प्राचीन भारतीय साम्राज्यों के अद्वितीय लक्षण | Unique Characteristics of Ancient Indian Kingdoms.

प्राचीन भारत में यद्यपि कई प्रकार के राज्यों के अस्तित्व के प्रमाण साहित्य तथा लेखों से प्राप्त होते हैं तथापि यह एक निर्विवाद सत्य है कि शासन की राजतंत्र प्रणाली ही सर्वमान्य एवं सर्वप्रचलित थी । अति प्राचीन काल से ही भारतीयों ने राजा एवं राजपद की महत्ता को समझा एवं सामाजिक व्यवस्था के लिये उसे अनिवार्य माना ।

भारतीय मनीषियों का स्पष्ट मत है कि राजा के अभाव में समाज में मात्स्य न्याय की स्थिति उत्पन्न हो जाती है जिसमें बलवान दुर्बलों का उसी प्रकार भक्षण करने लगते है जिस प्रकार जल में बड़ी मछली छोटी मछली का करती है । यह एक उल्लेखनीय तथ्य है कि भारतीय विचारक राज्य अथवा राजा को अपरिहार्य बुराई नहीं मानते थे अपितु उनकी दृष्टि में वह अच्छाई का पोषक तथा दुर्जनों के विरुद्ध सज्जनों का रक्षक था ।

प्राचीन साहित्य के अनुशीलन से हमें भारतीय राजत्व की निम्नलिखित विशेषताओं का ज्ञान होता है:

Feature # 1. देवत्व (Divinity):

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भारतीय संस्कृति धर्मप्राण है जहाँ प्रत्येक वस्तु के अस्तित्व के पीछे ईश्वर की सत्ता अथवा प्रेरणा को माना गया है । राजपद भी इसका अपवाद नही है । प्राचीन साहित्य में यंत्र-तंत्र अनेक उल्लेख मिलते हैं जिनमें राजत्व को दैवी गुणों से युक्त बताया गया है ।

राजा की दैवी उत्पत्ति की ओर भी संकेत किया गया है । ऐतरेय ब्राह्मण में कहा गया है कि देवताओं ने मिलकर इन्द्र को राजा बनाया था । महाभारत के अनुसार राजा की सृष्टि ब्रह्माजी ने मानव जाति के कल्याण के लिये की । कौटिल्य के अर्थशास्त्र में राजा को “इन्द्र और यम का प्रतिनिधि” कहा गया है (इन्द्रयम स्थानमेतत् राजान:) ।

मनुस्मृति में राजा की दैवी उत्पत्ति तथा उसके दैवीगुणों से सम्पन्न होने का विवरण प्राप्त होता है । इसके अनुसार- ‘इस संसार को बिना राजा के होने पर बलवानों के डर से प्रजा के इधर-उधर भागने पर सम्पूर्ण चराचर की रक्षा के लिये ईश्वर ने राजा की सृष्टि की । इन्द्र, वायु, यम, सूर्य, अग्नि, चन्द्रमा तथा कुबेर का सारभूत नित्य अंश लेकर उसने राजा को बनाया ।’

मनु आगे लिखते है कि बालक राजा भी बहुत बड़ा देवता होता है । विष्णु पुराण तथा भागवत में कहा गया है कि राजा के शरीर में अनेक देवताओं का वास होता है । भागवत में तो यहाँ तक लिखा गया है कि प्रथम राजा बेण के शरीर के विभिन्न अंगों पर विष्णु के कुछ लक्षण विद्यमान थे ।

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ईसा पूर्व प्रथम शताब्दी से भारतीय समाज में राजा को देवता मानने की भावना अत्यन्त प्रबल हो उठी । यहाँ तक कि बौद्धों ने भी कालान्तर में राजा को ‘सम्मुतिदेव’ (प्रजा की सम्मति का देवता) कहना प्रारम्भ कर दिया ।

ऐसा प्रतीत होता है कि राजा की देवत्व सम्बन्धी भावना को वेग प्रदान करने में कुषाणों का महत्वपूर्ण योगदान रहा । चीनी परम्परा के अनुकरण पर इस वंश के शासक अपने को ‘देवपुत्र’ कहते थे । गुप्त काल तक आते-आते राजपद पूर्णतया दैवी मान लिया गया तथा सम्राट को दैवीगुणों से सम्पन्न बताया गया ।

प्रयाग प्रशस्ति में समुद्रगुप्त को पृथ्वी पर निवास करने वाला देवता कहा गया है जो वहीं तक मनुष्य था जहां तक लौकिक कार्यों को सम्पन्न करता था । इसी प्रकार सम्राट हर्ष को हर्षचरित में सभी देवताओं को सम्मिलित अवतार बताया गया है (सर्वदेवतावतारमिवैकत्र) । भारतीय समाज में जब अवतारवाद का सिद्धान्त लोकप्रिय हो गया तब राजा को देवता का अवतार मान लिया गया ।

गहड़वाल वंशी राजाओं चन्द तथा गोविन्दचन्द्र को लेखों में क्रमशः ब्रह्मा तथा विष्णु का अवतार बताया गया है । इसी प्रकार पृथ्वीराजविजय में पृथ्वीराज को राम का अवतार बताया गया है । किन्तु यह एक उल्लेखनीय तथ्य है कि भारतीय विचारक राजपद को दैवी मानते है न कि उसे ग्रहण करने वाले व्यक्ति को ।

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अधिकांश विचारकों ने राजा के कार्यों की समता ही देवताओं के कार्यों से करते हुए राजा को देवतुल्य बताया है । बहुत कम लेखक यह कहने का साहस करते हैं कि राजा स्वयं देवता है । प्राचीन शास्त्रकारों ने राजस्व में देवत्व का आरोपण केवल उसकी प्रतिष्ठा बढ़ाने के उद्देश्य से ही किया ताकि उसके विरुद्ध बारम्बार विद्रोह न हो तथा प्रजा उसका सम्मान करें ।

बाणभट्ट ने राजा के देवत्व सिद्धान्त को धूर्त चापलूसों द्वारा गढ़ी हुई बात बताते हुए लिखा है कि जो शासक इसके बहकावे में आकर अपने को देवता समझ बैठते है, वे प्रजा के उपहास के पात्र बनते है । इसी प्रकार पूर्व मध्ययुगीन टीकाकार मेधातिथि ने स्मृतिकारों द्वारा वर्णित राजा के देवत्व को कोरा अर्थवाद बताया है ।

इस प्रकार स्पष्ट है कि यूरोप की भाँति भारत में देवत्व का सिद्धान्त राजा की निरंकुशता का समर्थन करने के लिये प्रतिपादित नहीं किया गया । देवत्व की आड़ में यहाँ कोई भी शासक अपने दुराचार एवं अत्याचार का समर्थन नहीं कर सकता था ।

यहाँ केवल नेक तथा धार्मिक राजा ही देवतुल्य माने जाते थे । इसके विपरीत दुराचारी शासकों को राक्षसों के समान माना गया है । देवत्व सिद्धान्त के पूर्ण समर्थक ने भी यह विचार व्यक्त किया है कि ‘धर्मच्युत् राजा अपने बन्धुबान्धवों के साथ मारा जाता है ।’

शुक्र का भी मत है कि केवल धर्मात्मा राजा ही देवता होता है । धर्म के आदेशों का अतिक्रमण करने वाला तथा प्रजा का उत्पीड़न करने वाला शासक वस्तुतः राक्षसों के अंश में निर्मित होता है जो नरक को जाता है । शुक्र ने तो यहां तक लिखा है कि जो राजा धर्म की उन्नति में लगा रहता है देवता उसके सेवक बन जाते हैं ।

इस प्रकार यह स्पष्ट है कि प्राचीन भारत में राजा के देवत्व की कल्पना उसके पद को प्रतिष्ठा एवं गरिमा प्रदान करने के उद्देश्य से ही की गयी थी । भारतीय विचारक यूरोपीय विचारकों के इस मत से असहमत थे कि ‘राजा कोई गलती नहीं कर सकता’ ।

Feature # 2. आनुवंशिकता (Heredity):

भारतीय राजत्व की दूसरी विशेषता उसका आनुवंशिक होना है । राजा का उत्तराधिकारी सामान्यत: उसका ज्येष्ठपुत्र ही होता था । वैदिक युग से ही राजपद आनुवंशिक बन गया था राजा के ज्येष्ठ पुत्र के शरीर में दोष होने की स्थिति में कनिष्ठ पुत्र को उत्तराधिकार प्राप्त होने के एकाध उदाहरण प्राप्त होते हैं ।

महाभारत से पता चलता है कि धृतराष्ट्र के अन्धे होने के कारण राजपद उसके अनुज पाण्डु को प्राप्त हुआ था । राजा का ज्येष्ठपुत्र यदि अवयस्क होता था तो उसके चाचा, माता आदि संरक्षक के रूप में कार्य करती थी ।

वयस्क होते ही उसे राजपद सांप दिया जाता था । राजपद सामान्यतः पुरुषवर्ग में ही सीमित था । पुत्रों के अवयस्क होने की दशा में माताओं द्वारा संरक्षिका के रूप में शासन करने के उदाहरण प्राप्त होते हैं, जैसे सातवाहन वंशीया नायनिका तथा वाकाटक वंशीया प्रभावतीगुप्ता ने अपने पुत्रों की संरक्षिका के रूप में शासन चलाया था ।

प्राचीन काल में कुछ उदाहरण ऐसे मिलते है जिनके आधार पर कुछ विद्वानों का अनुमान है कि राजा का निर्वाचन होता था । शकमहाक्षत्रप रुद्रदामन् तथा पालशासक गोपाल को उनकी प्रशस्तियों में उन्हें जनता द्वारा निर्वाचित शासक बताया गया है ।

हर्षचरित में कहा गया है कि हर्ष का कन्नौज के राजसिंहासन के लिये निर्वाचन किया गया था । किन्तु इस प्रकार के उल्लेख सम्बन्धित शासकों द्वारा सामान्य जनता के समर्थन पाने की उत्कट अभिलाषा मात्र को सूचित करते है न कि किसी व्यावहारिक स्थिति के सूचक हैं ।

हमें ज्ञात है कि इन शासकों के उत्तराधिकारी पैतृक रूप से राजपद का उपभोग करते रहे । अत: इन विवरणों के आधार पर सहसा यह निष्कर्ष निकाल लेना कि प्राचीन भारत में प्रजा द्वारा राजा का निर्वाचन किया जाता था तर्कसंगत नहीं होगा ।

वस्तुतः प्राचीन भारत में राजपद आनुवंशिक ही था तथा निर्वाचित राजा की कल्पना एक आदर्श थी । यही कारण है कि आनुवंशिक रूप से उत्तराधिकार प्राप्त किये हुए शासक भी विस्तृत अभिषेक संस्कारों द्वारा इसके प्रति अपनी निष्ठा सूचित किया करते थे ।

Feature # 3. कुलीनता (Nobility):

प्राचीन भारत में वर्णाश्रम व्यवस्था का प्रचलन था । प्रत्येक वर्ण के अलग-अलग कर्म निर्धारित किये गये । इसके अनुसार राजपद क्षत्रिय वर्ण का विशेषाधिकार था । प्राचीन व्यवस्थाकारों ने कुलीनता अर्थात उच्चकुल में उत्पन्न होना राजा का गुण बताया । कौटिल्य ने अर्थशास्त्र में सर्वप्रथम इसी गुण का उल्लेख किया है ।

उसके अनुसार ‘दुर्बल व्यक्ति भी यदि अभिजात (उच्च वर्ण का) है तो अनाभिजात (निम्नकुलीत्पन्न) बलवान व्यक्ति की अपेक्षा राजा होने के योग्य होता है । ऐसे व्यक्ति का वर्ण की श्रेष्ठता का कारण प्रजा स्वतः सम्मान करती है तथा उसकी आज्ञाओं का पालन करती है । इसके विपरीत शूद्रवंशी राजा घृणा का पात्र होता है ।’

प्राचीन काल के अधिकांश शासक ब्राह्मण अथवा क्षत्रिय वर्ण से ही सम्बन्धित थे । यद्यपि इन दोनों वर्षों से भिन्न वर्ण वाले व्यक्तियों के शासक होने के भी प्रमाण है । किन्तु ब्राह्मण व्यवस्थाकारों ने ऐसे राजाओं को मुक्तकंठ से स्वीकार नहीं किया तथा उनके विरुद्ध अनेक प्रकार के षड्यन्त्र किये । ब्राह्मण कौटिल्य ने निम्नकुलोत्पन्न नन्दों का अन्त कर क्षत्रिय वर्ण के हाथ में सत्ता सौंप दी । द्विजेतर शासकों की व्रात्य, वृषल, कुलहीन आदि कहकर निन्दा की गयी है ।

Feature # 4. शक्ति सम्पन्नता (Power Abilities):

राजतंत्रात्मक शासन व्यवस्था की सफलता सम्राट की शक्ति पर निर्भर करती है । इसके कुशल संचालन के लिये राजा का शक्ति सम्पन्न होना अनिवार्य है । अर्थशास्त्र में शासक का एक गुण ‘शक्य सामन्त’ अर्थात सामन्तों अथवा राजाओं को नियंत्रण में रखने में समर्थ होना बताया गया है ।

यदि हम प्राचीन शासन व्यवस्था का अवलोकेन करें तो स्पष्ट हो जाता है कि केवल योग्य एवं शक्तिशाली सम्राट ही अपने साम्राज्य तथा शासन को सुरक्षित रख सके । महापद्‌मनन्द, चन्द्रगुप्त मौर्य, अशोक, कनिष्क, समुद्रगुप्त, चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य आदि महान् शक्तिशाली शासक हुए जिन्होंने चक्रवर्त्ती सम्राट की अवधारणा को व्यावहारिक रूप दिया ।

ऐसे शासकों ने जहाँ एक ओर बाह्य शत्रुओं का दमन किया वहीं देश के भीतर शान्ति एवं सुव्यवस्था की स्थापना भी की । इसके विपरीत दुर्बल शासक अपना राज्य सुरक्षित नहीं रख सके तथा उन्हें राजपद से वंचित होना पड़ा ।

यदि हम शक्तिशाली साम्राज्यों के पतन के कारणों पर विचार करें तो पहला कारण उनके राजाओं की दुर्बलता ही दिखाई देती है । मौर्य शासक बृहद्रथ की दुर्बलता के कारण ही उसके सेनापति द्वारा उसकी हत्या की गयी जिसके परिणामस्वरूप मौर्यवंश का अन्त हुआ ।

दुर्बल एवं कायर रामगुप्त अपने ही भाई शक्तिशाली चन्दगुप्त द्वारा मार डाला गया । हमारे प्राचीन शास्त्रकारों एवं लेखकों ने भी सम्राट का लक्ष्य चक्रवर्त्ती अथवा सार्वभौम पद प्राप्त करना बताया है । प्राचीन सम्राटों के लिये एकराट राजाधिराज, सार्वभौम जैसे विरुद प्रयुक्त किये गये हैं ।

अर्थशास्त्र में ‘हिमालय से लेकर समुद्रतट तक की विस्तृत सहस्त्रयोजन भूमि को चक्रवर्त्ती सम्राट का क्षेत्र’ बताया गया है । राजसूय, वाजपेय, अश्यमेध महान् यज्ञों का अनुष्ठान कर सम्राट अपनी सार्वभौम स्थिति को अभिव्यक्त करता था ।

प्रयाग लेख में सम्राट का आदर्श ‘धरणिबन्ध’ अर्थात् पृथ्वी को बांधना (जीतना) तथा उदयगिरि गुहालेख (चन्द्रगुप्त द्वितीय कालीन) में ‘कृत्स्नपृथ्विजय’ अर्थात् सम्पूर्ण पृथ्वी को जीतना बताया गया है । इस प्रकार सार्वभौमिकता अथवा शक्ति सम्पन्नता हिन्दू राजत्व का मुख्य आधार है ।

Feature # 5. अनिरंकुशता (Anarchy):

प्राचीन काल के शासक यद्यपि शक्ति सम्पन्न होते थे तथापि वे निरंकुश आचरण प्रायः नहीं करते थे । व्यावहारिक दृष्टि से वे अपने अमात्यों तथा जन-प्रतिनिधियों के परामर्श से ही शासन करते थे । वे अपने को प्रजा का सेवक ही समझते थे ।

प्राचीन शास्त्रकारों ने राजा को निरंकुश होने से बचाने के लिये अनेक नियमों का विधान किया था । राजा के अत्याचार एवं उसकी निरंकुशता का प्रतिरोध करना प्रजा का कर्त्तव्य बताया गया है । शुक्रनीतिसार में कहा गया है कि प्रजा को अधिकार है कि वह अन्यायी राजा को हटाकर उसके स्थान पर न्यायशील राजा को सिंहासनासीन कर दे ।

याज्ञवल्क्य राजा को सलाह देते है कि वह अत्याचार से दूर रहे क्योंकि इसके द्वारा निकली हुई कोपाग्नि उसके यश, कुल तथा जीवन का अन्त कर देती है । कौटिल्य ने लिखा है कि- ‘यदि काम, क्रोध या अज्ञानवश दण्ड का प्रयोग किया जाता है तो जनसाधारण को कौन कहे, बानप्रस्थी तथा सन्यासी तक क्षुब्ध हो जाते है ।’

कौटिल्य की भांति मनु भी राजा को अन्याय तथा अत्याचार के विरुद्ध चेतावनी देते हुए उसे विनयशील होने की सलाह देते हैं । क्योंकि विनयशील राजा का कभी नाश नहीं होता है (विनीतात्मा हि नृपतिर्न विनश्यति कर्हिर्चित्) । मनुस्मृति में वेन, नहुष, सुमुख, नेमि आदि राजाओं के नाम दिये गये है जो विनयशील न होने के कारण नष्ट हो गये ।

इसके विपरीत पृथु, मनु, कुबेर तथा विश्वामित्र आदि ऐसे राजाओं के नाम गिनाये गये हैं जिन्होंने विनय के द्वारा राज्य, धन, ऐश्वर्य तथा यश की प्राप्ति की थी । महाभारत अन्यायी तथा अत्याचारी राजा को प्रजा द्वारा मारे जाने का विधान प्रस्तुत करता है ।

इसके अनुसार- ‘रक्षा न करने वाले, कर ऐंठने वाले तथा कुशल नेतृत्व न प्रदान करने वाले राजा की प्रजा द्वारा मिलकर हत्या कर दी जानी चाहिए । अन्यत्र वर्णित है कि रक्षा न करने वाले शासक को परस्पर संगठित होकर लोगों को पागल कुत्ते के समान मार डालना चाहिए ।’

पुराणों में बेंण नामक अत्याचारी शासक का उल्लेख है जिसे ऋषियों ने मार डाला था । जातक ग्रन्थों में भी अत्याचारी राजाओं के मारे जाने का उल्लेख मिलता है । धर्म तथा प्राचीन परम्पराओं ने राजा की निरंकुशता पर प्रतिबन्ध का काम किया ।

राज्याभिषेक के अवसर पर राजा को धर्म का बोध करा दिया जाता था । इस उद्देश्य से उसे धर्मदण्ड से तीन बार प्रताड़ित किये जाने का विधान था । हिन्दू शास्त्रकारों ने एक मत से यह घोषित किया कि प्रजा को सताने वाले तथा सार्वजनिक धन का घोटाला करने वाले राजा को नरक का दुख भोगना पड़ता है ।

प्राचीन इतिहास में अन्यायी तथा अत्याचारी राजाओं के विरुद्ध जनता द्वारा विद्रोह करके पदच्युत किये जाने के विवरण भी मिलते हैं । पुराणों से विदित होता है कि मगध की जनता ने परवर्ती हर्यक राजाओं को गद्दी से हटाकर शिशुनाग को राजा बनाया था ।

नन्द शासक धननन्द के विरुद्ध भी व्यापक असंतोष फैला जिसका लाभ उठाते हुए चाणक्य तथा चन्द्रगुप्त ने उसकी हत्या कर दी । मौर्य तथा शुंग वंश के अन्तिम शासकों तथा राष्ट्रकूटवंशी गोविन्द चतुर्थ के समय में भी जनविद्रोह हुए जिनका वे सामना नहीं कर सके ।

इस प्रकार के अनेक उदाहरण हैं जिनसे प्रकट होता है कि जनता ने अन्यायी एवं अधार्मिक राजाओं को गद्दी से हटाकर योग्य एवं सदाचारी राजाओं को गद्दी पर आसीन कर दिया । अत: प्राचीन युग का कोई शासक निरंकुश होने का साहस नहीं कर सकता था ।

अधिकांश राजाओं ने अनिरंकुशता के सिद्धान्त का पालन किया । मौर्य तथा गुप्त वंशों के आदर्शभूत शासक जीवनपर्यन्त न्यायशील एवं सदाचारी बने रहे । इस प्रकार अनिरंकुशता भारतीय राजत्व की एक प्रमुख विशेषता है ।

Feature # 6. उदारता तथा सहिष्णुता (Generosity and Tolerance):

प्राचीन भारतीय शासकों की एक प्रमुख विशेषता यह है कि उन्होंने व्यक्तिगत तथा सार्वजनिक जीवन में उदारता एवं सहिष्णुता की नीति अपनाई । यह सही है कि प्राचीन सम्राटों ने किसी धर्म विशेष अथवा सम्प्रदाय विशेष को अपनाया तथा उसे राजकीय संरक्षण प्रदान किया ।

किन्तु वे कभी भी असहिष्णु या धर्मान्ध नहीं हुए । उन्होंने अपने साम्राज्य में सभी धर्मों एवं सम्प्रदायों को विकसित होने का अवसर प्रदान किया तथा उन्हें दानादि दिया । मौर्य सम्राट अशोक की बौद्ध भक्ति तो प्रसिद्ध ही है तथापि इस वात के कोई प्रमाण नहीं मिलते कि उसने बौद्धेतर सम्प्रदायों का उत्पीड़न किया ।

उसके लेख इस बात के साक्षी है कि उसके विशाल साम्राज्य में विभिन्न धर्मों तथा सम्प्रदायों के अनुयायी रहते थे और राज्य की ओर से सभी को सहायता मिलती थी । सातवें शिलालेख में अशोक अपनी धार्मिक इच्छा को व्यक्त करते हुए कहता है कि ‘सभी मतों के व्यक्ति सभी स्थानों पर रहे क्योंकि वे सभी आत्मसंयम तथा हृदय का पवित्रता चाहते हैं ।’

बारहवें शिलालेख में वह विभिन्न धर्मों के प्रति अपने दृष्टिकोण को और अधिक स्पष्ट करते हुए कहता है- ‘मनुष्य को अपने धर्म का आदर और दूसरे के धर्म की अकारण निन्दा नहीं करनी चाहिये । ….अन्य धर्मों का आदर करना चाहिए ।

ऐसा करने पर मनुष्य अपने सम्प्रदाय की वृद्धि तथा दूसरे के सम्प्रदाय का उपकार करता है । ….लोग एक दूसरे के धर्म को सुने । इससे सभी सम्प्रदाय बहुश्रुत (अधिक ज्ञान वाले) होंगे तथा संसार का कल्याण होगा ।’ अशोक धम्ममहामात्रों को बौद्धों के साथ-साथ ब्राह्मणों, श्रमणों आदि को भी सम्मान एवं दानादि देने का आदेश देता है ।

मौर्यो के बाद के राजवंशों ने भी उदारता एवं सहिष्णुता की नीति का पालन किया । पुष्पमित्रशुंग के बौद्ध द्रोही होने की बात बौद्ध लेखकों के मस्तिष्क की ऊपज लगती है । यहाँ तक की कुषाण, जो विदेशी थे, उन्होंने भी उदारता एवं सहिष्णुता की नीति का परित्याग नहीं किया । गुप्त शासकों के काल में भी यह नीति कायम रही ।

वे यद्यपि ब्राह्मण (वैदिक) मत के पोषक थे तथापि उनके काल में ब्राह्मणेतर धर्मों एवं सम्प्रदायों की भी प्रगति हुई । चन्द्रगुप्त द्वितीय के समय में बौद्ध धर्म की भी उन्नति हुई जैसा कि फाहियान के विवरण से सूचित होता है । कुमारगुप्त प्रथम ने भी बौद्ध धर्म तथा संस्थाओं को प्रचुर धन एवं भूमि दान में दिया ।

उसी के काल में नालन्दा के महाविहार की स्थापना हुई । सम्राट हर्ष का शासन काल भी उदारता एवं सहिष्णुता के लिये प्रसिद्ध है । उदारता एवं सहिष्णुता वस्तुतः भारतीय संस्कृति की प्रमुख विशेषता रही है तथा भारत के आदर्शभूत शासकों ने इस पर आचरण किया । यहाँ धार्मिक उत्पीड़न अथवा अत्याचार के उदाहरण अपवाद स्वरूप ही मिलते हैं ।

सुदूर दक्षिण में शासन करने वाले राष्ट्रकूट, पल्लव, चोल, चालुक्य आदि शासकों ने भी सामान्यतः सभी धर्मों एवं सम्प्रदायों का पोषण किया था । इस बात के भी प्रमाण मिलते हैं कि भारतीय राजाओं ने विदेशी मूल के व्यक्तियों को उच्च प्रशासनिक पदों पर नियुक्त किया था । उदाहरण के लिये मौर्य शासन में यवन जातीय तुषास्य को जूनागढ़ प्रान्त का राज्य पाल बनाया गया था ।

Feature # 7. प्रजावत्सलता (Prognosis):

प्राचीन भारत के सम्राट अपनी प्रजावत्सलता के लिये प्रसिद्ध है । वे अपनी प्रजा के साथ पुत्रवत् आचरण करते थे । तथा उसकी भलाई को सर्वोच्च प्राथमिकता देते थे । राजत्व सम्बन्धी उनकी अवधारण पितृपरक थी । इसका सबसे अच्छा उदाहरण हमें अशोक के काल में देखने को मिलता है ।

प्रथम पृथक् शिलालेख में अशोक अपनी प्रजावत्सल भावनाओं को इस प्रकार व्यक्त करता है- ‘सभी मनुष्य मेरी सन्तान है । जिस प्रकार मैं अपनी सन्तान के लिये इच्छा करता हूँ कि वह सभी लौकिक एवं पारलोकिक हित और सुख से संयुक्त हो उसी प्रकार सभी मनुष्यों के लिये मेरी इच्छा है ।’

बाद के शासकों ने भी अशोक की इस प्रजावत्सल नीति का अनुसरण किया । कौटिल्य के अर्थशास्त्र में स्पष्टतः कहा गया है कि राजा का अपना प्रिय कुछ भी नहीं होता, अपितु जो प्रजा को प्रिय हो वही करना राजा के लिये हितकर होता है ।

मनुस्मृति में भी राजा को सलाह दी गयी है कि वह मनुष्यों में पिता के समान बर्ताव करें (वर्तेत पितृवन्नृषु) । प्राचीन भारत के सम्राट प्रजा के सामने उच्च नैतिक आदर्श रखते थे । प्राचीन ग्रन्थों में शासक को सलाह दी गयी है कि वह प्रजा के सुख के निमित्त अपने स्वार्थ का त्याग कर दे ।

अग्निपुराण में कहा गया है कि- ‘जिस प्रकार गर्भवती स्त्री उदस्थ शिशु को हानि पहुंचाने की आशंका से अपनी इच्छाओं का दमन करती है तथा सुखों को छोड़ देती है उसी प्रकार राजा को चाहिए कि अपनी प्रजा की भलाई के लिये व्यक्तिगत सुख तथा इच्छाओं का परित्याग कर दे ।’

मनुस्मृति में राजा का परम धर्म प्रजा पालन बताया गया है । इससे तात्पर्य भौतिक तथा नैतिक दोनों ही प्रकार का कल्याण करने से है । इसमें प्रजा रक्षण को सहस्त्र यज्ञों के फल के समान निरूपित किया गया है । अत: इसमें संदेह नहीं कि प्राचीन भारत के महान् सम्राटों ने इन आदर्शों का पालन किया तथा अपनी प्रजा के प्रिय पात्र बने रहे ।

गुप्त शासक अत्यन्त प्रजावत्सल थे । सम्राट स्कन्दगुप्त के भितरी लेख से विदित होता है कि उसकी प्रजा उससे अत्यन्त उपकृत थी तथा सभी दिशाओं में परितुष्ट जनों द्वारा उसका यशोगान किया जाता था ।

सम्राट हर्ष भी अपनी प्रजावत्सलता के लिये प्रसिद्ध है । कई राजपूत शासक अपनी प्रजाप्रियता के लिये प्रसिद्ध रहे । इस प्रकार प्रजावत्सलता हिन्दू राजत्व का अभिन्न अंग था ।

Feature # 8. लोकोपकारिता (Philanthropy):

प्राचीन भारतीय सम्राटों ने जन कल्याण को अपना लक्ष्य बनाया । उनकी दृष्टि में इससे बढ़कर कोई दूसरा कार्य नहीं था । सम्राट अशोक अपने छठें शिलालेख में राजत्व के इस उदात्त आदर्श को इस प्रकार व्यक्त करता है- ‘सर्वलोक हित मेरा कर्त्तव्य है । सर्वलोकहित से बढ़कर कोई दूसरा काम नहीं है । मैं जो कुछ भी पराक्रम करता हूँ वह इसलिये कि भूतों के ऋण से मुक्त हो जाऊं । मैं उनकों इस लोक में सुखी बनाऊँ और वे परलोक में सुख की प्राप्ति कर सकें ।’

इसी क्रम में वह अपने प्रतिवेदकों को आदेश देता है कि वे प्रत्येक समय तथा स्थान में उसे जनता के कार्यों की सूचना दें क्योंकि वह सर्वत्र जनता का ही कार्य करता है । कौटिल्य ने भी अपने ग्रन्थ में प्रशासन की जो रूपरेखा प्रस्तुत की है उसमें लोकहित को सर्वोच्च प्राथमिकता दी गयी है ।

तदनुसार- ‘प्रजा के सुख में राजा का सुख है, प्रजा के हित में उसका हित है । अपना प्रिय करने में राजा का हित नहीं होता, बल्कि जो प्रजा के लिये हो उसे करने में राजा का हित होता है ।’  मौर्य तथा गुप्त युगीन सम्राटों ने इन उदात्त आदर्शों को व्यवहारिक रूप दिया । प्राचीन काल के अन्य शासकों ने भी राजत्व के इस आदर्श का अनुकरण किया ।

नासिक लेख से पता चलता है कि सातवाहन नरेश गौतमीपुत्र को प्रजा के सुख-दुख की चिन्ता बराबर लगी रहती थी तथा वह प्रजा के सुख-दुख को अपना सुख-दुख समझता था । शक महाक्षत्रप रुद्रदामन् के जूनागढ़ लेख से विदित होता है कि उसके शासन काल में कर, विष्टि (बेगार), प्रणयकर आदि से लोग पीड़ित नहीं थे ।

सम्राट स्कन्दगुप्त का जूनागढ़ लेख हमारे सामने उदार तथा लोकोपकारी शासन का चित्र प्रस्तुत करता है । इसके अनुसार ‘उस समय कोई भी मनुष्य दुखी, दरिद्र आपत्तिग्रस्त, लोभी या दण्डनीय होने के कारण अत्यधिक सताया गया नहीं था ।’ सम्राट हर्ष का काल भी लोकोपकारिता के लिये प्रसिद्ध रहा ।

हुएनसांग के विवरण से पता चलता है कि हर्ष निरन्तर जनता का कार्य करता था और वह अथक था । राजपूत युग में भी हमें कई लोकोपकारी शासकों का उल्लेख प्राप्त होता है । प्राचीन ग्रन्थों में शासक को स्पष्टतः आदेश दिया गया है कि वह प्रजा हित को ध्यान में रखते हुये उससे अन्यायपूर्ण कर न ले । मनुस्मृति में कहा गया है कि ‘जिस प्रकार जोंक, बछड़ा तथा भौंरा थोड़े-थोड़े अपने खाद्य (क्रमशः रक्त, दूध, मधु) ग्रहण करते है उसी प्रकार राजा को प्रजा से थोड़ा-थोड़ा वार्षिक कर ग्रहण करना चाहिए ।’

गुप्तकालीन लेखक कामन्दक राजा के आचरण की तुलना वाले तथा माली के आचरण से करते हुए लिखते है कि जिस प्रकार ग्वाला एक समय गौ का पालन करता है तथा दूसरे समय उसका दोहन करता है और जिस प्रकार माली पहले पौधों को सींचता है तथा फिर उनसे फूल चुनता है उसी प्रकार राजा को चाहिए कि पहले प्रजा का पालन करें तथा फिर उससे कर ले ।

यह भी वर्णित है कि जिस प्रकार सूर्य अपनी किरणों से जल ग्रहण करता है उसी प्रकार राजा को प्रजा से थोड़ा-थोड़ा धन लेना चाहिए । राजा के सम्बन्ध में एक महत्वपूर्ण अवधारणा यह है कि वह प्रजा का सेवक होता है ।

बौधायन धर्मसूत्र में कहा गया है कि राजा वस्तुतः प्रजा का सेवक है तथा उसे कर में जो छठा भाग मिलता है वही उसकी वृत्ति होती है । शुक्रनीतिसार के अनुसार चूंकि प्रजा राजा को पूरा वेतन देती है अत: उसे भृत्य तथा दास के समान उसकी सेवा करनी चाहिये ।

राजपद को प्रजा की थाती भी माना जाता था । इस दृष्टि से यह मान्यता थी कि उसका दुरुपयोग करने वाला राजा नरक में जाता है । इस प्रकार- ‘राजा को राज्य का सेवक मानने की अवधारणा प्राचीन भारतीय राजनीतिक विचारधारा के आधारभूत सिद्धान्तों में से एक थी ।’

हिंदू अवधारणा में राजा कभी भी निरंकुश शक्ति का अधिकारी नहीं था अपितु वह एक सर्वोच्च प्रकृति का सार्वजनिक सेवक ही समझा गया था । इस प्रकार प्राचीन शास्त्रकारों ने प्रजारक्षण तथा पालन को राजा का प्रमुख कर्त्तव्य निरूपित किया है ।

बताया गया है कि प्रजारक्षण के द्वारा राजा को सभी के धर्म का छठा भाग प्राप्त होता है किन्तु रक्षा न करने वाले को अधर्म का भी छठी भाग मिलता है । जनता को अभय दान करने वाला राजा निरन्तर पूजनीय होता है ।

Feature # 9. धर्मनिरपेक्षता (Secularism):

प्राचीन साहित्य में मिलने वाले कुछ छिट-फुट उल्लेखों के आधार पर कुछ विद्वानों का अनुमान है कि यहाँ राजत्व का स्वतंत्र अस्तित्व ही नहीं था अपितु वह धर्म के अधीन था । ऐतरेय ब्राह्मण में कहा गया है कि यदि राजा के पास योग्य पुरोहित नहीं होता तो देवता उसकी आहुति स्वीकार नहीं करते। ऋग्वेद में एक स्थान पर कहा गया है कि अपने ब्राह्मण पुरोहित का सम्मान करने वाले राजा के वश में उसकी प्रजा रहती है ।

गौतम धर्मसूत्र का मत है कि राजा की उन्नति तभी सम्भव है जब वह ब्राह्मण पुरोहित का सम्मान करें तथा उसकी सहायता प्राप्त करें ।  यह सही है कि राजा के ऊपर धर्म का व्यापक प्रभाव था तथा वह धार्मिक आचार एवं परम्पराओं के उल्लंघन का साहस नहीं कर सकता था किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि प्राचीन भारतीय राजा पुरोहितों अथवा धर्माचार्यों के हाथ की कठपुतली था जैसा कि प्राचीन यूरोप के शासक होते थे ।

राजा पुरोहित का सम्मान करता था तथापि वह उसके प्रभाव में नही था । राजा के विरुद्ध आचरण करने पर पुरोहित को राज्य के बाहर निकाला जा सकता था । प्राचीन राज्य को धर्मतंत्रात्मक नहीं कहा जा सकता । ऐतरेय ब्राह्मण में कहा गया है कि ‘राजा अपनी इच्छानुसार ब्राह्मण को निकाल सकता है ।’

मौर्य काल तक आते-आते हम पाते है कि राजा की स्थिति सार्वभौम हो गयी तथा धर्मतंत्र का प्रभाव नगण्य हो गया । अर्थशास्त्र में स्पप्ट रूप से कहा गया है कि राजशासन धर्म, व्यवहार तथा चरित्र इन तीनों से परे होता है । यदि किसी राजाज्ञा के साथ धर्मशास्त्र का विरोध हो तो राजा का न्याय ही प्रमाण माना जायेगा क्योंकि देश काल की परिस्थिति के अनुसार उस समय धर्मशास्त्र के वचन गौड़ हो जायेमें ।

इस प्रकार यह सिद्ध हो जाता है कि भारतीय राजतन्त्र धर्मतंत्र नहीं था । धर्म केवल एक नैतिक शक्ति था । हमें ऐसा कोई सकेत नही मिलता जिसके आधार पर यह कहा जा सके कि इसे सर्वोच्च राजनैतिक सत्ता के रूप में मान्यता दी गयी हो ।

प्राचीन व्यवस्थाकारों ने सिद्धान्तत धर्म की प्रभुसत्ता को भले ही स्वीकार किया हो किन्तु व्यवहार में ऐसी कोई भी संस्था नहीं थी जो धर्म का अतिक्रमण करने वाले राजा को नियंत्रित करती । वी॰पी॰ वर्मा ने उचित ही सुझाया है कि यह सदैव कार्य करने का नैतिक-दार्शनिक प्रतिमान बना रहा किन्तु कभी भी इसकी कल्पना सर्वोच्च राजनैतिक सत्ता के रूप में नहीं की गयी ।

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