भारतीय संस्कृति पर निबंध | Indian Culture in Hindi!

1. प्रस्तावना ।

2. संस्कृति का अर्थ ।

3. सभ्यता और संस्कृति

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4. भारतीय संस्कृति और उसकी विशिष्टताएं ।

5. उपसंहार ।

यूनान मिश्र रोमां मिट गये जहां से । कुछ बात है कि मिटती नहीं हस्ती हमारी ।।

1. प्रस्तावना:

किसी देश या समाज के परिष्कार की सुदीर्घ परम्परा होती है । उस परम्परा में प्रचलित उन्नत एवं उदात्त विचारों की भूखला ही किसी देश या समाज की संस्कृति कहलाती है, जो उस देश या समाज के जीवन को गति प्रदान करती है । संस्कृति में किसी देश, कालविशेष के आदर्श व उसकी जीवन पद्धति सम्मिलित होती है ।  परम्परा से प्राप्त सभी विचार, शिल्प, वस्तु किसी देश की संस्कृति कहलाती है ।

2. संस्कृति का अर्थ:

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संस्कृति शब्द संस्कार ने बना है । शाब्दिक अर्थ में संस्कृति का अर्थ है: सुधारने वाली या परिष्कार करने वाली । यजुर्वेद में संस्कृति को सृष्टि माना गया है । जो विश्व में वरण करने योग्य है, वही संस्कृति है । डॉ॰ नगेन्द्र ने लिखा है कि संस्कृति मानव जीवन की वह अवस्था है, जहां उसके प्राकृत राग द्वेषों का परिमार्जन हो जाता है ।

इस तरह जीवन को परिकृत एवं सम्पन्न करने के लिए मूल्यों, स्थापनाओं और मान्यताओं का समूह संस्कृति है । किसी भी देश की संस्कृति अपने आप में समग्र होती है । इससे उसका अत: एवं बाल स्वरूप स्पष्ट होता है । संस्कृति परिवर्तनशील है ।

यही कारण है कि एक काल के सांस्कृतिक रूपों की तुलना दूसरे काल से तथा दूसरे काल के सांस्कृतिक रूपों की अभिव्यक्तियों की तुलना नहीं करनी चाहिए, न ही एक दूसरे को निकृष्ट एवं श्रेष्ठ बताना चाहिए । एक मानव को सामाजिक प्राणी बनाने में जिन तत्त्वों का योगदान होता है, वही संस्कृति है । निष्कर्ष रूप में मानव कल्याण में सहायक सम्पूर्ण ज्ञानात्मक, क्रियात्मक, विचारात्मक गुण संस्कृति कहलाते हैं । संस्कृति में आदर्शवादिता एवं संक्रमणशीलता होती है ।

3. सभ्यता और संस्कृति:

सभ्यता को शरीर एवं संस्कृति को आत्मा कहा गया है; क्योंकि सभ्यता का अभिप्राय मानव के भौतिक विकास से है जिसके अन्तर्गत किसी परिकृत एवं सभ्य समाज की वे स्थूल वस्तुएं आती हैं, जो बाहर से दिखाई देती हैं, जिसके संचय द्वारा वह औरों से अधिक उन्नत एवं उच्च माना जाता है ।

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उदाहरणार्थ, रेल, मोटर, सड़क, वायुयान, सुन्दर वेशभूषा, मोबाइल । संस्कृति के अन्तर्गत वे आन्तरिक गुण होते हैं, जो समाज के मूल्य व आदर्श होते हैं, जैसे-सज्जनता, सहृदयता, सहानुभूति, विनम्रता और सुशीलता । सभ्यता और संस्कृति का आपस में घनिष्ठ सम्बन्ध है; क्योंकि जो भौतिक वस्तु मनुष्य बनाता है, वह पहले तो विचारों में जन्म लेती है । जब कलाकार चित्र बनाता है, तो वह उसकी संस्कृति होती है ।

सभ्यता और संस्कृति एक-दूसरे के पूरक हैं । संखातिविहीन सभ्यता की कल्पना नहीं की जा सकती है । जो सभ्य होगा, वह सुसंस्कृत होगा ही । सभ्यता और संस्कृति का कार्यक्षेत्र मानव समाज है । भारतीय संस्कृति गंगा की तरह बहती हुई धारा है, जो क्लवेद से प्रारम्भ होकर समय की भूमि का चक्कर लगाती हुई हम तक पहुंची है ।

जिस तरह गंगा के उद्‌गम स्त्रोत से लेकर समुद्र में प्रवेश होने वाली अनेक नदियां एवं धाराएं मिलकर उसमें समाहित हैं, उसी तरह हमारी संस्कृति भी है । हमारी संस्कृति विश्व की प्राचीनतम संस्कृतियों में से एक है । अनेक प्रहारों को सहते हुए भी इसने अपनी सांस्कृतिक विरासत को अक्षुण्ण रखा है ।

हमारे देश में शक, हूण, यवन, मंगोल, मुगल, अंग्रेज कितनी ही जातियां एवं प्रजातियां आयीं, किन्तु सभी भारतीय संस्कृति में एकाकार हो गयीं । डॉ॰ गुलाबराय के विचारों में: ”भारतीय संस्कृति में एक संश्लिष्ट एकता है ।

इसमें सभी संस्कृतियों का रूप मिलकर गंगा में मिले हुए, नदी-नालों के जी की तरह (गांगेय) पवित्र रूप को प्राप्त करता है । भारतीय संस्कृति की अखण्ड धारा में ऐसी सरिताएं हैं, जिनका अस्तित्व कहीं नहीं दिखाई देता । इतना सम्मिश्रण होते हुए भी वह अपने मौलिक एवं अपरिवर्तित रूप में विद्यमान है ।”

4. भारतीय संस्कृति की विशिष्टताएं:

भारतीय संस्कृति कई विशिष्टताओं से युक्त है । जिन विशिष्टताओं के कारण वह जीवित है, उनमें प्रमुख हैं:

1. आध्यात्मिकता: आध्यात्म भारतीय संस्कृति का प्राण है । आध्यात्मिकता ने भारतीय संस्कृति के किसी भी अंग को अछूता नहीं छोड़ा है । पुनर्जन्म एवं कर्मफल के सिद्धान्त में जीवन की निरन्तरता में भारतीयों का विश्वास दृढ़ किया है और अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष के चार पुराषार्थो को महत्च दिया गया है ।

2. सहिष्णुता की भावना:  भारतीय संस्कृति की महत्पपूर्ण विशेषता है: उसकी सहिष्णुता की भावना । भारतीयों ने अनेक आक्रमणकारियों के अत्याचारों को सहन किया है । भारतीयों को सहिष्णुता की शिक्षा राम, बुद्ध. महावीर, कबीर, नानक, चैतन्य महात्मा गांधी आदि महापुरुषों ने दी है ।

3. कर्मवाद:  भारतीय संस्कृति में सर्वत्र करणीय कर्म करने की प्रेरणा दी गयी है । यहां तो परलोक को ही कर्मलोक कहा गया है । गीता में कर्मण्येवाधिकाररते मां फलेषु कदाचन पर बल दिया गया है । अथर्ववेद में कहा गया है-कर्मण्यता मेरे दायें हाथ में है, तो विजय निश्चित ही मेरे बायें हाथ में होगी ।

4. विश्वबसुत्च की भावना:  भारतीय संस्कृति सारे विश्व को एक कुटुम्ब मानते हुए समस्त प्राणियों के प्रति कल्याण, सुख एवं आरोग्य की कामना करती है । विश्व में किसी प्राणी को दुखी देखना उचित नहीं समझा गया है । सर्वे भद्राणी सुखिन: संतु सर्वे निरामया: । सर्वे भद्राणि पश्यंतु मां कश्चित् दुःखमायुयात ।

5. समन्वयवादिता:  भारतीय संस्कृति की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण विशेषता है समन्वयवादिता । यहां के रुषि, मनीषी, महर्षियों व समाज सुधारकों ने सदैव समन्वयवादिता पर बल दिया है । भारतीय संस्कृति की यह समन्वयवादिता बेजोड़ है । अनेकता में एकता होते हुए भी यहां अद्‌भुत समन्वय है । भोग में त्याग का समन्वय यहां की विशेषता है ।

6. जाति एवं वर्णाश्रम व्यवस्था:  भारतीय संस्कृति में वर्णाश्रम एवं जाति-व्यवस्था श्रम विभाजन की दृष्टि से काफी महत्त्वपूर्ण थी । यह व्यवस्था गुण व कर्म पर आधारित थी, जन्म पर नहीं । 100 वर्ष के कल्पित जीवन को ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, संन्यास के अनुसार बांटा  गया । यह व्यवस्था समाज में सुख-शान्ति व सन्तोष की अभिवृद्धि में सहायक थी ।

7. संस्कार:  भारतीय संस्कृति में संस्कारों को विशेष महत्त्व दिया गया है । ये संस्कार समाज में शुद्धि की धार्मिक क्रियाओं से सम्बन्धित थे । इन अनुष्ठानों का महत्च व्यक्तियों के मूल्यों, प्रतिमानों एवं आदर्शों को अनुशासित व दीक्षित रखना होता है ।

8. गुरू की महत्ता:  भारतीय संस्कृति में गुरा को महत्त्व देते हुए उसे सिद्धिदाता, कल्याणकर्ता एवं मार्गदर्शक माना गया है । गुरा का अर्थ है: अन्धकार का नाश करने वाला ।

9. शिक्षा को महत्त्व: भारतीय संस्कृति में शिक्षा को पवित्रतम प्रक्रिया माना गया है, जो बालकों का चारित्रिक, मानसिक, नैतिक, आध्यात्मिक विकास करती है ।

10. राष्ट्रीयता की भावना:  भारतीय संस्कृति में राष्ट्रीयता की भावना को विशेष महत्त्व दिया गया है । जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी कहकर इसकी वन्दना की गयी है ।

11. आशावादिता:  भारतीय संस्कृति आशावादी है । वह निराशा का प्रतिवाद करती है ।

12. स्थायित्व:  यह भारतीय संस्कृति की महत्त्वपूर्ण विशेषता है । यूनान, मिश्र, रोम, बेबीलोनिया की संस्कृति अपनी चरम सीमा पर पहुंचकर नष्ट हो गयी है । भारतीय संस्कृति अनेक झंझावातों को सहकर आज भी जीवित है ।

13. अतिथिदेवोभव:  भारतीय संस्कृति में अतिथि को देव माना गया है । यदि शत्रु भी अतिथि बनकर आये, तो उसका सत्कार करना चाहिए ।

5. उपसंहार:  संस्कृति का निस्सन्देह मानव-जीवन में विशेष महत्त्व है । संस्कृति हमारा मस्तिष्क है, हमारी आत्मा है । संस्कृति में ही मनुष्य के संस्कार हस्तान्तरित होते हैं । संस्कृति वस्तुत: मानव द्वारा निर्मित आदर्शो और मूल्यों की व्यवस्था है, जो मानव की जीवनशैली में अभिव्यक्ति होती है । सभ्यता और संस्कृति एक दूसरे के पूरक हैं ।

भारतीय संस्कृति आज भी अपनी विशेषताओं के कारण विश्वविख्यात है । अपने आदर्शो पर कायम है । समन्वयवादिता इसका गुण है । चाहे धर्म हो या कला या भाषा, भारतीय संस्कृति ने सभी देशी-विदेशी संस्कृतियों को अपने में समाहित कर लिया । जिस तरह समुद्र अपने में विभिन्न नदियों के जल को एकाकार कर लेता है, भारतीय संस्कृति इसका एक श्रेष्ठ उदाहरण है ।

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