।

यूरोपीय देशों के संदर्भ में ये अवस्थाएँ निम्न प्रकार से रही हैं:

i. प्रथम अवस्था – औद्योगिक क्रांति के पूर्व

ii. दूसरी अवस्था – औद्योगिक क्रांति से प्रथम विश्वयुद्ध तक

iii. तृतीय अवस्था – प्रथम विश्व युद्ध से 1950 ई. तक

iv. चतुर्थ अवस्था – 1950 ई. के बाद

v. पाँचवीं अवस्था – 1970 ई. के बाद

विश्व के अधिकतर देशों में इस सिद्धांत को आधार बनाकर जनांकिकी आर्थिक एवं सामाजिक कार्यक्रम बनाए जा सकते हैं । परंतु कई बार सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियाँ जनसंख्या वृद्धि से सीधा सम्बंध नहीं रखती है ।

उदाहरण के लिए, चीन में तुलनात्मक रूप से सामाजिक-आर्थिक पिछड़ेपन के बावजूद राजनीतिक व प्रशासनिक प्रयासों से जन्मदर व मृत्युदर पर भारी नियंत्रण है, जबकि अरब देशों या तेल निर्यातक इस्लामी देशों में अभूतपूर्व आर्थिक प्रगति के बावजूद धार्मिक कारणों से जन्मदर तीव्र बनी हुई है ।

आयु संरचना (Age Structure):

 

जनगणना तिथि और जन्म तिथि के बीच के अंतराल को आयु कहा जाता है । इसे पूर्ण वर्षों में दर्शाते हैं । किसी भी देश की जनसंख्या की आयु संरचना उसके जैविक शारीरिक विशेषताओं से सम्बंधित होती है । मनुष्य की आयु उसकी आवश्यकताओं, कार्यक्षमताओं एवं विचारों को प्रभावित करती है । इस प्रकार, आयु मानव की क्षमता का सूचकांक होती है ।

अतः आयु संरचना के अध्ययन से किसी राष्ट्र की जनशक्ति, निर्भरता अनुपात, सामाजिक-आर्थिक क्रियाकलाप सम्बंधी जानकारी प्राप्त की जा सकती है, जिससे योजना निर्माण में काफी सहायता मिलती है ।

आयु संरचना जन्मदर, मृत्युदर व प्रवास के अलावा दुर्भिक्ष, युद्ध, संक्रामक रोगों, जनसंख्या नीति आदि कारकों से भी प्रभावित होती है । वस्तुतः कोई देश किस अवस्था से गुजर रहा है, उसे जानकर उस देश से सम्बधित आयु संरचना व उनकी आवश्यकताओं के बारे में जाना जा सकता है ।

 

 

 

 

 

 

आयु सम्बंधी आँकड़ों के विश्लेषण की तीन विधियाँ हैं (Three Methods of Analysis of Age Related Statistics):

 

1. आयु पिरामिड बनाकर (Age Pyramid):

जनांकिकी संक्रमण की विभिन्न अवस्थाओं में अलग-अलग प्रकार के आयु पिरामिड देखने को मिलते हैं । इनके आधार पर उस देश की जनांकिकी विशेषताओं को समझा जा सकता है ।

प्रत्येक आय की जनसंख्या क्षैतिज (सीधा) दण्ड प्रदर्शित करती है । दंड की लंबाई उस वर्ग में स्त्रियों एवं पुरूषों के प्रतिशत अनुपात में होती है । पुरूषों को दाएँ व स्त्रियों को बायीं ओर ऊर्ध्वाधर (सीधा) दिखाया जाता है ।

 

2. आयु वर्ग (Age Group):

विश्व में किसी देश की जनसंख्या को तीन आयु वर्गों में रखा जाता है । इन वर्गों में प्रौढ़ जनसंख्या के अनुपात में प्रादेशिक अनुपात भिन्न होता है ।

i. बाल आयु वर्ग:

यह 0-14 वर्ष की आयु की जनसंख्या है । सैंडबर्ग के अनुसार यदि किसी देश में बाल आयु वर्ग की जनसंख्या 40% से अधिक है तो उस देश की जनसंख्या प्रगतिशील (Progressive Population) होती है, क्योंकि यह पूर्व-कार्यबल (Pre-Working Force) होती है ।

यह आर्थिक रूप से अनुत्पादक वर्ग है तथा भोजन, वस्त्र, मकान, स्वास्थ्य आदि के लिए युवा व प्रौढ़ जनसंख्या पर निर्भर रहती है । बाल आयु वर्ग के 20% से कम होने पर सैंडबर्ग ने उसे अप्रतिगामी (Regressive Population) कहा है ।

ii. प्रौढ़ आयु वर्ग:

इसके अंतर्गत 15 से 64 वर्ग की जनसंख्या आती है ।

इसे दो उपवर्गों में बाँटकर देख सकते हैं:

a. 15-39:

इसे युवा वर्ग भी कहा जाता है । यह सर्वाधिक क्रियाशील, सशक्त एवं आर्थिक रूप से उत्पादक होती है । जैव शारीरिक दृष्टि से भी यह सर्वाधिक पुनरूत्पादक वर्ग है ।

 

b. 40-64:

इसे प्रौढ़ वर्ग भी कहा जाता है । यह भी उत्पादक वर्ग है । विकासशील देशों में इसके अंतर्गत सामान्यतया अधिकतम आयु 59 वर्ष मानी जाती है, क्योंकि वहाँ जीवन-स्तर व जीवन-प्रत्याशा अपेक्षाकृत कम होती है ।

iii. वृद्ध आयु वर्ग:

इसके अंतर्गत विकसित देशों में 65 वर्ष या अधिक आयु के एवं विकासशील देशों में 60 वर्ष या अधिक आयु के लोग शामिल किए जाते हैं, जो इन देशों में जीवन स्तर के अंतर को भी दर्शाते हैं ।

सैंडबर्ग के अनुसार इस आयु वर्ग में 8% से कम जनसंख्या होने पर ‘प्रगतिगामी जनसंख्या’ एवं 16% से अधिक होने पर ‘अप्रगतिगामी जनसंख्या’ कहलाती हैं । चूँकि यह वर्ग ‘डाईंग पॉपुलेशन’ होता है, अतः यह एक निर्भर जनसंख्या है ।

3. आयु सूचकांक (Age Index):

इसे भी तीन भागों में बाँटकर देखा जा सकता है:

इन अनुपातों के अध्ययन से युवा व प्रौढ़ जनसंख्या पर शिशुओं व वृद्धों का भार ज्ञात होता है ।

लिंगानुपात (Sex Ratio):

लिंगानुपात का तात्पर्य किसी जनसंख्या के सभी आयु वर्गों में कुल महिलाओं व पुरूषों के अनुपात से है, जो किसी प्रदेश के सामाजिक-आर्थिक दशाओं का सूचकांक होता है तथा प्रादेशिक विश्लेषण के लिए उपयोगी साधन है । किसी भी प्रदेश के लिंगानुपात के अध्ययन द्वारा वहाँ की जनसंख्या वृद्धि दर, विवाह दर व व्यावसायिक संरचना जैसे जनांकिकी कारकों की जानकारी मिलती है ।

सामान्य रूप से लिंगानुपात को प्रति हजार पुरूष में स्त्रियों की संख्या से ज्ञात किया जाता है ।

लिंगानुपात ज्ञात करने की तीन विधियाँ हैं:

i. प्राथमिक लिंगानुपात (Primary Sex Ratio):

यह गर्भधारण के समय गणना किया गया लिंगानुपात है ।

ii. द्वितीयक लिंगानुपात (Secondary Sex Ratio):

इसके अंतर्गत जन्म के समय के लिंगानुपात को शामिल किया जाता है । इसे ‘प्राकृतिक लिंगानुपात’ (Natural Sex Ratio) भी कहा जाता है ।

iii. तृतीयक लिंगानुपात (Tertiary Sex Ratio):

यह जनगणना के समय का लिंगानुपात है । सामाजिक-आर्थिक कारणों से विभिन्न आयु स्तरों पर लिंगानुपात में अंतर भी देखने को मिलता है । लिंग चयनात्मक प्रवास से भी लिंगानुपात पर प्रभाव पड़ता है ।

शिशु-स्त्री अनुपात निम्न विधियों द्वारा निकाला जाता है:

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