बुद्ध काल के दौरान भारत 600 ईसा पूर्व: अर्थव्यवस्था, प्रशासन और सेना | India during Buddha Period 600 BC: Economy, Administration and Military. Read this article in Hindi to learn about:- 1. Buddha’s Period and Second Urbanization 2. Rural Economy during Buddha’s Period 3. Administration System 4. Military and Taxation 5. Democratic Implementation6. Classification of Family and Legal System.

Contents:

  1. बुद्ध का युग और द्वितीय नगरीकरण (Buddha’s Period and Second Urbanization)
  2. बुद्ध के युग ग्रामीण अर्थव्यवस्था (Rural Economy during Buddha’s Period)
  3. बुद्ध के युग में प्रशासन पद्धति (Administration System during Buddha’s Period)
  4. बुद्ध के युग में सेना और कराधान (Military and Taxation during Buddha’s Period)
  5. बुद्ध के युग में गणतांत्रिक प्रयोग (Democratic Implementation during Buddha’s Period)
  6. बुद्ध के युग में सांसारिक वर्गीकरण और विधि व्यवस्था (Classification of Family and Legal System in Buddha’s Period)

1. बुद्ध का युग और द्वितीय नगरीकरण (Buddha’s Period and Second Urbanization):

उत्तरी भारत में विशेषकर पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार में लोगों का भौतिक जीवन कैसा था, इसका चित्र पालि ग्रंथों और संस्कृत सूत्र-साहित्य के आधार पर पुरातात्त्विक साक्ष्य के साथ प्रस्तुत किया जा सकता है । पुरातत्त्व के अनुसार ईसा-पूर्व छठी सदी उत्तरी काला पालिशदार मृद्‌भांड अवस्था का आरंभ काल है ।

इस मृद्‌भांड को अंग्रेजी संक्षेपाक्षर एन॰ बी॰ पी॰ डब्ल्यू॰ अर्थात् नार्दर्न ब्लैक पालिशड वेयर कहते हैं । यह मृद्‌भांड बहुत ही चिकना और चमकीला होता था । इसकी बनावट उत्कृष्ट कोटि की थी और संभवतः इसका उपयोग धनवान लोग भोजनपात्र के रूप में करते थे । इस मृद्‌भांड के साथ आमतौर से लोहे के उपकरण भी पाए जाते हैं विशेषकर शिल्पकर्म और कृषिकर्म में काम आनेवाले उपकरण ।

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इसी काल में धातु-मुद्रा का प्रचलन भी आरंभ हुआ । पकी ईंटों और छल्लेदार कुओं का प्रयोग इस काल के मध्य में अर्थात् ईसा-पूर्व तीसरी सदी में शुरू हुआ ।

दोआब के स्थलों के अध्ययन से पता चलता है कि चित्रित धूसर मृद्‌भांड से पहले की अवस्था के काले-और-लाल मृद्‌भांड की अवस्था में ताम्रपाषाणयुगीन बस्तियाँ शुरू हुईं । वे चित्रित धूसर मृद्‌भांड की अवस्था में भरपूर बड़ी ।

कानपुर जिले के सर्वेक्षण से पता चलता है कि चित्रित धूसर भांड की अवस्था के आबाद क्षेत्र काले और लाल मृद्‌भांड की अवस्था के आबाद क्षेत्र से तीन गुणा अधिक थे । साथ ही ये आबाद क्षेत्र काले पालिशदार मृद्‌भांड की अवस्था में ढाई गुणा अधिक फैले । बस्तियों के फैलाव के साथ-साथ आबादी भी बढ़ती चली गई । इस प्रकार 500 ई॰ पू॰ के आसपास शुरू हुई काले पालिशदार मृद्‌भांड अवस्था में बस्तियों और आबादी की खूब बढ़ोतरी हुई ।

एन॰ बी॰ पी॰ डब्ल्यू॰ काल में ही गंगा के मैदानों में नगरीकरण की शुरुआत हुई । यह भारत का द्वितीय नगरीकरण कहलाता है । हड़प्पाई नगर ईसा-पूर्व 1900 के आसपास अंतिम रूप से लुप्त हो गए । इसके बाद लगभग 1400 वर्षों तक भारत में कोई शहर नहीं पाया जाता है ।

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ईसा-पूर्व लगभग पाँचवीं सदी में मध्य गंगा के मैदान में नगर। के प्रकट होने के साथ ही भारत में द्वितीय नगरीकरण की शुरुआत हुई । पालि और संस्कृत ग्रंथों में उल्लिखित अनेक नगरों को खोद निकाला गया है, जैसे कौशांबी, श्रावस्ती, अयोध्या, कपिलवस्तु, वाराणसी, वैशाली, राजगीर, पाटलिपुत्र और चंपा । प्रत्येक नगर में एन॰ बी॰ पी॰ डब्ल्यू॰ युग या उसकी मध्यावस्था की बस्तियाँ और मिट्‌टी की संरचनाएँ मिली हैं जो मौर्य-पूर्व काल की हो सकती हैं ।

घर अधिकतर कच्ची ईंट और लकड़ी के बने थे जो संभवतः मध्य गंगा के मैदानों की नम जलवायु में नष्ट हो गए हैं । यद्यपि पालि ग्रंथों में सतमंजिले प्रासादों का उल्लेख मिलता है, तथापि वे कहीं भी पाए नहीं गए हैं ।

अब जो संरचनाएँ निकली हैं वे भव्य नहीं- लगतीं लेकिन अन्यान्य भौतिक अवशेष संकेत देते हैं कि ताम्रपाषाणीय चित्रित धूसर मृद्‌भांड (पी॰ जी॰ डब्ल्यू॰) वाली बस्तियों की तुलना में उत्तरी काला पालिशदार मृद्‌भांड (एन॰ बी॰ पी॰ डब्ल्यू॰) वाली बस्तियों की आबादी में भारी वृद्धि हुई थी ।

अनेक नगर शासन के मुख्यालय थे । उनका मूल प्रयोजन जो भी रहा हो अंततः वे बाजार बन आए और वहाँ शिल्पी और वणिक आकर बसते गए । कहीं-कहीं तो शिल्पियों या कारीगरों की घनी आबादी हो गई । सद्‌दलपुत्त कुंभकार के पास वैशाली के शहर में कुंभकारों की 500 दुकानें थीं ।

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शिल्पी और वणिक दोनों अपने-अपने प्रमुखों के नेतृत्व में श्रेणियाँ बनाकर संगठित थे । हमें शिल्पियों की 18 श्रेणियों का उल्लेख मिलता है, लेकिन विशेष उल्लेख केवल लुहारों बढ़इयों चर्मकारों और रंगकारों की श्रेणियों का हुआ है । शिल्पी और वणिक दोनों नगरों में अपने-अपने नियत भागों में रहते थे ।

हम जानते हैं कि वाराणसी में वेस्स या वणिक लोगों की गली थी । इसी तरह हाथी दाँत के शिल्पियों की गली की भी चर्चा है । इस तरह श्रेणी व्यवस्था और स्थानीयकरण के परिणामस्वरूप शिल्पियों में विशेषीकरण आया । आमतौर से शिल्प या दस्तकारी वंशगत थी जिसके फलस्वरूप बेटा अपने कुल का व्यवसाय अपने पिता से सीख लेता था ।

शिल्पियों द्वारा बनाई गई वस्तुएँ वणिक लोग दूर-दूर तक ले जाते थे । पाँच सौ गाड़ी माल की चर्चा बार-बार आई है । इनमें कपड़ा हाथी दाँत की वस्तुएँ, बरतन आदि सामान रहते थे । इस काल के सभी प्रमुख नगर नदी के किनारे और व्यापार मार्गों के पास बसे थे और एक-दूसरे से जुड़े थे ।

श्रावस्ती नगरी कौशांबी और वाराणसी दोनों से जुड़ी थी । वाराणसी तो बुद्ध के युग में बड़ा व्यापार केंद्र था । व्यापार मार्ग श्रावस्ती से पूर्व और दक्षिण की ओर निकलकर कपिलवस्तु और कुशीनगर (कसिया) होते हुए वाराणसी तक गया था । सौदागर पटना में गंगा पार करके राजगीर जाते थे ।

वे नदी मार्ग से आधुनिक भागलपुर के निकट चंपा भी जाते थे । यदि जातक कथाओं को आधार मानें तो कोसल और मगध के वणिक मथुरा होते हुए उत्तर की ओर बढ़ते-बढ़ते तक्षशिला तक पहुँच जाते थे । इसी तरह वे मथुरा से दक्षिण और पश्चिम की ओर बढ़ते-बहुते उज्जैन और गुजरात के समुद्रतटीय प्रदेश तक पहुँच जाते थे ।

मुद्रा के प्रचलन से व्यापार को बढ़ावा मिला । वैदिक ग्रंथों में आए निष्क और शतमान शब्द मुद्रा के नाम माने जाते हैं । लेकिन प्रतीत होता है कि वे धातु के बने अलंकरण रहे होंगे । वस्तुतः प्राप्त सिक्के तो ईसा-पूर्व छठी-पाँचवीं सदी से पहले के नहीं हैं ।

मालूम होता है कि वैदिक काल में लेन-देन का काम वस्तु-विनिमय प्रणाली से चलता होगा और कभी-कभी पशु का इस्तेमाल भी मुद्रा की तरह किया जाता होगा । धातु के सिक्के सबसे पहले गौतम बुद्ध के युग में मिलते हैं । आरंभ में सिक्के अधिकतर चांदी के होते थे हालांकि कुछ तांबे के भी मिले हैं ।

ये सिक्के आहत (पंचमार्कड) कहलाते हैं क्योंकि ये धातु के टुकड़ों पर पेड़, मछली, साँड़, हाथी, अर्द्धचंद्र आदि किसी वस्तु की आकृति का ठप्पा मार कर बनाए जाते थे । ठप्पा मारकर बनाए जाने के कारण भारतीय भाषाओं में इन्हें आहत मुद्रा कहते हैं ।

इन मुद्राओं की सबसे पुरानी निधियाँ होइस पूर्वी उत्तर प्रदेश और मगध में मिली हैं । यों आरंभ काल के कुछ सिक्के तक्षशिला में भी मिले हैं । पालि ग्रंथों से मुद्रा के प्रचुर प्रचलन का संकेत मिलता है और यह भी पता चलता है कि वेतन और मूल्य का भुगतान सिक्कों में किया जाता था । सिक्के का प्रचलन इतना व्यापक हो गया था कि मरे चूहे का मूल्य भी सिक्के में का गया है ।

300 ई॰ पू॰ तक नगरीकरण का पूर्ण विकसित स्वरूप दिखाई देता है जिससे आबादी में अत्यंत वृद्धि हुई । एक आकलन के अनुसार, 2,70,000 लोग पाटलिपुत्र में, 60,000 लोग मथुरा में, 48,000 लोग विदिसा अथवा आधुनिक वेसनगर और वैशाली में, 40,000 लोग कौशांबी और पुराने राजगीर में और 38,000 लोग उज्जैन में रहते थे । पूर्वकाल में इतनी बड़ी आबादियों के होने की कल्पना नहीं की जा सकती है ।

नगरीकरण से राज्य को समर्थन मिला, व्यापार में वृद्धि हुई और पढ़ाई-लिखाई को प्रोत्साहन मिला । हड़प्पा सभ्यता के अंत के बाद लिखने की कला अशोक से करीब दो सौ साल पहले शुरू हुई हो । आरंभ के अभिलेख शायद पत्थर और धातु पर अंकित न होने के कारण लुप्त हो गए हैं ।

लेखन से न केवल नियमों और कर्मकांडों का संकलन संभव हुआ बल्कि लेखा-जोखा रखना भी आसान हो गया जो व्यापार में कर-संग्रह में और बड़ी-बड़ी वेतनभोगी सेना रखने में परमावश्यक था । इसी काल में सूक्ष्ममापन विषयक ग्रंथ भी रचे गए, जो शुल्चसूत्र कहलाते हैं । ये ग्रंथ प्रमाणित करते हैं कि इससे पूर्व लेखन-कला प्रचलित हो चली थी । इन ग्रंथों से खेतों और घरों के सीमांकन में सहायता मिली ।


2. बुद्ध के युग ग्रामीण अर्थव्यवस्था (Rural Economy during Buddha’s Period):

यद्यपि एन॰ बी॰ पी॰ डब्ल्यू॰ की कोई ग्रामीण बस्ती नहीं मिली है तथापि इस मृद्‌भांड के ठीकरे बिहार के मैदानों में और पूर्वी और मध्य उत्तर प्रदेश के मैदानों में 400 से भी अधिक स्थानों में पाए गए हैं । सुदृढ़ ग्रामीण आधार के बिना मध्य गंगा मैदान में शिल्प वाणिज्य और नगरीकरण का होना हम सोच भी नहीं सकते हैं ।

राजा पुरोहित शिल्पी वणिक, प्रशासक सैनिक अधिकारी और अन्यान्य कार्यकर्त्ता इन सबों का शहर में रहना तब तक संभव नहीं है जब तक कि इनके भरण-पोषण के लिए कर बलि (नजराना) और राजौश पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध न हों । नगरवासी कृषकेतर लोगों का पेट ग्रामवासी कृषक भरते थे ।

इसके बदले ग्रामवासियों को औजार कपड़ा आदि वस्तुएँ नगरवासी शिल्पियों और व्यापारियों से मिलती थीं । कहा गया है कि गाँव के एक व्यापारी ने नगर के एक वणिक के जिम्मे 500 हल रखे थे । अवश्य ही ये हल लोहे के फाल वाले होंगे । कौशांबी में एन॰ बी॰ पी॰ डब्ल्यू॰ में लोहे के कई औजार पाए गए हैं, जैसे कुल्हाड़ी, बसूला, छुरी, उस्तरा, कील, हँसिया आदि ।

इनमें से कई तो लगभग ईसा-पूर्व छठी-चौथी सदियों के स्तरों में मिले हैं, और लगता है ये उन किसानों के इस्तेमाल के लिए होंगे जो नगदी या जिसी कीमत चुकाकर इन्हें खरीदते होंगे । पालि ग्रंथों में अनगिनत गाँवों का उल्लेख है और लगता है कि नगर गाँवों के समूह के बीच बसते थे ।

प्रतीत होता है कि ऐसी सकेंद्रित ग्रामीण बस्तियाँ जहाँ सभी लोग एक जगह बसे हों और उनके खेत अधिकतर बस्ती के बाहर फैले हों सबसे पहले गौतम बुद्ध के युग में मध्य गंगा के मैदानों में उभरीं । पालि ग्रंथों में गाँव के तीन भेद किए गए हैं । प्रथम कोटि में वे सामान्य गाँव हैं जिनमें विविध वर्णों और जातियों का निवास हो ।

ऐसे गाँवों की संख्या सबसे अधिक मालूम पड़ती है और इनका मुखिया भोजक कहलाता था । द्वितीय कोटि में ऐसे उपनगरीय गाँव थे जिन्हें शिल्पी-ग्राम कह सकते हैं जैसे वाराणसी के निकट एक बढ़ई का गाँव या रथकार ग्राम था ।

अवश्य ही ऐसे गाँव अन्य गाँवों के लिए बाजार का काम करते होंगे और नगरों को देहात से जोड़ते होंगे । तृतीय कोटि में सीमांत गाँव आते हैं जो जंगल से संलग्न देहातों की सीमा पर बसे होते थे । इन गाँवों के निवासी मुख्यतः बहेलिये और शिकारी होते थे जो अपना आहार बटोर कर जीते थे ।

गाँव की भूमि विभिन्न प्रकार की खेती के लिए उपयुक्त टुकड़ों में विभाजित करके हर परिवार के बीच बँटी रहती थी । हर परिवार अपने-अपने हिस्से के खेतों में अपने परिवार के लोगों को तथा आवश्यकतानुसार कृषि-मजदूरों को भी लगाकर खेती करता था । खेतों को घेरने और सिंचाई के लिए नहर बनाने का काम ग्राम-प्रमुख के तत्वावधान में किसान लोग मिलजुलकर कर लेते थे ।

किसान अपनी उपज का छठा भाग कर या राजांश के रूप में चुकाते थे । कर की वसूली सीधे राजा के कर्मचारी करते थे और आमतौर से किसान और राज्य दोनों के बीच में कोई दरमियानी हकदार नहीं होता था । परंतु कुछ गाँव ब्राह्मणों और वणिकों को उपभोग के लिए सौंप हुए थे । खेत के ऐसे बड़े-बड़े टुकड़ों की भी सूचना है जहाँ दासों और कृषि-मजदूरों को लगाकर खेती कराई जाती थी ।

धनी किसान गहपति (पालि शब्द) कहलाते थे । ये लगभग वैश्यों के ही एक उपवर्ग में आते थे । इस काल में पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार में पैदा होने वाला मुख्य अनाज चावल था । पालि ग्रंथों में नाना प्रकार के धानों और धान खेतों का वर्णन है । इस काल के पालि और संस्कृत ग्रंथों में रोपाई का पर्यायवाची शब्द मिलता है और लगता है कि धान की रोपाई की प्रणाली बुद्ध के युग में व्यापक रूप में प्रचलित हो गई थी ।

धान की रोपाई या पानी में धान उपजाने की प्रणाली से उत्पादकता में भारी बढ़ोतरी हुई । इसके अतिरिक्त किसान जौ, दलहन ज्वार कपास और ईख की भी खेती करते थे । लोहे के फाल के प्रचलन से तथा इलाहाबाद और राजमहल के बीच की जलोढ़ मिट्‌टी की उर्वरता के कारण खेती, में भारी उन्नति हुई ।

तकनीकी ज्ञान नगरीय और ग्रामीण अर्थतंत्र की प्रगति का मूलंमत्र बन गया । मध्य गंगा घाटी के वर्षापोषित जंगलों से भरे कड़ी मिट्‌टी वाले क्षेत्र की सफाई खेती और बस्ती के उपयुक्त बनाने में लोहे से बड़ा लाभ हुआ । लोहार यह जानते थे कि लोहे के औजारों को कड़ा कैसे बनाएँ ।

राजघाट (वाराणसी) में मिले कुछ औजारों से प्रकट होता है कि वे सिंहभूम और मयूरभंज में मिलने वाले लौह अयस्क से बनाए गए थे । इस प्रकार यह स्पष्ट होता है कि लोग देश की समृद्धतम लोहा खानों से परिचित हो गए थे जिससे शिल्पकर्म और कृषिकर्म के लिए औजारों की संख्या अवश्य ही बड़ी होगी ।

भौतिक अवशेषों और पालि ग्रंथों के अध्ययन से अर्थव्यवस्था की जो तस्वीर उभरती है वह पश्चिमी उत्तर प्रदेश की उत्तर वैदिककालीन ग्रामीण अर्थव्यवस्था से भिन्न है और उस अर्थव्यवस्था से भी भिन्न है जो बिहार और उत्तर प्रदेश के कुछ भागों के कई ताम्रपाषाण समुदायों में पाई गई हैं ।

इसी क्षेत्र में समुन्नत खाद्य-उत्पादक अर्थव्यवस्था मध्य गंगा के मैदानों की जलोढ़ मिट्‌टी पर सबसे पहले फैलती हुई दिखाई देती है । यह ऐसी अर्थव्यवस्था थी जिससे न केवल उत्पादकों का भरणपोषण होता था बल्कि ऐसे बहुत-सारे अन्य लोगों का भी होता था जो न किसान थे न शिल्पी । इस अर्थव्यवस्था के कारण करों की नियमित वसूली और लंबे समय के लिए सेना का रखरखाव संभव हुआ और इसी से ऐसी परिस्थिति पैदा हुई जिसमें बड़े-बड़े जनपद राज्य बन और टिक सकते थे ।


3. बुद्ध के युग में प्रशासन पद्धति (Administration System during Buddha’s Period):

यों इस काल में हम बहुत-से राज्य देखते हैं पर उनमें केवल कोसल और मगध शक्तिशाली हुए । दोनों क्षत्रिय वर्ण के आनुवंशिक राजाओं द्वारा शासित सर्वांगसंपन्न राज्य थे । जातकों से अर्थात् बुद्ध के पूर्वजन्मों की कथाओं से ज्ञात होता है कि जनता अत्याचारी राजाओं और उनके प्रधान पुरोहितों को गद्दी से उतार देती थी और उनकी जगह नए राजाओं को बैठा देती थी ।

परंतु निष्कासन की घटना उतनी ही विरल थी जितनी निर्वाचन की । राजा के पद की प्रतिष्ठा सबसे ऊपर थी और उसके जानमाल की रक्षा का विशिष्ट प्रबंध रहता था । वह बुद्ध जैसे धार्मिक महापुरुषों के आगे ही नतमस्तक होता था । राजा प्रथमतः युद्ध-नेता होता था जो अपने राज्य के लिए विजय प्राप्त करता जाता था । बिंबिसार और अजातशत्रु इसके उदाहरण हैं ।

राजा अनेक अधिकारियों की सहायता से शासन करता था जो ऊपर से लेकर नीचे गाँव के प्रधान तक क्रमबद्ध रहते थे । उच्च कोटि के अधिकारी महामात्र कहलाते थे । वे कई तरह के कार्य करते थे, जैसे मंत्री, सेनानायक, न्यायाधिकारी, महालेखाकार और अंत:पुर प्रधान के कार्य ।

शायद आयुक्त नाम से विदित अधिकारियों का वर्ग भी कुछ राज्यों में इसी तरह का कार्य करता था । प्रशासन में मंत्रियों की भूमिका बड़े महत्व की थी । मगध का वर्षकार और कोसल का दीर्घचारायण सफल और प्रभावशाली मंत्री हुए । इनमें पहले ने वैशाली के लिच्छवियों के बीच फूट का बीज बोकर लिच्छवि गणराज्य पर अजातशत्रु का प्रभुत्व जमाया; और दूसरे ने कोसल के राजा की भारी सहायता की ।

जान पड़ता है कि उच्च अधिकारी और मंत्री अधिकतर ब्राह्मण या पुरोहित वर्ग से चुने जाते थे । सामान्यतः वे राजा के अपने गोत्र के लोगों से नहीं लिए जाते थे । अब वैदिक काल जैसा केवल बांधवाश्रित राजतंत्र नहीं रहा । कोसल और मगध दोनों में चांदी की आहत मुद्रा के प्रचलन के बावजूद प्रभावशाली ब्राह्मणों और सेट्‌टियों को पारितोषिक के तौर पर राजस्व वाले ग्राम दिए जाते थे ।

ऐसा करने में उन्हें अपने गोत्र के लोगों से अनुमति लेना आवश्यक नहीं था जबकि उत्तर वैदिक काल में यह आवश्यक था । लेकिन ऐसे दान में दानग्राही को केवल राजस्व वसूलने का हक दिया जाता था शासन करने का नहीं । ग्रामांचल का प्रशासन गाँव के मुखिया के हाथ में रहता था ।

आरंभ में वह कबायली लड़ाकू टोली के नेता के रूप में काम करता था इसलिए वह ग्रामणी कहलाता था जिसका अर्थ था ग्राम या कबायली लड़ाकू टोली का नेता । जब जीवन में स्थिरता आ गई और हल से खेती करने की प्रणाली जम गई तब कबायली लडाकू टोली स्थायी रूप से कृषक हो गई । अतः मौर्य-पूर्वकाल में ग्रामणी भी अपना रूप बदलकर गाँव का मुखिया हो गया । गाँव का मुखिया विभिन्न नामों से पुकारा जाता था, जैसे ग्रामभोजक, ग्रामणी या ग्रामिक ।

ग्रामणी पदनाम श्रीलंका में आज भी चलता है । कहा जाता है कि बिंबिसार ने 86,000 ग्रामिकों को आहूत किया था । संख्या कहावती हो सकती है, लेकिन इससे प्रकट होता है कि ग्राम प्रधान का बड़ा महत्व था और उसका राजा के साथ सीधा संबंध रहता था । वह ग्रामवासियों पर कर निर्धारित करता था और वसूलता भी था । वह अपने इलाके में शांति-सुव्यवस्था भी बनाए रखता था । कभी-कभी अत्याचारी ग्राम प्रधान को गाँव के लोग दंड भी देते थे ।


4. बुद्ध के युग में सेना और कराधान (Military and Taxation during Buddha’s Period):

राज्य की शक्ति में वास्तविक वृद्धि का संकेत इस बात से मिलता था कि उसकी पेशेवर या वैतनिक सेना कितनी बड़ी है । सिकंदर के आक्रमण के समय मगध के नंदवंशी राजा के पास 20,000 घुड़सवार सैनिक, 20,000 पैदल सैनिक, 2,000 चार घोड़े वाले रथ और लगभग 6000 हाथी थे ।

अश्वचालित रथ का महत्व उत्तरी-पूर्वी ही नहीं उत्तर-पश्चिमी भारत में भी घटता जा रहा था जहाँ कि उसका प्रचलन वैदिक जनों ने किया था । पश्चिमोत्तर भारत के शासक लोग बहुत कम हाथी रखते थे जबकि उनमें से बहुतों के पास उतने घोड़े थे जितने मगध नरेश के पास ।

भारी संख्या में हाथी रहने से ही मगध के राजा अधिक शक्तिशाली माने जाते थे । भारी स्थायी सेना का भरणपोषण राज्यकोष से करना होता था । हमें ज्ञात है कि नंद राजाओं के पास अपार संपत्ति थी और इसी के बल पर वे सेना को पालते थे लेकिन हमें यह मालूम नहीं कि किन-किन विशेष उपायों से वे इतना कर-संचय कर पाते थे ।

राजस्व प्रणाली ठोस नींव पर खड़ी थी । योद्धा और पुरोहित अर्थात् क्षत्रिय और ब्राह्मण करों से मुक्त थे और कर का सारा बोझ किसानों के सिर पर था जिनमें अधिकतर वैश्य या गृहपति थे । वैदिक काल में कबीले के लोग अपने-अपने सरदार को स्वेच्छापूर्वक बलि अप्रित करते थे पर बुद्ध के युग में आकर वह किसानों द्वारा अनिवार्य रूप से देय हो गई और उसकी वसूली के लिए अधिकारी नियुक्त हुए जो बलिसाधक कहलाते थे ।

जान पड़ता है कि राजा किसानों से उनकी उपज’ का छठा भाग कर के रूप में लेता था । करों का निर्धारण और वसूली गाँव के मुखिया की सहायता से राजकर्मचारी करते थे । लेखन के प्रचलन से कर-निर्धारण और कर-संग्रह में सुविधा हुई होगी । आहत मुद्राओं की अनेकानेक निधियों के मिलने से प्रकट होता है कि भुगतान नकद और जिंस (वस्तुएँ) दोनों रूपों में होता था ।

पूर्वोत्तर भारत में कर धान के रूप में चुकाया जाता था । इन करों के अतिरिक्त किसानों को राजा के काम में बेगार देना (अर्थात् मुफ्त में खटना) पड़ता था । जातक कथाओं में आया है कि कर के दुर्वह भार से बचने के लिए किसान राज्य छोड़ देते थे ।

शिल्पियों और व्यापारियों से भी कर वसूला जाता था । शिल्पियों को महीने में एक दिन राजा के लिए काम करना पड़ता था और व्यापारियों से उनके माल की बिक्री पर चुंगी वसूली जाती थी । चुंगी वसूलने वाला अधिकारी शौल्किक या शुल्काध्यक्ष कहलाता था ।

क्षेत्रीय या जनपदीय राज्यों की स्थापना ने पहले की सभा और समिति को समाप्त कर दिया । इस तरह की जन सभाएँ उत्तर वैदिक काल में लुप्त हो गई थीं । चूकि ये सभा-समितियाँ कबायली सगंठन थीं, इसलिए ज्यो-ज्यों कबीले विघटित होकर वर्ण में लीन होते और अपनी पहचान खोते गए त्यों-त्यों उक्त सगंठन शिथिल होते-होते लुप्त हो गए ।

कबीलों का स्थान वर्णमूलक और जातिमूलक समुदायों ने लिया इसलिए धर्मशास्त्रकारों ने जातीय नियमों और कुलाचारों को समुचित महत्व दिया । फिर भी ये नियम सामाजिक विषयों तक ही सीमित रहे । जन सभाएँ ऐसे छोटे-छोटे राज्यों में ही सफल हो सकती थीं जहाँ कबीले के सभी सदस्य आसानी से जुटाए जा सकते हों जैसा कि वैदिक काल में संभव रहा होगा ।

कोसल और मगध जैसे बड़े-बड़े राज्यों के उदित होने के बाद ऐसी बड़ी जन सभाएँ आयोजित करना संभव नहीं रहा जिनमें विभिन्न सामाजिक वर्गों तथा साम्राज्य के विभिन्न भागों के लोग जुट सकें । महज आवागमन की सुविधा इतनी कम थी कि नियमित बैठकें भी नहीं की जा सकती थीं ।

फिर पुरानी जन सभाएँ कबायली थीं अत: नए राज्यों में बसे वैदिकेतर कबीलों को उन सभाओं में स्थान नहीं दिया जा सकता था । इस तरह परिवर्तित स्थिति में पुरानी जन सभाओं का टिका रहना असंभव जैसा था ।

उनकी जगह परिषद् नाम की एक छोटी-सी समिति बनी जिसमें केवल ब्राह्मण ही सदस्य होते थे । इस काल में भी सभाएँ तो रहीं किंतु एकतांत्रिक राज्यों में नहीं । वे शाक्यों लिच्छवियों आदि के छोटे-छोटे गणतांत्रिक राज्यों में चालू रहीं ।


5. बुद्ध के युग में गणतांत्रिक प्रयोग (Democratic Implementation during Buddha’s Period):

गणतांत्रिक शासन पद्धति या तो सिंधु घाटी में रही या पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के अंतर्गत हिमालय की तराइयों में । सिंधु घाटी में पाए गए गणराज्य वैदिक कबीलों के अवशेष रहे होंगे । हो सकता है कि कुछ गणराज्यों ने एकतांत्रिक राज्यों का स्थान लिया हो । कुछ मामलों में बिहार और उत्तर प्रदेश के लोग कबायली समानता के पुराने आदर्शों से प्रेरित रहे होंगे जिनमें एकल राजा को अधिक महत्व नहीं दिया जाता था ।

गणराज्यों में वास्तविक सत्ता कबायली अल्पतंत्रों (सीमित लोगों के संघटनों) के हाथ में होती थी । शाक्यों और लिच्छिवियों के गणराज्यों में शासक वर्ग एक ही गोत्र और एक ही वर्ण का होता था । वैशाली के लिच्छिवियों के सभागार में 7707 राजा (प्रतिनिधि) बैठते थे, लेकिन ब्राह्मण इसमें शामिल नहीं थे ।

मौर्योत्तर काल में मालवों और क्षुद्रकों के गणराज्य में क्षत्रियों और ब्राह्मणों तक ही नागरिकता सीमित थी, दासों और मजदूरों को इससे बाहर रखा गया था । पंजाब में व्यास नदी के तटवर्ती एक राज्य में ऐसे ही लोग सदस्य हो सकते थे जो राज्य को कम-से-कम एक हाथी दे सकें । सिंधु घाटी में अल्पतांत्रिक राज्य का यह अच्छा उदाहरण है ।

शाक्यों और लिच्छवियों का प्रशासन तंत्र सरल था । इसमें राजा उपराजा सेनापति और भांडागारिक (राज्यकोषाध्यक्ष) होते थे । कहा गया है कि लिच्छिवियों के गणराज्य में एक के ऊपर एक सात न्यायपीठ होते थे जो एक ही मसले की सुनवाई बारी-बारी से सात बार करते थे । लेकिन यह इतनी अच्छी व्यवस्था है कि इसके होने पर विश्वास करना कठिन है ।

जो भी हो बुद्ध के युग में कुछ ऐसे राज्य भी थे जिनका शासन आनुवंशिक राजा नहीं बल्कि जनसभाओं के प्रति उत्तरदायी लोग करते थे । इस प्रकार, प्राचीन गणराज्यों के लोगों का राजनीतिक सत्ता में बराबरी का हिस्सा भले ही न रहा हो परंतु भारत में गणतंत्र की परंपरा की प्राचीनता बुद्ध के युग तक पाते हैं ।

गणतंत्र और राजतंत्र के बीच बहुत-सी भिन्नताएँ थीं । राजतंत्र में प्रजा से राजस्व पाने का दावेदार एकमात्र राजा होता था जबकि गणतंत्र में इसका दावेदार गण या गोत्र का प्रत्येक प्रधान होता था जो राजन् कहलाता था । 7707 लिच्छवि राजाओं में हर एक का अलग-अलग कोषागार और प्रशासन तंत्र था । प्रत्येक राजतंत्र की नियमित स्थायी सेना होती थी और राज्य-सीमा के भीतर प्रजा के समूह या समूहों को शस्त्रास्त्र रखने की अनुमति नहीं थी ।

लेकिन कबायली अल्पतंत्र में हर राजा अपनी छोटी-छोटी सेना अपने सेनापति के अधीन रख सकता था ताकि वह दूसरे का मुकाबला कर सके । राजतंत्र में ब्राह्मणों का बड़ा प्रभाव था परंतु आरंभिक गणराज्यों में उनका कोई स्थान नहीं था और न उन्होंने अपने धर्मशास्त्रों में इस तरह के राज्यों को मान्यता ही दी ।

अंत में गणराज्य और राजतंत्र के बीच मुख्य अंतर यह था कि गणतंत्र का संचालन अल्पतांत्रिक सभाएँ करती थीं न कि कोई एक व्यक्ति लेकिन राजतंत्र में यह काम एक व्यक्ति करता था ।

गणतंत्र की परंपरा मौर्यकाल से कमजोर होने लगी । मौर्यकाल में एकतांत्रिक राज्य कहीं अधिक मजबूत और प्रचलित थे । प्राचीन मनीषियों ने राजतंत्र को ही प्रचलित और उत्कृष्ट शासन पद्धति माना । ये राज्य, शासन और राजपद सभी को एक समझते थे । चूंकि बुद्ध के युग में राज्य सुप्रतिष्ठित हो चुका था, विद्वान लोग इसके उद्‌भव पर विचार करने लगे ।

प्राचीन बौद्ध पालिग्रंथ दीघनिकाय में बताया गया है कि पुरातन काल में मनुष्य सुख से रहते थे । धीरे-धीरे वे धनवान होते गए और घर बनाकर अपनी स्त्रियों के साथ रहने लगे । तब से धन और स्त्री को लेकर आपस में झगड़े होने लगे । ऐसे झगड़ों को दूर करने के लिए उन्होंने एक व्यक्ति को अपना प्रमुख चुन लिया ताकि वह शांति की व्यवस्था करें और लोगों की रक्षा करें ।

इस रक्षा के प्रतिफल में उन्होंने अपने प्रमुख को अपने धान्य में से कुछ देते रहने की प्रतिज्ञा की । वही प्रमुख राजा कहलाने लगा और इसी प्रकार राज्य का जन्म हुआ ।


6. बुद्ध के युग में सांसारिक वर्गीकरण और विधि व्यवस्था (Classification of Family and Legal System in Buddha’s Period):

भारतीय विधि और न्याय व्यवस्था का उद्भव इसी काल में हुआ । पहले कबायली कानून चलते थे जिसमें वर्णभेद का कोई स्थान नहीं था । लेकिन इस काल में आकर कबायली समुदाय स्पष्टतया चार वर्णों में बँट गया-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र ।

अतः धर्मसूत्रों में हर वर्ण के लिए अपने-अपने कर्त्तव्य तय कर दिए गए, और वर्णभेद के आधार पर ही व्यवहार-विधि (सिविल लॉ) और दंड-विधि (क्रिमिनल लॉ) बनी । जो वर्ण जितना ऊँचा था वह उतना ही पवित्र माना गया और व्यवहार एवं दंड-विधि में उससे उतनी ही उच्च कोटि के नैतिक आचरण की अपेक्षा की गई । शूद्रों पर हर प्रकार की अपात्रता लाद दी गई ।

वे धार्मिक और कानूनी अधिकारों से वंचित किए गए और समाज में सबसे निचले दर्जे में रखे गए । उन्हें उपनयन संस्कार से वंचित किया गया । वे यदि ब्राह्मणों और अन्य वर्णों के प्रति अपराध करते थे तो वे कठोर दंड पाते थे । दूसरी ओर शूद्रों के प्रति किए गए अपराधों का हल्का दंड दिया जाता था ।

धर्मशास्त्रकारों ने यह प्रचार किया कि शूद्रों का जन्म सृष्टिकर्ता के चरण से हुआ है, इसलिए उच्चवर्ण वाले विशेषतः ब्राह्मण शूद्रों के संपर्क से परहेज करते उनका छुआ खाना नहीं खाते और उनके साथ वैवाहिक संबंध नहीं करते थे । शूद्रों को किसी ऊँचे पद पर पर रखा नहीं जा सकता था और उससे भी महत्व की बात यह है कि उन्हें दास शिल्पी और कृषि मजदूर के रूप में द्विजों की सेवा करने को कहा गया ।

इस विषय में जैन और बौद्ध संप्रदायों ने भी उनकी स्थिति नहीं सुध परी । उसे नए बौद्ध संघ में प्रवेश की अनुमति भले ही दे दी गई पर उनका सामान्य स्थान नीचे के नीचे ही रह गया । कहा गया है कि गौतम बुद्ध ब्राह्मणों की सभा में गए, क्षत्रियों की सभा में गए और गृहपतियों की सभा में गए, लेकिन शूद्रों की सभा में उनके जाने का कोई उल्लेख नहीं है ।

दीवानी और फौजदारी मामले राजा के प्रतिनिधि देखते थे, जो झटपट कठोर दंड दे देते थे, जैसे कोड़ा लगाना, सिर काट लेना, जीभ खींच लेना आदि । बहुधा फौजदारी मामलों में दंड का विधान बदले की भावना से प्रेरित होता था, अर्थात् आँख फोड़ने वाले की आंख निकाल ली जाती थी और दाँत तोड़ने वाले के दाँत ।

ब्राह्मणों के विधिग्रंथों में नियम बनाते समय विभिन्न वर्णों की सामाजिक स्थिति का ध्यान तो रखा ही गया, उन वैदिकेतर कबायली समूहों के रीतिरिवाजों को भी अनदेखा न किया गया, जो वर्णाश्रित ब्राह्मणिक समाज में घुल-मिल गए थे और जिनकी संख्या विजयाभियानों के फलस्वरूप बढ़ती जा रही थी । इनमें से कुछ देसी कबायलियों की सामाजिक उद्‌भव-कथाएँ गढ़ ली गईं और अपने ही नियमों से शासित होने की छूट दे दी गई ।