मध्य एशिया के साथ मौर्य साम्राज्य के संबंध | Relations of Mauryan Empire with Central Asia.

लगभग 200 ईसा-पूर्व से जो काल आरंभ होता है, उसमें मौर्य साम्राज्य जैसा कोई बड़ा साम्राज्य नहीं दिखाई देता है पर उस काल में मध्य एशिया और भारत के बीच घनिष्ठ और व्यापक संपर्क स्थापित हुआ ।

पूर्वी भारत मध्य भारत और दकन में मौर्यों के स्थान पर कई स्थानीय शासक सत्ता में आए, जैसे शुंग, कण्व और सातवाहन । पश्चिमोत्तर भारत में मौर्यों के स्थान पर मध्य एशिया से आए कई राजवंशों ने अपना शासन जमाया । इसमें कुषाण सर्वाधिक प्रसिद्ध हुए ।

हिंद-यूनानी:

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लगभग 200 ई॰ पू॰ से बार-बार हमले होने लगे । सर्वप्रथम यूनानियों ने हिंदूकुश पार किया । वे उत्तर अफगानिस्तान के अंतर्गत अमुदरिया (ऑक्सस) के दक्षिण में बैक्ट्रिया में राज करते थे । आक्रमणकारी एक के बाद एक आते रहे परंतु उनमें से कुछ ने एक ही समय समानांतर शासन किया । आक्रमण का महत्वपूर्ण कारण था सेल्यूकस द्वारा स्थापित साम्राज्य की कमजोरी ।

इस साम्राज्य की स्थापना बैक्ट्रिया में और ईरान से संलग्न पार्थिया नामक क्षेत्र में हुई थी । शकों के बढ़ते हुए दबाव के कारण परवर्ती यूनानी शासक इस क्षेत्र में अपनी सत्ता नहीं रख सके । उधर चीन में महादीवार के बन जाने से शक लोग चीन की सीमाओं के बाहर धकेल दिए गए । इसलिए उन्होंने अपना मुँह पड़ोसी यूनानियों और पार्थियनों की ओर घुमाया ।

शकों से दबकर बैक्ट्रियाई यूनानी भारत पर चढ़ाई करने के लिए मजबूर हो गए । अशोक के उत्तराधिकारी इतने कमजोर ठहरे कि वे इस काल में आई बाहरी आक्रमणों की लहर को रोक नहीं सके । भारत पर आक्रमण सबसे पहले उन यूनानियों ने किए जो हिंद-यूनानी या बैक्ट्रियाई-यूनानी कहलाते हैं । ईसा-पूर्व दूसरी सदी के आरंभ में हिंद-यूनानियों ने पश्चिमोत्तर भारत के विशाल क्षेत्र पर कब्जा कर लिया ।

यह क्षेत्र सिकंदर द्वारा जीते गए क्षेत्र से भी बड़ा था । कहा जाता है कि वे अयोध्या और पाटलिपुत्र तक चढ़ आए थे । परंतु वे लोग भारत में मिलजुल कर शासन कायम नहीं कर सके । दो यूनानी राजवंशों ने एक ही समय में पश्चिमोत्तर भारत में समानांतर शासन किया । सबसे अधिक विख्यात हिंद-यूनानी शासक हुआ मिनांडर (165-145 ई॰ पू॰) । वह मिलिंद नाम से भी जाना जाता है । उसकी राजधानी पंजाब में शाकल (आधुनिक सियालकोट) में थी और उसने गंगा-यमुना दोआब पर आकमण किया । उसे नागसेन ने बौद्ध धर्म की दीक्षा दी । नागार्जुन इस नागसेन का ही नामांतर है । मिनांडर ने नागसेन से बौद्ध धर्म पर अनेक प्रश्न पूछे ।

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ये प्रश्न और नागसेन द्वारा दिए गए उनके उत्तर एक पुस्तक के रूप में संगृहीत हैं जिसका नाम है मिलिदंपन्हा अर्थात् मिलिंद के प्रश्न । भारत के इतिहास में हिंद-यूनानी शासन का महत्व इसलिए है कि यूनानी शासकों ने भारी संख्या में सिक्के जारी किए ।

हिंद-यूनानी भारत के पहले शासक हुए जिनके जारी किए गए सिक्कों के बारे में निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि सिक्के किन-किन राजाओं के हैं । पूर्व की आहत मुद्राओं के बारे में ऐसी बात नहीं है; उनका संबंध किसी राजवंश से निश्चयपूर्वक जोड़ना संभव नहीं है ।

सबसे पहले भारत में हिंद-यूनानियों ने ही सोने के सिक्के जारी किए पर इनकी संख्या कुषाणों के शासन में जोर से बड़ी । हिंद-यूनानी शासकों ने भारत के पश्चिमोत्तर सीमा प्रांत में यूनान की कला चलाई जिसे हेलेनिस्टिक आर्ट कहते हैं । यह कला विशुद्ध यूनानी नहीं थी । सिकंदर की मृत्यु के बाद विजित गैर-यूनानियों के साथ यूनानियों के संपर्क से इसका उदय हुआ था । भारत में गांधार कला इसका उत्तम उदाहरण है ।

शक:

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यूनानियों के बाद शक आए । यूनानियों ने भारत के जितने भाग पर कब्जा किया था उससे कहीं अधिक भाग पर शकों ने किया । शकों की पाँच शाखाएँ थीं और हर शाखा की राजधानी भारत और अफगानिस्तान में अलग-अलग भाग में थी । शकों की एक शाखा अफगानिस्तान में बस गई ।

दूसरी शाखा पंजाब में बसी जिसकी राजधानी तक्षशिला हुई । तीसरी शाखा मथुरा में बसी जहाँ उसने लगभग दो सदियों तक शासन किया । चौथी शाखा ने पश्चिमी भारत पर अपना अधिकार जमाया और वहाँ वह चौथी शताब्दी तक शासन करती रही । शकों की पाँचवीं शाखा ने अपना प्रभुत्व ऊपरी दकन पर स्थापित किया ।

शकों को न तो भारत के शासकों का और न जनता का ही प्रतिरोध झेलना पड़ा । कहा जाता है कि लगभग 57-58 ईसा-पूर्व में उज्जैन के एक राजा ने शकों से युद्ध किया उन्हें पराजित किया और अपने ही समय में उन्हें बाहर खदेड़ दिया । यह राजा अपने को विक्रमादित्य कहता था ।

विक्रम संवत् नाम का संवत् 57-58 ई॰ पू॰ में शकों पर उसकी विजय से आरंभ हुआ । तब से विक्रमादित्य अत्यंत इच्छित उपाधि बन गया । जिस किसी ने भी कोई महान पराक्रम दिखलाया उसने इस उपाधि को उसी तरह धारण कर लिया जिस तरह रोम के सम्राट् अपनी अतुल शक्ति और पराक्रम जताने के लिए ‘सीजर’ की उपाधि लगा लेते थे । इस प्रथा का परिणाम यह हुआ कि हम भारतीय इतिहास में चौदह विक्रमादित्य पाते हैं ।

गुप्त सम्राट चंद्रगुप्त द्वितीय सबसे अधिक विख्यात विक्रमादित्य था । भारतीय राजाओं को यह उपाधि इतनी भाई कि इसकी परंपरा खासकर पश्चिमी भारत और पश्चिमी दकन में ईसा की बारहवीं सदी तक चलती रही ।

यद्यपि शकों ने देश के कई भागों में अपना-अपना राज्य स्थापित किया तथापि जिन्होंने पश्चिम में राज्य स्थापित किया वे ही कुछ लंबे अरसे तक यानी लगभग चार सदियों तक राज करते रहे । वे गुजरात में चल रहे समुद्री व्यापार से लाभान्वित हुए और उन्होंने भारी संख्या में चांदी के सिक्के चलाए ।

सबसे अधिक विख्यात शक शासक रुद्रदामन् प्रथम (130-150 ई॰) हुआ । उसका शासन न केवल सिंध में बल्कि कोंकण नर्मदा घाटी मालवा काठियावाड़ और गुजरात के बड़े भाग में भी था । वह इसलिए प्रसिद्ध है कि उसने काठियावाड़ के अर्धशुष्क क्षेत्र का मशहूर झील सुदर्शन सर का जीर्णोद्धार किया । यह झील मौर्यकाल की थी और दीर्घकाल से सिंचाई के काम में आती रही थी ।

रुद्रादामन् संस्कृत का बड़ा प्रेमी था । भारत में आकर बसा विदेशी होते हुए भी उसने ही सबसे पहले विशुद्ध संस्कृत भाषा में लंबा अभिलेख जारी किया । पूर्व के जो भी लंबे अभिलेख इस देश में पाए गए हैं सभी प्राकृत भाषा में रचित हैं ।

पार्थियाई या पह्लव:

पश्चिमोत्तर भारत में शकों के आधिपत्य के बाद पार्थियाई लोगों का आधिपत्य हुआ । प्राचीन भारत के अनेक संस्कृत ग्रंथों में इन दोनों जनों के एक साथ उल्लेख शकपह्लव के रूप में मिलते हैं । वास्तव में ये दोनों जनसमूह कुछ समय इस देश में समानांतर शासन करते रहे । पार्थियाई लोगों का मूल वासस्थान ईरान में था जहाँ से वे भारत की ओर चले । यूनानियों और शकों के विपरीत वे ईसा की पहली सदी में पश्चिमोत्तर भारत के एक छोटे-से भाग पर ही सत्ता जमा सके ।

सबसे प्रसिद्ध पार्थियाई राजा हुआ गोंडोफनिर्स । कहा जाता है कि उसके शासनकाल में सेंट टॉमस ईसाई धर्म का प्रचार करने के लिए भारत आया था । अपने से पहले के शकों की तरह पार्थियाई लोग भी भारतीय राजतंत्र के और समाज के अभिन्न अग बन गए ।

कुषाण:

पार्थियाइयों के बाद कुषाण आए जो यूची और तोखारी भी कहलाते हैं । यूची कबीला पाँच कुलों में बँट गया था । कुषाण उन्हीं में एक कुल के थे । वे उत्तरी मध्य एशिया के हरित मैदानों के खानाबदोश लोग थे और चीन के पड़ोस में रहते थे ।

कुषाणों ने पहले बैक्ट्रिया और उत्तरी अफगानिस्तान पर कब्जा किया और वहाँ से शकों को भगाया । धीरे-धीरे वे काबुल घाटी की ओर बड़े और हिंदूकुश पार करके गंधार पर कब्जा किया और वहाँ यूनानियों और पार्थियाइयों को अपदस्थ कर सत्ता जमाई ।

अंतत: उन्होंने निचली सिंधु घाटी पर तथा गंगा के मैदान के अधिकतर हिस्से पर भी अधिकार कर लिया । उनका साम्राज्य अमुदरिया से गंगा तक, मध्य एशिया के खुरासान से उत्तर प्रदेश के वाराणसी तक फैल गया । कुषाणों ने पूर्व सोवियत गणराज्य में शामिल मध्य एशिया का अच्छा-खासा भाग ईरान का हिस्सा अफगानिस्तान का कुछ अंश लगभग पूरा पाकिस्तान और लगभग समूचा उत्तर भारत इन सारे भू-भागों को अपने शासन के साये में कर दिया ।

इससे नाना प्रकार के लोगों और संस्कृतियों के आपस में घुल-मिल जाने का विलक्षण अवसर आया और इस सम्मिलन की प्रक्रिया ने ऐसी संस्कृति को जन्म दिया जो आज के नौ देशों में फैली हुई है । हम कुषाणों के दो राजवंश पाते हैं जो एक के बाद एक आए । पहले राजवंश की स्थापना कैडफाइसिस नामक सरदारों के घराने ने की । इस घराने का शासन 50 ई॰ से 28 वर्षों तक चला । इसमें दो राजा हुए । पहला हुआ कैडफाइसिस प्रथम जिसने हिंदूकुश के दक्षिण में सिक्के चलाए ।

उसने रोमन सिक्कों की नकल करके तांबे के सिक्के ढलवाए । दूसरा राजा हुआ कैडफाइसिस द्वितीय जिसने बड़ी संख्या में स्वर्णमुद्राएँ जारी कीं और अपना राज्य सिंधु नदी के पूरब में फैलाया । कैडफाइसिस राजवंश के बाद कनिष्क राजवंश आया । इस वंश के राजाओं ने ऊपरी भारत और निचली सिंधु घाटी में अपना प्रभुत्व फैलाया । आरंभिक कुषाण राजाओं ने बड़ी संख्या में स्वर्णमुद्राएँ जारी कीं । उनकी स्वर्णमुद्राएँ धातु की शुद्धता में गुप्त शासकों की स्वर्णमुद्राओं से उत्कृष्ट हैं ।

उनकी स्वर्णमुद्राएँ तो मुख्यत: सिंधु के पश्चिम में ही पाई गई हैं पर उनके अभिलेख न केवल पश्चिमोत्तर भारत और सिंधु में ही बल्कि मथुरा श्रावस्ती कौशांबी और वाराणसी तक बिखरे मिले हैं । इससे सिद्ध होता है कि उन्होंने गंगा-यमुना दोआब के अतिरिक्त मध्य गंगा के मैदानों के काफी भाग को भी अपने कब्जे में किया ।

मथुरा में जो कुषाणों के सिक्के, अभिलेख संरचनाएँ और मूर्तियाँ मिली हैं उनसे प्रकट होता है कि मथुरा भारत में कुषाणों की द्वितीय राजधानी थी । पहली राजधानी आधुनिक पाकिस्तान में अवस्थित पुरुषपुर या पेशावर में थी । वहाँ कनिष्क ने एक मठ और विशाल स्तुप का निर्माण कराया । इस स्तूप को देखकर विदेशी यात्री चकित रह जाते थे । कनिष्क सर्वाधिक विख्यात कुषाण शासक था । लगता है कि उसे भारत की सीमाओं के बाहर चीनियों से हार खानी पड़ी । लेकिन इतिहास में दो कारणों से उसका नाम है ।

पहला उसने 78 ई॰ में एक संवत् चलाया जो शक संवत् कहलाता है और भारत सरकार द्वारा प्रयोग में लाया जाता है । दूसरा उसने बौद्ध धर्म का मुक्त हृदय से संपोषण-संरक्षण किया । उसने कश्मीर में बौद्धों का सम्मेलन आयोजित किया जिसमें बौद्ध धर्म के महायान संप्रदाय को अंतिम रूप दिया गया । कनिष्क कला और संस्कृत साहित्य का भी महान संरक्षक था ।

कनिष्क के उत्तराधिकारी पश्चिमोत्तर भारत पर लगभग 230 ई॰ तक राज करते रहे और उनमें से कुछ ने तो शुद्ध भारतीय नाम धारण कर लिए जैसे वासुदेव । ईरान में उठ खड़ी हुई सासानी शक्ति ने ईसा की तीसरी सदी के मध्य में अफगानिस्तान और सिंधु के पश्चिम के क्षेत्र कुषाण साम्राज्य से छीन कर अपने कब्जे में कर लिए पर भारत में कुषाण रजवाड़े लगभग सौ वर्षों तक बने रहे ।

लगता है कि कुषाणों का अधिकार काबुल घाटी, कपिशा, बैक्ट्रिया, ख्वारिज्म और सोग्दियाना (अर्थात् मध्य एशिया स्थित बोखारा और समरकंद) में ईसा की तीसरी-चौथी सदी में भी कायम रहा । इन क्षेत्रों में अनेक कुषाण मुद्राएँ अभिलेख और मृण्मूर्तिकाएँ पाई गई हैं ।

खासकर ख्वारिज्म, जो अरल सागर के दक्षिण अमुदरिया नदी पर अवस्थित है के टोपरक-कला नामक स्थान में विशाल कुषाण प्रासाद खुदाई में निकला है जो तीसरी-चौथी सदियों का है । इसमें प्रशासनिक अभिलेखागार था जहाँ आरामाइक लिपि और ख्वारिज्मी भाषा में लिखे पुरालेख और दस्तावेज रखे हुए थे ।

हिंद-सासानी:

तीसरी शताब्दी के मध्य तक ससानियों ने निचले सिंधु क्षेत्र पर अधिकार कर लिया था । शुरू में वे इस क्षेत्र को ‘हिंदु’ कहते थे । यह नाम किसी धार्मिक कारण से नहीं दिया गया था । इससे उनका तात्पर्य था कि यहाँ सिंधु निवासी रहते हैं । 262 ई॰ के एक सासानी अभिलेख में इस क्षेत्र के लिए ‘हिंदुस्तान’ शब्द का प्रयोग हुआ है ।

अतएव मुगल और आधुनिक काल में भारत के लिए प्रयुक्त हिंदुस्तान शब्द का उल्लेख सर्वप्रथम तीसरा सदी में मिलता है । ससानियों ने, जिन्हें हिंद-सासानी भी कहते हैं, भारत में एक सदी से थोडा कम ही शासन किया, लेकिन उन्होंने बहुत-सारे सिक्के जारी कर भारतीय अर्थव्यवस्था में योगदान किया ।

मध्य एशिया से संपर्कों के प्रभाव  (Effects of Relations with Central Asia):

i. भवन और मृदभांड:

शक-कुषाण काल में भवन-निर्माण के कार्यों में उल्लेखनीय प्रगति हुई । उत्खननों में संरचना के कई स्तर मिले हैं । उत्तर भारत के विविध पुरास्थलों पर तो कभी-कभी आधे दर्जन से भी अधिक स्तर हैं ।

इनमें पकी ईंटों का प्रयोग फर्श बनाने में किया गया है खपरों (टाइलों) का प्रयोग फर्श और छत दोनों में किया गया है । इस काल में ईंट के कुँओं का निर्माण हुआ । कुषाणकाल का अपना खास मृद्‌भांड है लाल बरतन जो सादा भी है और पालिशदार भी और बनावट में मध्यम से उत्तम तक ।

असाधारण बरतन हैं फुहारों और टोटियों वाले पात्र । इन बरतनों में मध्य एशिया में इसी काल के कुषाण स्तरों में पाए गए सूक्ष्म बनावट वाले मृद्‌भांडों से समानता है । इस प्रकार के लाल पालिशदार मृद्‌भांड बनाने की कला मध्य एशिया में सुविदित थी और यह कला फरगना जैसे कुषाण सांस्कृतिक क्षेत्र के भीतर प्रचलित थी ।

ii. उत्कृष्ट अश्वारोही सेना

शकों और कुषाणों ने भारतीय संस्कृति में नए-नए उपादान जोड़कर इसे अपार समृद्ध बनाया । वे सदा के लिए भारतवासी हो गए और अपने को भारतीय संस्कृति की धारा में पूर्णत: विलीन कर दिया । उनके अपने पास लिपि लिखित भाषा और कोई सुव्यवस्थित धर्म नहीं थे इसलिए उन्होंने संस्कृति के इन उपादानों को भारत से लिया ।

वे भारतीय समाज के अभिन्न अंग बन गए और इस समाज को उन्होंने बहुत कुछ दिया । उन्होंने बड़े पैमाने पर उत्तम अश्वारोही सेना और अश्वारोहण की परंपरा चलाई । उन्होंने लगाम और जीन का प्रयोग प्रचलित किया जो हमें ईसा की दूसरी और तीसरी सदियों की बौद्ध मूर्तियों में दिखाई देते हैं । शक और कुषाण विलक्षण अश्वारोही थे ।

अफगानिस्तान के बेगराम में जो कुषाण काल की मिट्‌टी की पकी घुड़सवार की मुर्तिकाएँ मिली हैं उनसे घुड़सवारी में उनकी गहरी दिलचस्पी जाहिर होती है । इन विदेशी घुड़सवारों को सुदृढ़ कवच में भालों और बर्छियों से लड़ाई करते दिखाया गया है । वे रस्सी का बना एक प्रकार का अंगूठा-रकाब भी लगाते थे जिससे उन्हें घुड़सवारी में सुविधा होती थी और उनका आवागमन सुगम हो गया था ।

शकों और कुषाणों ने पगड़ी ट्‌यूनिक (कुरती) पाजामा और भारी लंबे कोट चलाए । आज भी अफगान और पंजाबी लोग पगड़ी लगाते हैं और शेरवानी लंबे कोट का ही बदला रूप है । मध्य एशिया वालों ने यहाँ टोपी शिरस्त्राण और बूट चलाए जिनका इस्तेमाल योद्धा लोग करते थे ।

इन्हीं श्रेष्ठताओं की बदौलत उन्होंने ईरान, अफगानिस्तान, पाकिस्तान और भारत में अपने विरोधियों पर विजय पाई । बाद में जब यह सैनिक-कौशल देश भर में फैल गया तब अधीनस्थ राजाओं ने अपने पिछले विजेताओं के विरुद्ध इसका अच्छा इस्तेमाल किया ।

iii. व्यापार और खेती:

मध्य एशियाई लोगों के आने से मध्य एशिया और भारत के बीच घना संपर्क स्थापित हुआ । परिणामस्वरूप भारत को मध्य एशिया के अलाई पहाड़ों से भारी मात्रा में सोना प्राप्त हुआ । भारत को रोमन साम्राज्य के साथ व्यापार के जरिए भी सोना मिला होगा ।

कुषाणों ने रेशम के उस प्रख्यात मार्ग पर नियंत्रण कर लिया जो चीन से चलकर कुषाण साम्राज्य में शामिल मध्य एशिया और अफगानिस्तान से गुजरते हुए ईरान जाता था और पूर्वी भूमध्यसागरीय अंचल में रोमन साम्राज्य के अंतर्गत पश्चिम एशिया जाता था ।

यह रेशम मार्ग कुषाणों का बड़ा आय-स्रोत था और वे इस मार्ग पर व्यापारियों से उगाही गई चुंगी की बदौलत ही विशाल और समृद्ध साम्राज्य कायम कर सके । यह उल्लेखनीय है कि भारत में बड़े पैमाने पर सोने का सिक्का चलाने वाले प्रथम शासक कुषाण ही थे । कुषाणों ने खेती को भी बढ़ाया । कुषाण काल की विस्तृत सिंचाई के पुरातात्त्विक अवशेष पाकिस्तान अफगानिस्तान और पश्चिमी मध्य एशिया में पाए जाते है ।

iv. राज्यव्यवस्था:

मध्य एशियाई विजेताओं ने अनगिनत छोटे-छोटे देशी राजाओं पर अपना शासन लाद दिया । इससे एक प्रकार की सामंती व्यवस्था उदित हुई । कुषाण राजाओं ने महाराजाधिराज की यह गौरवपूर्ण उपाधि धारण की जिसका आशय यह निकलता है कि वे अनेकानेक छोटे-छोटे राजाओं के राजा थे और उनसे कर पाते थे ।

शकों और कुषाणों ने इस भावना को बढ़ावा दिया कि राजा देवता का अवतार होता है । अशोक देवों का प्रिय कहा जाता था पर कुषाण राजा देवपुत्र कहलाते थे । यह उपाधि कुषाणों ने चीनियों से ली जो अपने राजा को स्वर्ग का पुत्र कहते थे ।

भारत में इसका प्रयोग स्वभावत: राजसत्ता को मान्यता और वैधता प्रदान करने के लिए किया गया होगा । स्मृतिकार मनु ने कहा है कि राजा बच्चा ही क्यों न हो उसका आदर करना चाहिए क्योंकि वह मानव रूप धारण करके शासन करने वाला देवता होता है । कुषाणों ने शासन की क्षत्रप प्रणाली भी चलाई ।

साम्राज्य अनेक क्षत्रपियों उपराज्यों में बाँट दिया गया और प्रत्येक क्षत्रपी एक-एक क्षत्रप के शासन में छोड़ दिया गया । कुछ अनोखी प्रथाएँ भी शुरू की गईं जैसे दो आनुवंशिक राजाओं का संयुक्त शासन जिसमें एक ही समय एक ही राज्य पर दो राजाओं का शासन हो सकता था । हम पिता और पुत्र दोनों को एक ही समय संयुक्त रूप से शासन करते पाते हैं । इस प्रकार प्रतीत होता है कि इन शासकों के अधीन केंद्रीकरण कम था ।

यूनानियों ने सेनानी शासन (मिलिटरी गवर्नरशिप) की परिपाटी भी चलाई । वे इसके लिए शासक सेनानियों की नियुक्ति करते थे जो यूनानी भाषा में स्ट्रेटेगोस कहलाते थे । सेनानी शासकों की आवश्यकता विजित प्रजा पर नए राजाओं का प्रभाव जमाने के लिए होती थी ।

v. भारतीय समाज में नए तत्व:

यूनानी शक पार्थियन और कुषाण सभी भारत में अपनी-अपनी पहचान अंतत : खो बैठे । शनै:-शनै: वे पूरे भारतीय बन गए । चूंकि उनमें अधिकांश विजेता के रूप में आए, इसलिए वे भारतीय समाज में योद्धाओं के वर्ग में अर्थात् क्षत्रिय वर्ण में समाविष्ट हुए ।

ब्राह्मण समाज में उनके प्रवेश की व्याख्या अद्‌भुत ढंग से की गई है । स्मृतिकार मनु ने कहा है कि अपने कर्त्तव्यों से न्न्मुत हुए अधम क्षत्रिय ही शक और पह्‌लव हुए। दूसरे शब्दों में उन्हें द्वितीय श्रेणी के क्षत्रिय का स्थान मिला । भारतीय समाज में विदेशियों का आत्मसात्‌करण जितना अधिक मौर्योतर काल में हुआ उतना शायद प्राचीन भारत के इतिहास में और किसी काल में नहीं हुआ ।

vi. धार्मिक विकास:

कई विदेशी शासक वैष्णव संप्रदाय में आ गए अर्थात् जगत का पालन और रक्षा करने वाले विष्णु के उपासक बन गए । यूनानी राजदूत हिलियोडोरंस ने मध्य प्रदेश स्थित विदिशा (आज के विदिशा जिले का मुख्यालय) में ईसा-पूर्व लगभग दूसरी सदी के मध्य में वासुदेव की आराधना के लिए एक स्तंभ खड़ा किया । वासुदेव से विष्णु का बोध होता है ।

कुछ अन्य शासकों ने बौद्ध धर्म को अपनाया । प्रख्यात यूनानी राजा मिनांडर बौद्ध हो गया । बौद्धाचार्य नागसेन उर्फ नागार्जुन के साथ हुआ उसका प्रश्नोत्तर मौर्योत्तर काल के बौद्धिक इतिहास का अच्छा स्रोत है ।

कुषाण शासक शिव और बुद्ध दोनों के उपासक थे और तदनुसार कुषाण मुद्राओं पर हम इन दोनों देवताओं के चित्र पाते हैं । कई कुषाण शासक वैष्णव हो गए । इस कोटि में निश्चित रूप से कुषाण शासक वासुदेव आता है जिसका नाम ही विष्णु के अवतार कृष्ण का पर्यायवाची है ।

vii. बौद्ध महायान संप्रदाय का उद्‌भव:

मौर्योत्तर काल में भारतीय धर्म में बहुत परिवर्तन हुए । इसके दो प्रमुख कारण थे- व्यापारियों और शिल्पियों के कार्यकलाप में असाधारण तेजी का आना और मध्य एशिया से भारी संख्या में नए-नए लोगों का आगमन । इसका विशेष प्रभाव बौद्ध धर्म पर पड़ा ।

नगरों में व्यापारियों और शिल्पियों का जमाव बढ़ता गया और बौद्ध भिक्षुणियाँ एवं भिक्षु उन व्यापारियों और शिल्पियों से नकद दान लेने का लोभ दबा नहीं पाए । आंध्र प्रदेश के नागार्जुनकोड के मठ-क्षेत्रों में भारी मात्रा में सिक्के मिले हैं । बौद्धों ने उन विदेशियों का भी स्वागत किया जो मांस खाते थे ।

इन बातों से तपस्वियों की तरह जीने वाले भिक्षुओं और भिक्षुणियों के दैनिक जीवन के नियमों में ढिलाई आई । अब वे सोना-चाँदी छूने लगे मांस खाने लगे और उत्तम कपड़े पहनने लगे । अनुशासन इतना शिथिल हो गया कि कुछ भिक्षु संघ को छोड़कर गृहस्थ जीवन में लौट आए ।

बौद्ध धर्म का यह नया रूप महायान कहलाने लगा । अपने पुराने शुद्धाचारी (प्यूरिटन) रूप में, बौद्ध धर्म में बुद्ध से संबंधित कुछ वस्तुओं की उनकी प्रतीक रूप में पूजा की जाती थी । ईसवी सन् के आरंभ में उन वस्तुओं की जगह बुद्ध की प्रतिमा ने ले ली । बौद्ध धर्म में मूर्तिपूजा का आरंभ होने से मूर्तिपूजा ब्राह्मण समुदायों में भी खूब चल पड़ी । महायान का उदय होने पर बौद्ध धर्म का पुराना शुद्धाचारी (प्यूरिटन) संप्रदाय हीनयान कहलाने लगा ।

सौभाग्यवश कनिष्क महायान का महान संरक्षक हो गया । उसने कश्मीर में बौद्धों की परिषद् आयोजित की । पार्षदों ने 3,00,000 शब्दों में एक ग्रंथ की रचना की जिसमें तीनों पिटको या बौद्ध साहित्य की पिटारियों की पूरी तरह व्याख्या की गई । कनिष्क ने इस ग्रंथ को लाल ताम्रपत्रों पर खुदवाया उन ताम्रपत्रों .को प्रस्तर-पात्र में रखा और उसके ऊपर स्तूप बनवा दिया । यदि यह प्राचीन कथा सही हो तो ताम्रपत्रों सहित इस स्तूप का पता चलने पर बौद्ध धर्मग्रंथ और सिद्धांतों पर नया प्रकाश पड़ सकता है । कनिष्क ने बुद्ध के स्मारकस्वरूप और भी अनेक स्तूप खड़े किए ।

viii. कला की गांधार और मथुरा शैली: 

विदेशी राजा भारतीय कला और साहित्य के उत्साही संरक्षक बन गए और उन्होंने वही उमंग दिखाया जो नया धर्म अपनाने वालों में होती है । कुषाण साम्राज्य ने विभिन्न शैलियों और देशों में प्रशिक्षित राजमिस्त्रियों और अन्य कारीगरों को इकट्‌ठा किया ।

इससे कला की कई नई शैलियाँ विकसित हुई जैसे गांधार और मथुरा शैली । मध्य एशिया से जो मूर्तिशिल्प की कृतियाँ प्राप्त हुई हैं उनमें बौद्ध धर्म के प्रभाव की छाया में स्थानीय और भारतीय दोनों लक्षणों का मिश्रण पाया जाता है ।

भारतीय शिल्पकारों का विशेषकर भारत के पश्चिमोत्तर सीमा प्रति गंधार में मध्य एशियाई यूनानी और रोमन शिल्पिकारों के साथ संपर्क हुआ । इससे नई शैली का उदय हुआ जिसमें बुद्ध की प्रतिमाएँ यूनान और रोम के मिश्रित शैली में बनाई गई । बुद्ध की केश-सज्जा यूनान-रोम की शैली में की गई ।

गांधार कला का प्रभाव मथुरा में भी पहुँचा हालांकि वह मूलत: देशी कला का केंद्र था । मथुरा में बुद्ध की विलक्षण प्रतिमाएँ बनीं परंतु इस जगह की ख्याति कनिष्क की शिरोहीन खड़ी मूर्ति को लेकर भी है, जिसके निचले भाग में कनिष्क का नाम खुदा है । यहाँ वर्धमान महावीर की भी कई प्रस्तरमूर्तियाँ बनीं ।

इसकी गुप्त-पूर्व मूर्तियों और अभिलेखों में कृष्ण उपेक्षित हैं जबकि मथुरा इनका जन्म-स्थान और बाल-लीला भूमि मानी जाती है । कला की मथुरा शैली ईसवी सन् की आरंभिक सदियों में विकसित हुई और इसकी लाल बलुआ पत्थर की कृतियाँ मथुरा के बाहर भी पाई जाती हैं । संप्रति मथुरा संग्रहालय में कुषाणकालीन मूर्तियों का भारत भर में सबसे अधिक संग्रह है ।

इसी काल में विंध्य से दक्षिण अनेक स्थानों में सुंदर-सुंदर कलाकृतियाँ पाई जाती हैं। महाराष्ट्र में चट्‌टानों को काट-काटकर सुंदर-सुंदर बौद्ध गुफाएँ बनाई गईं । आंध्र प्रदेश में नागार्जुनकोंड और अमरावती बौद्ध कला के महान केंद्र हो गए, जहाँ बुद्ध के जीवन की कथाएँ अनगिनत चट्‌टानों पर चित्रित की गई है ।

बौद्ध धर्म से संबंधित सबसे पुराने पट्‌टचित्र गया साँची और भरहुत में पाए जाते हैं जो ईसा-पूर्व दूसरी स्त्री के है । परंतु हम मूर्तिकला का और भी विकास ईसवी-सन की आरंभिक सदियों में पाते हैं ।

ix. साहित्य और विद्या

विदेशी राजाओं ने संस्कृत साहित्य का संरक्षण-संपोषण किया । काव्य शैली का पहला नमूना रुद्रदामन् का काठियावाड़ में जूनागढ़ अभिलेख है जिसका समय लगभग 150 ई॰ है । इसके बाद से अभिलेख परिष्कृत संस्कृत भाषा में लिखे जाने लगे हैं । फिर भी अभिलेखों की रचना प्राकृत भाषा में करने की परिपाटी ईसा की चौथी सदी या उसके आगे तक चलती रही ।

लगता है कि अश्वघोष जैसे कुछ महान साहित्यकारों को कुषाणों का संरक्षण प्राप्त था । अश्वघोष ने बुद्ध की जीवनी बुद्धचरित के नाम से लिखी । उसने सौन्दरनन्द नामक काव्य भी लिखा जो संस्कृत काव्य का उत्कृष्ट उदाहरण है । महायान बौद्ध संप्रदाय की प्रगति के फलस्वरूप अनगिनत अवदानों की रचना हुई । कई अवदान बौद्धों की मिश्रित संस्कृत भाषा में लिखे गए है । अवदानों का अन्यतम उद्देश्य, लोगों को महायान के उपदेशों से अवगत कराना है । इस कोटि की प्रमुख कृतियाँ हैं- महावस्तु और दिव्यावदान।

यूनानियों ने परदे का प्रचलन आरंभ कर भारतीय नाट्‌यकला के विकास में भी योगदान किया । चूंकि परदा यूनानियों की देन था इसलिए वह यवनिका के नाम से प्रसिद्ध हुआ । यवनिका शब्द यवन शब्द से बना है और यवन शब्द आयोनियन (यूनानियों की एक शाखा जिससे प्राचीन भारत के लोग परिचित थे) का संस्कृत प्रतिरूप है । आरंभ में यवन शब्द का प्रयोग यूनान के निवासियों के अर्थ में होता था पर बाद में सभी प्रकार के विदेशियों के लिए इस शब्द का प्रयोग होने लगा ।

धार्मिकेतर साहित्य का सबसे अच्छा उदाहरण है वास्यायन का कामसूत्र । इसका काल ईसा की तीसरी सदी माना जाता है । यह रतिशास्त्र या कामशास्त्र की प्राचीनतम पुस्तक है जिसमें रति और प्रीति का विवेचन किया गया है । इसमें नागरिक या नगरजीवी पुरुष का जीवन चित्रित किया गया है जो शहरी जीवन के विकास काल की झाँकी देता है ।

x. विज्ञान और प्रौद्योगिकी:

मौर्योत्तर काल में यूनानियों के संपर्क से खगोल और ज्योतिषशास्त्र में खूब प्रगति हुई । संस्कृत ग्रंथों में हमें ग्रह-नक्षत्रों के संचार संबंधी बहुत सारे यूनानी शब्द मिलते है । भारतीय ज्योतिष यूनानी चिंतन से प्रभावित हुआ । यूनानी शब्द हेरोस्कोप संस्कृत में होराशास्त्र हो गया जिसका अर्थ संस्कृत में फलित ज्योतिषशास्त्र होता है ।

यूनान के सिक्के जा आकृति में और छाप में उत्कृष्ट है वस्तुत: आहत मुद्राओं के ही सुधरे रूप हैं । यूनानी शब्द द्रक्म भारत में द्रम्म ही गया । बदले में यूनानी शासकों ने ब्राह्मी लिपि चलाई और अपने सिक्कों पर कई भारतीय रूपांक (मोटिफ) चलाए । कुत्ते, मवेशी, मसाले और हाथी दाँत की वस्तुएँ यूनानी लोग यहाँ से बाहर भेजते थे । उन्होंने भारत से कोई दस्तकारी सीखी या नहीं यह स्पष्ट नहीं है ।

फिर भी भारतीयों ने यूनानियों से चिकित्साशास्त्र, वनस्पतिशास्त्र और रसायनशास्त्र में कोई महत्वपूर्ण चीज नहीं प्राप्त की । इन तीनों शास्त्रों का विवेचन चरक और सुश्रुत ने किया हैं । चरकसंहिता में उन अनगिनत वनस्पतियों के नाम हैं जिनसे चिकित्सा के लिए दवाएं बनाई जाती थीं ।

पौधों को काटने और मिश्रित करने की जो प्रक्रियाएँ बतलाई गई हैं उनसे हमें मालूम होता है कि प्राचीन भारत में रसायनशास्त्र का ज्ञान काफी विकसित था । रोगों के इलाज में प्राचीन भारतीय वैद्य लोग मुख्यत: पौधों पर ही निर्भर थे जिन्हें संस्कृत में औषधि कहते हैं और इससे बनी दवा औषध कहलाती है ।

प्रौद्योगिकी अर्थात् टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में भी भारतीयों को मध्य एशियाई लोगों के संपर्क से लाभ हुआ । कनिष्क को पतलून तथा चुस्त पायजामा और लंब जूतों में चित्रित किया गया है । चमड़े के जूते बनाने का प्रचलन भारत में संभवत: इसी काल से आरंभ हुआ । भारत में प्रचलित तांबे के कुषाणकालीन सिक्के रोमन सिक्कों की नकल थे ।

इसी तरह भारत में कुषाणों ने जो सोने के सिक्के ढलवाए वे रोमन स्वर्णमुद्राओं की नकल थे । जानकारी मिलती है कि भारतीय और रोमन राजाओं के बीच दो राजदूतों का आदान-प्रदान हुआ था । 27-28 ई॰ में रोमन सम्राट् ऑगस्टस और 110-120 ई॰ में रोमन सम्राट् ट्राजन के दरबार में भारत से राजदूत भेजे गए थे ।

इस प्रकार, भारत के साथ रोम के संपर्क से प्रौद्योगिकी में नए-नए तरीके विकसित हुए होंगे । इस काल में शीशे के काम पर विदेशी विचारों और तरीकों का विशेष रूप से प्रभाव पड़ा । प्राचीन भारत में किसी भी अन्य काल में शीशे के काम में ऐसी प्रगति नहीं हुई जैसी इस काल में ।