Read this article in Hindi to learn about China and the western powers.

उन्नीसवीं सदी के प्रारम्भ में चीन पृथकता की नीति का अवलम्बन कर रहा था । वह संसार के किसी देश के साथ किसी स्तर पर सम्बन्ध-सम्पर्क कायम करना नहीं चाहता था । लेकिन, चीन की समृद्धि पश्चिमी राष्ट्रों के आकर्षण का मुख्य केन्द्र थी । यूरोप के विविध राज्य किसी तरह चीन का दरवाजा खोलकर उसके भीतर घुसकर व्यापार करना चाहते थे सत्रहवीं सदी के अन्तिम चरण से ही चीन में उनका आना-जाना शुरू हो गया था ।

परन्तु चीन की सरकार द्वारा उनके प्रवेश पर कई तरह से रुकावटें डाली जाती थीं । बहुत कोशिश के बाद यूरोपीय व्यापारियों को यह आज्ञा मिली कि वे कैण्टन शहर से बाहर रहकर छोटे पैमाने पर चीन से व्यापार कर सकते थे । आरंभ में यूरोपीय व्यापारी चीन से केवल माल ही खरीदते थे । बेचने के लिए उनके पास कोई वस्तु न थी । चीनी, रेशम, चाय और चीनी मिट्टी के बरतन की माँग यूरोप में बहुत थी ।

यूरोपीय व्यापारी इन्हीं वस्तुओं को खरीदकर यूरोप के बाजार में बेचते थे तथा चीन को इसका मूल्य सोना-चाँदी में चुकाते थे । अठारहवीं सदी के द्वितीय चरण में इंग्लैण्ड में बहुत बड़े पैमाने पर सूती कपड़ों का उत्पादन शुरू हुआ । इन कपड़ों का चीन एक अच्छा खरीददार हो सकता था । अत: इंग्लैण्ड का प्रयास चीन को विलायती कपड़ों का बाजार बना लेना था ।

प्रथम अफीम युद्ध:

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अँगरेज व्यापारी कपड़ों के व्यापार-मात्र से ही सन्तुष्ट नहीं थे । वे एक ऐसे माल की खपत चीन में बढ़ाना चाहते थे जिससे चीन के निर्यात माल की अपेक्षा आयात माल की मात्रा अधिक हो जाय और उन्हें चीन के माल के लिए सोना-चाँदी के रूप में कीमत न अदा करनी पड़े ।

इस समय ईस्ट इण्डिया कम्पनी के व्यापारी भारत में प्रचुर मात्रा में अफीम की खेती करा रहे थे और वे इस प्रयास में लग गये कि चीन में अफीम बेचने के लिए बाजार तैयार किया जाय । अँगरेज व्यापारी चोरी-चोरी चीन में अफीम भेजने लगे और चीनवासियों में इसके सेवन की आदत डालने लगे । इसमें उनको पूरी सफलता मिली । 1825 ई॰ तक चीन के लोग अफीम के इतने आदी हो गये कि विदेशियों का अफीम-व्यापार चमक उठा । किसी भी सरकार के लिए यह चिन्ता का विषय हो सकता है ।

चीन की सरकार चीनवासियों के बीच अफीम के प्रचार से बहुत चिन्तित हो गयी और उसने इस आपत्तिजनक व्यापार को बन्द करने का निश्चय किया । इसलिए, 1800 ई॰ में सरकार ने आज्ञा निकाली और अफीम के क्रय-विक्रय को बन्द कर दिया गया । लेकिन, इससे अफीम का व्यापार रुका नहीं । यूरोपीय व्यापारी अब तस्करी करने लगे और छुपाकर अफीम लाने लगे ।

चीन के भ्रष्ट सरकारी पदाधिकारी भी इस व्यापार में सहायक थे, क्योंकि उन्हें पूस के रूप में कुछ आमदनी हो जाती थी । इस प्रकार, चीन में अवैध अफीम का व्यापार निरन्तर बढ़ता गया । चीन की सरकार की चिन्ता अब बहुत बढ़ गयी और उसने इस अवैध व्यापार को रोकने के लिए सख्त कार्रवाई करने का निश्चय किया । इस सख्त कार्रवाई से अँगरेज व्यापारियों को बड़ा घाटा हुआ ।

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अपने व्यापार पर उनको किसी तरह का नियन्त्रण मंजूर नहीं था । वे अब यह समझने लगे कि उन्हें इस बात का पूरा अधिकार है कि वे जिस माल को चाहें, चीन में बेच सकते हैं । अब उन्होंने चीन के साथ युद्ध करने का निश्चय किया और एक ऐसी परिस्थिति उत्पन्न कर दी जिससे 1839 ई॰ में चीन और ब्रिटेन का युद्ध शुरू हो गया । यही, प्रथम अफीम युद्ध था ।

प्रथम अफीम युद्ध के कारण कुछ और भी थे । इसका एक कारण तो ब्रिटेन की साम्राज्यवादी लिप्सा थी । एशिया के अनेक भू-क्षेत्रों पर अधिकार करने में सफलता प्राप्तकर लेने से ब्रिटेन का हौसला बहुत बढ़ गया था और वह चीन के विशाल भूक्षेत्र पर अधिकार कायम करने की कामना रखता था । चीन में प्रचुर मात्रा में कच्चा माल उपलब्ध था और विशाल जनसंख्यावाला देश चीन ब्रिटिश वस्तुओं का अच्छा बाजार बन सकता था ।

तत्काल के लिए चीन में अधिक-सें-अधिक व्यापारिक सुविधाएँ प्राप्त करना भी ब्रिटेन का लक्ष्य था । चीन की सरकार विदेशियों को व्यापारिक सुविधा देने के पक्ष में नहीं थी । विदेशी व्यापारियों पर अनेक तरह के प्रतिबन्ध लगे थे । वे केवल कैण्टन के बन्दरगाह से ही कीठांग के मार्फत व्यापार कर सकते थे और उन्हें अधिक चुंगी देनी पड़ती थी । विदेशियों के आवागमन पर चीनी सरकार कड़ी निगरानी रखती थी । ये सारे प्रतिबन्ध विदेशियों में कुढ़न पैदा करते थे ।

अँगरेजों के प्रतिनिधियों के साथ भी चीन की सरकार का सम्मानजनक व्यवहार नहीं होता था । इन सारी शिकायतों को दूर करने के लिए युद्ध का सहारा लेना जरूरी हो गया । इसलिए जन चीन की सरकार ने अफीम के व्यापार पर कठोर नियन्त्रण की व्यवस्था की तो चीन और अँगरेजों के बीच युद्ध अनिवार्य हो गया ।

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अँगरेजों ने युद्ध की घोषणा कर दी और ब्रिटिश नौ-सेना ने कैण्टन बन्दरगाह को घेर लिया । ब्रिटेन की प्रबल सामुद्रिक शक्ति के समक्ष अंततोगत्वा चीन की सैन्य-शक्ति को झुकना पड़ा और प्रशांत महासागर के तटवर्ती कई चीनी प्रदेश और टापू अँगरेजों के कब्जे में आ गये । चीन के लिए युद्ध में टिकना कठिन हो गया और उसने ब्रिटेन से समझौता कर लेना ही उचित समझा । अतएव, 29 अगस्त, 1842 को चीन और ब्रिटेन के बीच ‘नानकिंग की संधि’ हुई और इस प्रकार प्रथम अफीम युद्ध का अन्त हुआ ।

नानकिंग की सन्धि ने चीन के कैण्टन, अमोय, फूचाऊ, निगपो और शंघाई के पाँच बन्दरगाहों को बिटेन के व्यापारियों के लिए खोल दिया और हांगकांग का द्वीप हमेशा के लिए ब्रिटेन को दे दिया गया । कोहांग के व्यापारिक एकाधिपत्य को समाप्त कर दिया गया । चीन की सरकार ने पाँच प्रतिशत तटकर निर्धारित किया और आयात और निर्यात की वस्तुओं पर पारस्परिक समझौते द्वारा ही तटकर बढ़ाने की बात स्वीकार की गयी । ब्रिटेन को चीन सरकार से युद्ध हरजाना के रूप में दो करोड़ दस लाख डॉलर मिले । इसमें अफीम की वह कीमत भी शामिल थी जिसको चीन सरकार के विशेष पदाधिकारी ने जब्त कर लिया था ।

यूरोपीय देश और चीन:

नानकिंग की संधि ने चीन का दरवाजा यूरोपीय व्यापारियों के लिए खोल दिया । ब्रिटेन की तरह यूरोप के अन्य देश भी चीन के साथ पृथक-पृथक सन्धि करने के लिए दौड़ पड़े । अमेरिकी राष्ट्रपति टाइलर का एक प्रतिनिधि चीन पहुँचा । 24 फरवरी, 1844 को चीन और संयुक्त राज्य अमेरिका के बीच एक संधि हुई । इस संधि की शर्तें प्राय: वे ही थीं जो नानकिंग की संधि की थीं ।

लेकिन, इसमें एक महत्वपूर्ण नयी शर्त थी इसके अनुसार यह तय हुआ कि किसी अमेरिकी नागरिक को अभियुक्त के रूप में चीन की किसी अदालत में नहीं पेश किया जाएगा ऐसे अमेरिकी नागरिकों से सम्बन्ध सारे मुकदमे अमेरिकी अदालत में ही पेश किये जाएँगे । इस प्रकार, अमेरिका ने एक ऐसे विशेषाधिकार को प्राप्त किया, जिसे ‘राज्यक्षेत्रातीत अधिकार’ कहते हैं ।

यह अधिकार चीन की संप्रभुता का अतिक्रमण था । इस व्यवस्था का परिणाम यह हुआ कि चीन में निवास करनेवाले अमेरिकी नागरिक चीन की सरकार के शासन के अंतर्गत नहीं रह गये । चीन की सरकार न तो उन्हें गिरफ्तार कर सकती थी और न दण्ड दे सकती थी इस प्रकार, इस व्यवस्था के द्वारा चीन में विदेशियों के एक असाधारण प्रभुत्व का सूत्रपात हुआ, जिसने चीन की प्रभुता और स्वतन्त्र सत्ता को भारी आघात पहुँचाया । अमेरिका के बाद ब्रिटेन तथा अन्य यूरोपीय राज्यों को भी इस प्रकार के विशेषाधिकार प्राप्त हुए ।

अमेरिका के बाद चीन के साथ संधि करनेवाला तीसरा यूरोपीय देश फ्रांस था । इस संधि में भी एक विशेष शर्त रखी गयी थी । इस विशेष शर्त के अनुसार फ्रांस के रोमन कैथोलिक मिशनरियों को चीन में गिरजाघर कायम करने और धर्मप्रचार का पूरा-पूरा अधिकार मिला । धर्मप्रचारक पादरियों को हर तरह की स्वतन्त्रता भी मिली ।

द्धितीय अफीम युद्ध:

ब्रिटेन, अमेरिका, फ्रांस और उसके बाद अन्य यूरोपीय राज्यों के साथ चीन को बाध्य होकर कई संधियों पर हस्ताक्षर करने पड़े । ये संधियाँ असमान थीं और इनकी शर्तें शक्तिशाली पाश्चात्य राज्यों द्वारा निर्बल चीन पर लादी गयी थीं । लेकिन, पाश्चात्य देश इतने से ही सन्तुष्ट नहीं थे । वे चीन में अपने लिए और सुविधा तथा अधिकार प्राप्त करना चाहते थे । इसके लिए चीन के साथ एक दूसरी लड़ाई भी अनिवार्य हो गयी । 1856 ई॰ में ब्रिटेन तथा फ्रांस और चीन के बीच ‘द्वितीय अफीम- युद्ध’ हुआ ।

द्वितीय अफीम-युद्ध का तात्कालिक कारण था फ्रांस के एक रोमन कैथोलिक पादरी का चीन द्वारा गिरफ्तार किया जाना । एक फ्रांसीसी पादरी चीन के अन्दर बहुत दूर तक चला गया । वहाँ वह कुछ आपत्तिजनक काम करने लगा । चीन की सरकार ने उस पादरी को कैद कर लिया । उस पर मुकदमा चलाया गया तथा प्राणदण्ड दे दिया गया । इस बात का बहाना बनाकर फ्रांस और ब्रिटेन ने सम्मिलित रूप से चीन पर 1856 ई॰ में आक्रमण कर दिया ।

कैण्टन से उत्तर की ओर आगे बढ़ती हुई ब्रिटिश-फ्रांसीसी सेनाएँ तीनत्सिन तक पहुँच गयीं । अब चीन की सरकार के समक्ष समझौता करने के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं रह गया । अतएव, तीनत्सिन में सन्धि के लिए बातचीत हुई । इस सन्धि के अनुसार चीन के ग्यारह बन्दरगाह पाश्चात्य देशों के व्यापार और निवास के लिए खोल दिये गये । ये बन्दरगाह उत्तर में न्यूव्यांग से शुरू होकर दक्षिण में स्वातों तक फैले हुए थे ।

कैण्टन आदि पाँच बन्दरगाहों में पश्चिमी राज्यों को पहले से ही व्यापार और निवास का अधिकार प्राप्त था । लेकिन, इस सन्धि के उपरान्त ऐसे बन्दरगाहों की संख्या सोलह हो गयी प्रशांत महासागर तट पर स्थित प्राय: सभी महत्वपूर्ण बन्दरगाहों में अपनी बस्तियाँ बसाने और स्वतन्त्र रूप से व्यापार करने का अधिकार इस सन्धि द्वारा पश्चिमी देशों को मिल गया ।

यूरोपीय देशों और अमेरिका के राजदूत पीकिंग में रहें, इसकी अनुमति चीन की सरकार ने दे दी । ईसाई धर्मप्रचारकों को चीन के किसी भू-भाग या हिस्से में जाने तथा धर्मप्रचार करने का पूरा अधिकार मिला । चीन की सरकार ने एक बहुत बड़ी रकम हर्जाने के रूप में ब्रिटेन और फ्रांस को देने का वादा किया तथा पश्चिमी देशों को अफीम का व्यापार करने की अनुमति दे दी ।

1842 ई॰ और 1860 ई॰ के इन सन्धियों द्वारा चीन का पश्चिमी देशों के साथ जिस ढंग का सम्बन्ध स्थापित हुआ, उसे समान रूप से स्वतन्त्र और प्रभुसत्तायुक्त देशों का पारस्परिक सम्बन्ध नहीं कहा जा सकता । यह पाश्चात्य साम्राज्यवाद का एक नया रूप था । सैन्य-शक्ति का उपयोग कर इसे स्थापित किया गया था ।

पाश्चात्य अतिक्रमण का चीन पर प्रभाव:

प्रथम और द्वितीय अफीम-युद्ध के फलस्वरूप चीन का दरवाजा विदेशी शोषण के लिए पूर्णत: खुल गया । 1860 ई॰ के बाद विविध यूरोपीय राज्यों के बीच लूट-खसोट की जबर्दस्त होड़ प्रारम्भ हो गयी और प्रतीत होने लगा कि कुछ ही दिनों में चीन का नामोनिशान मिट जाएगा । चीन के साथ पाश्चात्य देशों की असमान सन्धियाँ हुईं और चीन में विदेशियों को कई विशेषाधिकार प्राप्त हुए ।

इसी तरह ‘राज्यक्षेत्रातीत अधिकार’ के रूप में जो विशेषाधिकार चीन में पाश्चात्य देशों ने प्राप्त किये थे, वे किसी प्रकार उचितया न्यायसंगत नहीं माने जा सकते थे । चीन के लोगों की दृष्टि में ये विशेषाधिकार बहुत अनुचित थे, क्योंकि पश्चिम के किसी भी देश में इस तरह के अधिकार चीन के नागरिकों को प्राप्त नहीं थे ।

पाश्चात्य देश के व्यापारी नागरिक इस अधिकार का पूरा दुरुपयोग करते थे । उन्हें इस बात का जरा भी भय नहीं रहता था कि चीन सरकार उन्हें दण्ड दे सकती हे । इस कारण वे चीनी नागरिकों के साथ बड़ा बुरा व्यवहार करते थे, ऐसा व्यवहार मानो चीनी लोग किसी अधीनस्थ देश के निवासी के साथ कर रहे हों । कैण्टन आदि सोलह नगरी में, जिन्हें चीन का ‘ट्रीटी पोर्ट’ कहा जाता था, पूर्णत: विदेशियों का प्रभुत्व था ।

इन नगरों में धीरे-धीरे कई विदेशी बस्तियों का विकास हुआ जिन पर चीन सरकार का किसी तरह का अधिकार नहीं रहा । राज्यक्षेत्रातीत अधिकार के अन्तर्गत ये बस्तियाँ पूर्ण रूप से विदेशियों के कब्जे में थीं और इनका शासन भी उन्हीं लोगों द्वारा होता था ।

प्रथम अफीम युद्ध के बाद चीन के साथ यूरोप के विविध राज्यों तथा संयुक्त राज्य अमेरिका की कई असमान सन्धियों हुइं तथा इन सन्धियों के फलस्वरूप चीन परोक्ष रीति से पाश्चात्य साम्राज्यवाद का शिकार होने लगा । लेकिन, बात यहीं तक सीमित नहीं रही । चीन को तुरत ही अपने पड़ोसी देश जापान का भी सामना करना पड़ा ।

उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में जापान ने मध्यकालीन अवस्था से निकलकर अपने की आधुनिकता के रँग में रंग लिया और वह एक साम्राज्यवादी देश बन बैठा उन्नीसवीं शताब्दी के अन्तिम दशक में उसने उम्र साम्राज्यवादी नीति का अनुसरण करते हुए चीन पर आक्रमण (1894 ई॰) कर दिया ।

इस चीन-जापान युद्ध में चीन बुरी तरह पराजित हुआ और उसको जापान के समक्ष झुकना पड़ा । इससे चीन पर यूरोपीय राज्यों, जापान तथा अमेरिका द्वारा आक्रमण तथा उनकी लूट-खसोट का युग प्रारम्भ हुआ । साम्राज्यवादी राज्य उसे नोचने के लिए कूद पड़े और 1895 ई॰ के बाद चीन पर उनका प्रभाव बढ़ता गया । इस नये युग का उद्‌घाटन रूस ने किया 1895 ई॰ के बाद चीन सरकार पर रूस का प्रभाव निरन्तर बढ़ता गया फ्रांस को भी चीन में कई तरह की सुविधाएँ प्राप्त हुईं ।

फ्रांस को रेलवे बनाने, खानें खोदने तथा चीन के कुछ बन्दरगाहों का प्रयोग करने की सुविधाएँ प्राप्त हुईं । 1897 ई॰ में शांतुंग के प्रदेश में दो जर्मन पादरियों की हत्या हो गयी । जर्मनी की एक सेना ने झट चीन पर आक्रमण कर दिया और क्याऊचाओ प्रदेश पर कब्जा जमा लिया । चीन की सरकार जर्मनी का मुकाबला नहीं कर सकती थी । उसके समक्ष एक सन्धि का मसविदा पेश किया गया । चीन ने इसे स्वीकार कर लिया ।

इसके अनुसार 99 वर्ष के लिए क्याऊचाओ प्रदेश जर्मनी के मातहत कर दिया गया । इसके अतिरिक्त, जर्मनी को चीन में अन्य कई आर्थिक सुविधाएँ मिलीं । शांतुंग में उसको रेल-लाइनों के निर्माण का अधिकार प्राप्त हुआ । इस प्रदेश में सेना रखने की अनुमति भी जर्मनी को मिल गयी ।

जब जर्मनी को इस तरह की सुविधा प्राप्त हुई तो यूरोप के अन्य राज्य सशंकित हो उठे । अब वे चीन से और अधिक सुविधाएँ प्राप्त करने की उधेड़ बुन में लग गये । इसलिए चीन में सुविधा प्राप्त करने की होड़ में प्रचण्डता आ गयी । 1897 ई॰ में रूस ने पोर्ट आर्थर और तेलानवात पर कला कर लिया ।

पोर्ट आर्थर के बन्दरगाह पर रूस का एकाधिपत्य स्थापित हो गया । उसके बाद फ्रांस ने च्वांगयुआन के प्रदेश तथा टोनकिन से उनान तक रेल लाइन बनाने का अधिकार माँगा । इंग्लैण्ड ने अपने हित को ध्यान में रखकर बर्मा-चीन सीमान्त रेखा को ठीक कराया । इसके बाद हांगकांग से सटे हुए चीनी प्रदेशों पर उसने दावा किया । चीन ने इसे भी स्वीकार कर लिया ।

इस प्रकार, चीन में यूरोपीय राज्यों का अपना पृथकृ-पृथकृ ‘प्रभाव-क्षेत्र’ कायम हो गया । ऐसा प्रतीत होने लगा था कि प्रभाव क्षेत्र के नाम पर चीन का प्रादेशिक विभाजन हो गया है । चीन राज्य की संप्रभुता का नामोनिशान मिट रहा था । अपनी ही सीमा के अन्दर चीन की सरकार एकदम विवश हो गयी थी । अपने राज्य के विविध प्रदेशों में उसका नाममात्र का भी अधिकार नहीं था ।

इसके बाद यही संभव था कि यूरोपीय राज्य आपस में मिलकर अपने चीनी प्रभाव क्षेत्रों को विधिवत् अपने साम्राज्य में सम्मिलित कर लें । लेकिन, अमेरिका द्वारा प्रतिपादित उन्मुक्त द्वार की नीति तथा चीनियों द्वारा विदेशियों के विरुद्ध बॉक्सर विद्रोह के कारण ऐसा नहीं हो सका ।

चीन का विभाजन या चीनी तरबूज का बँटवारा:

1895 ई॰ तक चीन में पश्चिमी राष्ट्रों की मुख्य दिलचस्पी वाणिज्य के लिए ही थी । व्यापारी चीन का रेशम और चाय खरीदते थे और बदले में चीन को चाँदी, अफीम, चन्दन, फर तथा अनेक प्रकार की निर्मित वस्तुएँ बेचते थे ।

लेकिन, 1895 ई॰ में यह स्थिति एकाएक बदल गयी । चीन अब ‘एशिया का मरीज’ के रूप में प्रकट हुआ और पश्चिमी राज्यों के मुँह में उसके बँटवारे के लिए पानी भर आया । अब तक चीन का विभाजन नहीं हो सका था । इसका मुख्य कारण था पाश्चात्य देशों के बीच आपसी प्रतिस्पर्धा ।

लेकिन, जापान की सफलता ने उन्हें नयी नीति का अवलम्बन करने की प्रेरणा दी । फलत: यूरोपीय देश अब चीन के विभिन्न क्षेत्रों पर अपना-अपना दावा पेश करने लगे और चीन को विविध प्रभाव-क्षेत्रों में बाँटने लगे । इस तरह, ‘चीनी तरबूज’ को काटने की प्रक्रिया आरम्भ हुई ।

कई कारणों से अब चीन पर पाश्चात्य देशों का शिकंजा कसता गया और वे सब नयी-नयी सुविधाओं की माँग करने लगे । इसे लेकर उनके बीच आपसी होड़ आरम्भ हो गयी, जिसे ‘सुविधाओं का युद्ध’ कहते हैं । इसका प्रभाव चीन की प्रादेशिक एकता पर बड़ा घातक सिद्ध हुआ । चीन के भू-भाग धीरे-धीरे केन्द्रीय सरकार के अधिकार से निकलने लगे और उन पर विदेशियों का आधिपत्य कायम होता गया चीन की लूट-खसोट की असली प्रक्रिया अब शुरू हुई ।

कोरिया को लेकर जो चीन-जापान युद्ध हुआ था, उसका अन्त शिमोनोस्की की सन्धि से हुआ था । इस सन्धि के कारण चीन को अत्यधिक नुकसान पहुँच रहा था । पश्चिमी राज्यों की आकांक्षा भी सीमित हो रही थी । अतएव फ्रांस, जर्मनी और रूस हम देख चुके है- हस्तक्षेप कर शिमोनोस्की सन्धि में संशोधन कराया जिससे लियाओतुंग प्रायद्वीप चीन के हाथ से निकलने से बच गया । इसके अतिरिक्त, जापान को क्षतिपूर्ति भी देनी थी । इसके लिए चीन को इन्हीं तीनों देशों ने कर्ज दिया । इस प्रकार, चीन इन तीनों देशों के प्रति कृतज्ञ हो गया । किन्तु, इसका त्त्व भी उसे शीघ्र ही चुकाना पड़ा । तीनों शक्तियों ने चीन को जो लाभ पहुँचाया था, उसके एवज में वे चीन से रियायतें और सुविधाएँ माँगने लगे ।

फ्रांस का हिस्सा-चीन को जापान को जो युद्ध का हरजाना देना था उसके लिए जुलाई, 1895 में फ्रांस ने एक ऋण जारी किया जिसकी गारण्टी रूस ने ली । कर्ज के रूप में धन देने के पहले फ्रांस ने चीन से यह वादा करा लिया कि वह हैनान का द्वीप किसी अन्य राज्य को नहीं देगा । कुछ ही दिनों के अन्दर फ्रांस को चीन में अग्रलिखित सुविधाएँ प्राप्त हो गयीं ।

युद्धान, क्वांगसी और क्वांगतुंग की खानों को खोदने का एकाधिकार और दक्षिणी चीन में अनाम रेलवे के विस्तार का अधिकार उसे मिला । दक्षिणी चीन में फ्रांसीसी माल पर चुंगी भी घटा दी गयी । इस प्रकार, फ्रांस ने चीन-जापान- युद्ध की समाप्ति के तुरंत बाद ही चीन में सुविधाओं के युद्ध का आरम्भ कर दिया । 1897-98 में फ्रांस ने और नये अधिकार और सुविधाएं प्राप्त कीं ।

क्वांगचाऊ खाड़ी तथा उसके निकटस्थ प्रदेश फ्रांस को साल के लिए पट्टे पर मिले और यून्नान में रेलवे लाइन बिछाने का अधिकार मिला । चीन ने यह भी मान लिया कि फ्रांस के परामर्श के बिना टींगकिग के निकटवर्ती प्रान्तों को वह किसी भी देश को हस्तान्तरित नहीं करेगा । इस प्रकार, फ्रांस ने दक्षिणी चीन के इलाकों को अपने प्रभाव-क्षेत्र में लाने का यत्न किया तथा इसके लिए पट्टे, रेलवे-निर्माण एवं भू-भाग के अहस्तान्तरण के सिद्धांत का सहारा लिया ।

i. रूस का हिस्सा:

चीन के बँटवारे में रूस ने फ्रांस का साथ दिया । चीन को कर्ज दिलाने में रूस ने महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया था अतएव, रूस को भी इसके लिए इनाम मिलना ही था । सितम्बर, 1895 में रूस के वित्तमन्त्री काउण्ट विटे ने रूसी-चीनी बैंक की शुरुआत की, जिसका क्षेत्र उतर-पूर्वी चीन था । इस बैंक को अनेक विस्तृत अधिकार मिले ।

रेलवे-निर्माण से सम्बद्ध कार्य के अतिरिक्त इसे तार बिछाने, सिक्का डालने, कर वसूलने और चीन के वैदेशिक कर्जों के सूद-भुगतान के कार्य मिले । इस प्रकार, यह बैंक चीन के आर्थिक जीवन पर हावी हो गया रूस मंचूरिया होकर ट्रांस- साइबेरियन रेलमार्ग की एक लाइन बिछाना चाहता था, क्योंकि इससे साढ़े तीन सौ मील की दूरी बचती थी । इस विषय में जून, 1896 में जार निकोलस के राज्याभिषेक के अवसर पर ली ट्टंग-चांग, विटे और रूसी विदेशमन्त्री लोबानोफ ने बातचीत शुरू की ।

ली हुंग-चांग जापान से बचने के लिए पश्चिमी देशों से अच्छे सम्बन्ध रखना चाहता था । इसलिए उसने रूस के साथ इस बारे में समझौता कर लिया । इसे ली-लोबानोफ-समझौता कहते हैं । इसमें तय हुआ कि यदि जापान हमला करें तो रूस और चीन एक-दूसरे की मदद करेंगे और रूस चीन के बन्दरगाहों का प्रयोग कर सकेगा । साथ ही, यह भी मान लिया गया कि रूस मंचूरिया होकर रेलवे लाइन बिछा सकेगा ।

8 सितम्बर, 1896 को रूसी-चीनी बेक और चीनी सरकार में एक और समझौता हुआ जिसके अनुसार एक रूसी प्रबन्धक के अधीन चीनी पूर्वी रेलवे कम्पनी कायम की गयी और इसे मंचूरिया की उत्तर-पश्चिमी सीमा पर स्थित मनचूली से ब्लाडीवोस्टक के निकट सुइफे नहीं तक लगभग एक हजार मील लम्बी रेलवे लाइन बिछाने का काम सौंपा गया ।

यह लाइन 1904 ई॰ में बनकर तैयार हुई । चीन ने मंचूरिया आने-जानेवाले रूसी माल पर चुंगी की दरें घटा दीं और उस इलाके में फौजों की गतिविधि की इजाजत दे दी । मार्च, 1898 में, जब जर्मनी ने शाखा में अपना क्षेत्र बना लिया, तो रूस ने चीन पर जोर दिया कि वह उसे पचीस वर्ष के लिए लिआओतुंग प्रायद्वीप का दक्षिणी छोर पट्टे पर दे दे, जिसमें पोर्ट आर्थर और दायरन के बन्दरगाह स्थित थे और वहाँ तक रेलवे लाइन बिछाने की इजाजत भी दे । रूसी तत्त्वावधान में चीनी पूर्वी रेलवे कम्पनी ने 1900 ई॰ में इस लाइन को पूरा किया । इसे दक्षिणी मंचूरियाई रेलवे कहते थे ।

1898 ई॰ में रूस ने अपने पैर और भी पसारे । उसने पोर्ट आर्थर नामक बन्दरगाह पर कब्जा कर लिया । इस प्रकार, रूस ने मंचूरिया पर अपना पूरा प्रभाव कायम करने का यत्न किया और इसमें उसे बड़ी सफलता मिली ।

ii. जर्मनी का हिस्सा:

अब रूस की तरह जर्मनी ने भी चीन में अपना प्रभाव कायम करने का प्रयास किया । लिआओतुंग पर से जापानी प्रभाव समाप्त करने में जर्मनी ने भी रूस को मदद देकर चीन की सहानुभूति अर्जित की थी । अत: ‘चीनी तरबूज’ का एक टुकड़ा प्राप्त करने के लिए वह भी लालायित हो गया । उसने चीन के एक ऐसे प्रदेश पर अपना प्रभाव कायम करने का प्रयास किया, जहाँ उसके जहाज आसानी से आ-जा सके और जहाँ से वह चीन के साथ व्यापारिक सम्बन्ध चला सके । इसी समय चीन में जर्मन चर्च के दो पादरियों की हत्या कर दी गयी । चीन पर दबाव डालने का जर्मनी को एक अच्छा अवसर मिल गया । जर्मनी की सरकार ने माँगों की एक सूची तैयार की और चीन की सरकार के सम्मुख रखी ।

ये माँगे निम्नलिखित थीं:

(क) त्सिंगताओ नामक बन्दरगाह को, जो उत्तरी चीन में स्थित था, चीन 99 साल के लिए पट्टे पर जर्मनी को दे दे,

(ख) शान्तुंग में रेलवे लाइन का निर्माण करने के लिए जर्मनी को अधिकार मिले;

(ग) शाखा में जितनी भी खानें हैं उनकी खुदाई तथा विकास करने का अधिकार केवल जर्मनी की सरकार को हो; और

(घ) चीन (शान्तुंग) में हुई दो जर्मन पादरियों की हत्या का हरजाना चीन की सरकार जर्मनी को प्रदान करें । इस हरजाने में जर्मनी की सरकार ने उस आक्रमण से हुई क्षति की पूर्ति के लिए कहा जिसे उसने त्सिंगताओ पर किया था ।

चीन की सरकार निर्बल थी, अत: उसे जर्मनी की इन सारी माँगों को स्वीकार कर लेना पड़ा । चीन ने जर्मनी के साथ 6 मार्च, 1898 में एक राजनयिक सन्धि की जिसके अनुसार निन्यानबे वर्ष के लिए त्सिंगताओ, कियाओचाओ की खाड़ी और त्सिंगताओ के निकटस्थ प्रदेश जर्मनी को दे दिये गये ।

इसी प्रकार शाच्छा के रेलमार्ग तथा खान- खुदाई-सम्बन्धी कार्य का अधिकार भी जर्मनी को मिला । फलत: रूस की तरह चीन पर जर्मनी का भी प्रभाव कायम हुआ ।

iii. ब्रिटेन का हिस्सा:

जब चीन में इस प्रकार की लूट-खसोट मची हुई थी तो ब्रिटेन कैसे चुप बैठ सकता था ? चीन का द्वार खोलने का श्रेय उसी की था और 1895 ई॰ तक चीन में उसी का प्रभाव सर्वोपरि था । लेकिन, अब चीन में सभी यूरोपीय देशों की रुचि बढ़ गयी थी और सबका प्रभावक्षेत्र कायम हो रहा था, अत: इंग्लैण्ड ने भी अपना दावा पेश किया । जब उत्तर में रूस और जर्मनी ने अपने पैर जमाये और दक्षिण में फ्रांस ने अपना अधिकार कायम किया तब ब्रिटेन के लिए मध्य चीन में यांगत्सी की घाटी के अलावा और कुछ भी न बचा ।

फरवरी, 1898 में ब्रिटेन ने चीन से यह वचन लिया कि वह इस इलाके में अपने अलावा किसी अन्य देश का अधिकार नहीं होने देगा । उसने केलून से लगे प्रायद्वीप का निन्नानवे साल का पट्टा ले लिया और हांगकांग के सामने के कुछ इलाकों पर भी दावा किया ।

चीन के विदेशी व्यापार के दो-तिहाई भाग अँगरेजों के हाथ था । इसलिए उन्होंने यह माँग की कि चीन में जहाजी चुंगी का प्रधान निरीक्षक हमेशा कोई अँगरेज नागरिक ही हो । चीन ने ब्रिटेन की इन सभी माँगों को स्वीकार कर लिया और इस तरह वहाँ ब्रिटिश प्रभाव-क्षेत्र भी कायम हो गया ।

iv. जापान का हिस्सा:

पश्चिमी देशों की इस बन्दर-बाँट ने जापान को भी प्रोत्साहित किया और वह भी अपने लिए स्थान सुरक्षित कराने के प्रयास में बढ़ा । चीन की सरकार से उसने यह वादा कराया कि वह फुकिएन प्रदेश को, जो फारमोसा के निकट था, किसी अन्य राज्य के प्रभाव में नहीं जाने देगा और इस प्रदेश के आर्थिक विकास का अधिकार केवल जापान को रहेगा ।

v. इटली की माँग:

चीन की लूट का यहीं अन्त नहीं हुआ । इटली तक ने चीन से समुद्री अड़ा माँगा जबकि उसका कोई धर्मप्रचारक चीन में नहीं मारा गया था । लेकिन, इटली देर कर चुका था । इसी समय चीनी राजदरबार में विद्रोह हो गया, जिसके फलस्वरूप चीनी शासन की बागडोर वृद्धा राजमाता के हाथ आ गयी । वह बहुत ही योग्य शासिका थी । साम्राज्ञी ने खुशामद करना और गिड़गिड़ाना त्यागकर साहस से काम लिया । उसने यांगत्सी के गवर्नरों को आदेश दिया कि वे इटली की माँगों का विरोध करें । इस पर इटली ने अपनी माँगे वापस ले लीं ।

विदेशियों का आपसी सहयोग:

चीन की बन्दर-बाँट के लिए पश्चिमी राज्यों में भयंकर प्रतिस्पर्धा की शुरुआत हुई । यूरोप की शक्तियों ने चीन से मनवा लिया कि कुछ यूरोपीय शक्तियों के अधिकार में जो कतिपय जिले हैं वे किसी हालत में उनसे रिक्त नहीं कराये जायेंगे । दूसरे शब्दों में, चीनी सरकार ने मान लिया कि चीनी साम्राज्य में कतिपय अन्य शक्तियों का भी प्रभुत्व है और उस क्षेत्र में उसी विदेशी शक्ति को विशेषाधिकार दिये जायेंगे ।

इस प्रकार, फ्रांस के अधिकार में हैनान और टोन्किन की सीमा का प्रदेश आ गया, यांगत्सी की घाटी ब्रिटेन के हाथ रही, जापान का अधिकार फुकिएन पर हो गया तथा जर्मनी को शान्तुंग में विशेषाधिकार प्राप्त हुआ । रूस ने मंचूरिया, मंगोलिया और चीनी तुर्किस्तान पर अपना प्रभाव फैलाया । इस प्रकार, एक के बाद एक पश्चिमी शक्ति चीन में अधिकाधिक घुसपैठ करती गयी । धीरे-धीरे यूरोपीय शक्तियाँ चीन का लहू जोंकों की तरह चूसने लगी थीं ।

इसी तरह, रेल बनाने के ठेके लेने में भी पश्चिमी देशों में होड़ लग गयी । नवम्बर, 1898 में अंगरेज ने अट्ठाईस सौ मील लम्बी लाइन बिछाने के नौ ठेके लिये, रूसियों ने पन्द्रह सौ मील के तीन ठेके, बेल्जीयम के लोगों ने साढ़े छह सौ मील का एक ठेका और फ्रांसीसियों ने तीन सौ मील के तीन ठेके लिये इस लूट-खसोट में अँगरेजों और रूसियों में कड़ा मुकाबला रहा और उनके आपसी सम्बन्ध बिगड़ने लगे ।

लेकिन अप्रिल, 1899 में उनमें एक समझौता हो गया कि बड़ी दीवार के उत्तर में ब्रिटेन कोई रेल का ठेका नहीं लेगा और यांगत्सी घाटी में रूस किसी तरह का हस्तक्षेप नहीं करेगा । इसी तरह के समझौते अन्य लुटेरों में भी हो चुका था । 1896 ई॰ में सिआना-समझौता करके फ्रांस और ब्रिटेन ने एक-दूसरे के विशेषाधिकारों को मान्यता दी ।

1898 ई॰ में एक समझौते द्वारा जर्मनी तथा अँगरेज पूँजीपतियों ने रेलवे-निर्माण में सहयोग करने का निश्चय किया और दोनों ने एक-दूसरे के क्षेत्र में दखल नहीं देने का वादा किया इस प्रकार, चीन की लूट के प्रश्न पर विदेशी शक्तियों ने आपसी समझौता कर लिया । यह बिल्कुल ही नये ढंग का उपनिवेशवाद था । चीन के भू-भागों पर विदेशियों का पूरा अधिकार कायम हो गया, लेकिन वे नाम के लिए चीनी सरकार के आधिपत्य में ही रहे ।

उन्नीसवीं सदी के अन्तिम वर्ष में प्रतीत होने लगा कि ‘एशिया का मरीज’ अब कुछ ही दिनों का मेहमान है । चीन की मजबूत रक्षा-चौकियाँ विदेशियों के अधिकार में आ गयी थीं, उसका विदेशी व्यापार और चुंगी विदेशियों के नियन्त्रण में थी; उसके वित्तीय शासन और आन्तरिक प्रबन्ध पर विदेशी लोग छाये हुए थे यही नहीं, चीनी मुख्य भूमि पर चलनेवाली रेलों पर भी विदेशी शक्तियों का पूर्ण नियन्त्रण था । चीनी प्रभुसत्ता नाममात्र की रह गयी थी ।

इन सब बातों से यह अधिकाधिक स्पष्ट होता जा रहा था कि चीन की प्रादेशिक अखण्डता का कोई मूल्य नहीं है । जर्मनी, रूस, फ्रांस, ब्रिटेन सब-के-सब इस प्रादेशिक अखण्डता के सिद्धान्त के प्रति अपना आदर-भाव प्रकट करते थे, लेकिन उनकी पट्टेदारी, रेलमार्ग की सुविधाएँ तथा आपस में संघर्ष न करने के समझौतों से स्पष्ट था कि पश्चिमी देश कहते कुछ और करते कुछ और हैं । चीन में विशेषाधिकारों का युग आरम्भ हो गया था ।

यूरोप की महान् शक्तियाँ चीन की प्रादेशिक अखण्डता के साथ खिलवाड़ करने के कार्य में जुट गयी थीं । यों तो हर पट्टेदारी के समझौते में उस भूमि पर चीन की प्रभुसत्ता और पूर्ण नियन्त्रण की व्यवस्था अनिवार्य रूप से रहती थी, लेकिन यह केवल धोखा था और सब इसे ऐसा ही समझते थे । सबसे दुर्भाग्यपूर्ण बात तो यह थी कि 1898-99 में चीन के अन्दर न तो कोई नेता था, न उसका कोई लक्ष्य था और न शोषण का विरोध करने की कोई प्रबल इच्छा-शक्ति ही थी ।

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