भक्ति आंदोलन के संत | Saints of Bhakti Movement in Hindi. 1. Shankaracharya, 2. Ramanuja, 3. Ramanand, 4. Kabir, 5. Raydas, 6. Nanak, 7. Mahaprabhu Chaitanya and 8. Namdev.

हिन्दु विचारधारा में मोक्ष प्राप्ति के तीन साधन बताये गये हैं- ज्ञान, कर्म तथा भक्ति । वेद कर्मकाण्डी हैं, उपनिषदों में ज्ञान को महत्व दिया गया है तथा गीता में तीनों के समन्वय की चर्चा है ।

मध्यकाल में कई धार्मिक विचारकों तथा सुधारकों ने भारत के सामाजिक-धार्मिक जीवन में सुधार लाने के उद्देश्य से भक्ति को साधन बनाकर एक आन्दोलन प्रारम्भ किया जो ‘भक्ति आन्दोलन’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ ।

यद्यपि भारतीय जन-जीवन के लिये यह आन्दोलन नया नहीं था तथापि इस्लाम की उपस्थिति से इसे वेग प्राप्त हुआ तथा यह जनान्दोलन में परिणत हो गया । भारतीय जन-जीवन में इसने एक नवीन शक्ति तथा गतिशीलता का संचार किया ।

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मध्यकालीन समाज का यह आन्दोलन कोई नया नहीं था । सर्वप्रथम इसका उदय द्रविड़ देश में हुआ तथा वहाँ से उसका प्रचार उत्तर में किया गया । भागवत पुराण में कहा गया है कि भक्ति, द्रविड़ देश में जन्मी, कर्नाटक में विकसित हुई तथा कुछ काल तक महाराष्ट्र में रहने के बाद गुजरात में पहुँच कर जीर्ण हो गयी । इसका समर्थन सन्त समाज में प्रचलित इस एक उक्ति से भी होता है ।

1. शंकराचार्य तथा रामानुज (Shankaracharya and Ramanuja):

भक्ति तथा धार्मिक आन्दोलनों का सूत्रपात दक्षिण में आठवीं शती में महान् दार्शनिक शकराचार्य के उदय के साथ हुआ था जिन्होंने विशुद्ध अद्वैतवाद का प्रचार किया । किन्तु उन्होंने गान की महत्ता का प्रतिपादन किया था । फलस्वरूप उनका मत सामान्य लोगों को ग्राह्य नहीं हुआ ।

हिन्दू धर्म को व्यापक आधार प्रदान करने के उद्देश्य से मध्यकाल में अनेक धार्मिक सुधारकों का आविर्भाव हुआ जिन्होंने मोक्ष प्राप्ति के लिये भक्ति पर बल दिया । भक्ति आन्दोलन के प्राचीनतम प्रचारक प्रसिद्ध वैष्णव आचार्य रामानुज (1017-1137 ई॰) थे जिन्होंने सगुण ईश्वर की उपासना पर बल दिया ।

उन्होंने यह मत रखा कि भक्ति तथा प्रपत्ति से प्रसन्न ईश्वर स्वयं मोक्ष प्रदान करता है (भक्ति-प्रप्रत्तिम्मां प्रसन्न ईश्वरेव मोक्ष ददाति) । उनका मत ‘विशिष्टाद्वैत’ कहा जाता है जिसका अर्थ है- जह्म अर्थात् ईश्वर अद्वैत होते हुए भी जीव तथा जगत् की शक्तियों द्वारा विशिष्ट है । रामानुज के अतिरिक्त दक्षिण के अन्य प्रमुख धर्म-सुधारक निम्बार्क, मध्व तथा बल्लभाचार्य थे । इनमें बल्लभाचार्य कृष्ण-भक्ति सम्प्रदाय के प्रवर्तक थे । उनका मत ‘शृद्धाद्वैथ’ कहा जाता है ।

2. रामानन्द (Ramanand):

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उत्तर भारत में भक्ति आन्दोलन के प्रथम प्रवर्तक रामानन्द थे जिनका जन्म 1299 ई॰ के लगभग प्रयाग के आकुल ब्राह्मण परिवार में हुआ था । प्रयाग तथा वाराणसी में उन्होंने शिक्षा प्राप्त की । कुछ समय तक वे श्री-सम्प्रदाय क महान् सन्त राघवानन्द के साथ रहे तथा उन्हें अपना गुरु स्वीकार किया ।

किन्तु बाद में दोनों में मतभेद हो गया तथा रामानन्द उनका मठ छोड्‌कर उत्तर भारत में भ्रमण के लिये निकल पड़े । उन्होंने अपने जीवन का अधिकांश समय विभिन्न स्थानों की यात्रा में व्यतीत किया । 1456 ई॰ के लगभग उनकी मृत्यु हुई ।

रामानुज के समान ही रामानन्द भी सगुण ईश्वर में विश्वास करते थे । भक्ति तथा ईश्वर के साथ व्यक्तिगत सम्बन्ध स्थापित करने में उनका दृढ़ विश्वास था । भक्ति को मोक्ष का एकमात्र साधन स्वीकार करते हुए उन्होंने राम-सीता की उपासना का आदर्श समाज के सामने रखा । जाति-पाँति तथा बाह्याडम्बरों का विरोध करते हुए उन्होंने सभी जातियों के लोगों को अपना उपदेश दिया ।

उन्होंने अपने मत का प्रचार संस्कृत में न करके क्षेत्रीय भाषाओं में किया । उनकी दृष्टि बड़ी उदार थी । उन्होंने ब्राह्मण से लेकर शूद्र तक सभी को अपना शिष्य बनाया । उनका कहना था कि जो भगवान की शाखा में आ गया उसके लिये वर्णाश्रम का बन्धन व्यर्थ है ।

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‘यदि ऋषियों के नाम पर गोत्र तथा परिवार बन सकते है तो ऋषियों के भी पूज्य ईश्वर के नाम पर सबका परिचय दिया जा सकता है । सभी भाई- भाई है, दुख जाति के हैं । मनुष्य भक्ति से बड़ा बनता है, जन्म से नहीं ।’ रामानन्द के बारह प्रमुख शिष्यों में एक जुलाहा कबीर ।

एक चमार (रैदास) तथा एक नाई (सेना) के नाम उल्लेखनीय है । विभिन्न जाति के लोगों को अपना शिष्य बनाकर उन्होंने समाज में भाई-चारे की भावना को विकसित किया । उनके विचारों ने समाज के निम्न वर्ग के मन ये एक नई चेतना तथा विश्वास को जागृत किया ।

उनके विचारों से प्रभावित होकर कई व्यक्तियों, जिन्होंने पहले हिन्दू धर्म त्याग कर इस्लाम स्वीकार कर लिया था, ने पुन हिन्दू धर्म ग्रहण कर लिया । रामानन्द ने हिन्दू-मुस्लिम समन्वय का मार्ग भी प्रशस्त किया । वे उत्तर तथा दक्षिण के भक्ति आन्दोलन के बीच की कड़ी थे । उन्होंने कबीर, नानक तथा चैतन्य के समाज एवं धर्म-सुधार आन्दोलनों की पृष्ठभूमि तैयार की थी ।

3. कबीर (Kabir):

मध्यकाल के सम्प्रदाय जो इस्लाम से सर्वाधिक प्रभावित हुए वे कबीर तथा गुरु नानक के थे । कबीर (1440-1510 ई॰) का नाम हिन्दू तथा मुसलमानों में समान रूप से लोकप्रिय है । उनका प्रारम्भिक जीवन अन्धकारपूर्ण है । परम्परा के अनुसार उनका जन्म किसी विधवा ब्राह्मणी के गर्भ से वाराणसी के समीप हुआ तथा पालन-पोषण एक जुलाहा दम्पत्ति-नीरू तथा नीमा-ने किया ।

बडा होने पर उन्होंने बालक का नाम ‘कबीर’ रखा । यह अरबी भाषा का शब्द है जिसका अर्थ ‘महान्’ होता है । इस प्रकार कबीर के व्यक्तित्व में हिन्दु तथा दोनों के संस्कारों का सम्मिश्रण था किन्तु वे न तो अपने को हिन्दू मानते थे और न ही मुसलमान, अपितु इन दोनों से परे अपने को उन्होंने ‘योगी’ कहा ।

उनकी शिक्षा-दीक्षा किसी संस्था अथक गुरु के पास नहीं हुई । उन्होंने व्यापक रूप से भ्रमण किया तथा लोगों के साथ सत्संग किया । इस प्रकार उन्हें गहरा अनुभव प्राप्त हो गया । कबीर अत्यन्त फक्कड़ स्वभाव के थे । उन्होंने हिन्दू तथा मुसलमान दोनों के बीच का भेद-भाव समाप्त करने के लिये दोनों ही धर्मों की कुरीतियों एवं बाह्याडम्बरों का जमकर विरोध किया ।

निराकार ईश्वर में विश्वास करते हुए उन्होंने वेद और कुरान की प्रामाणिकता को चुनौती दी । बाह्मणों तथा मुसलमानों की जन्यगत श्रेष्ठता उन्हें मान्य नहीं थी । उन्होंने कर्म की प्रधानता स्वीकार करते हुए धर्म की मौलिक एकता पर बल दिया । मूर्ति-पूजा, मन्दिर-मस्जिद, तीर्थव्रत आदि की उन्होंने कड़ी निन्दा करते हुए उन्हें त्याज्य बताया ।

इस संबन्ध में उनकी निम्नलिखित पंक्तियाँ वस्तुतः उल्लेखनीय हैं:

पाहन पूजे हरि मिलें, तो में पूजूं पहार । ताते तो चकिया भली, पीस खाय संसार ।

कांकर पाथर जोरि कै, मस्जिद लई चुनाय । ता चढ़ि मुल्ला बांग दै, बहरा हुआ खुदाय ।

ना मैं मन्दिर ना मैं मस्जिद ना काबे कैलास में । मैं तो रहूँ शहर के बाहर, मेरी कुटी मवास मैं । ।

उनका कहना था कि राम-रहीम, कृष्ण-करीम, मक्का तथा काशी एक ही परमेश्वर की विभिन्न अभिव्यक्तियाँ है । कबीर अपने समय के महानतम् समाज सुधारक भी थे । उन्होंने मानव मात्र की समानता पर बल दिला तथा जाति-प्रथा ऊंच-नीच आदि का घोर विरोध किया ।

बाल विवाह, सती प्रथा, पर्दा प्रथा आदि की उन्होंने खुली उनमनोचना की । यह कहते हुए कि ‘साईं के सब जीव है कीरी कुंजर दोय’ उन्होंने मानव मात्र की समानता का उद्‌धोष किया तथा ईश्वर भक्ति के लिये सभी के समान अधिकार की मांग की । ईश्वर के सभी जीवों के लिये उन्होंने अपना अस्तित्व समर्पित कर दिया तथा संसार के लिये स्वयं को मिटा दिया ।

इसी प्रकार हरि का भजे सो हरि का होई, जाति-पाति पूछै नहि कोई’ का उद्‌घोष कर उन्होंने परम्परागत जाति-प्रथा को गम्भीर चुनौती दी । आजीवन गृहस्थ जीवन व्यतीत कर कबीर ने श्रम की महत्ता का प्रतिपादन किया । धनसंचय तथा वैभव के वे विरोधी थे । उन्होंने यह उपदेश निरा कि मनुष्य को परिश्रम से उतना ही धन अर्जित करना चाहिये जितना उसके उपयोग के लिये आवश्यक हो ।

उन्होंने ईश्वर से यह मांग की- साई इतना दीजिये जामें कुटुम्ब समाय । मैं भी भूखा न रहूं साधु न भूखा जाये ।

इस प्रकार कबीर भक्ति आन्दोलन के सर्वप्रमुख नेता थे । उन्होंने समाज के सभी वर्गों का सच्चा मार्ग दर्शन किया । उनकी वाणी ने समाज के निम्न वर्गों को सम्मान दिया तथा उपेक्षित एवं अनादृत जनसमूह में आशा और विश्वास का सृजन किया । वे सच्चे मानवतावादी थे ।

उन्होंने जिस धर्म का उपदेश दिया वह सबके लिये सुलभ तथा सुखद था । डी॰ हजारी प्रसाद द्विवेदी के शब्दों में ”चुगावतार की शक्ति और विश्वास लेकर वे पैदा हुए थे और युग-प्रवर्तन की दृढ़ता उनमें वर्तमान थी । इसी लिये वे युग-प्रवर्तन कर सके ।”

4. रैदास (Raydas):

रामानन्द के शिष्यों में कबीर के वाद रैदास का नाम उल्लेखनीय है । उन्होंने काशी में रहकर अपने उपदेश दिये । वे शिक्षित तो नहीं थे लेकिन कबीर के समान ही बहुश्रुत थे । रैदास ने अत्यन्त सीधी तथा सरल भाषा में अपने उपदेश दिये । कबीर की भांति वे भी निर्गुण एवं निराकार ईश्वर की उपासना पर बल देते थे ।

उन्होंने समाज के निम्नवर्ण के लोगों में नवीन आशा तथा विश्वास का संचार किया । आजीवन जातिगत व्यवसाय में लगे रहकर उन्होंने जहाँ एक ओर श्रम की महत्ता का प्रतिपादन किया वहीं दूसरी ओर इस भावना को सुदृढ़ बनाया कि जाति से कोई व्यक्ति ऊंचा अथवा नींचा नहीं होता है ।

वे तीर्थयात्रा, व्रत, नदियों में स्नानादि के विरोधी थे तथा उन्होंने बताया कि यदि मन पवित्र हो जाये तो सब कुछ घर बैठे ही प्राप्त हो सकता है । ‘मन चंगा तो कठौती में गंगा’ नामक रैदास की उक्ति आज भी लोक जीवन में प्रचलित है । कहा जाता है कि मेवाड़ की रानी झाली तथा प्रसिद्ध कवियित्रि मीराबाई ने भी रैदास को अपना गुरु स्वीकार किया था ।

5. नानक (Nanak):

कबीर के विचारों से मिलते-जुलते विचार सिक्खों के धर्म-गुरु नानक (1469-1538) के भी थे । उनका जन्म पंजाब के गुजरानवाला जिले में रावी नदी के तट पर स्थित तलवन्डी (आधुनिक ननकाना साहिब) नामक ग्राम में हुआ था । बचपन से ही वे साधु प्रकृति के थे ।

युवावस्था में गृहस्थ जीवन त्यागकर उन्होंने सन्यास ग्रहण कर लिया । ज्ञान प्राप्ति की लालसा से उन्होंने व्यापक भ्रमण किया । भारत के अतिरिक्त वे अफगानिस्तान, मिस्र, तुर्किस्तान, लंका, चीन, वर्मा आदि देशों की यात्रा पर भी गये । अपनी यात्रा के दौरान उन्होंने अनेक जैन साधुओं, मुसलमान फकीरों, हिन्द्व योगियों, सन्तों आदि के साथ सत्संग किया ।

रैदास तथा नामदेव से भी उनकी भेंट हुई । नानक को पंजाबी, हिन्दी, फारसी तथा संस्कृत आदि भाषाओं का गान था । अन्ततोगत्वा वे करतारपुर में रहकर उपदेश करने लगे । यहीं इनका निधन हुआ । नानक के शिष्यों में हिन्दू तथा मुसलमान दोनों ही सम्मिलित थे ।

कहा जाता है कि इनकी अत्त्वोख को लेकर हिन्दू तथा मुसलमानों में परस्पर विवाद उठ खड़ा हुआ । अन्ततः उनके भौतिक शरीर के स्थान पर कुछ फूल दिखाई पड़े । हिन्दू तथा मुसलमानों ने उन्हें आधा-आधा बाँट लिया । उनके ऊपर हिन्दुओं ने मन्दिर तथा मुसलमानों ने मकबरा बनवाये ।

कुछ समय पश्चात् दोनों ही स्मारक रावी नदी की बाद में विलीन हो गये । अपने विचारों को स्थायित्व प्रदान करने के लिये नानक ने सिक्ख धर्म की स्थापना की । गुरु नानक ने सरल तथा व्यवहारिक भाषा में अपने उपदेश दिये । उन्होंने भी धार्मिक आडम्बरों, कर्मकाण्डों, अवतारवाद, मूर्तिपूजा, ऊँच-नीच आदि का विरोध करते हुए निर्गुण एवं निराकार ईश्वर की पूजा करने का उपदेश दिया ।

उनका ईश्वर सत्य का रूप था (सत-श्री-अकाल) ।  उनका कहना था कि सत्य मार्ग का अनुसरण करने वाला व्यक्ति ब्रह्म तक पहुँच सकता है । कबीर के समान नानक भी हिन्दू-मुस्लिम एकता के प्रबल हिमायती थे । उन्होंने अपने समय की सामाजिक बुराइयों के विरुद्ध आवाज उठाई । हिन्दुओं की जाति-प्रथा के वे विरोधी थे ।

उनका धर्म मानवमात्र के कल्याण के लिये था । उन्होंने हिन्दू तथा मुसलमानों को प्रेम पूर्वक समझाने का प्रयास किया । कबीर के विपरीत उनकी वाणी में मधुरता थी । उनमें भी वक्रता अथवा खण्डन-मण्डन की प्रवृत्ति नहीं दिखाई देती । उनकी वाणी में भक्ति, सरलता, दीनता तथा की भावनायें मिलती हैं ।

नानक ने हिन्दु तथा मुसलमान, दोनों धर्मों में अन्तर्निहित सच्चाई को ग्रहण कर वाह्याडम्बरों का त्याग करने पर जोर दिया । हिन्दुओं को सम्बोधित करते हुए उन्होंने कहा ‘वही व्यक्ति अपने धर्म के प्रति निष्ठावान है जो ईश्वर से डरे तथा सत्कर्म करे । तुम पुस्तक पढ़ते हो, सन्ध्या करते हो, किन्तु सन्ध्या के वास्तविक रहस्य को नहीं जानते ।

पाषाण की पूजा करते हो तथा बगुले के समान झूठी समाधि लगाते हो । यह सच्ची समाधि के आनन्द से बहुत दूर तथा दिखावा मात्र है । मुख से झूठ बोलते हो तथा लोहे के गहने को सोना का बताते हो । पाखण्ड छोड़ो, इससे कोई लाभ नहीं है । सच्चाई एवं नैतिकता के मार्ग का अनुसरण करो ।

इसी प्रकार मुसलमानों को उन्होंने सलाह दी – ‘दया को मस्जिद समझो, उसमें सत्य की फर्श बिछाओ, न्याय तथा सच्चाई को कुरान जानी, नम्रता को सुन्नत समझो, सौजन्य को रोजा मानो, तब तुम मुसलमान कहलाओगे ।’  इस प्रकार नानक सच्चे समन्वय एवं मानवतावादी थे । स्त्रियों के प्रति भी उनका दृष्टिकोण उदार था ।

उन्होंने उपेक्षित नारी को गौरव प्रदान किया । धार्मिक साधना तथा जीवन के अन्त क्षेत्रों में उन्होंने स्त्रियों को पुरुषों के ही समान अधिकार दिये जाने की हिमायत की । वे धन संचय के भी विरोधी थे तथा उन्होंने धन के उचित वितरण पर बल दिया । ब्राह्मण से लेकर शूद्र तक को उन्होंने गले लगाया ।

उनकी दृष्टि में धनी-निर्धन का कोई भेद-भाव नहीं था । उनके विचार राष्ट्रीय भावनाओं से प्रेरित थे । अपने उपदेशों के माध्यम से नानकदेव राष्ट्र का उत्थान करना चाहते थे । उनकी वाणी में एक अद्‌भुत प्रेरणादायिनी शक्ति थी ।

उन्होंने जनमानस में व्याप्त निराशा को दूर किया तथा उसके स्थान पर आशा, विश्वास एवं पौरुष की भावना को जगाया । यह उनकी शिक्षाओं का ही परिणाम था कि उनके अनुयायी राष्ट्र निर्माण एवं राष्ट्र सेवा के कार्यों में लगे रहे । इस दृष्टि से उनका स्थान मध्यकालीन अन्तों में अत्यन्त ऊंचा है ।

6. महाप्रभु चैतन्य (Mahaprabhu Chaitanya):

भक्ति आन्दोलन के प्रसिद्ध सन महाप्रभु चैतन्य (1486-1533 ई॰) का जन्म बंगाल के नादिया जिले में एक सम्भ्रान्त ब्राह्मण परिवार में हुआ था । उनके पिता का नाम जगन्नाथ मिश्र तथा माता का नाम शची देवी था । चैतन्य के बचपन का नाम निमाई मिलता है ।

सुदर्शन नामक आचार्य से उन्हें शिक्षा-दीक्षा मिली । शीघ्र ही वे व्याकरण, स्मृति एवं न्याय दर्शन में प्रवीण हो गये । लक्ष्मी नामक कन्या के साथ उनका विवाह हुआ । कुछ समय बाद उसकी मृत्यु हो गयी । अतः चैतन्य ने विष्णुप्रिया के साथ दूसरा विवाह किया ।

जीवन-निर्वाह के लिये उन्होंने एक पाठशाला खोलकर शिक्षा देने का कार्य प्रारम्भ किया । लोग उन्हें ‘निमाई पण्डित’ कहने लगे । इसी बीच उनके पिता की मृत्यु हो गयी । इसके बाद उनके मन में वेराग्य उत्पन्न हो गया । बीस वर्ष की आयु में वे सन्यासी हो गये । उन्होंने विभिन्न स्थानों का थ्यापक भ्रमण किया तथा लोगों को प्रेम और भक्ति का उपदेश दिया ।

बहुत दिनों तक उन्होंने वृन्दावन में भी निवास किया । बल्लभाचार्य के समान चैतन्य ने भी कृष्ण को अपना आराध्य बनाया तथा उन्हीं की भक्ति का प्रचार किया । नादिया आकर उन्होंने कीर्तन-जुलूसों का आयोजन किया तथा गलियों में घूम-घूम कर कृष्ण लीलाओं का कीर्तन किया करते थे । शीघ्र ही उनकी लोकप्रियता बढ गयी तथा उनके अनुयायियों की संख्या अधिक हो गयी ।

चैतन्यदेव मानवतावादी थे तथा सभी मनुष्यों को एक समान मानते थे । जाति-पांति, कर्मकाण्ड, छुआ-छूत, ब्राह्मणों की श्रेष्ठता आदि के वे विरोधी थे । उन्होंने प्रेम, समानता, भातृभाव का प्रचार किया । चैतन्य हिन्द्व-मुस्लिम एकता के समर्थक थे । उन्होंने दोनों धर्मों के लोगों को अपना शिष्य बनाया ।

कबीर तथा नानक के समान चैतन्य ने भी समन्वयवादी दृष्टिकोण अपनाया तथा बंगाल में साम्प्रदायिक सामंजस्य स्थापित करने का प्रयास किया । उनकी शिक्षाओं का उद्देश्य पीड़ित जन समूह के कष्टों को दूरकर उनके जीवन को सुखी बनाना था । एतदर्थ उन्होंने अपना लक्ष्य मानव सेवा को बनाया तथा उसके माध्यम से प्रेम के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया ।

अपने जीवन का अधिकांश समय वे स्वयं दलितों की सेवा में व्यतीत किया करते थे । शूद्र तथा अन्य पद-दलित जातियों को समानता का अधिकार दिलाकर महाप्रणु चैतन्य ने महान् समाज सुधारकों की श्रेणी में अपने को प्रतिष्ठित कर दिया । उनकी मानव समाज सेवा की भावना निश्चयत प्रशसनीय है ।

7. नामदेव (Namdev):

बंगाल के ही समान महाराष्ट्र में भी भक्ति आन्दोलन का प्रचार हुआ । यहाँ के मध्ययुगीन सुधारकों में नामदेव का नाम उल्लेखनीय है । उनका जन्म 1270 ई॰ में सतारा जिले में कन्हाड़ के समीप नरसीबमनी गाँव में हुआ था । उनके पिता का नाम दामाशेट तथा माता का नाम जोनावाई था । वे छिपी जाति के थे ।

नामदेव को भक्ति की प्रेरणा अपने पिता से ही मिली थी । उन्होंने अपना बचपन साधुओं की सेवा तथा सत्संग में व्यतीत किया । सन्त विमोवा खेचर उनके गुरु थे । सन्त ज्ञानेश्वर के प्रति उनके मन में बड़ा सम्मान था । ज्ञानेश्वर के साथ उन्होंने कई स्थानों का भ्रमण किया तथा साधु-सन्तों से परिचय प्राप्त किया ।

उनकी मृत्यु के बाद नामदेव महाराष्ट्र छोड्‌कर पंजाब के गुरुदासपुर जिले में स्थित घोमन नामक गाँव में जाकर बस गये । यहाँ से उन्होंने अपने मत का प्रचार किया । हिन्दू तथा सिख दोनों ही उनके भक्त बन गये । नामदेव भी निरगुणवात थे । उन्होंने मूर्ति-पूजा तथा धर्म के बाह्याडम्बरों का विरोध करते हुए प्रेम, भक्ति एवं समानता का उपदेश दिया । उनका कहना था कि परमात्मा ही सब कुछ है ।

उसके अतिरिक्त कोई दूसरी सत्ता नहीं है । वहीं सभी में व्याप्त है । अतः एकान्त में उसी का ध्यान करना चाहिए । भक्ति को उन्होंने मोक्ष का साधन स्वीकार किया । नामदेव की एक भक्त के रूप में महाराष्ट्र तथा उत्तर भारत में इतनी अधिक प्रतिष्ठा थी कि कबीर ने भी आदरपूर्वक उनका स्मरण किया है ।

वे हिन्दू-मुस्लिम एकता के भी समर्थक थे । सभी जातियों के लोगों को उन्होंने अपना अनुयायी बनाया । वे मराठी भाषा तथा साहित्य के प्रमुख कवि थे । मराठी भाषा के माध्यम से उन्होंने महाराष्ट्र की जनता में एक नई चेतना जगाई ।

8. अन्य धार्मिक सुधारक (Other Religious Reformers):

मध्ययुग के उपर्युक्त प्रमुख सन्तों के अतिरिक्त मध्ययुगीन समाज में कुछ अन्य धार्मिक सुधारक भी हुए । इसमें धन्ना, पीपा, साईं, दादू आदि के नाम उल्लेखनीय हैं । इनमें दादू कबीर के सच्चे अनुयायी थे । उनका जन्म 1554 ई॰ में गुजरात के अहमदाबाद में हुआ । वे जाति के धुनिया थे ।

उन्होंने आजीवन गृहस्थ जीवन । बताते हुए ही उपदेश दिये । कहा जाता है कि उन्होंने अपने उपदेशों से मुगल सम्राट अकबर तक को प्रभावित किया था । दादू ने एकेश्वरवाद का प्रचार किया । उनका कहना था कि एक ही ईश्वर को विभिन्न नाम से पुकारा जाता है । अल्ला तथा हिन्दू देवताओं में कोई भेद नहीं है । प्रेम को उन्होंने ईश्वर का स्वरूप बताया ।

अपने अनुयायियों को अभिमान त्यागकर ईश्वर भक्ति का उपदेश दिया-

आपा में है हरिभजै तन मन तजे विकार । निर्बैरी सब जीव सो, दादू यहै मत सार । ।

दादू हिन्दू-मुस्लिम समन्वय के समर्थक थे । दोनों सम्प्रदाय के लोगों को उन्होंने अपना शिष्य बनाया । 1603 ई॰ में उनका निधन हुआ ।

मध्ययुगीन सन्तों ने अपने-अपने प्रवचनों द्वारा सामाजिक एवं धार्मिक कुरीतियों एवं पाखण्डों को दूर करने का प्रयास किया तथा आम लोगों के कल्याणार्थ एक सहज एवं सरल धर्म विधान प्रस्तुत किया । हिन्दुओं तथा मुसलमानों दोनों ने उनके विचारों का स्वागत किया । इस प्रकार भक्ति आन्दोलन ने उत्तर भारत के सामाजिक-धार्मिक जीवन में क्रान्तिकारी परिवर्तन उत्पन्न कर दिया ।

लोगों ने एक नई शक्ति एवं गतिशीलता का अनुभव किया । इस आन्दोलन ने देश को सांस्कृतिक एकता के सूत्र में संगठित करने का कार्य किया । भारत में बौद्धधर्म के पतन के वाद संभवतः भक्ति आन्दोलन जैसा लोकव्यापी तथा लोकप्रिय आन्दोलन कोई दूसरा नहीं हुआ ।

इसके दो प्रमुख उद्‌देश्य थे:

i. हिन्दू धर्म तथा समाज में सुधार ।

ii. हिम-मुस्लिम एकता की स्थापना करना ।

कहा जा सकता है कि सन्तों को इन कार्यों में सफलता प्राप्त हुई । जहाँ एक ओर जाति-पांति के बन्धन शिथिल हुए तथा हिन्दू धर्म का सरलीकरण हुआ वहीं दूसरी ओर सहिष्णुता की भावना विकसित हुई । हिंदू समाज के सभी वणों में यह भावना घर कर गयी कि भक्ति के लिये जाति-पांति का कोई बन्धन नहीं होता तथा परमेश्वर की दृष्टि में कोई ऊच-नीच का भेद नहीं है । सभी ने कर्म की महत्ता को स्वीकार किया । सन्तों ने लोक भाषाओं में अपने साहित्य लिखे थे । अतः उनके इस कार्य से लोक भाषाओं का साहित्य अत्यधिक समृद्ध हो गया ।

सन्तों की धार्मिक सहिष्णुता का प्रभाव बाद के मुगल शासकों पर पड़ा, जैसा कि डॉ॰ ताराचन्द ने लिखा है- ‘अकबर की दीने-इलाही किसी निरंकुश शासक की सनक नहीं थी अपितु वह उन अवश्यभावी शक्तियों का स्वाभाविक परिणाम थी जो भारतीय जनमानस में सागर की तरह उमड़ रहीं थी तथा जो कबीर तथा नानक जैसे सन्तों के विचारों में मुखरित हो रहीं थी ।’

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