Read this article in Hindi to learn about:- 1. आपातकाल की घोषणा (Emergency Announcement in India) 2. भारत में आपातकाल के प्रभाव (Emergency Effects in India) 3. भारत में आपातकाल की आवश्यकता (Need for Emergency in India) 4. आपातकाल का अंत तथा 1977 के लोक सभा चुनाव (End of Emergency and Lok Sabha Elections of 1977) and Other Details.

Contents:

  1. आपातकाल की घोषणा (Emergency Announcement in India)
  2. भारत में आपातकाल के प्रभाव (Emergency Effects in India)
  3. भारत में आपातकाल की आवश्यकता (Need for Emergency in India)
  4. भारत में आपातकाल का विरोध (Opposition to Emergency in India)
  5. आपातकाल का अंत तथा 1977 के लोक सभा चुनाव (End of Emergency and Lok Sabha Elections of 1977)
  6. आपातकाल की ज्यादितियों की जांच : शाह आयोग (Examination of Emergency Subjects: Shah Commission)
  7. आपातकाल व नागरिक स्वतन्त्रता संगठनों का उदय (Rise of Emergency and Citizens Freedom Organizations)
  8. आपातकाल की कतिपय अन्य महत्वपूर्ण घटनाएँ (Some Other Important Events of Emergency)


1. आपातकाल की घोषणा (Emergency Announcement in India):

भारत के राजनीतिक इतिहास में 1974 का वर्ष सरकार के कुप्रशासन तथा आर्थिक समस्याओं के विरुद्ध आन्दोलन का वर्ष था । इन आन्दोलनों के कारण जनता में असन्तोष व विरोध के स्वर तीव्र हो गये थे । इसी य 12 जून 1975 के उच्च न्यायालय के फैसले ने सरकार की वैधता पर भी प्रश्न चिह्न लगा दिया ।

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इस फैसले के बाद जहाँ विपक्षी दल इन्दिरा गांधी की सरकार के इस्तीफे की माँग कर रहे थे, वहीं इन्दिरा गांधी के कांग्रेसी समर्थक उनके समर्थन में रैलियों आदि का आयोजन कर रहे थे । सरकार अपने समर्थन को बढ़ाने तथा विपक्षियों को कमजोर करने के लिये सरकारी मशीनरी का भी दुरुपयोग कर रही थी । इस प्रकार जून 1975 का महीना भारतीय राजनीति में उत्तेजना, अनिश्चितता तथा तनावों का महीना था ।

इसी बीच 25 जून 1975 को दिल्ली के रामलीला मैदान में जयप्रकाश नारायन ने एक बड़ी रैली को सम्बोधित किया । इस सभा में लगभग एक लाख लोग मौजूद थे । उन्होंने अपने सम्बोधन में सरकार के विरुद्ध देशव्यापी आन्दोलन का आहवान करते हुये सरकारी कर्मचारियों पुलिस तथा सेना से कहा कि वे सरकार के गैर-कानूनी आदेशों का पालन न करें ।

सरकार तथा इन्दिरा गांधी को अपनी स्थिति को बचाने के लिये विशेष उपायों की आवश्यकता थी । इन विशेष उपायों के अन्तर्गत प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी की सलाह पर भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति फखरूद्‌दीन अली अहमद ने संविधान के अनुच्छेद-352 के अन्तर्गत आन्तरिक विद्रोह के आधार पर 25 जून 1975 को रात 11 बजे देश में आपातकाल लागू करने की घोषणा जारी कर दी ।

इस सम्बन्ध में यह तथ्य विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि आपातकाल की घोषणा राष्ट्रपति द्वारा मंत्रिपरिषद् की सलाह पर नहीं वरन् केवल प्रधानमंत्री की व्यक्तिगत सलाह पर जारी की गयी थी । 26 जून, 1975 को प्रात: 6 बजे मंत्रिमण्डल की बैठक बुलाकर आपातकाल की जानकारी दी गयी तथा मंत्रिपरिषद् का अनुमोदन प्राप्त किया गया । ऐसा करना विधि सम्मत नहीं था ।

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इस बात की जानकारी देश के नागरिकों को न मिले यह सुनिश्चित करने के लिये 25 जून को समाचारपत्रों के छपने पर रोक लगाने का प्रयास किया गया था ।

आपातकाल की ज्यादितियों की जाँच के लिये बाद में गठित शाह आयोग ने अपनी रिपोर्ट में खुलासा किया है कि 25 जून 1975 की रात को दिल्ली विद्युत आपूर्ति संस्थान के तत्कालीन निदेशक डी. एन. मेहरोत्रा को दिल्ली के उपराज्यपाल कृष्णकान्त द्वारा यह मौखिक आदेश दिये गये कि वे दिल्ली के समाचार पत्रों के लिये उस दिन विद्युत आपूर्ति रोक दें ताकि उनका प्रकाशन न हो सके तथा नागरिकों को बिना मंत्रिपरिषद् के अनुमोदन के लगाये गये आपात की जानकारी तब तक न हो सके जब तक कि मंत्रिमण्डल द्वारा इसका अनुमोदन न प्राप्त कर लिया जाये ।

युवा तुर्क (Young Turks):

1970 के दशक में कांग्रेस के अन्दर एक ऐसे युवा वर्ग का उदय हुआ जो उग्रवादी, सामाजिक व आर्थिक सुधारों के पक्षधर था । कांग्रेस के ऐसे नेताओं को ‘युवा तुर्क’ की संज्ञा दी गयी । यह नेताओं का एक अनौपचारिक समूह था । इनका कोई औपचारिक संगठन नहीं था ।

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इस समूह में मुख्य रूप से चन्द्र शेखर, मोहन धारिया, कृष्णकान्त, सी. सुब्रामन्यिम, चरनजीत यादव आदि को शामिल किया जाता है । युवा तुर्क के नेताओं ने 1975 में कांग्रेस सरकार द्वारा लगाये गये आपात-काल का विरोध किया । अत: उन्हें पार्टी से निष्कासित कर दिया गया । बाद में ये नेता नवगठित में शामिल हुये । युवा तुर्क शीर्षक तुर्की की राजनीति है । तुर्की में 20वीं शताब्दी के आरंभ में युवा नेताओं आटोमन साम्राज्य की अधिनायकवादी नीतियों का विरोध किया था । इन्हें युवा तुक के नाम से जाना जाता था । वहीं से यह शब्द भारतीय राजनीति में भी आ गया ।


2. भारत में आपातकाल के प्रभाव (Emergency Effects in India):

वैसे तो 1962 में चीन के आक्रमण के समय पहली बार आपातकाल की घोषणा ला! की गयी थी, लेकिन इसका आधार बाह्य आक्रमण था । आन्तरिक विद्रोह के आधार पर आपात की पहली बार घोषणा 25 जून, 1975 को ही की गयी थी ।

यह आपातकाल राजनीतिक उथल-पुथल के माहौल में लगाया गया था उसके कारण इसके व्यापक संवैधानिक तथा राजनीतिक परिणाम देखने में आये । राजनीतिक समीक्षकों का मत था कि यह संकट प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी का अपना व्यक्तिगत राजनीतिक संकट था जिसे उन्होंने राष्ट्रीय संकट का रूप दे दिया ।

इस आपातकाल के निम्न प्रभाव उल्लेखनीय हैं:

1. विरोधी दलों की राजनीतिक गतिविधियों पर नियंत्रण (Controlling Political Parties’ Political Activities):

इस घोषणा का तात्कालिक प्रभाव यह हुआ कि सरकार ने राजनीतिक दलों के विरोध प्रदर्शन पर रोक लगाते हुये महत्त्वपूर्ण विपक्षी नेताओं जैसे जयप्रकाश नारायन, अटल बिहरी बाजपेयी, मोरारजी देसाई आदि को पहले ही दिन गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया । उल्लेखनीय है कि कम्युनिस्ट नेताओं को गिरफ्तार नहीं किया गया था क्योंकि वे कांग्रेस सरकार का साथ दे रहे थे । इस प्रकार सरकार ने अपने राजनीतिक विरोध को पूरी तरह दबा दिया ।

2. मौलिक अधिकारों का स्थगन (Suspension of Fundamental Rights):

संविधान के अनुच्छेद- 358 में व्यवस्था है कि आपातकाल की घोषणा के साथ ही अनुच्छेद- 19 में दी गयी स्वतंत्रताएं स्वत: स्थगित हो जाएगी । अत: आपातकाल की घोषणा के साथ ही नागरिकों की भाषण अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सहित अन्य स्वतंत्रताएं भी निलम्बित हो गयीं । ऐसा भारत के स्वतंत्र इतिहास में पहली बार हुआ था ।

3. समाचार माध्यमों पर सेंसरशिप (Censorship on News Medium):

आपातकाल में समाचार माध्यमों जैसे समाचार पत्र रेडियो व दूरदर्शन आदि पर सेंसरशिप लगा दी गयी । सेंसरशिप का मतलब यह होता है कि इन समाचार माध्यमों में सरकार की पूर्व अनुमति के बिना कुछ. भी लिखा या प्रसारित नहीं किया जा सकता । सूचनाओं का प्रसारण सरकार की इच्छानुसार ही होता है । इस तरह की सेंसरशिप ब्रिटिश शासनकाल में भारतीय समाचार पत्रों पर लगाई जाती थी ।

4. पुलिस तथा नौकरशाही का मनमाना व्यवहार (Arbitrary Behavior of Police and Bureaucracy):

आपातकाल के दौरान सरकार के प्रमुख कर्ता-धर्ता पुलिस व प्रशासनिक अधिकारियों ने शक्ति का मनमाना दुरुपयोग किया । पुलिस तथा मजिस्ट्रेटों द्वारा मनमाने तरीके से नजरबन्दियों कही गयीं तथा निरपराध जनता को हिरासत में रखा गया ।

ऐसे में इन प्रशासनिक अधिकारियों तथा पुलिस ने अपनी मर्जी से शक्तियों का उपयोग किया । आपातकाल में निवारक नजरबन्दी के लिये 1971 में आन्तरिक सुरक्षा कानून या मीसा बनाया गया था जिसके अन्तर्गत बिना किसी अपराध के भी लोगों को हिरासत में लिया जा सकता था ।

इस कानून का नौकरशाही व पुलिस द्वारा जमकर दुरुपयोग किया गया । निवारक नजरबन्दी का तात्पर्य है कि किसी व्यक्ति को अपराध करने से पहले इस आधार पर गिरफ्तार किया जाता है कि वह भविष्य में अपराध कर सकता है । इसमें जमानत पर छूटने की भी संभावना नहीं होती ।

5. न्यायपालिका पर दबाव (Pressure on the Judiciary):

भारत में न्यायपालिका अपनी स्वतंत्रता के लिये प्रसिद्ध है लेकिन आपातकाल में न्यायपालिका भी दबाव में आ गयी । यहाँ तक कि सर्वोच्च न्यायालय ने आपातकाल की घोषणा को सही बताया तथा अवैध रूप से नजरबन्द किये गये लोगों की रिहाई में हस्तक्षेप करने से मना कर दिया ।

जिन न्यायाधीशों ने सरकार की नीतियों से असहमति व्यक्त की उन्हें अपनी स्वतंत्रता की कीमत भी चुकानी पड़ी । उदाहरण के लिये जनवरी 1977 में जब भारत के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति होनी थी तो वरिष्ठतम न्यायाधीश न्यायमूर्ति एच. आर. खन्ना को मुख्य न्यायाधीश नहीं बनाया गया, क्योंकि वे सरकार की नीतियों से अपनी असहमति व्यक्त कर चुके थे ।

6. संविधान में मनमाने संशोधन (Mindful Amendment in the Constitution):

अपातकाल के दौरान सरकार द्वारा संविधान में 42वें तथा 43वें संशोधन किये गये थे, जिनका उद्देश्य कार्यपालिका अथवा मंत्रिपरिषद्/प्रधानमंत्री की शक्तियों में वृद्धि करना तथा न्यायपालिका की शक्तियों एवं नागरिकों के अधिकारों में कटौती करना था ।

इस सम्बन्ध में निम्न संशोधन उल्लेखनीय हैं:

(i) राष्ट्रपति मंत्रिपरिषद् की सलाह मानने के लिये बाध्य है- अनुच्छेद-?! संसद यदि संविधान में कोई संशोधन करती है तो उसे किसी न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती- अनुच्छेद- 368

(ii) नीति निर्देशक तत्वों को लागू करने के लिये यदि कोई कानून बनाया जाता है तो मौलिक अधिकारों के उल्लंघन के आधार पर उसे चुनौती नहीं दी जा सकती- अनुच्छेद- 31सी ।

(iii) मौलिक अधिकारों पर प्रतिबन्ध लगाने के लिये अनुच्छेद- 19 में नये आधार जोड़े गये तथा नागरिकों के मौलिक कर्तव्यों को जोड़ा गया- अनुच्छेद-51 अ ।

ऐसे ही कई अन्य परिवर्तन किये गये तथा लोक सभा का कार्यकाल एक वर्ष के लिये बढ़ाया गया । 42वें संविधान संशोधन द्वारा संविधान में इतने व्यापक संशोधन किये गये कि समीक्षकों द्वारा इसे मिनी संविधान की संज्ञा दी जाती है । जब 1977 के चुनावों के बाद जनता पार्टी शासन में आयी तो उसने 44वें संशोधन 1978 द्वारा 42वें संशोधन द्वारा किये गये अनुचित संशोधनों को निरस्त किया ।


3. भारत में आपातकाल की आवश्यकता (Need for Emergency in India):

आपातकाल भारत के लोकतांत्रिक इतिहास में एक काला अध्याय है । भारत के संविधान निर्माताओं ने अध्यक्षात्मक शासन प्रणाली के स्थान पर संसदीय लोकतंत्र को इसलिये अपनाया था कि इसमें सरकार की तानाशाही की संभावना कम होती है, क्योंकि संसद कभी भी सरकार को अविश्वास प्रस्ताव पारित कर अपदस्थ कर सकती है । लेकिन परिणाम उल्टे निकले । आपातकाल से हमें यह सीख मिलती है कि किस प्रकार जनता द्वारा निर्वाचित एक लोकतांत्रिक सरकार भी तानाशाह हो सकती है ।

भारत में इसकी पुनरावृति न हो तथा लोकतंत्र मजबूत बना रहे, इस दृष्टि से आपातकाल के अनुभवों से हमें निम्न शिक्षाएं प्राप्त होती हैं:

1. लोकतंत्र में विरोधी दलों का विशेष महत्व है । विरोधी दलों तथा जनता के सहयोग से ही सरकार की तानाशाही पर रोक लगाई जा सकती है ।

2. नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा विशेषकर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का विशेष महत्व है । उसकी रक्षा के उपाय किये जाने आवश्यक है ।

3. लोकतंत्र में संचार माध्यमों की स्वतंत्रता अत्यंत आवश्यक है ।

4. यदि लोकतंत्र की रक्षा की जानी है तो शासन के तीनों अंगों में सन्तुलन बनाये रखने की आवश्यकता है । न्यायपालिका को कार्यपालिका से पूरी तरह स्वतंत्र बनाये रखने की आवश्यकता है । न्यायपालिका को न्यायिक पुनरावलोकन का अधिकार प्राप्त होना चाहिये । कार्यपालिका विशेषकर प्रधानमंत्री तथा मंत्रिपरिषद् पर नियंत्रण लगाने तथा उसे जवाबदेह बनाने की आवश्यकता है ।

5. प्रशासनिक अधिकारियों को उनके कार्यों के लिये जवाबदेह बनाना आवश्यक है तथा उनकी विवेकाधिकार शक्तियों को कम किये जाने की आवश्यकता है ।

6. गैर-सरकारी संगठन सरकार की निरंकुशता पर रोक लगाने के लिये आवश्यक हैं । अत: उन्हें मजबूत बनाने की आवश्यकता है ।


4. भारत में आपातकाल का विरोध (Opposition to Emergency in India):

आपातकाल लागू होते ही राजनीतिक विरोध को तो बिल्कुल समाप्त कर दिया गया था क्योंकि सभी महत्त्वपूर्ण विपक्षी नेताओं को जेल में डाल दिया गया था तथा राजनीतिक दलों की रैलियों व विरोध प्रदर्शनों पर रोक लगा दी गयी थी । मीडिया सेंन्सरसिप के अधीन थी तथा व्यक्तिगत विरोध की गुंजाइश नहीं के बराबर थी ।

फिर भी कई समाचार पत्रों जैसे स्टेट्‌समैन इण्डियन एक्सप्रेस आदि ने हिम्मत जुटाकर आपातकाल के नियम विरुद्ध कार्यों का विरोध किया । चूंकि राजनीतिक दलों की गतिविधियाँ प्रतिबन्धित थी अत: इस दौरान जनता की पीड़ा को कतिपय गैर-सरकारी संगठनों जैसे पीपुल्स यूनियन फॉर डेमोक्रेटिक राइट्‌स, पीपुल्स यूनियन्स फॉर सिविल लिबर्टीज तथा गुजरात की लोक संघर्ष समिति ने व्यक्त करने का प्रयास किया । आपातकाल के कारण ही भारत में नये सिविल संगठनों का उदय हुआ ।

1975 में जेल से रिहा होने के बाद जयप्रकाश नारायन ने बम्बई में सत्यसमाचार नामक पत्रिका का प्रकाशन आरंभ किया । इस पत्रिका ने मुखर होकर आपातकाल की ज्यादितियों का प्रकाशन किया । गुजरात की संस्था लोक संघर्ष समिति ने मार्कंड देसाई के नेतृत्व में जनता के अधिकारों की रक्षा में सराहनीय कार्य किया ।

हिन्दी के प्रसिद्ध साहित्यकार फणीश्वरनाथ रेणु ने आपातकाल के विरोध में अपनी पद्‌मश्री उपाधि वापिस कर दी । इस प्रकार धीरे-धीरे देश के विभिन्न हिस्सों में आपातकाल का विरोध मुखर होता रहा । फिर भी यह कहना अनुचित नहीं होगा कि यह विरोध आशानुरूप नहीं था तथा भारतीय जनता ने आपातकाल का कोई संगठित व व्यापक विरोध नहीं किया जिससे सरकार के समक्ष कोई चुनौती खड़ी हो सकती ।

नये संवैधानिक उपाय (New Constitutional Measures):

1977 में जब जनता पार्टी की सत्ता स्थापित हुयी तो उसके द्वारा प्रधानमंत्री तथा मंत्रिपरिषद् की शक्तियों पर अंकुश लगाने के लिये 44वें संविधान संशोधन, 1978 द्वारा निम्न उपाय अपनाये गये:

1. राष्ट्रपति को मंत्रिपरिषद् की सलाह पर पुनर्विचार का मौका- अनुच्छेद-74 में यह बात जोड़ दी गयी कि राष्ट्रपति मंत्रिपरिषद से उसकी सलाह पर एक बार पुनर्विचार के लिये कह सकता है तथा पुनर्विचार के बाद दी गयी सलाह को मानने के लिये बाध्य है ।

2. आपातकाल आन्तरिक सशस्त्र विद्रोह के ही आधार पर- अनुच्छेद 352 में यह बात जोड़ दी गयी कि अब आपातकाल की घोषणा सशस्त्र विद्रोह के आधार पर ही की जा सकती है । इसका मतलब यह है कि अब कोई सरकार अपने विरोधियों को प्रताड़ित करने के लिये आपातकाल का सहारा नहीं ले सकती ।

3. आपातकाल के लिये मंत्रिमंडल की लिखित सिफारिश आवश्यक- उल्लेखनीय है कि मूल संविधान में आपातकाल की घोषणा करने के लिये मंत्रिमंडल की लिखित सलाह की आवश्यकता नहीं थी । 1975 का आपातकाल प्रधानमंत्री के कहने पर बिना मंत्रिमंडल के सलाह के ही लागू कर दिया गया था । अत: 44में संशोधन द्वारा यह व्यवस्था की गयी कि मंत्रिमंडल की लिखित सलाह के बिना आपातकाल लागू नहीं किया जा सकता ।

4. अनुच्छेद-20 व 21 में दिये गये मौलिक अधिकार आपातकाल में भी निलम्बित नहीं होंगे- मूल संविधान की धारा 359 के अनुसार आपातकाल में सभी मौलिक अधिकारों को निलम्बित किया जा सकता था । 44वें संविधान द्वारा यह व्यवस्था कर दी गयी कि अनुच्छेद 20 व 21 में दिये गये मौलिक अधिकारों को निलम्बित नहीं किया जा सकता है । अनुच्छेद में जीवन व व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार है तथा अनुच्छेद 21 में न्यायिक प्रक्रिया में प्राकृतिक न्याय प्राप्त करने का अधिकार है ।

5. अन्य उपाय- उक्त के अतिरिक्त सरकार की निरंकुशता को रोकने के लिये कतिपय अन्य उपाय भी किये गये हैं:

(i) यद्यपि संविधान में इसका उल्लेख नहीं है लेकिन सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अपने कई निर्णयों में न्यायपालिका की स्वतंत्रता तथा न्यायिक पुनरावलोकन को संविधान के मौलिक ढाँचे का अंग माना है । अत: संसद द्वारा संविधान संशोधन के द्वारा इस पर प्रतिबन्ध नहीं लगाया जा सकता है ।

(ii) प्रशासनिक अधिकारियों के उत्तरदायित्व को निश्चित करने तथा शक्तियों के विकेन्द्रीकरण के भी कतिपय प्रशासनिक व कानूनी उपाय किये गये हैं ।

(iii) अब भारत में गैर-सरकारी संगठनों का भी विकास हो चुका है । आधुनिक तकनीकि के संचार साधनों जैसे इण्टरनेट, एस. एम. एस. आदि पर सरकार द्वारा नियंत्रण लगाना एक कठिन कार्य हैं । ये सभी सरकार की निरंकुशता पर नियंत्रण लगाने में सहायक हैं ।


5. आपातकाल का अंत तथा 1977 के लोक सभा चुनाव (End of Emergency and Lok Sabha Elections of 1977):

आपातकाल के दौरान यह बात जनमानस में घर कर गयी थी कि संविधान संशोधन कर लोक सभा का कार्य काल पुन: बढ़ाया जायेगा तथा आपातकाल आगे चलता रहेगा । लेकिन सरकार की गुप्तचर एजेन्सियों ने नवम्बर 1976 में कांग्रेस के नीति निर्माताओं को अवगत कराया कि यदि 1977 में चुनाव कराये जाते हैं तो कांग्रेस पार्टी को पूर्ण बहुमत प्राप्त होगा ।

पुन: वैश्विक समुदाय के कई देश जैसे अमेरिका व ब्रिटेन आदि सरकार पर लोकतंत्र की स्थापना का दबाव डाल रहे थे । साथ ही विपक्षी दलों की राजनीतिक गतिविधियाँ शून्य थीं तथा अभी तक उनमें एकता के लक्षण दिखाई नहीं दे रहे थे ।

इस प्रकार इन्दिरा गांधी को चुनावों में जीत की उम्मीद बनी हुयी थी । अत: केन्द्र सरकार की सिफारिश पर 18 जनवरी 1977 में राष्ट्रपति द्वारा लोक सभा को भंग कर दिया गया तथा मार्च 1977 में छठी लोक सभा के चुनावों की घोषणा की गयी । राष्ट्रीय आपातकाल को 21 मार्च 1977 को समाप्त कर दिया गया तथा अधिकांश नेताओं को रिहा कर दिया गया । अन्तत: मार्च 1977 में छठी लोक सभा के चुनाव संपन्न हुये ।

जनता पार्टी का गठन:

यद्यपि 1977 के आरंभ में ही विपक्ष के अधिकांश नेताओं को रिहा किया जा चुका था लेकिन उनकी समस्या यह थी कि उनकी राजनीतिक गतिविधियाँ शून्य थीं तथा तत्काल चुनावों का सामना करना कठिन था । फिर भी जनता के समर्थन के कारण उनमें उत्साह था ।

अन्तत: 23 जनवरी 1977 को जयप्रकाश नारायन तथा मोरारजी देसाई के नेतृत्व में विपक्ष के सभी नेता एकत्र हुये तथा विपक्ष की पार्टियों का विलय करके एक नई पार्टी जनता पार्टी का गठन किया । नवगठित जनता पार्टी में पाँच पार्टियाँ-कांग्रेस संगठन जनसंघ लोक दल स्वतंत्र पार्टी तथा सोशलिस्ट पार्टी शामिल हुयी ।

कांग्रेस से अलग हुये नेता जगजीवन राम ने 2 फरवरी 1977 को अलग पार्टी बनाई तथा इसका नाम कांग्रेस फॉर डेमोक्रेसी रखा गया । उल्लेखनीय है कि जनता पार्टी एक दलीय गठबन्धन न होकर एक अलग पार्टी’ थी तथा इसका चुनाव चिह्न हलधर किसान था । जो पार्टियाँ इसमें शामिल हुयी थीं उन्होंने नयी पार्टी में अपना विलय कर दिया था ।

यद्यपि कांग्रेस फॉर डेमोक्रेसी ने अलग पार्टी के रूप में चुनाव लड़ा लेकिन जनता पार्टी से उसका चुनावी तालमेल था । इसीलिये दोनों ने अपना चुनाव चिह्न हलधर ही रखा । जनता पार्टी ने 12 फरवरी 1977 को अपना चुनाव घोषणा-पत्र जारी किया तथा इसमें लोकतंत्र बनाम तानाशाही को मुख्य मुद्‌दा बनाया गया ।

1977 के चुनाव तथा जनता पार्टी की शानदार विजय:

छठी लोक सभा के चुनाव मार्च 1977 में संपन्न हुये । 19 महीने की आपात स्थिति के बाद चुनावों की घोषणा जनता के लिये नई आजादी से कम नहीं थी । जनता आपातकाल के अत्याचारों के लिये कांग्रेस पार्टी को दोषी मानती थी तथा किसी तरह उसे सत्ता से अपदस्थ करना चाहती थी ।

इस चुनाव में मुख्य मुद्‌दा लोकतंत्र बनाम तानाशाही था । यद्यपि जनता पार्टी का गठन दो महीने पूर्व ही हुआ था लेकिन जनता में उसे शीघ्र ही लोकप्रियता प्राप्त हो गयी । इसके अलावा महँगाई का मुद्‌दा भी प्रभावशाली बना रहा । उत्तर भारत में जनता का नारा था-यह देखो इन्दिरा का खेल खा गयी शक्कर पी गयी तेल ।

यह नारा महँगाई तथा आवश्यक वस्तुओं की कमी की ओर इशारा करता है । कांग्रेस के विरुद्ध जनता पार्टी ने जो भी प्रत्याशी खड़ा किया वही चुनाव जीता । यहाँ तक कि स्वयं इन्दिरा गाँधी उत्तर प्रदेश की रायबरेली सीट से चुनाव हार गयीं । उन्हें उस समय जेल में बन्द समाजवादी नेता राजनारायन ने हरा दिया ।

उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य में कांग्रेस सभी 85 सीटों पर चुनाव हार गयी । इन चुनावों में लोक सभा की कुल 542 सीटों में से जनता पार्टी को 270 तथा उसकी सहयोगी पार्टी कांग्रेस फॉर डेमोक्रेसी को 28 सीटें प्राप्त हुईं । उत्तर भारत में कांग्रेस का प्रदर्शन खराब था लेकिन दक्षिणी राज्यों में उसकी स्थिति उतनी खराब नहीं थी । कांग्रेस को फिर भी मात्र 153 सीटें प्राप्त हुईं तथा उसकी सहयोगी पार्टी साम्यवादी पार्टी को केवल 07 सीटें प्राप्त हुईं ।

चुनाव के बाद केन्द्र में जनता पार्टी की सरकार का गठन हुआ । यह आजादी के बाद भारत के राजनीतिक इतिहास में केन्द्र में गठित पहली गैर-कांग्रेसी सरकार थी । मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री बने तथा चौधरी चरण सिंह तथा जगजीवन राम दोनों को उपप्रधानमंत्री बनाया गया ।

नीलम संजीव रेड्डी निर्विरोध राष्ट्रपति निर्वाचित:

1977 में ही तत्कालीन राष्ट्रपति फखरूद्‌दीन अली अहमद का सेवाकाल के दौरान ही आकस्मिक निधन हो गया । वे 1974 में भारत के राष्ट्रपति बने थे । अत: जुलाई 1977 में राष्ट्रपति पद के लिये नये चुनाव हुये ।

मार्च 1977 के चुनावों में कांग्रेस की जो पराजय हुई थी उससे वह मानसिक दबाव में आ गयी थी ।

इसका परिणाम यह हुआ कि वह चुनावों में राष्ट्रपति पद के लिये अपना कोई उम्मीदवार खड़ा न कर सकी तथा जनता पार्टी के उम्मीदवार नीलम संजीव रेड्‌डी निर्विरोध ही राष्ट्रपति का चुनाव जीत गये । ये नीलम संजीव रेड्‌डी वही थे जो 1969 के राष्ट्रपति चुनावों में कांग्रेस के उम्मेदवार थे, लेकिन इन्दिरा गांधी समर्थक कांग्रेस धड़े का समर्थन न मिलने के कारण चुनाव हार गये थे ।

कांग्रेस की पराजय अथवा जनता पार्टी की विजय के कारण (The Defeat of Congress or the Victory of the Janata Party):

1977 का चुनाव जहाँ एक ओर लोकतंत्र बनाम तानाशाही का चुनाव था वहीं दूसरी ओर यह जनता पार्टी बनाम कांग्रेस का चुनाव भी था । जनता पार्टी ने इन चुनावों में कांग्रेस के तानाशाही शासन का विकल्प प्रस्तुत किया ।

इस चुनाव में कांग्रेस की पराजय अथवा जनता पार्टी की जीत के लिये निम्न कारण उत्तरदायी थे:

1. नागरिकों की स्वतंत्रताओं का हनन तथा सरकारी अत्याचार (Custody of Civil Liberties and Government Atrocities):

आपातकाल के दौरान पुलिस तथा नौकरशाही द्वारा नागरिकों का उत्पीड़न किया गया । लन्दन स्थित मानवाधिकार संस्था एमनेस्टी इण्टरनेशनल के अनुसार आपात के 19 महीनों में 1,40,000 हजार लोगों को जेल में डाल दिया गया । इनमें से करीब 35,000 लोगों को मीसा जैसे उत्पीड़क कानून के अन्तर्गत जेल भेज दिया गया । इस उत्पीड़न के विरुद्ध जनता में कांग्रेस के विरुद्ध तीव्र आक्रोश व्याप्त था ।

2. आर्थिक समस्याओं के प्रति असन्तोष (Discontent towards Economic Problems):

आपातकाल के पहले से ही विभिन्न आर्थिक समस्यायें जैसे महंगाई, आवश्यक वस्तुओं की कमी तथा सरकार की वितरण प्रणाली में व्याप्त भ्रष्टाचार आदि से लोग त्रस्त आ चुके थे । आपातकाल में इन समस्याओं के प्रति विरोध की भी गुंजाइश नहीं रह गयी । इस कारण लोगों में तीव्र असन्तोष व्याप्त था। । इसका प्रभाव चुनावों में कांग्रेस की पराजय के रूप में देखने में आया ।

3. परिवार नियोजन कार्यक्रम की अलोकप्रियता (Unpopularity of Family Planning Program):

आपातकाल के सारे कार्यक्रमों में सबसे अलोकप्रिय कार्यक्रम परिवार नियोजन अथवा नसबन्दी कार्यक्रम था क्योंकि इसे बाध्यकारी ढंग से लागू किया गया । मुस्लिम समुदाय में यह कार्यक्रम विशेष रूप से अलोकप्रिय रहा क्योंकि मुस्लिम समुदाय नसबन्दी को अपनी धार्मिक मान्यताओं के विपरीत मानता था । ग्रामीण जनता में इसे लेकर भय का वातावरण बन गया था । पुलिस तथा प्रशासनिक अधिकारियों ने इस मनमाने ढंग से लागू किया ।

4. सत्ता के गैर-संवैधानिक केन्द्र तथा परिवारवाद (Non-Constitutional Centers of Power and Familism):

आपातकाल में इन्दिरा गांधी के पुत्र संजय गांधी सत्ता के एक असंवैधानिक केन्द्र बन गये थे । बिना किसी जिम्मेदारी के उन्होंने तथा उनके सहयोगियों ने सत्ता का दुरुपयोग किया । इससे कांग्रेस तथा उसके शीर्ष नेतृत्व पर परिवारवाद का भी आरोप लगा । सत्ता के दुरुपयोग के कारण कांग्रेस पार्टी का शासन आम जनता के मध्य अत्यंत अलोकप्रिय हो गया था जिसकी अभिव्यक्ति 1977 के चुनावों में की गयी ।

5. कांग्रेस के संगठन तथा जनाधार का कमजोर होना (Congress Organization and Weakness of the People):

अपातकाल के दौरान कांग्रेस का संगठन व उसका जनाधार दोनों कमजोर हो गये । पार्टी के शीर्ष नेतृत्व में सत्ता के अधिक संकेन्द्रण के कारण पार्टी के अन्दर लोकतंत्र कमजोर हुआ । निष्ठावान कार्यकर्ताओं की अवहेलना हुई तथा सरकार संगठन के स्थान पर नौकरशाही व चाटुकारों पर अत्यधिक निर्भर हो गई । इससे निष्ठावान कार्यकर्ता पार्टी को छोड़ने पर मजबूर हो गये ।

इसी तरह आपातकाल के दौरान कांग्रेस का परम्परागत जनाधार भी खिसक गया । जहाँ मुस्लिम समुदाय नसबन्दी के कारण नाराज हो गया वही दलित वर्ग जगजीवन राम जैसे नेताओं के अलग हो जाने के कारण कांग्रेस से अलग हो गया । इसका परिणाम पार्टी को 1977 के चुनावों में देखना पड़ा ।

6. विपक्षी दलों में एकता (Unity in Opposition Parties):

आपातकाल के कारण विपक्षी दलों व उनके नेताओं के समक्ष अस्तित्व का संकट खड़ा हो गया था । जैसे ही चुनावों की घोषणा हुई वे आपसी मतभेदों को भुलाकर एक हो गये । उनकी एकता का परिणाम जनता पार्टी के गठन के रूप में सामने आया । पूर्व के चुनावों में एकता के अभाव में विपक्षी दलों को प्राप्त मतों का विभाजन हो जाता था । लेकिन 1977 के चुनावों में उनकी एकता के कारण उनके मतों का विभाजन नहीं हुआ तथा चुनाव में उन्हें सफलता मिली ।

कांग्रेस के प्रदर्शन में उत्तर व दक्षिण भारत में अंतर (Difference in Congress in North and Southern India):

1977 के लोक सभा चुनावों का एक रोचक पहलू यह है कि कांग्रेस को जहाँ उत्तर व पूर्वी भारत के राज्यों में एक बड़ी पराजय का सामना करना पड़ा वहीं दक्षिण के राज्यों में कांग्रेम का प्रटर्शन अत्यधिक संतोषजनक रहा ।

उत्तर व पूर्वी भारत के राज्यों में कांग्रेस का प्रदर्शन बहुत खराब था । पंजाब हरियाण हिमाचल प्रदेश उत्तर प्रदेश तथा विहार में कांग्रेस एक भी सीट नहीं जीत पायी । राजस्थान तथा मध्य प्रदेश में वह केवल एक-एक सीट ही जीत पायी । इसी तरह पश्चिम बंगाल में उसे केवल तीन तथा उड़ीसा में उसे चार सीटें मिली । इस प्रकार । उत्तर व पूर्वी भारत के इन 9 राज्यों में लोकसभा की कुल 296 सीटों में से कांग्रेस को केवल 9 सीटें ही प्राप्त हुईं ।

इसके विपरीत दक्षिण भारत के चार राज्यों- आन्ध्र प्रदेश, कर्नाटक, तमिलनाडु तथा केरल में कांग्रेस का चुनावी प्रदर्शन अच्छा रहा । उदाहरण के लिये आन्ध प्रदेश की कुल 42 सीटों में से कांग्रेस को 41 तथा कर्नाटक की कुल 28 सीटों में से उसे 26 सीटें प्राप्त हुई ।

1977 के चुनावों में इस विरोधाभासी मतदान व्यवहार के अग्र कारण हैं:

1. आपातकाल की व्यादितियों दक्षिण भारत की तुलना में उत्तर भारत में अधिक थीं । अत: दक्षिण भारत में कांग्रेस का जनाधार अधिक प्रभावित नहीं हुआ ।

2. दक्षिण भारत में कांग्रेस का नेतृत्व अधिक योग्य व लोकप्रिय नेताओं जैसे कर्नाटक के देवराज अर्स, आन्ध्र प्रदेश के वेंगल राव आदि के हाथ में था ।

3. आपातकाल के दौरान जिन नेताओं व दलों ने सरकार का विरोध किया था, उनमें से अधिकांश का आधार उत्तरी भारत में था ।

कांग्रेस का विभाजन (Partition of Congress):

पराजय के बाद राजनीतिक दलों में फूट एक आम बात है । पराजय के बाद कांग्रेस के अन्दर पराजय के कारणों के लिये मंथन हुआ । वरिष्ठ नेताओं जैसे यशवंत राव चह्वाण स्वर्ण सिंह आदि ने महसूस किया कि इसके लिये इन्दिरा गांधी व उनकी नीतियाँ उत्तरदायी थीं । उधर इन्दिरा गांधी को ऐसा अनुभव हुआ कि कांग्रेस के वरिष्ठ नेता उनकी अवहेलना कर रहे हैं ।

परिणामत: जनवरी 1978 में कांग्रेस में पुन: विभाजन हुआ । इसके एक धड़े के अध्यक्ष स्वर्ण सिंह ही बने रहे तथा दूसरे धड़े की अध्यक्ष इन्दिरा गांधी बनीं । दूसरी कांग्रेस को कांग्रेस आई अथवा इन्दिरा कांग्रेस के नाम से जाना गया । इन्दिरा कांग्रेस को कर्नाटक तथा आन्ध प्रदेश विधान सभा के में चुनावों में सफलता मिली ।

कर्नाटक के कांग्रेस नेता देवराज अर्स द्वारा इन दोनों धड़ों में एकता स्थापित करने के प्रयास किये गये लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिली । लेकिन शीघ्र ही इन्दिरा गांधी तथा देवराज अर्स के बीच भी मतभेद बढ़ गये तथा देवराज अर्स को कर्नाटक कांग्रेस के अध्यक्ष पद से हटा दिया गया तथा जुलाई 1979 में अपनी अलग पार्टी बना ली । यह 1977 की पराजय के बाद कांग्रेस का दूसरा विभाजन था ।

जनता पार्टी सरकार की उपलब्धिया (The Achievement of the Janata Party Government):

यद्यपि जनता पार्टी सरकार का कार्यकाल करीब ढाई वर्ष ही रहा लेकिन उन्होंने इस संक्षिप्त काल में कई नीतिगत निर्णय लिये तथा केन्द्रीय शासन को नयी दिशा दी । चूंकि यह केन्द्र की पहली गैर-कांग्रेसी सरकार थी, अत: सरकार में उत्साह भी अधिक था ।

जनता पार्टी की निम्नलिखित नीतियों व कार्य महत्त्वपूर्ण थे:

(i) आपातकाल के दौरान 42वें संविधान संशोधन 1976 द्वारा संविधान में जो अलोकतांत्रिक संशोधन किये गये थे, जनता पार्टी ने 44वें संविधान संशोधन 1978 द्वारा उन्हें सुधारने का प्रयास किया गया । नागरिकों के अधिकारों संचार माध्यमों की स्वतंत्रता तथा न्यायपालिका की स्वतंत्रता की पुनर्स्थापना की गयी । समाजवादी नीतियों को लागू करने के लिये इसी संशोधन द्वारा संपत्ति के मौलिक अधिकार को समाप्त कर उसे कानूनी अधिकार का दर्जा दिया गया ।

(ii) जनता पार्टी की सरकार ने नेहरू के समाजवाद के स्थान पर गाँधीवादी समाजवाद की अवधारणा को अपनाने का प्रयास किया । इसके अन्तर्गत छोटे उद्योगों को प्रोत्साहन गरीबों के उत्थान के लिये अन्त्योदय कार्यक्रम, पंचायतों को मजबूत बनाकर सत्ता के विकेन्द्रीकरण का प्रयास किया गया ।

ग्राम पंचायतों को मजबूत करने के सुझाव देने के लिये 1977 में अशोक मेहता कमेटी का गठन किया गया । अशोक मेहता उस समय के प्रसिद्ध समाजवादी नेता थे । मेहता कमेटी ने 1978 में पंचायतों को मजबूत करने के लिये महत्त्वपूर्ण सिफारिशें प्रस्तुत कीं लेकिन शीघ्र ही जनता पार्टी की सरकार के पतन के कारण इन सिफारिशों को लागू नहीं किया जा सका ।

(iii) इन्दिरा गांधी के शासनकाल में भारत की विदेश नीति का झुकाव सोवियत गुट की तरफ अधिक हो गया था तथा अमेरिका से सम्बन्ध अच्छे नहीं थे । अत: जनता पार्टी सरकार ने विदेश नीति के मामले में वास्तविक गुटनिरपेक्षता को लागू करने की बात कही । इसके अन्तर्गत दोनों महाशक्तियों-सोवियत संघ व अमेरिका के साथ संतुलित संबन्धों को बनाने की बात शामिल थी ।


6. आपातकाल की ज्यादितियों की जांच : शाह आयोग (Examination of Emergency Subjects: Shah Commission):

आपातकाल की व्यादितियों के कारण 1977 के चनावों से ही पूरा देश उद्वेलित था तथा चुनावों के बाद इन ज्यादितियों की जाँच को मांग जोर पकड़ने लगी । अत: जनता पार्टी सरकार ने इनकी जाँच के लिये 28 मई, 1977 में एक जाँच आयोग की नियुक्ति की जिसे शाह आयोग के नाम से जाना जाता है । इस आयोग के अध्यक्ष भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश जस्टिस जे. सी. शाह थे ।

आयोग की जाँच के दायरे में दो मुख्य प्रश्न थे:

प्रथम- क्या 1976 में ऐसी परिस्थितियाँ थीं कि आपातकाल को लागू किया जाये ? दूसरे शब्दों में क्या आपातकाल का लागू किया जाना विधि सम्मत था?

दूसरा- आपातकाल के दौरान 19 महीनों में जो कुछ हुआ क्या वह न्यायोचित व विधि सम्मत था?

आयोग ने इन्दिरा गांधी को अपना पक्ष प्रस्तुत करने का अवसर प्रदान किया ।

इन्दिरा गांधी ने निम्न तर्कों के आधार पर आपातकाल को उचित ठहराया:

1. उनका तर्क था कि देश में बांग्लादेशी शरणार्थियों के आगमन, सूखा तथा तेल संकट के कारण आर्थिक संकट व्याप्त था तथा विरोधी तत्व सरकार के विरुद्ध आन्दोलन छेड़कर राजनीतिक अस्थिरता पैदा करना चाहते थे ।

2. इन्दिरा गांधी ने यह तर्क भी दिया कि पूंजीवादी व साम्प्रदायिक ताकतें कमजोर वर्गों के कल्याण तथा देश के धर्म निरपेक्ष ढाँचे को नुकसान पहुँचाना चाहती थीं । अत: आपातकाल लगाना उचित था ।

3. किसी भी व्यक्ति के आधिकार असीमित नहीं होते वरन् वह समाज के आधिकारों से होते हैं । अत: समाज के व्यापक हितों की दृष्टि से व्यक्ति के अधिकारों पर नियंत्रण लगाना उचित है । इसी तरह भारतीय साम्यवादी पार्टी ने भी आपातकाल को उचित ठहराया ।

आयोग ने इन्दिरा गांधी के उक्त तर्कों को स्वीकार नहीं किया । आयोग ने अपनी 525 पेजों की रिपोर्ट तीन भागों में प्रस्तुत की । आयोग की अन्तिम रिपोर्ट केन्द्र सरकार को 6 अगस्त, 1978 को प्रस्तुत की थी ।

आयोग की रिपोर्ट के मुख्य बिन्दु निम्नलिखित हैं:

(i) आपातकाल लागू करने का निर्णय केवल प्रधानमंत्री का था इस सम्बन्ध में गृहमंत्री तथा मंत्रिमंडल के अन्य मंत्रियों से भी सलाह नहीं ली गयी थी । अत: आपातकाल को अनुचित तरीके से लागू किया गया था ।

(ii) देश में 1971 से ही पाकिस्तान के आक्रमण के कारण आपातकाल लागू था । अत: एक आपातकाल लागू होने के साथ आपातकाल की दूसरी घोषणा विधि सम्मत नहीं है ।

(iii) एक लोकतंत्रिक देश में राजनीतिक विरोधियों को नजरबन्द करना तथा उनकी राजनीतिक गतिविधियों पर रोक लगाना गैर-कानूनी है ।

(iv) उसी तरह नागरिकों की स्वतंत्रताओं का हनन करना संचार माध्यमों पर नियंत्रण लगाना तथा जगजीवन राम जैसे नेता के फोन टेप करना जैसी घटनाएँ भारत के लोकतंत्र से मेल नहीं खातीं ।

(v) आपातकाल के समय प्रशासनिक अधिकारियों का आचरण उचित नहीं है । उन्होंने सरकार के गैर-कानूनी आदेशों को लागू करके कानून का उल्लंघन किया है ।

रिपोर्ट का परिणाम:

इस प्रकार आयोग ने आपातकाल लगाये जाने तथा उस समय हुई ज्यादितियों दोनों को विधि सम्मत नहीं माना । आयोग में इन्दिरा गांधी के अतिरिक्त उनके पुत्र संजय गांधी तथा उनकी सहायता पहुंचाने वाले प्रणव मुखर्जी, कमलनाथ, बंशी लाल आदि को मुख्य रूप से इन ज्यादितियों के लिये दोषी पाया । सरकार ने रिपोर्ट के आधार पर दोषी व्यक्तियों पर मुकदमा चलाने का निर्णय लिया । इसके लिये विशेष अदालतों का गठन करने हेतु मई 1979 में संसद द्वारा एक अधिनियम पारित किया गया ।

लेकिन 16 जुलाई 1979 को जनता पार्टी की सरकार गिर गयी तथा इन अदालतों का गठन नहीं हो पाया । जनवरी 1980 में इन्दिरा गांधी दुबारा सत्ता में आ गयीं तथा उन्होंने सभी जगह से इस रिपोर्ट की प्रतियाँ अपने कब्जे में करने का प्रयास किया । 1980 में सर्वोच्च न्यायालय ने इन विशेष अदालतों के गठन को नियम विरुद्ध माना । 23 जून, 1980 को सजय गांधी की दिल्ली में एक विमान दुर्घटना में मृत्यु हो गयी । अन्तत: इस रिपोर्ट पर कोई कार्यवाही नहीं हो सकी ।

जनता पार्टी का बिखराव (Janata Party Scatter):

जनता पार्टी की स्थापना एक दीर्घकालीन सोच का परिणाम न होकर आपातकाल से उपजी परिस्थितियों का परिणाम थी । इसमें विभिन्न विरोधी विचारधारा वाले दल व नेता आपसी मतभेदों को भुलाकर एक हो गये थे । लेकिन शीघ्र ही उनके आपसी मतभेद उभर कर सामने आ गये ।

यद्यपि जनता पार्टी में कई दल शामिल हुये थे लेकिन इस पार्टी पर लोक दल व जनसंघ पार्टी का प्रभाव अधिक था । सत्ता में आने के बाद ये दल आपस में टकराने लगे तथा नेताओं की व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाएँ सामने आ गयीं । समाजवादियों ने जनसंघ के नेताओं की दोहरी सदस्यता का विरोध किया । जनसंघ के नेता जनता पार्टी के सदस्य होने के साथ-साथ राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के भी सदस्य थे ।

समाजवादियों ने तर्क दिया कि कोई व्यक्ति एक साथ दो राजनीतिक दलों का सदस्य नहीं रह सकता । इस आपत्ति के बाद जनता पार्टी में बिखराव की नींव पड़ गयी । उधर जगजीवन राम तथा चौधरी चरण सिंह भी समाजवादियों की टीका टिप्पणी का शिकार हुये ।

मोरारजी ईसाई सरकार में उप-प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह तथा जगजीवन राम की प्रधानमंत्री बनने की व्यक्तिगत महत्वाका क्षायें भी सामने आ गयीं । सरकार के संचालन में सत्ता के कई केन्द्र बन गये तथा आपसी खींचतान बढ़ गयी । इससे देश का विकास भी प्रभावित हुआ । पाँचवी पंचवर्षीय योजना के निर्माण का कार्य खटाई में पड़ गया ।

मोरारजी देसाई के विरुद्ध अविश्वास का प्रस्ताव:

विपक्षी पार्टी कांग्रेस कमजोर होने के बावजूद इन्दिरा गांधी के नेतृत्व में एक जुट थी । उसने जनता पार्टी की आपसी खींच-तान तथा लड़ाई का फायदा लेते हुये मोरारजी देसाई की सरकार के विरुद्ध 1979 में अविश्वास का प्रस्ताव लोक सभा में प्रस्तुत कर दिया । मोरारजी देसाई को जब लगा कि उनकी पार्टी के ही सदस्य उनका साथ नहीं देंगे तो अविश्वास प्रस्ताव पर मतदान के पहले ही उन्होंने 16 जुलाई 1979 को अपने पद से त्यागपत्र दे दिया । इस प्रकार जनता सरकार का पतन हो गया । कांग्रेस पार्टी इसी का इन्तजार कर रही थी ।

कांग्रेस ने चौधरी चरण को प्रधानमंत्री के रूप में अपना समर्थन देने का वायदा किया तथा कांग्रेस के समर्थन से 28 जुलाई 1979 को चौधरी चरण सिंह अगले प्रधान मंत्री बन गये । लेकिन वे लोक सभा में अपना बहुमत कभी सिद्ध नहीं कर पाये और न ही उन्होंने कभी लोक सभा का सामना किया क्योंकि कांग्रेस ने लोक सभा की बैठक के पहले दिन ही अपना समर्थन वापस लेने की घोषणा कर दी । अत: नये चुनाव होने तक वे केवल कार्यवाहक प्रधानमंत्री के रूप में कार्य करते रहे । उन्होंने 14 जनवरी 1980 तक कार्यवाहक प्रधानमंत्री के रूप में ही कार्य किया ।

1980 के चुनाव तथा कांग्रेस की वापसी:

जनता पार्टी की सरकार गिरने के बाद सातवीं लोक सभा के चुनाव जनवरी 1980 में संपन्न हुये । इन चुनावों के सम्बन्ध में दो विचार महत्त्वपूर्ण हैं । प्रथम सत्ता से बाहर रहने के कारण इन्दिरा गांधी व कांग्रेस दोनों ने अपनी पिछली पराजय पर आत्म मंथन किया तथा वे पुन: सत्ता प्राप्त करने के लिये अपनी पुरानी भूलों को सुधारने चाहते थे । दूसरी तरफ जनता पार्टी के नेताओं की आपसी खींच-तान से जनता के मन में उनके प्रति सद्‌भावना समाप्त हो चुकी थी ।

जनता पार्टी अपना पाँच साल का कार्यकाल भी पूरा नहीं कर सकी तथा जनता पर चुनावों का बोझ आ पड़ा । अत: सरकार की स्थिरता मुख्य मुद्‌दा बन गयी । इसीलिये इस चुनाव में इन्दिरा गांधी ने यह नारा दिया कि सरकार ऐसी बनाओ जो चल सके । विपक्षी दल जनता पार्टी इस कसौटी में खरी नहीं उतरी । अत: जनता ने उसे नकार दिया ।

ऑपरेशन ब्लूस्टार और इन्दिरा गांधी की हत्या:

परिणामत: इन चुनावों में कांग्रेस को बड़ी सफलता मिली तथा लोक सभा की 542 सीटों में कांग्रेस को 352 सीटें प्राप्त हुईं तथा जनता पार्टी को केवल 31 सीटों पर सफलता प्राप्त हुयी । अत: देश की राजनीति में हासिये पर जा चुकी कांग्रेस की पुन: जोरदार वापसी हुयी । कांग्रेस पार्टी ने इन्दिरा गाँधी के नेतृत्व में पुन: सरकर का गठन किया ।

इन्दिरा गांधी को अपने इस दूसरे कार्यकाल में विकास की चुनौतियों के साथ-साथ देश में अलगाववाद की चुनौती का भी सामना करना पड़ा । 1980 के दशक में पंजाब में खालिस्तान की माँग उठी तथा भिण्डरावाले के नेतृत्व में उसने संगठित हिंसा का रूप धारण कर लिया ।

इस आन्दोलन को पाकिस्तान तथा अन्य बाहरी तत्वों का भी समर्थन प्राप्त था । अन्तत: इन्दिरा गांधी को इस आन्दोलन को दबाने के लिये जून 1984 में अमृतसर के स्वर्ण मन्दिर में सैनिक कार्यवाही करनी पड़ी । इस सैनिक कार्यवाही को ‘आपरेशन कुम्हार’ के नाम से जानते हैं । कतिपय कट्‌टरवादी सिखों ने इस सैनिक कार्यवाही को सिखों के धार्मिक अपमान के रूप में लिया ।

अन्तत: इस घटना से क्रोधित होकर उनके सिख अंगरक्षकों ने 31 अक्टूबर 1984 को उनके निवास पर इन्दिरा गाँधी की हत्या कर दी । उनकी हत्या के बाद दिल्ली तथा देश के अन्य स्थानों पर सिख विरोधी दंगे फैल गये तथा देश पुन हिंसा के साथ-साथ राजनीतिक अनिश्चितता का शिकार हो गया ।

इन्दिरा गाँधी की हत्या के बाद उनके पुत्र राजीव गांधी को कांग्रेस संसदीय दल का नेता चुना गया तथा वे देश के अगले प्रधानमंत्री बने । उन्होंने लोकसभा को भंग कर 1984 के अन्त में ही आठवीं लोक सभा के चुनावों की घोषणा की । इन चुनावों में कांग्रेस को इन्दिरा गांधी की हत्या के कारण जनता की सहानुभूति का पूरा फायदा मिला । इस सहानुभूति लहर के चलते कांग्रेस को लोक सभा चुनावों में 411 सीटों पर जीत हासिल हुयी ।

आजादी के बाद कांग्रेस की यह सबसे बड़ी जीत थी क्योंकि इतनी अधिक सीटें कांग्रेस को नेहरू के शासनकाल में भी प्राप्त नहीं हुयीं थीं । ये एक तरफा चुनाव थे जिनमें विपक्ष की स्थिति अत्यंत कमजोर हो गयी थी । अटल बिहारी बाजपेयी तथा चरण सिंह जैसे दिग्गज विपक्षी नेता भी चुनाव नहीं जीत सके ।


7. आपातकाल व नागरिक स्वतन्त्रता संगठनों का उदय (Rise of Emergency and Citizens Freedom Organizations):

वैसे आपातकाल का युग भारत के लोकतंत्र में एक काले अध्याय के रूप में जाना जाता है, लेकिन एक दृष्टि से नागरिक स्वतंत्रता तथा मानवाधिकार संगठनों के उदय व विकास भी युग है । यह आपातकाल का अप्रत्यक्ष सकारात्मक परिणाम है ।

आपातकाल के पहले ही सरकार की तानाशाही प्रवृत्तियाँ दिखाई देने लगी थी । लोकतंत्र में विरोध के प्रति सहनशीलता का होना आवश्यक है । लेकिन सरकार ने समस्याओं के प्रति चलाये जा रहे आन्दोलनों के प्रति दमनकारी व दबाव की नीति का सहारा लिया ।

1974 में गुजरात के नवनिर्माण आन्दोलन तथा बिहार आन्दोलन को सरकार ने विरोधियों की साजिश माना अत: उनके प्रति दमनकारी रवैया अपनाया । आपातकाल के दौरान सरकार ने दमनकारी नीतियों को खुलकर लागू किया । राजनीति दलों के विरोध को दबाने के लिये उनकी राजनीतिक गतिविधियों पर रोक लगा दी गयी तथा उनके नेताओं को जेल में डाल दिया गया ।

आपातकाल के दौरान सरकार की दमनकारी नीतियों के कारण जो विरोध शून्यता की स्थिति पैदा हुई उसी में जनता के अधिकारों की रक्षा के लिये गैर-सरकारी संगठनों के उदय का अवसर प्राप्त हुआ । इन संगठनों को नागरिक समाज संगठनों (Civil Society Organization) के नाम से भी जाना जाता है । इस दृष्टि से जयप्रकाश नारायन द्वारा स्थापित ‘पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज’, तथा ‘पीपुल्स यूनियन फॉर डेमोक्रेटिक राइट्‌स’ आदि प्रमुख हैं ।

ये दोनों संगठन आज भी मानवाधिकारों की रक्षा में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं । गुजरात में आपातकाल में लोक अधिकारों की रक्षा के लिये लोक रक्षा समिति की स्थापना की गयी । आपातकाल में मानवाधिकारों की रक्षा के लिये इस प्रकार के गैर-सरकारी संगठनों के विकास का जो सिलसिला शुरू हुआ वह आज भी जारी है ।

आज ऐसे सिविल सोसाइटी संगठनों की मात्रा व विविधता बढ़ रही है तथा समाज व सरकार दोनों के द्वारा उनकी महत्त्वपूर्ण भूमिका को स्वीकार कर लिया गया है ।

संसद में विपक्ष के नेता को कानूनी मान्यता:

संसद द्वारा 1977 में पारित एक अधिनियम द्वारा संसद के दोनों सदनों में विपक्षी नेता को कानूनी मान्यता प्रदान की गयी । तब से विपक्षी नेता को केन्द्र के कैबिनेट मंत्री का दर्जा प्राप्त है तथा उसे सरकार द्वारा कार्यालय की सुविधा भी प्रदान की जाती है । विपक्षी नेता की मान्यता समय-समय पर संबन्धित सदन के स्पीकर/सभापति द्वारा प्रदान की जाती है ।

उसी दल के नेता को विपक्षी नेता के रूप में मान्यता प्रदान की जाती है जो सदन में सबसे बड़ा विपक्षी दल हो था उस सदन में उसके कुल सदस्यों की संख्या उस नेता बने । सदन की कुल संख्या के 1/10 भाग से कम न हो ।

इस व्यवस्था के आने के बाद 1977 में लोक सभा में कांग्रेस के वाई. बी. चह्वाण तथा राज्य सभा में कांग्रेस के ही कमलापति त्रिपाठी पहले मान्यता प्राप्त विपक्ष के नेता बने । 1977 के पहले संसद के दोनों सदनों में विपक्ष के नेता तो होते थे, लेकिन उन्हें कानूनी मान्यता प्राप्त नहीं थी ।


8. आपातकाल की कतिपय अन्य महत्वपूर्ण घटनाएँ (Some Other Important Events of Emergency):

आपातकाल की कतिपय अन्य घटनाएँ व प्रवृत्तियाँ भी उल्लेखनीय हैं:

1. गैर संवैधानिक सत्ता केन्द्रों का उदय (The Rise of Non-Constitutional Power Centers):

आपातकाल के दौरान सत्ता के कतिपय गैर-संवैधानिक केन्द्र भी उभरे जिनके द्वारा बिना किसी जिम्मेदारी के शासकीय सत्ता का खुलकर दुरुपयोग किया गया । इनमें प्रमुख थे इन्दिरा गांधी के पुत्र संजय गांधी तथा उनके घनिष्ठ सहयोगी व मित्र । संजय गांधी के पास कोई संवैधानिक पद नहीं था लेकिन आपातकाल के दौरान उनके आदेशों की अवहेलना करने का साहस बड़े नेता व अधिकारी भी नहीं जुटा पाते थे ।

उन्होंने प्रशासन व राजनीति में भय आतंक तथा चाटुकारिता का माहौल उत्पन्न किया । वृक्षारोपण तथा परिवार नियोजन उनके पसन्दीदा कार्यक्रम थे । इस तरह के गैर-संवैधानिक सत्ता केन्द्रों का उदय भारतीय राजनीति का पहला अनुभव था ।

2. बीस सूत्रीय कार्यक्रम (Twenty Point Program):

आपातकाल में सरकार ने 1 जुलाई, 1975 को देश के विकास के लिये 20 सूत्रीय योजना को लागू किया । इस योजना में कृषि भूमि की हदबन्दी व चकबन्दी अतिरिक्त भूमि का गरीब किसानों में आवंटन ग्रामीणों के कर्जों को माफ करना पुस्तकें तथा खाद्यान्न का लोक वितरण प्रणाली द्वारा नियंत्रित दरों पर उपलब्ध कराना शहरी भूमि की सीमा का निर्धारण, बिजली के उत्पादन में वृद्धि करना आदि शामिल था । यद्यपि इस योजना की बातें लोक कल्याणकारी थीं लेकिन उन्हें अलोकतांत्रिक तरीके से लागू किया गया । फिर भी इस योजना से विकास के सकारात्मक परिणाम भी देखने में आये ।

3. परिवार नियोजन तथा अन्य यातनाएँ (Family Planning and Other Tortures):

आपातकाल में पुलिस तथा नौकरशाही द्वारा आपातकाल के नाम पर अपनी शक्तियों का दुरुपयोग किया गया । पुलिस द्वारा निरीह लोगों को कई तरह की यातनाएँ दे। गयीं तथा सरकार द्वारा विरोधियों के फोन तक टेप कराये गये । मुद्रा के अवैध व्यापार तथा तस्करी को रोकने के लिये 1974 में बनाये गये कोफेपोसा (COFEPOSA) कानून का भी दुरुपयोग किया गया । सबसे बड़ी बात यह थी इन ज्यादितियों के विरुद्ध उठने वाली आवाज को भी दबा दिया गया था ।

अत: यातनाओं को मूक रहकर सहन करने के अलावा और कोई रास्ता नहीं था । आपातकालीन ज्यादिती का सबसे बड़ा नमूना परिवार नियोजन कार्यक्रम अथवा नसबन्दी का कार्यक्रम था । पुलिस व प्रशासनिक अधिकारियों को नसबन्दी करवाने के मासिक टारगेट दे दिये गये थे ।

इसलिये पुलिस तथा प्रशासनिक अधिकारियों द्वारा जबरन नसबन्दी का सहारा लिया गया । कई मामलों में तो अविवाहित अथवा नि:सन्तान पुरुषों की नसबन्दी कर दी गयी । नसबन्दी कार्यक्रम आपातकाल में सरकार का सबसे अधिक अलोकप्रिय कार्यक्रम था ।

4. सकारात्मक परिणाम: सार्वजनिक जीवन में अनुशासन (Positive Results: Discipline in Public Life):

आपातकाल में यद्यपि नागरिक स्वतंत्रताओं का गला घोटा गया तथा विरोध की राजनीति को दबाया गया लेकिन इसके कतिपय सकारात्मक परिणाम भी देखने में आये । कॉलेज व अस्पताल समय से खुलने लगे तथा कर्मचारी नियमित रूप से कार्यालयों में देखे गये । अंत: आपातकाल की कड़ाई के कारण सार्वजनिक जीवन में अनुशासन तथा नियम पालन की प्रवृत्ति बड़ी लेकिन यह बदलाव स्वेच्छा से प्रेरित न होकर दण्ड के भय से था । फिर भी निष्कर्ष रूप में आपातकाल भारत के लोकतंत्र के भविष्य की दृष्टि से भारत के राजनीतिक जीवन का घातक चरण था ।


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