Read this article in Hindi to learn about:- 1. राष्ट्रकूटकालीन संस्कृति का परिचय (Introduction to Rashtrakut Civilisation) 2. राष्ट्रकूटकालीन संस्कृति का शासन प्रबन्ध (Administration of Rashtrakut Civilisation) 3. धर्म तथा साहित्य (Religion and Literature) 4. कला (Art).

राष्ट्रकूट राजवंश का परिचय (Introduction to Rashtrakut Empire):

राष्ट्रकूट राजवंश का काल दक्षिणापथ के इतिहास में सर्वाधिक गौरवशाली युग का प्रतिनिधित्व करता है । इस वश के प्रतापी राजाओं ने समूचे भारतवर्ष में अपनी विजय-पताका फहरा दिया था । ध्रुव, गोविन्द तृतीय तथा इन्द्र तृतीय अपने काल में महानतम विजेता थे । उन्होंने अपने समकालीन उत्तरापथ की दो प्रबल शक्तियों-गुर्जर-प्रतिहार तथा पाल-को नतमस्तक किया । 

इस वंश के कृष्ण तृतीय ने सुदूर दक्षिण में रामेश्वरम् तक अपनी विजय वैजयन्ती फहरा दिया । दक्षिण के चोलों ने भी राष्ट्रकूट राजाओं की अधीनता स्वीकार की । वस्तुत: अठारहवीं शती में मराठों के उदय के पूर्व दक्षिणापथ के किसी भी अन्य राजवंश ने राष्ट्रकूटों के समान भारतीय इतिहास में महत्वपूर्ण भूमिका नहीं अदा की है ।

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राष्ट्रकूट राजवंश का शासन प्रबन्ध (Administration of Rashtrakut Empire):

राष्ट्रकूट शासन में राजा की स्थिति सर्वाधिक महत्वपूर्ण एवं सर्वोच्च होती थी । महाराजाधिराज, परमभट्टारक जैसी उच्च सम्मानपरक उपाधियों के अतिरिक्त राष्ट्रकूट शासक धारावर्ष, अकालवर्ष, सुवर्णवर्ष, विक्रमावलोक, जगत्तुग जैसी व्यक्तिगत उपाधियाँ भी धारण करते थे ।

राजपद आनुवंशिक होता था । राजा का बड़ा पुत्र ही युवराज बनता था जो राजधानी में रहते हुए अपने पिता की प्रशासनिक कार्यों में सहायता करता था । सैनिक अभियानों में वह पिता के साथ जाता था । छोटे पुत्र प्रान्तों में राज्यपाल बनाये जाते थे ।

युवराज ही प्राय: सम्राट की मृत्यु के बाद राज्य का उत्तराधिर्कारी बनता था किन्तु कभी-कभी दूसरे योग्य व्यक्ति को भी शासक बना दिया जाता था । इस प्रकार का उदाहरण गोविन्द शासक अपनी राजधानी में रहता था जहाँ उसकी राजसभा तथा केन्दीय प्रशासन के कर्मचारी रहते थे । राजसभा ऐश्वर्य तथा वैभव से परिपूर्ण होती थी ।

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सामन्त, राजदूत, मंत्री, सैनिक तथा असैनिक अधिकारी, कवि, वैद्य, ज्योतिषी आदि नियमित रूप से राजसभा में उपस्थित होते थे । सम्राट अपनी मंत्रिपरिषद् की परामर्श से शासन करता था । राष्ट्रकूट लेखों में मंत्रियों के विभागों के नाम नहीं मिलते है । अधिकांश यंत्री सैनिक पदाधिकारी भी होते थे । कुछ सामन्त स्थिति के थे जिन्हें जागीरें दी जाती थीं । लेखों में यंत्री को राजा का दाहिना हाथ कहा गया है ।

राष्ट्रकूट शासन में सामन्तवाद की पूर्ण प्रतिष्ठा हो चुकी थी । कुछ भागों का प्रवन्ध सामन्त ही करते थे । दक्षिणी गुजरात आदि प्रदेशों के सामन्त तो पूरी स्वायत्तता का उपभोग करते थे तथा नाममात्र के लिए ही सम्राट की अधीनता स्वीकार करते थे ।

प्रमुख सामन्त अपने अधीन छोटे सामन्त रखते थे जिन्हें राजा कहा जाता था । सामन्तगण सम्राट की राजसभा में समय-समय पर उपस्थित होते थे, उसे उपहारादि देते थे, युद्धों के समय सैनिक भेजते थे तथा स्वयं भी सम्राट के साथ सैनिक अभियान पर जाया करते थे ।

राष्ट्रकूट शासक वस्तुत: अपने अधीनस्थ सामन राजाओं तथा सामन्तों के द्वारा ही प्रशासन चलाते थे । सामन्त हमेशा स्वतंत्र होने की ताक में लगे रहते थे । इस कारण उनका राजा के साथ प्राय युद्ध होता था । राष्ट्रकूट राजाओं को वेंगी तथा कर्नाटक के अपने सामन्तों के साथ कई वार संघर्ष करना पड़ा ।

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सम्राट के सीधे नियन्त्रण वाले क्षेत्र को कई राष्ट्रों में बाँटा गया था । राथ आधुनिक कमिश्नरियों के समान थे । राष्ट्र को मण्डल भी कहा जाता था । कल राष्ट्रों की संख्या 2-25 के लगभग थी । इसका प्रधान अधिकारी राष्ट्रपति कहलाता था ।

वह नागरिक तथा 500 दोनों ही प्रकार के शासन का प्रधान होता था । उसके अधीन सेना भी होती थी । वह सामन्तों तथा पदाधिकारियों के ऊपर नियन्त्रण रखता था और किसी प्रकार की विद्रोह की स्थिति में तुरन्त उसे दवाता था । राष्ट्रपति स्वयं भी सैनिक अधिकारी होता था । उसका पद गुप्त प्रशासन के ‘उपरिक’ नामक पदाधिकारी के समान होता था ।

राष्ट्रपति को वित्त-सम्बन्धी अधिकार भी मिले हुये थे तथा भूराजस्व संग्रह करने के लिये वही उत्तरदायी होता था । किन्तु उसे सम्राट की अनुमति प्राप्त किये बिना भूमिकर माफ करने अथवा विषय के पदाधिकारियों की नियुक्ति करने प्रत्येक राष्ट्र मैं कई ‘विषय’ होते थे जो आधुनिक जिले के समान थे ।

इनमें एक हजार से लेकर चार हजार तक गाँव होते थे । विषय का प्रधान अधिकारी विषयपति था । विषय का विभाजन कई मुक्तियों में हुआ था जो आधुनिक तहसीलों के समान थीं । भुक्ति के प्रधान को भोगपति कहा जाता था । विषयपति तथा भोगपति अपने-अपने अधिकार क्षेत्रों में प्राय: वही कार्य करते थे जो राष्ट्रपति, राष्ट्र में करता था । प्रत्येक भुक्ति में 50 से लेकर 70 तक ग्राम होते थे ।

विषयपति तथा भोगपति ‘देशग्रामकूट’ नामक वंशानुगत राजस्व अधिकारियों के सहयोग से राजस्व विभाग का प्रशासन चलाते थे । इन अधिकारियों को करमुक्त भूमिखण्ड दिये जाते थे । ग्राम का शासन मुखिया द्वारा चलाया जाता था । उसे ग्रामकूट, ग्रामपति अथवा गावुन्ड कहा जाता था । उसकी सहायता के लिये एक लेखाकार होता था ।

मुखिया के अधीन एक सेना की टुकड़ी भी थी जिसकी सहायता से वह ग्राम में शान्ति और व्यवस्था की स्थापना करता था तथा चोर-डाकुओं का दमन करता था । उसका प्रमुख कार्य भूमिकर एकत्रित करके राजकोष में जमा करना था । मुखिया का पद आनुवंशिक था तथा अपनी सेवाओं के बदले उसे भी करमुक्त भूमिखण्ड दिये जाते थे ।

राष्ट्रकूट प्रशासन में नगरों तथा ग्रामों दोनों को स्वायत्त शासन का अधिकार प्रदान किया गया था । प्रत्येक ग्राम तथा नगर में जन-समितियों का गठन किया गया था जो स्थानीय शासन का संचालन करती थीं । कर्नाटक तथा महाराष्ट्र के प्रत्येक गाँव में एक सभा होती थी ।

ग्रामसभा में प्रत्येक परिवार का वयस्क सदस्य होता था । ग्राम के बड़े-बूढ़ों को ‘महत्तर’ कहा जाता था । वे पाठशालाओं, मन्दिरों, सड़कों, तालाबों आदि की देखभाल करने तथा व्यवस्था रखने के लिये उपसमितियों नियुक्त करते थे । ये समितियाँ मुखिया के साथ मिलकर कार्य करती थीं । दीवानी मामलों का फैसला ग्राम सभायें ही करती थीं । नगरों में भी इसी प्रकार की समितियाँ होती थी ।

राष्ट्रकूट लेखों में यदा-कदा विषयमहत्तर तथा राष्ट्रमहत्तर का उल्लेख मिलता है । इससे सूचित होता है कि जिलों तथा प्रान्तों के मुख्यालयों पर भी जनता का प्रतिनिधित्व करने वाली सभायें होती थीं । किन्तु इनके कार्यों के विषय में हम नहीं जानते ।

राज्य की आय का प्रमुख साधन भूमिकर था जिस उद्रग अथवा भोगकर कहा जाता था। यह उपज का चौथा भाग होता था और प्राय अनाज के रूप में लिया जाता था । जो भूमि अनुदान में दी जाती थी वह सभी करों से मुका होती थी ।

दुर्भिक्षादि विपत्तियों में कर माफ कर दिया जाता अथवा उसकी मात्रा कम कर दी जाती थी । भूमिकर के अतिरिक्त खानों, वनों, क्रय-विक्रय की वस्तुओं तथा चुंगी आदि के द्वारा भी प्रभूत आय होती थी । सामन्त भी समय-समय पर सम्राट को कर, उपहारादि दिया करते थे ।

राष्ट्रकूट सम्राट साम्राज्यवादी थे तथा अपने साम्राज्य का विस्तार करने के निमित्त अपने पास एक विशाल तथा शक्तिशाली सेना रखते थे । राजधानी में स्थायी सेना रहती थी तथा युद्धों के समय सामन्त अपनी सेनायें भेजते थे । कुछ सम्राट जैसे गोविन्द तृतीय, इन्द तृतीय, कृष्ण द्वितीय आदि उच्चकोटि के सैनिक विजेता थे जिन्होंने दक्षिणी भारत के अतिरिक्त उत्तरी भारत को भी अपने सैन्यवल से जीता था ।

राष्ट्रकूट सेना में सभी वर्गों के लोग रखे जाते थे । इसमें ब्राह्मण तथा जैन सैनिक भी थे । उल्लेखनीय है कि कुछ प्रसिद्ध राष्ट्रकूट सेनापति-चकेय, श्रीविजय, मारसिंह आदि-जैन मतानुयायी थे । राष्ट्रकूट सेना में पदाति सेना का ही सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण स्थान था । इस प्रकार राष्ट्रकूट सम्राटों की शासन-व्यवस्था निपण तथा उदार थी । इसमें प्रजा का भौतिक तथा नैतिक दोनों ही प्रकार का उत्थान हुआ ।

राष्ट्रकूट राजवंश का धर्म तथा साहित्य (Religion and Literature of Rashtrakut Empire):

उत्साही विजेता होने के साथ ही साथ राष्ट्रकूट शासक धर्म, साहित्य और कला में भी गहरी अभिरुचि रखते थे तथा शान्ति के काल में किये गये उनके कार्य भी कम प्रशसनीय नहीं है । राष्ट्रकूट राजाओं ने ब्राह्मण तथा जैन दोनों ही धर्मों को प्रश्रय प्रदान किया जो उनकी धार्मिक सहिष्णुता का परिचायक है ।

राष्ट्रकूटों के काल में दक्षिणापथ में जैन धर्म का विकास हुआ । महान् राष्ट्रकूट शासक अमोघवर्ष प्रथम ब्राह्मण धर्म से अधिक जैन-धर्म में अभिरुचि रखता था । प्रसिद्ध जैन आचार्य जिनसेन उसके पू थे तथा उसने एक अन्य जैन आचार्य गुणभद्र को अपने पुत्र कृष्ण का शिक्षक नियुक्त किया था ।

उसने बनवासी में -विहार निर्मित करवाया था तथा अनेक जैन विहारों को उसने दान दिये थे । कई राष्ट्रकूट सेनापति भी जैन मतानुयायी थे । जैन धर्म के अतिरिक्त राष्ट्रकूट काल में वैष्पव एवं शेव धर्मों का भी व्यापक प्रचार-प्रसार था । अमोघवर्ष ने जैन होते हुए भी महालक्ष्मी की पूजा की तथा एक बार अपने राज्य को भीषण महामारी से बचने के लिये उसने अपनी एक ऊँगली उसे काटकर चढ़ा दिया था ।

राष्ट्रकूट युग में बौद्ध धर्म का प्रचार अपेक्षाकृत कम रहा । कन्हेरी का बौद्ध विहार इस समय सर्वाधिक प्रसिद्ध था । इस्लाम धर्म के प्रति भी इस काल के लोगों का दृष्टिकोण सहिष्णुतापूर्ण था । मुस्लिम लेखकों के विवरण से पता चलता है कि राष्ट्रकूट राज्य में अरब व्यापारियों को मस्जिद बनाने तथा धर्म का पालन करने की पूरी स्वतन्त्रता मिली हुई थी ।

साहित्य:

राष्ट्रकूट नरेश विद्वान् तथा विद्या-प्रेमी थे और उनके दरबार में उच्चकोटि के विद्वान् आश्रय पाते थे । अमोघवर्ष ने कप्रड् भाषा में प्रसिद्ध काव्यग्रन्थ ‘कविराजमार्ग’ लिखा था । उसकी राजसभा में आदिपुराण के लेखक जिनसेन, गणितसारसंग्रह के रचयिता महावीराचार्य तथा अमोघवृत्ति के लेखक साकतायन निवास करते थे । राष्ट्रकूट नरेशों ने कन्नड़ भाषा तथा साहित्य को संरक्षण प्रदान किया । कन्नड् के साथ-साथ संस्कृत का भी विकास होता रहा । राष्ट्रकूट लेखों में संस्कृत भाषा का प्रयोग मिलता है ।

राष्ट्रकूट राजवंश की कला (Art of Rashtrakut Empire):

राष्ट्रकूटवशी नरेश उत्साही निर्माता थे । चूंकि इस वश के अधिकाश शासक शैवमतानुयायी थे, अत: उनके काल में शैव मन्दिर एवं मूर्तियों का ही निर्माण प्रधान रूप से हुआ । ऐलोरा, एलिफैण्टा, जागेश्वरी, मण्डपेश्वर जैसे स्थान कलाकृतियों के निर्माण के प्रसिद्ध केन्द्र बन गये । ऐलोरा तथा एलिफैण्टा तो अपने वास्तु एवं तक्षण के लिये जगत् प्रसिद्ध हो गये है ।

i. एलोरा:

महाराष्ट्र प्रान्त के औरगाबाद में स्थित एलोरा नामक पहाड़ी पर अठारह ब्राह्मण (शैव) मन्दिर एवं चार जैन गुहा मन्दिरों का निर्माण करवाया गया । राष्ट्रकूट कला पर चालुक्य एवं पल्लव कला शैलियों का प्रभाव स्पष्टत: परिलक्षित होता

एलोरा के मन्दिरों में ‘कैलाश मन्दिर’ अपनी आश्चर्यजनक शैली के लिये विश्व-प्रसिद्ध है । इसका निर्माण कृष्ण प्रथम ने अत्यधिक धन व्यय करके करवाया था । यह प्राचीन भारतीय वास्तु एवं तक्षण कला का सर्वोत्कृष्ट उदाहरण है । यह सम्पूर्ण मन्दिर एक ही पाषाण को काटकर बनाया गया है ।

सर्वप्रथम एक विशाल शिलाक्षेत्र को कठोर श्रम द्वारा उत्कीर्ण कर उसके चारों ओर का फालतू हिस्सा निकाल दिया गया तथा बीच का भाग जहाँ मन्दिर बनना था, छोड़ दिया गया । इस मध्यवर्ती भाग में ही मन्दिर बनाया गया । निर्माण कार्य ऊपर से नीचे की ओर किया गया तथा स्थापत्य कार्य के साथ-साथ मूर्तिकारी एवं अलकग्ण भी किया जाता रहा । इस प्रकार खुपी से जगती आधार) तक के निर्माण की सम्पूर्ण योजना वनाकर उसे क्रियान्वित किया गया ।

मन्दिर का विशाल प्रांगण 276 फुट लम्बा तथा 154 फुट चौड़ा है । इसमें विशाल स्तम्भ लगे हे तथा छत मूर्तिकारी से भरी हुई है । मन्दिर में प्रवेश द्वार, विमान तथा मण्डप बनाये गये है । विमान तथा मण्डप का क्षेत्रफल 150′ × 100′ के आकार में है । इसकी चौकी 25′ ऊँची है ।

चौकी हाथी तथा सिंह पंक्तियों से इस प्रकार बनायी गयी है कि ऐसा प्रतीत होता है कि इन्हीं के ऊपर देव विमान और मण्डप टिके हुए है । मण्डप की सपाट छत सोलह स्तम्भों पर आधारित है जो चार-चार के समूह में बनाये गये है । विमान दुतल्ला है ।

मण्डप तथा विमान को जोड़ते हुए अर्धमण्डप अथवा अन्तराल बनाया गया है । विमान का चारतल्ला शिखर 95′ ऊंचा है तथा इसके तीन ओर प्रदक्षिणापथ है । इसमें पाँच बड़े देव प्रकोष्ठ बनाये गये है । शिखर पर स्तूपिका बनाई गयी है । मण्डप के सामने एक विशाल पन्दीमण्डप तथा उसके दोनों पाशवों में दो ध्वजस्तम्भ बनाये गये है जो मन्दिर को गरिमा प्रदान करते है । इसकी शैली मामल्लपुरम् के रथों की शैली से अनुप्रेरित द्रविड़ प्रकार की है ।

मन्दिर के समीप ही पाषाण काटकर एक लम्बी पंक्ति में हाथियों की मूर्तियाँ बनाई गयी हैं । मन्दिर की वीथियों में भी अनेक देवी-देवताओं की मूर्तियाँ उत्कीर्ण की गयी है । इनमें गोवर्धन धारण किये कृष्ण, भगवान विष्णु, शिव के विविध रूपों, महिषासुर का वध करती हुई दुर्गा, कैलाश पर्वत उठाये हुए रावण, रावण द्वारा सीता हरण तथा जटायु के साथ युद्ध आदि दृश्यों का अंकन अत्यन्त कुशलतापूर्वक किया गया है ।

समग्र रूप से यह एक अत्युत्कृष्ट रचना है । पाषाण काटकर बनाये गये मन्दिरों में इस मन्दिर का स्थान अद्वितीय है । कर्कराज के बड़ौदा लेख में इसे ‘अद्‌भुत सनिवेश’ कहा गया है । बताया गया है कि इसे देखकर देवलोक के देवतागण अचम्भित हो गये तथा इसकी शोभा को मानव निर्माण से परे बताया । कलाविद् पर्सी ब्राउन इसकी तुलना मिसी वास्तु तथा यूनानी पोसीडान मन्दिर से करते हुए इसे प्रकृत शैलवास्तु का विश्व में सबसे विलक्षण नमूना मानते है ।

एलोरा के मध्य मन्दिरों में रावण की खाई, देववाड़ा, दशावतार, लखेश्वर, रामेश्वर, नीलकण्ठ आदि विशेष रूप से उल्लेखनीय है । रावण की खाई का बाहरी बरामदा चार स्तम्भों पर आधारित है । इसके पीछे बारह स्तम्भों पर टिका हुआ मण्डप है । गर्भगृह के चारों ओर प्रदक्षिणापथ है जिसकी उत्तरी तथा दक्षिणी दीवारों पर अनेक पौराणिक आख्यानों एवं देवी-देवताओं की मूर्तियों का चित्रण है ।

नृत्य करते हुए शिव तथा कैलाश पर्वत उठाते हुए रावण के दृश्य सुन्दर है । दशावतार मन्दिर का निर्माण आठवीं शती में दन्तिदुर्ग के काल में हुआ । यह दुतल्ला है तथा इसके द्वार पर नन्दिमण्डप बना है । अधिष्ठान में चौदह स्तम्भ लगे है इसकी मूर्ति सम्पदा विपुल हैं ।

इसमें भगवान विष्णु के दस अवतारों की कथा मूर्तियों में अंकित हैं । तक्षण एवम् स्थापत्य दोनों ही दृष्टि से यह मन्दिर भी अत्युत्कृष्ट है । कुछ रचनायें अत्युत्कृष्ट है । उत्तरी दीवार पर शिवलीला तथा दक्षिणी दीवार पर विष्णु का विविध रूपों में अकन है । द्वार पर दो द्वारपालों की मूर्तियाँ है । विष्णु द्वारा नृसिंह रूप धारण कर हिरण्यकश्यप का वध किये जाने का दृश्यांकन अत्यन्त सुन्दर है ।

रामेश्वरम् गुहामन्दिर गुहाशैली के मन्दिर निर्माण के प्रारम्भ का द्योतक है । गुफा के सम्मुख प्रांगण में एक ऊंचे चबूतरे पर नटीपीठ बना है । मण्डप के पीछे प्रदक्षिणापथ सहित गर्भगृह है तथा द्वार पर द्वारपालों की मूर्तियों है । स्तम्भ भव्य एवं सुन्दर है । इन पर गणों की मूर्तियाँ बनाई गयी है । आठवीं शती के अन्त में सीता की नहानी गुफा की रचना की गयी । इसमें तीन ओर प्रांगण है ।

मुख्य प्रांगण में दोनों ओर दो देव प्रकोष्ठ बनाये गये हैं । इसमें सात स्तम्भों की पंक्तिया है । स्तम्भ गोलाकार है तथा इनके सिरे गुम्बदाकार बनाये गये है। गुफा द्वार पर दो विशाल सिंह बने हैं । प्रदक्षिणापथ में बनी मूर्तियाँ काफी मनोहर हैं ।

शिव ताण्डव का दृश्यांकन सर्वोत्तम है । ऐलोरा की कुछ गुफायें जैन मत से भी संबंधित हैं । इनमें इन्द्रसभा तथा जगब्राथ सभा उल्लेखनीय हैं । पहली दुतल्ला है जो एक विशाल प्रांगण में बनी है । इसमें एकाश्मक हाथी, ध्वजस्तम्भ तथा लघु स्तम्भ हैं ।

इन्द्र-इन्द्राणी की सुन्दर प्रतिमाओं के साथ-साथ इस गुहा मन्दिर में जैन तीर्थद्रर्री-शान्तिनाथ, पार्श्वनाथ आदि की प्रतिमायें बनाई गयी हैं । गुफाओं के स्तम्भ आधार, मध्य तथा ऊपरी भाग क्रमश:, चतुष्कोण, अष्टकोण तथा गोल बनाये गये है । सबसे ऊपर आमलक बना है । जगप्राथसभा का वास्तु विन्यास भी इन्द्रसभा से मिलता-जुलता है ।

ii. एलीफैण्टा:

चालुक्य स्थापत्य के नमूने एलीफैण्टा तथा जागेश्वरी से भी मिलते है । एलीफैण्टा में चालुक्यों के सामन्त शिलाहार शासन करते थे । नवीं शताब्दी के प्रारम्भ में यहाँ सुन्दर गुहायें उत्कीर्ण की गयीं । मुख्य गुफा में एक विशाल मण्डप है जिसके चतुर्दिक प्रदक्षिणापथ है । वर्गाकार गर्भगृह में विशाल शिवलिंग स्थापित है ।

चबूतरे से गर्भगृह में जाने के लिये सीढ़ियाँ बनाई गयी हैं । गर्भगृह के चारों ओर निर्मित देव प्रकोष्ठों में शिव के विविध रूपों की मूतियीं बनी हैं । इनमें सर्वाधिक सुन्दर महेश मूर्ति भारतीय कला की मूल्य थाती है ।

राष्ट्रकुट काल में मूर्ति अथवा तक्षण कला:

राष्ट्रकूट काल में वास्तु के साथ-साथ मूर्ति अथवा तक्षण कला की भी उन्नति हुई । गुप्त तथा चालुक्य शैली से प्रेरणा लेकर कलाकारों ने सुन्दर-सुन्दर मूर्तियाँ बनाई । ऐलोरा तथा एलिफैण्टा अपनी मूर्तिकारी के लिये सुप्रसिद्ध है । इस काल की शिव तथा विष्णु की मूर्तियों सर्वाधिक प्रसिद्ध हैं । ऐलोरा से शवि की तीनों शक्तियों-उत्पत्ति, स्थिति तथा विनाश से संबंधित मूर्तियों मिलती है । इनका सौन्दर्य एवं गढ़न उच्चकोटि का है ।

पार्वती की मूर्तियों भी काफी कलात्मक है । कैलाश मन्दिर में रावण द्वारा कैलाश पर्वत उठाने तथा शिव का अनुग्रह करके उसे मुक्त करने संबंधी मूर्ति काफी मनोहर है । रामेश्वर, दशावतार तथा कैलाश मन्दिरों में नटराज शिव की मूर्तियों मिलती है ।

वाराह तथा नृसिंह रूपी मूर्तियों काफी सुन्दर एवं कलात्मक हैं । इसके अतिरिक्त कमलासना लक्ष्मी, महिषमर्दिनी, दुर्गा, सप्तमातृकाओं आदि की मूर्तियाँ भी भव्य एवं सुन्दर है । दशावतार गुफा में बनी मकरारूढ गंगा की मूर्ति उत्कृष्ट है ।

एलिफैण्टा की मूर्तियों मूर्तिशिल्प के चरमोत्कर्ष को सूचित करती है । यहाँ की गुफा में शिव, ब्रह्मा, विष्णु, सूर्य, इन्द्र, यम, गणेश, स्कन्द आदि की मूर्तियों बनाई गयी है । शिव के विविध रूपों एवं लीलाओं से संवंधित मूर्तियों काफी अच्छी है । उत्तरी द्वार के सामने जगप्रसिद्ध त्रिमूर्ति है जो समस्त राष्ट्रकूट कला की सर्वोत्तम रचना है ।

पहले ऐसा समझा गया था कि यह ब्रह्मा, विष्णु एवं शिव की संयुक्त प्रतिमा है जिनकी गणना त्रिदेव में की जाती है । किन्तु जे॰ एन॰ बनर्जी ने इस अवधारणा का खण्डन करते हुए मूर्ति का तादात्म्य शिव के तीन रूपों शान्त, उग्र तथा शक्ति से करते हुए इसे ‘महेश मूर्ति’ की संज्ञा दी है ।

यह 17 फीट 10 इंच ऊंची है । इसका केवल आवक्ष तक का भाग दिखाया गया है । बीच का मुख शिव के शान्त, दायीं ओर का मुख रौद्र तथा बायीं ओर का मुख (जो नारी मुख है) शक्ति रूप का प्रतीक है । कलाकार को विविध विरोधी शक्तियों को कला में मूर्तरूप देने में आशातीत सफलता मिली है । एस॰ के॰ सरस्वती इसे सबसे विशिष्ट मूर्ति मानते है ।

ऐलोरा की चित्रकला:

वास्तु तथा तक्षण के साथ-साथ ऐलोरा चित्रकला का भी महत्वपूर्ण केन्द्र था । अपनी चित्रकारी के कारण कैलाश मन्दिर को ‘रंगमहल’ भी कहा जाता है । दुर्भाग्यवश यहाँ के अधिकतर चित्र मिट गये हैं । अथवा धूमिल पड़ गये है । ऐलोरा के चित्र जैन तथा ब्राह्मण धर्मों से संबंधित है जिन्हें सातवीं से ग्यारहवीं शती के बीच तैयार किया गया था ।

कैलाश मन्दिर में की गयी चित्रकारियों उत्तम कोटि की है । मण्डप की छत पर नटराज शिव का चित्र है जिसमें उनकी दस पुजायें दिखाई गयी हैं । देवमण्डल देवियों के साथ शिव को श्रद्धाझलि अर्पित करते हुए प्रदर्शित किया गया है । इन्द्र सभा में पार्श्वनाथ तथा अन्य तीर्थंकरों के चित्र बनाये गये है । इनके मुखण्डल की शान्त भावना दर्शनीय है ।

गरुड़ पर आसीन विष्णु के दोनों ओर लक्ष्मी तथा भूदेवी का अंकन है । चित्रों के माध्यम से शिव की विविध लीलाओं को दिखाया गया है । चित्रों में चटक रंगों की प्रमुखता है तथा रेखाओं का उभार प्रभावपूर्ण है । बारीक काशी के उदाहरण मिलते हैं ।

स्तम्भों पर बने वृक्षों एवं लताओं के चित्र अनुपम है । विद्याधरों की उड़ती पंक्ति तथा विद्याधर दम्पति के चित्र मनोहर है । ऐलोरा मन्दिरों की दीवारों पर जो चित्र मिलते हैं, उनसे सूचित होता है कि मन्दिरों के निर्माण के बाद उन्हें सुन्दर चित्रों से अलंकृत किया जाता था । चित्रकला पर अजन्ता का प्रभाव है किन्तु शैली भिन्न प्रकार की है ।

राष्ट्रकूट चित्रकला में अजन्ता चित्रकला जैसे भाव तथा सौन्दर्य नहीं मिलते । चित्रों के नष्ट हो जाने तथा धूमिल पड़ जाने के कारण ऐलोरा चित्रकला का सही मूल्यांकन संभव नहीं है । इस प्रकार राष्ट्रकूट राजाओं के सरक्षण में कला एवं स्थापत्य के विविध अंगों का पूर्ण एवं सम्यक् विकास हुआ ।

राष्ट्रकूट स्थापितों एवं शिल्पियों ने अपनी पूर्वकालीन एवं समकालीन अनेक कला शैलियों को ग्रहण कर अपनी अनुभूति तथा कौशल को उसमें सम्मिलित करके वास्तु एवं तक्षण को नया आयाम दिया । उनकी कृतियों में गुप्त युग की अपेक्षा अधिक विशालता, अलंकरण एवं चमत्कार दृष्टिगोचर होता है । अनेक कला समीक्षक तो राष्ट्रकूट वास्तु एवं स्थापत्य को ही भारतीय कला का स्वर्णिम अध्याय निरूपित करते है ।

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