Read this article in Hindi to learn about the invasion of Europeans in Japan and its consequences.

जापान का एकान्तवास:

प्रशांत महासागर की गोद में बसा हुआ जापान आज पूर्वी एशिया का एक महान् देश माना जाता हे । बारहवीं शताब्दी तक यूरोप के लोग जापान के नाम या अस्तित्व से परिचित नहीं थे । पुनर्जागरणकाल में यूरोप के साहसिक नाविक जब एशिया के समुद्री मार्गों की छानबीन करने लगे तो वे जापान भी पहुँचे । सोलहवीं शताब्दी के अन्त तक स्पेनिश और सत्तरहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में डच तथा अँगरेज नाविक भी जापान पहुँचने लगे ।

शुरू में जापान का इन यूरोपीय व्यापारियों से अच्छा सम्बन्ध रहा, लेकिन बाद में उनकी अवांछनीय गतिविधियों से तंग आकर जापान ने उनकी गतिविधियों पर पाबन्दी लगा दी और उनसे सम्पर्क तोड़ लिया । लगभग दो शताब्दियों तक जापान स्वेच्छा से पृथकत्व की नीति का अनुसरण करता रहा । किसी भी जापानी को टापू से बाहर निकलने की अनुमति नहीं दी जाती थी और न किसी ऐसे बड़े जहाज बनाने की अनुमति दी जाती थी, जिसे समुद्र में चलाया जा सके ।

कुछ डच तथा चीनियों को छोड़कर किसी भी विदेशी को जापान में प्रवेश करने की अनुमति नहीं दी गयी । 1825 ई॰ में जापानी अधिकारियों ने घोषणा की कि यदि कोई विदेशी जहाजी जापान में उतरेगा तो उसे गोली मार दी जायेगी । साथ ही, जापानी नाविकों और को हिदायत दी गयी कि वे विदेशी लोगों से किसी प्रकार का सम्पर्क नहीं रखें और जो भी विदेशी तट पर पाया जाय उसे पकड़कर वहीं मार दें । इस प्रकार, पाश्चात्य जगत् के लिए जापान एक बन्द पुस्तक-सा हो गया ।

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स्वेच्छा से ग्रहण किये गये इस पृथकत्व तथा बाद में इसे छोड़ देने का कारण जापान में घटित होनेवाली राजनीतिक घटनाओं में निहित था यूरोप की ही तरह जापान में भी सामंती युद्धों की अवधि के बाद सरकारी निरंकुशतावाद का एक दौर चला । इस दौर में सार्वजनिक शांति नौकरशाही द्वारा बनायी रखी गयी । एक लड़ाकू वर्ग को समाज में एक विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग के रूप में बनाकर रखा गया । साथ ही, एक धनी तथा ताकतवर वणिकवर्ग भी समाज में उभरता रहा ।

उस समय जब सोलहवीं सदी में प्रथम यूरोपीय इन टापुओं पर उतरा, जापानी लोग असंख्य उपजातियों और वंशों में विभक्त थे । उनके आपसी सम्बन्ध अनेकानेक युद्धों और प्रतिद्वन्द्विता से भरे पड़े थे । क्रमश: तोकुगावा नामक एक उपजाति ने अपना प्रभाव बढ़ाया और शोगुन का पद प्राप्त कर लिया । शोगुन एक प्रकार का सैनिक स्वामी होता था जो सम्राट् के नाम पर शासन चलाता था और 1603 ई॰ में स्थापित आनुवंशिक तोकुगावा-शोगुन शासन 1867 ई॰ तक जारी रहा ।

अनेकानेक अनुभवों के आधार पर प्रारम्भिक तोकुगावा-शोगुन इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि जापान मेख रहनेवाले विदेशी व्यापारी तथा धर्मप्रचारक जापान की आन्तरिक राजनीति में हस्तक्षेप के लिए उतावले हैं तथा यूरोपियों के समर्थक जापानियों को सत्ता प्राप्त करने में सहायता देकर जापान पर अपनी प्रभुता स्थापित करने का स्वप्न देख रहे हैं ।

अत: प्रथम तीन तोकुगावा-शोगुनों ने बाहरी दुनिया के साथ किसी भी प्रकार का सम्बन्ध न रखने की कठोर नीति अपनायी । उन्होंने सम्राट को राजनीति से पूर्णत: पृथक कर दिया तथा उसे सांसारिक झंझटों से बिलकुल मुक्त एक नैसर्गिक तथा पौराणिक व्यक्तित्व के रूप में स्थापित किया । सम्राट् क्योटो में अलग-थलग बन्द पड़ा रहा और शोगुनों ने थेडो (बाद में टोक्यो) में अपनी कचहरी तथा सरकार कायम कर ली ।

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एक प्रकार के सैनिक नौकरशाही अथवा तानाशाही के माध्यम से शोगुनों ने देश का शासन चलाया । राज्य का मजबूत शासनतंत्र बडे-बड़े भू-पतियों पर नियन्त्रण रखता था । ये बड़े-बड़े भू-पति और उनके सशस्त्र सहायक जिन्हें अब लड़ने-भिड़ने से कोई काम नहीं रह गया था) अब एक भूमि पर आधारित सामंती वर्ग में परिवर्तित हो गये और अपना लगभग सारा समय नगरों में बिताने लगे ।

कोमोडोर पेरी का आगमन:

उन्नीसवीं सदी के प्रारम्भ में प्रशांत महासागर में यूरोपीयों की हलचलें शुरू हुईं । जापान के समुद्र में कुछ रूसी जहाज आये और उस क्षेत्र में ब्रिटेन का व्यापार भी कुछ बढ़ा । इन हरकतों से जापानी शासकवर्ग कुछ व्याकुल हुआ । 1825 ई॰ में एक आदेश निकाला गया और विदेशियों के जापान में प्रवेश पर पूरी रोक लगा दी गयी ।

जापान ने अपने-आपको और भी मजबूती से पृथकतावाद के चादर में ढँक लिया । तभी चीन में प्रथम अफीम-युद्ध हुआ और उसका महान् पड़ोसी चीन यूरोपीयों के हाथों पराजित हो गया । जापान के लिए यह एक बड़ी चेतावनी थी । अपने राष्ट्रीय पृथकतावाद को बनाये रखकर उसने विदेशी अतिक्रमण से बचने के प्रयास को और मजबूत कर लिया ।

लेकिन, अधिक दिनों तक जापान इस बला को नहीं टाल सका । तुरंत ही उसे अपना दरवाजा खोलने का सन्देश पश्चिम से प्राप्त हुआ । उसे यह सन्देश यूरोप से नहीं, वरन् संयुक्त राज्य अमेरिका से प्राप्त हुआ । चीन के लिए अफीम युद्ध का जो महत्व था, वह महत्व जापान के लिए एक अमेरिकी एडमिरल की माँग का था ।

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बात यह थी कि उन्नीसवीं सदी के मध्य आते-आते अमेरिका भी प्रशांत महासागर में रुचि लेने लगा था । 1853 ई॰ में अमेरिकी नौ-सेना के कोमोडोर पेरी जापान के तट पर उपस्थित हुआ और प्रार्थना की कि जापान के बन्दरगाहों को अमेरिका के लिए खोल दिया जाय । संयुक्त राज्य अमेरिका की इस माँग पर जापान में बहुत ही अधिक वाद-विवाद हुआ, लेकिन अन्तत: जापानी सरकार ने अमेरिका से संधि करना स्वीकार कर लिया ।

1854 ई॰ में जापान और अमेरिका के बीच एक व्यापारिक संधि पर हस्ताक्षर हुए । ऐसी ही संधियाँ अन्य यूरोपीय शक्तियों के साथ भी की गयीं । लेकिन, खुले हुए जापानी बन्दरगाहों पर विदेशियों की सुविधाएँ, राज्य-क्षेत्रातीत अधिकार और चुंगी के मामले में असंगतियों के कारण ये सारी सन्धियाँ असमान थीं । गर्वीले और सभ्य जापानियों ने शीघ्र ही यह अनुभव किया कि श्वेत जाति के लोग उन्हें पिछड़ा मानते हैं और उन्हें समानता का दर्जा देने को तैयार नहीं हैं ।

सन्धियों के परिणाम:

इस प्रकार, जापान पाश्चात्य देशों के सम्पर्क में आ गया । जापान को अपने राज्यक्षेत्र में विदेशियों को कई तरह की सुविधाएँ देनी पड़ीं, जिससे उसकी प्रभुसत्ता सीमित हो गयी ।

इस घटना के कई महत्वपूर्ण परिणाम हुए जिनमें निम्नलिखित अत्यन्त महत्त्वपूर्ण थे:

पाश्चात्य देशों के सम्पर्क में आने से जापान के लोगों ने यह देखा कि उन देशों के लोग बहुत उन्नत हैं । वहाँ ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में बड़ी उन्नति हुई है । इसके फलस्वरूप वहाँ औद्योगिक क्रांति हुई है, जिससे उन देशों ने पर्याप्त विकास किया है । जापानियों ने सोचना प्रारम्भ किया कि जापान को भी पाश्चात्य सभ्यता-संस्कृति को अपनाकर यूरोप तथा अमेरिका के देशों की तरह प्रगतिशील बनना चाहिए । इस प्रकार, पाश्चात्य जगत् के साथ सम्पर्क के फलस्वरूप जापान के लोगों में एक अभूतपूर्व मानसिक जागरण हुआ जिसने जापान के आधुनिकीकरण का पृष्ठाधार तैयार कर दिया ।

जापान का कायाकल्प:

पश्चिम के साथ सम्पर्क बनाने के प्रथम परिणामों में एक था जापान में हुयी राजनीतिक उथल-पुथल । विदेशियों को प्रवेश करने की अनुमति तथा संधि-अधिकारों में दी गयी छूटों ने एक विदेशी-विरोधी आन्दोलन को जन्म दिया । कमजोर और पतनोन्मुख सामंतवाद को ही पश्चिम के प्रवेश के लिए जिम्मेवार माना गया । पाश्चात्य-विरोधी आन्दोलन शीघ्र ही एक राजनीतिक आन्दोलन में परिवर्तित हो गया । विदेशियों को बाहर निकालने के उद्देश्य से शोगुन को हटाकर उसकी जगह सम्राद की शक्ति को पुनर्स्थापित करने की दिशा में एक आन्दोलन प्रारम्म हुआ ।

1867 ई॰ में “सम्राट महान् है और बर्बर विदेशियों का नाश हो” के नारों के साथ शोगुनेट शासन का तख्ता पलट दिया गया । कम-से-कम नाम के लिए ही सही, सम्राट् की सारी शक्तियाँ पुन: वापस मिल गयीं । परन्तु, जब अशान्ति और दलीय युद्धों का दौड़ समाप्त हुआ तब वास्तविकता में यह पाया गया कि यह तो मात्र सत्ता का हस्तांतरण ही हुआ था अर्थात् शोगुनों के हाथों से सत्ता हटकर सतशुमा तथा चोशु वंशों के हाथों में चली गयी थी ।

फिर भी, एक वास्तविक क्रांति हो चुकी थी, क्योंकि नया शासन पश्चिमी सभ्यता का प्रबल समर्थक था । वह जापान का एक बिल्कुल ही नया चेहरा प्रस्तुत करते हुए पश्चिम से सम्बद्ध कई नयी नीतियाँ अपनाने लगा । एक जापानी लेखक के शब्दों में- ”1868 ई॰ से जापान जितनी तेजी से हो सकता था उतनी तेजी से पाश्चात्य विचारों के पीछे दौड़ने लगा ।”

यह मेइजी युग था और जापान के पश्चिमीकरण का महान् युग । शीघ्र ही जापान एक राष्ट्रराज्य में बदल गया । सामंतवाद समाप्त कर दिया गया । सामन्तों को या तो पैन्दान दे दी गयी या उनकी जागीरें खरीद ली गयीं । सामन्ती वंशों को समाप्त कर दिया गया । विधि-व्यवस्था को पाश्चात्य नमूने पर पुनर्संगठित किया गया तथा विधि के समक्ष समता के सिद्धान्त को मान्यता दी गयी ।

वर्ग अथवा वंश के नाम पर भेदभाव किये बिना सभी व्यक्तियों पर समान रूप के कानून लागू करने की व्यवस्था की गयी । प्रशियाई सेना के ढाँचे के आधार पर एक नयी सेना का संगठन किया गया 1871 ई॰ में समुराई ने दो तलवारें लेकर चलने के अपने परम्परागत अधिकारों को खो दिया । अब वह एक सेना के पदाधिकारी के रूप में काम करने लगा कुछ बाद में कुछ-कुछ ब्रिटेन की जलसेना के ढाँचे पर आधारित एक नौ-सेना की स्थापना की गयी ।

मुद्रा-नियन्त्रण का अधिकार केन्द्रीय सरकार के हाथों में चला गया और दशमलव इकाइयोंवाली एक राष्ट्रीय मुद्रा-पद्धति अपनायी गयी । एक राष्ट्रीय डाक-व्यवस्था आरम्भ की गयी । इन सबके ऊपर एक राष्ट्रीय शिक्षा-व्यवस्था-जिसने शीघ्र ही जापान में शिक्षित व्यक्तियों का एक ऊँचा प्रतिशत स्थापित कर दिया-की स्थापना की गयी ।

बौद्धधर्म के खिलाफ कदम उठाये गये तथा बौद्ध-विहारों की सम्पत्ति जक कर ली गयी । धर्म के नाम पर सरकार ने शिंटो विचारधारा को प्रोत्साहित किया । इसने राष्ट्रीय भावना को एक धार्मिक रंग दिया । 1889 ई॰ में एक संविधान निर्मित हुआ । इसके अनुसार नागरिक स्वतन्त्रता के सिद्धान्त को मान्यता मिली तथा दो सदनों वाली एक संसद का निर्माण हुआ ।

सम्राट् को राज्य का सर्वोच्च सत्ता माना गया और मंत्रिमंडल को उसके प्रति उत्तरदायी बनाया गया । नये जापान में व्यवहार में सम्राट् ने कभी सक्रिय रूप से शासन नहीं किया । वह अब भी राजनीति से अलग रहा । राजनीतिक नेतागण, जो संसद् के प्रति पूर्ण रूप से जिम्मेवार न थे, अपने विचारानुसार राष्ट्रीय हित में शासन चलाते थे ।

इस राजनीतिक क्रान्ति से पूर्व जापान में औद्योगीकरण का सिलसिला प्रारम्भ हो गया था । रेलवे, टेलीग्राफ, प्रकाश-स्तम्भ, बन्दरगाह आदि बनवाये गये । कोयले की खानें खोदी गयीं तथा रेशम के कारखाने स्थापित हुये । वाध्यपोत बनानेवाली एक जापानी कम्पनी स्थापित की गयी । एक स्टॉक एक्सचेंज तथा चेम्बर ऑफ कॉमर्स भी स्थापित हुये ।

1854 ई॰ में जापान का विदेशी-व्यापार लगभग कुछ भी नहीं था । पर, शताब्दी के अन्त तक वह 20,00,00,000 पौंड प्रतिवर्ष की दर तक पहुँच चुका था । 1872 ई॰ में जो जनसंख्या 3,30,00,000 थी, वह 1902 ई॰ में बढ़कर 4,60,00,000 हो गयी । जापानी द्वीप-साम्राज्य ग्रेट ब्रिटेन की तरह, अपनी घनी आबादी के लिए स्ववांछित जीवन-स्तर बनाये रखने के निमित्त आयात और निर्यात पर आधारित हो गया । संक्षेप में, बहुत ही कम समय में जापान आधुनिक पूँजीवाद की सभी महत्वपूर्ण विशेषताओं से लैस हो गया और यही अन्तत: उसे साम्राज्यवाद की ओर ले गया ।

जापानी साम्राज्यवाद:

मेइजी पुनर्स्थापना के बाद जापान ने असमान संधियों से छुटकारा पाने का प्रयास किया । इस प्रयास में प्रारम्भिक असफलता ने उसे इस बात का अनुभव करा दिया कि अपने को एक महाशक्ति के रूप में बदलकर ही वह अपनी अभिलाषा को पूरा कर सकता है ।

जापान भली-भांति समझ गया कि राष्ट्रीय शक्ति ही विश्व-राजनीति का महत्वपूर्ण तथ्य है । पूर्वी एशिया के सन्दर्भ में तो यह विशेष रूप से सत्य था । यह पश्चिमी देशों की शक्ति ही थी, जिसने चीन-जैसे बड़े देश को अपमानित किया था और स्वयं उसे भी असमान संधि के जाल में बाँधा था ।

यह शक्ति-प्रयोग की ही धमकी थी, जिसने जापान को अपमान सहने को विवश किया था । अत: जापान ने पूरी जागरूकता के साथ अपने को एक महान् सैनिक शक्ति के रूप में परिवर्तित करना प्रारम्भ कर दिया । यह काम तो सैनिक प्रवृत्ति को सन्तुष्ट करने तथा आत्मरक्षा की भावना से प्रेरित होकर ही शुरू हुआ था, लेकिन जापान ने शीघ्र ही अपने पड़ोसियों के प्रति एक दबावपूर्ण गतिशील नीति अपनानी प्रारम्भ कर दी । जापानी सैनिकवाद का प्रारम्भ हो चुका था । 1872 ई॰ में जापान ने पाश्चात्य शक्तियों की तरह ही चीन के साथ एक संधि-सम्बनग् की माँग की और जब कोरिया ने उसके व्यापार के लिए अपने बन्दरगाहों को खोलने से इनकार किया तब उसने उसके तटों पर बमबारी की । 1874 ई॰ में जापान ने चीन पर आक्रमण किया तथा 1878 और 1879 ई॰ में क्रमश: बोनिन तथा रिउकिया टापुओं पर कब्जा जमा लिया । आगे भी उसने अपनी सैनिक शक्ति का प्रदर्शन करने का निश्चय किया ।

1894 ई॰ में उसने कोरिया के प्रश्न पर चीन से झगड़ा किया तथा उस पर युद्ध की घोषणा करके उसे पराजित कर दिया । 1894-95 के चीन-जापान युद्ध में जापान की विजय ने जापानी सैन्यवाद और साम्राज्यवाद को बहुत प्रोत्साहित किया । पचीस वर्षों से वह अपनी अभिलाषा-पूर्ति का स्वप्न देखता रहा था; अपनी सैन्यशक्ति का निर्माण करता रहा था और अपने साधन एकत्र करता रहा था ।

चीन-जापान युद्ध में विजय हासिल करके उसने अपनी तैयारियों की परीक्षा ले ली थी, अपनी शक्ति को विश्व के समक्ष प्रदर्शित कर दिया था और अपनी तात्कालिक अभिलाषा की पूर्ति कर ली थी । संक्षेप में, वह सफल रहा था और उसकी सफलताओं ने उसमें नयी इच्छाओं को जन्म दिया था ।

दस वर्षों के अन्दर ही उसने यूरोप की एक महान् शक्ति रूस को चुनौती दी, कोरिया और मंचूरिया के प्रश्न को लेकर उससे उलझ गया और 1904-05 में युद्ध कर बैठा । इस रूस-जापान युद्ध में रूस पराजित हुआ और उसे बुरी तरह अपमानित होना पड़ा । जापान की यह महान् उपलब्धि थी । इसके पन्द्रह वर्षों के उपरान्त उसने कोरिया पर अपना आधिपत्य जमा लिया और बीस वर्षों के अन्दर उसने और प्रगति की ।

जब 1914 ई॰ में प्रथम विश्वयुद्ध आरम्भ हुआ, तब ग्रेट ब्रिटेन के मित्र के रूप में (इस मित्रता का आधार थी 1902 ई॰ का आंग्ल-जापानी संधि) जापान का पहला काम था 23 अगस्त, 1914 को जर्मनी के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर देना । शीघ्र ही जापान ने शांतुंग में अपने सैनिक भेज दिये, कियाउ-चाऊ में जर्मनी को जो सुविधाएँ प्राप्त थीं उनपर कब्जा कर लिया, जर्मन पूँजी से चीन में निर्मित रेल-लाइनों पर अधिकार कर लिया और जर्मनी की खान-सम्पत्ति को अपने नियन्त्रण में ले लिया ।

जर्मनी के साथ युद्ध करने के बहाने चीन के अत्यधिक क्षोभ के बावजूद उसने चीनी तटस्थता का उस्थ्यंन करते हुए शांतुंग में अपना पैर जमा लिये । जनवरी, 1915 में चीन के समक्ष उसने प्रसिद्ध ‘इक्कीस माँगों’ के साथ एक असाधारण दस्तावेज प्रस्तुत किया । व्यावहारिक रूप में यह दस्तावेज चीन पर जापान के प्रभुत्व का ही एक नया रूप था । विश्वयुद्ध के बाद 1919 ई॰ में पेरिस का शांति-सम्मेलन हुआ इस सम्मेलन में जापान वह सारी चीजें पा गया, जिनकी उसने इच्छा की थी । पेरिस शांति-सम्मेलन में जापान अपने साम्राज्यवादी विस्तार के प्रथम युग के शिखर पर पहुँच गया ।

इस युद्ध ने एक दूसरे रूप से भी जापानी साम्राज्यवाद को प्रोत्साहित किया । सम्पूर्ण युद्ध की अवधि में जापान का औद्योगीकरण अपनी अबाध गति से होता रहा । जिस समय यूरोप की महाशक्तियाँ यूरोपीय युद्ध में फंसी थी, जापान ने कई बाजारों पर अधिकार जमा लिया और युद्धोपरान्त संपूर्ण एशिया में वस्त्र भेजनेवाले प्रमुख देशों में एक जापान भी बन गया ।

यूरोपीय व्यवसायियों की तुलना में जापान कम लागत पर उत्पादन कर सकता था । उसकी कीमतें ऐसी होती थीं जिस कीमत पर एशिया का निर्धन जनसमूह खरीदारी करने के अधिक योग्य हो सकता था । अपनी पहाड़ी टापुओं में घने रूप से बसे हुए ये लोग कच्चे माल का निर्यात कर, उत्पादकों को बसाकर अपना जीवन-स्तर बनाये रखते थे ।

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