पांड्य राजवंश: इतिहास, युद्ध और मंदिर पांड्य राजवंश द्वारा निर्मित | Pandya Dynasty: History, Wars and Temples Build by Pandya Dynasty in Hindi.

पाण्ड्य राजवंश का परिचय (Introduction to Pandya Dynasty):

तमिल प्रदेश का तीसरा राज्य पाषणों का था जिसमें प्रारम्भ में तिनेवेली, रामनाड तथा मदुरा का क्षेत्र सम्मिलित था । पाण्ड्यों का इतिहास भी अत्यन्त प्राचीन है । रामायण, महाभारत, कौटिल्य के अर्थशास्त्र, अशोक के लेखों के साथ-साथ यूनानी-रोमन (क्लासिकल) विवरणों में भी इनका उल्लेख प्राप्त होता है ।

खारवेल के हाथीगुम्फा लेख से पना चलता है कि उसने अपने शासन के बारहवें वर्ष में पाण्ड्य नरेश को पराजित कर उससे मुक्तामणियों का उपहार प्राप्त किया था ।

अध्ययन के सुविधा के लिये पाण्ड्य वंश का इतिहास तीन चरणों में विभाजित किया जा सकता है:

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1. संगमकालीन पाण्ड्य राज्य ।

2. कंडुगोन (छठी शताब्दी ईस्वी) द्वारा स्थापित प्रथम पाण्ड्य साम्राज्य ।

3. सुन्दरपाण्ड्य द्वारा तेरहवीं शती में स्थापित द्वितीय पाण्ड्य साम्राज्य ।

तमिल भाषा की प्राचीनतम रचना ‘संगम साहित्य’ से पाण्ड्य वंश के प्राचीन इतिहास पर कुछ प्रकाश पड़ता है । संगम साहित्य में कुछ पाण्ड्य राजाओं के नाम प्राप्त होते हैं, जैसे-नेड्डियोन, नेडिडुंजेलियन आदि । परन्तु उनका क्रमवद्ध इतिहास नहीं मिलता ।

पाण्ड्य राजवंश का राजनैतिक इतिहास (Political History of Pandya Dynasty):

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I. प्रथम पाण्ड्य साम्राज्य:

a. कंडुगोन:

छठीं शताब्दी के अन्तिम चरण में पाण्ड्यों का कडुगोन के नेतृत्व में उत्कर्ष हुआ । उसने कलभ्र नामक विदेशी जाति को परास्त कर अपना शासन प्रारम्भ किया । इस प्रकार प्रथम पाण्ड्य साम्राज्य की स्थापना हुई । उसके शामन काल (590-620 ई॰) की घटनाओं के विषय में बहुत कम ज्ञात है ।

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उसने कलभ्रों की शक्ति का अन्त कर पाण्ड्य शक्ति का पुनरुद्धार किया । वेल्विकुडी लेख में उसकी इस सफलता का उल्लेख मिलता है । यह भी बताया गया है कि उसने कई अन्य राजाओं पर विजय प्राप्त की थी, किन्तु इनका विस्तृत विवरण उपलब्ध नहीं होता ।

b. मारवर्मन् अवनिशूलमणि:

यह कंडुगोन का पुत्र था जिसने 620 ई॰ से लेकर 645 ई॰ तक राज्य किया । इसके शासन की घटनाओं के विषय में कोई जानकारी नहीं है । अधिक से अधिक यही कहा जा सकता है कि उसने अपने पैतृक राज्य को सुरक्षित बनाये रखा ।

c. जयन्तवर्मन्:

यह पाण्ड्य वंश का तीसरा शासक हुआ । उसने चेर राज्य की विजय की तथा इसके उपलक्ष्य में ‘वानवन’ की उपाधि धारण की । यह चेर राजाओं की उपाधि थी । उसने 645 ई॰ से 670 ई॰ के लगभग तक शासन किया ।

d. अरिकेसरी मारवर्मन्:

यह जयन्तवर्मन् का पुत्र तथा उत्तराधिकारी था जो 670 ई॰ मैं अपने पिता की मृत्यु के वाद राजा बना । वह एक प्रताणी शासक था । वेल्विकुडी लेख से पता चलता है कि उसने केरलों को पालि, नेल्वेलि और सेन्निलम् के युद्धों में हराकर परवस तथा कुरुनाडु को अपने अधिकार में ले लिया था ।

इन स्थानों का समीकरण निश्चित नहीं हो पाया है । पल्लवों के विरुद्ध उसने चालुक्य विक्रमादित्य प्रथम से सन्धि कर ली तथा पल्लव नरेश परमेश्वरवर्मन् को परास्त किया । अरिकेसरी मारवर्मन् ने 700 ई॰ तक शासन किया ।

e. कोच्चड्डैयर रणधीर:

यह अरिकेसरी मारवर्मन् का पुत्र था तथा 700 ई॰ में पाण्दय वश की गद्दी पर बैठा । यह भी एक शक्तिशाली राजा था । वेल्विकुडी लेख से सूचित होता है कि उसने मंगलापुरम के महारथों (मराठों) को जीता था । शास्त्री ने इस स्थान का समीकरण मंगलोर से स्थापित किया है ।

इस प्रकार उसने मंगलोर तक के प्रदेश की विजय की तथा अपने राज्य का विस्तार कोंगू प्रदेश तक किया । उसने आय नामक एक पहाड़ी प्रदेश के सरदार को भी जीता जो तिरुनेल्वेलि तथा त्रावनकोर के बीच शासन करता था । उसे मरुदूर नामक स्थान पर हराकर कोच्चड्डैयन ने अपने अधिकार में ले लिया । कोच्चड्डैयन ने संभवतः 730 ई. तक राज्य किया ।

f. मारवर्मन् राजसिंह प्रथम:

कोच्चडैयन का उत्तराधिकारी मारवर्मन् राजसिंह प्रथम बना । वह भी अपने पिता के समान एक शक्तिशाली राजा था । उसके समय में पल्लव शासक नन्दिवर्मन् द्वितीय तथा उसके चचेरे भाई चित्रमार में गद्दी के लिये छिड़ा । मारवर्मन् ने चित्रमाय का साथ दिया ।

वेल्विकुडी लेख से पता चलता है कि उसने पल्लवों को करुमंडै, कोदुम्बालूर, तिरुमंगै, पूवलूर आदि अनेक युद्धों में पराजित किया तथा पल्लव सेना के बहुत से हाथियों और घोड़ों को छीन लिया । यह भी पता चलता है कि उसने नन्दिवर्मन् को नन्दिग्राम में बन्दी बना लिया ।

किन्तु पल्लव सेनापति उदयचन्द्र ने उसे मुक्त करा लिया । पल्लवों के विरुद्ध अपनी सफलता के उपलक्ष्य में राजसिंह ने ‘पल्लव भंजन’ की उपाधि धारण की । उसके शासन काल में कोंगू प्रदेश में विद्रोह हुआ जिसे राजसिंह ने सफलतापूर्वक दवा दिया ।

इसके बाद पेरियलूर के युद्ध में अपने शत्रुओं को पराजित कर उसने कावेरी नदी पार की तथा मलकोंगम् (त्रिचनापल्ली तथा तंजोर की सीमा पर स्थित) के ऊपर अपना अधिकार कर लिया । यहाँ का राजा मालवराज पराजित हुआ तथा उसने अपनी कन्या का विवाह राजसिंह के साथ कर दिया ।

राजसिंह के विरुद्ध गंगनरेश श्रीपुरुष ने चालुक्य नरेश कीर्त्तिवर्मन् द्वितीय (744-45 ई॰) के साथ मिलकर एक मोर्चा बनाया । किन्तु 750 ई॰ के लगभग राजसिंह ने गर्गों तथा चालुक्यों की सम्मिलित सेनाओं को वेणवई में परास्त कर दिया । बाद में गंगनरेश ने उससे सन्धि कर ली तथा अपनी कन्या का विवाह उसके पुत्र जटिलपरान्तक के साथ कर दिया । यह राजसिंह की उल्लेखनीय सफलता थी ।

g. वरगुण प्रथम:

राजसिंह के बाद उसका पुत्र वरगुण प्रथम (765-815 ई॰) राजा हुआ । उसे नेडुज्ञडैयन तथा जटिलपरान्तक के नाम से भी जाना जाता है । वह अपने वंश का एक महान पराक्रमी नरेश सिद्ध हुआ । उसके कई लेख मिलते है जो उसके शासन के तीसरे वर्ष से सैंतालीसवें वर्ष तक के हैं । इनमें सबसे वेल्विकुडी अनुदान पत्र है । इससे उसके पूर्वजों का इतिहास भी पता चलता है ।

इससे सूचित किया जाता है कि वरगुण में तजोर के समीप पैण्णागडय् के युद्ध में पल्लव शासक नन्दिवर्मन् द्वितीय तथा उसके सहयोगी आयवेल (जो तिरुनेल्वेलि और ट्रावनकोर के बीच राज्य करता था) की सम्मिलित सेनाओं को पराजित कर दिया ।

मद्रास संग्रहालय में सुरक्षित दानपत्रों से विदित होता है कि वरगुण ने तगडूर के शासक आदिगैमान को पुगलियूर, अयियूर तथा आटूरवेलि के युद्धों में पराजित किया था । नीलकण्ठ शास्त्री का विचार है कि वरगुण के विरुद्ध कोंगु, केरल, आडिगैमान आदि राज्यों ने मिलकर एक मोर्चा बनाया था । किन्तु उसने बारी-बारी से सबको पराजित कर दिया । उसका समस्त कोंगू प्रदेश के ऊपर अधिकार हो गया ।

वेलूर, विलिनम्, पुलिगिरे आदि जीतते हुए उसने वेणाद के ऊपर अधिकार कर लिया । पल्लव राज्य पर आक्रमण कर उसने अपना शिविर इट्टवैं (तंजोर जिला) में स्थापित किया । कावेरी नदी के दक्षिण के सम्पूर्ण प्रदेश पर उसने अपना अधिकार जमा लिया । सलेम तथा कोयबदर पर भी उसका अधिकार था ।

इस प्रकार वरगुण ने पाण्ड्य राज्य को एक विशाल साम्राज्य में परिणत कर दिया । विजेता होने के साथ-साथ वह कला और साहित्य का संरक्षक था । कांची वायप्पेरूर में उसने विष्णु का एक विशाल मन्दिर बनवाया तथा कई शैव मन्दिरों के लिये दानदि दिया । वह एक विद्या-प्रेमी तथा विद्वानों का संरक्षक सम्राट भी था और उसने ‘णडितवत्सल’ की उपाधि ली थी ।

h. श्रीमार श्रीवल्लभ:

वरगुण का पुत्र तथा उत्तराधिकारी श्रीमारश्रीवल्लभ (815-862 ई.) हुआ । वह एक पराक्रमी तथा साम्राज्यवादी शासक था । उसकी उपलन्धियों का विवरण दलवयपुरम् तथा तूहत्‌शिब्रमरर के लेखों और महावंश से प्राप्त करते है । रहत्‌शिब्रमनूर लेख से पता चलता है कि उसने फण्गूर, विलिनम् तथा सिंहल को जीता और गंग, पल्लव, चोल, कलिंग, मगध आदि राजाओं के संघ को कुम्बकीनम् के युद्ध में पराजित कर दिया ।

पल्लवों के विरुद्ध उसकी सफलता अस्थायी रही । पल्लव नरेश दन्तिवर्मन् के शासन के अन्त में उसके पुत्र तृतीय ने पाण्ड्यों के विरुद्ध गंग, चोल, राष्ट्रकूट आदि को संगठित कर एक मोर्चा तैयार किया । इस मोर्चे ने तेल्लारु के युद्ध में पाण्ड्य नरेश श्रीमार को पराजित कर दिया । किन्तु इससे पाण्ड्यों की विशेष क्षति नहीं हुई तथा तंजोर का क्षेत्र उनके अधिकार में बना रहा ।

महावंश से पता चलता है कि श्रीमार ने सका के राजा सेन प्रथम पर आक्रमण किया । महातलित के युद्ध में लंका का राजा पराजित हुआ तथा उसने भागकर मलय देश में शरण ली । पाण्ड्यों का लंका की राजधानी पर अधिकार हो गया तथा वे अपने साथ अतुल सम्पत्ति लेकर वापस लौटे । बाद में सेन प्रथम ने उसकी अधीनता मान ली तथा उसका राज्य वापस कर दिया गया ।

सेन प्रथम के बाद स्रेन द्वितीय (851-885 ई॰) लंका का राजा बना । उसे श्रीमार द्वारा अपने देश की पराजय तथा लूट की बात बराबर जलती रही । संयोगवंश उसे बदला लेने का एक अवसर प्राप्त हो गया । पाण्ड्य देश का एक असंतुष्ट राजकुमार माया पाण्दय लंका गया तथा उसने सेन द्वितीय से श्रीमार के विरुद्ध सहायता मांगी ।

फलस्वरूप लंका नरेश ने माया पाण्ड्य तथा पल्लवों के साथ मिलकर पाण्ड्य राज्य के ऊपर आक्रमण कर दिया । उसने राजधानी मदुरा को घेर लिया । श्रीमार उस समय अपनी राजधानी के बाहर था । आक्रमण की सूचना पाकर वह वापस लौटा किन्तु वह आक्रमणकारियों का सामना नहीं कर सका तथा युद्ध क्षेत्र से भाग गया ।

बताया गया है कि उसने अपनी पत्नी के साथ आत्महत्या कर लिया । लंका नरेश ने उसकी राजधानी को खूब लूटा तथा श्रीमार के पुत्र वरगुण द्वितीय को राजगद्दी पर बैठाकर स्वदेश लौट गया । इस प्रकार यद्यपि श्रीमार का अन्त दुखद रहा तथापि उसने अपने जीवन- काल तक अपना साम्राज्य पूर्णतया सुरक्षित बनाये रखा ।

i. वरगुण द्वितीय:

यह श्रीमार का पुत्र था तथा उसकी मृत्यु के बाद पल्लव और सिंहल के राजाओं द्वारा पाण्ड्य साम्राज्य की गद्दी पर आसीन किया गया था । उसने पल्लवों की अधीनता में शासन करना स्वीकार कर लिया । वरगुण को प्रारम्भ में चोलनरेश विजयालय से युद्ध करना पड़ा ।

850 ई॰ के लगभग विजयालय ने तंजोर पर अधिकार कर लिया । वरगुण ने पल्लव नृपतुंग को सहायता से विजयालय पर आक्रमण किया । उसकी सेना कावेरी नदी तट पर स्थित उद्धव नामक स्थान तक जा पहुंची । किन्तु इसी बीच पल्लव वंश के नृपतुंग तथा अपराजित में सिंहासन के लिये संघर्ष छिड़ गया ।

वरगुण ने नृपतुंग का पक्ष लिया तथा अपराजित के साथ सिंहल, चोल तथा पश्चिमी गंग के राजा थे । 880 ई॰ के लगभग श्रीपुरम्बीयम् के युद्ध व अपराजित को सफलता मिली तथा वरगुण पराजित किया गया । इससे पाण्ड्यों की शक्ति निर्बल पड़ गयी तथा उनका राज्य कावेरी के दक्षिण में सिमट गया । शेष भाग चोलों को अधीनता में चला गया । इसी समय वरगुण के छोटे भाई वीरनारायण ने उसे गद्दी से हटाकर सिंहासन पर अधिकार कर लिया ।

j. परान्तक वीरनारायण:

यह वरगुण द्वितीय का छोटा भाई था जो उससे कुछ शक्तिशाली सिद्ध हुआ । दलवयपुरम् लेख से पता चलता है कि उसने खरगिरि के पास उग्र नामक राजा को पराजित किया, पेण्णागदम् को ध्वस्त किया तथा कोंग में युद्ध किया ।

नीलकण्ठ शास्त्री का विचार है कि उसका कोंगू में चोली से युद्ध हुआ किन्तु उसे सफलता नहीं मिली और चोलों का वहाँ अधिकार हो गया । परान्तक ने संभवतः 900 ई॰ तक राज्य किया । लेखों में उसे कई मन्दिरों का निर्माण करवाने तथा बाह्मणों को भूमि दान में देने का उल्लेख किया गया है ।

k. मारवर्मन् राजसिंह द्वितीय:

यह परान्तक वीरनारायण का पुत्र तथा उत्तराधिकारी हुआ । प्रारम्भ में कुछ युद्धों में उसे सफलता मिली किन्तु अन्ततः चोली से पराजित होना पड़ा । चोली ने पाण्ड्यों की राजधानी मदुरा पर अधिकार कर लिया । राजसिंह ने लंका के शासक बास्सप पंचम से सहायता ली ।

दोनों ने सम्मिलित रूप से चोली के विरुद्ध अभियान किया । किन्तु उदयेन्दिरम् के लेखों से पता चलता है कि इस युद्ध में पाण्ड्यों के बहुत अधिक सैनिक, हाथी तथा घोड़े नष्ट हो गये । राजसिंह युद्ध-भूमि से भाग गया । उसके अन्तिम दिनों के विषय में ज्ञात नहीं है ।

l. वीर पाण्ड्य:

राजसिंह द्वितीय का पुत्र तथा उत्तराधिकारी वीर पाण्ड्य बना । वह कुछ शक्तिशाली राजा था । 949 ई॰ में उसने चोल शासक गंडरादित्य को तक्कोलम् के युद्ध में पराजित किया तथा अपनी स्वतंत्रता घोषित कर दी । किन्तु उसकी सफलता स्थायी नहीं रही ।

गंडरादित्य के तीसरे उत्तराधिकारी सुन्दरचोल परान्तक द्वितीय ने पाण्ड्यों की शक्ति को कुचलने के लिये सैनिक अभियान किया । लंका के शासक महिन्द चतुर्थ ने पाण्ड्यों का सहायता की । किन्तु चेबूर के युद्ध में चोल सेना ने वीर पाण्ड्य को बुरी तरह पराजित किया तथा संभवतः वह युद्ध-भूमि में मार डाला गया ।

इसके साथ ही पाण्ड्य वंश की स्वाधीनता का लगभग दो-तीन सौ वर्षों तक के लिये अन्त हुआ तथा उन्हें चोली की अधीनता स्वीकार करनी पड़ी । बारहवां शताब्दी तक पाण्ड्य राज्य पर चोली का आधिपत्य बना रहा तथा इस बीच पाण्ड्य शासक चोल राजाओं की अधीनता में शासन करते रहे ।

इस बीच पाण्ड्य शासकों द्वारा स्वतन्त्रता प्राप्त करने का यदा-कदा प्रयास किया गया, किन्तु उन्हें सफलता नहीं मिली । 994 ई॰ के लगभग चोल शासक राजराज प्रथम ने पाण्ड्य राज्य पर आक्रमण कर वहाँ के राजा अमरभुजंग को बन्दी बना लिया तथा राज्य पर अपना अधिकार कर लिया ।

उसके उत्तराधिकारी राजेन्द्र चोल के विषय थे पता चलता है कि उसने भी पाण्ड्य राज्य को जीता तथा अपने पुत्र सुन्दरचोल को वहाँ का उपराजा बनाया था । राजाधिराज ने वीरकेरलन तथा सुन्दरपाण्ड्य का दमन किया और चोल वीर राजेन्द्र के समय (1062-1067 ई॰) में पाण्दय राजा वीरकेसरी की हत्या कर दी गयी । इस प्रकार पाण्ड्य शासकों को शक्तिशाली चोली के सम्मूख सदा ही नतमस्तक होना पड़ा ।

II. द्वितीय पाण्ड्य साम्राज्य:

तेरहवीं शती से पाण्ड्य की स्थिति में कुछ सुधार पाते हैं । इस समय इस वंश के शासक सुन्दरपाण्ड्य (1216-1238 ई॰) ने अपने वंश की शक्ति का पुनरुद्धार किया । उसने चोल शासकों-कुलीतुंग तृतीय तथा राजराज तृतीय-को पराजित किया और विस्तृत भूभाग पर शासन किया ।

किन्तु उसके उत्तराधिकारी मारवर्मन् सुन्दर पाण्ड्य तृतीय (1238-1251 ई॰) को राजेन्द्र चोल तृतीय ने पुन जीत कर अपनी अधीनता ये रहने के लिये बाध्य किया । परन्तु जटावर्मन् सुन्दर पाण्ड्य प्रथम (1251-68 ई॰) ने पुनः अपने वंश की स्वाधीनता प्राप्त कर ली । वह पाण्ड्य वंश का सर्वाधिक शक्तिशाली राजा था जिसने चेर, होयसल राजाओं को जीता तथा चोल शक्ति का पूर्ण विनाश किया ।

उसने उत्तरी सिंहल की भी विजय की, कान्ची कर अधिकार कट्टर लिया तथा काकतीय नरेश गणपति को भी हरा दिया । उसने चोल तथा कोंगू दोनों राज्यों को अपने राज्य में मिला लिया तथा मैसूर के अतिरिक्त सम्पूर्ण दक्षिणी भारत पर शासन किया । विजित प्रदेशों से उसे अतुल सम्पत्ति प्राप्त हुई जिसका उपयोग उसने श्रीरड्गम् तथा चिदम्बरम् के मन्दिरों को भव्य एवं सुन्दर बनाने में किया ।

जटावर्मन् के बाद मारवर्मन् कुलशेखर (1268-1310 ई॰) राजा बना । उसने होयसल नरेश रामनाथ तथा राजेन्द्र चोल तृतीय दोनों को 1279 ई॰ में पराजित किया । कुलशेखर चोल प्रदेश तथा रामनाथ द्वारा शासित होयसल के तमिल जिलों का एकछत्र शासक बन बैठा । केरल में उसने एक विद्रोह का दमन किया । उसने अपने मन्त्री आर्यचक्रवर्ती के नेतृत्व में एक सेना सिंहल पर आक्रमण करने के लिए भेजी ।

वहाँ का शासक धुवनायकवाहु परास्त हुआ तथा 20 वर्षों तक सिंहल पाण्ड्य राज्य का एक प्रान्त बना रहा । अपने राज्य-काल के अन्त तक कुलशेखर ने अपने राज्य को अक्षुण्ण बनाये रखा । उसका शासन-काल आर्थिक दृष्टि से समृद्धि का काल रहा । उसके समय (1293 ई॰) में वेनिस का प्रसिद्ध यात्री मार्कोपोलो पाण्ड्य देश की यात्रा पर आया था ।

वह कुलशेखर के सुशासन एवं उसके राज्य की समृद्धि की काफी प्रशंसा करता है । उसके अनुसार इस राज्य में बढ़िया किस्म के मोती और जवाहरात मिलते थे । यहाँ का व्यापार-वाणिज्य अत्यधिक विकसित था तथा राज्य की ओर से विदेशी व्यापारियों तथा यात्रियों को काफी सुविधायें प्रदान की जाती थी । इस राज्य का कैल (कायल) नामक नगर ऐश्वर्य एवं वैभव से परिपूर्ण था ।

यहाँ के शासक के पास परिपूर्ण कोष तथा विशाल सेना थी । कुलशेखर की मृत्यु के वाद उसके दो पुत्रों जटावर्मा सुन्दरपाण्ड्य तृतीय तथा वीरपाण्ड्य के बीच गद्दी के लिये संघर्ष छिड़ गया । इसमें वीर पाण्ड्य विजयी हुआ तथा उसने राजगद्दी पर अधिकार कर लिया । किन्तु जटावर्मा इस पराभव को सहन न कर सका तथा उसने अपने भाई को दण्ड देने के लिये अलाउद्दीन खिलजी से सहायता मांगी ।

अलाउद्दीन तो अवसर की प्रतीक्षा में था । उसने 1310 ई॰ में अपने सेनापति मलिक काफूर को पाण्ड्य राज्य पर आक्रमण करने को भेजा । आक्रमणकारियों ने मदुरा को लूटा तथा ध्वस्त कर दिया । मलिक काफूर अपने साथ भारी सम्पत्ति लेकर दिल्ली लौट गया । इसके बाद पाण्ड्य राज्य की स्थिति निर्बल पड़ गयी ।

चौदहवीं शती के प्रारम्भ में केरल के राजा रविवर्मन् ने वीरपाण्ड्य तथा सुन्दरपाण्ड्य दोनों को पराजित किया । तुगलक शासन में भी पाण्ड्य राज्य पर तुकों ने आक्रमण किये तथा लूटपाट मचाया । कुछ समय के लिये इसे दिल्ली सल्लनत का अंग बना लिया गया । इस प्रकार क्रमशः पाण्ड्य राज्य का पतन हो गया ।

पाण्ड्य मन्दिर (Pandya Temples):

पल्लव तथा चोल शासकों द्वारा वनवाये गये मन्दिरों में द्रविड़ वास्तु का चरम विकास देखने को मिलता है । चोलों को अपदस्थ करने वाले पाण्ड्य राजवंश के समय (13वीं-14वीं शताब्दी) में द्रविड़ शैली में कुछ नये तत्व समाविष्ट हो गये । बारहवीं सदी के बाद से मन्दिरों में शिखर के स्थान पर उन्हें चारों ओर से घेरने वाली दीवारों के प्रवेश-द्वारों को महत्व प्रदान किया गया ।

प्रवेश-द्वार चारों दिशाओं में बनाये जाते थे । इसके ऊपर पहरेदारों के लिये कक्ष बनाये जाते थे । बाद में इन पर ऊँचे शिखर बनाये गये जिनकी संज्ञा गोपुरम् हो गयी । पाण्डय राजाओं के काल में मदुरै, श्रीरंगम आदि स्थानों में गोपुरम्-युक्त मन्दिरों का निर्माण करवाया गया । अपने वर्तमान रूप में ये मन्दिर आ युग की कृतियों है । नागर तथा द्रविड़, इन दोनों शैलियों के मिश्रित तत्व कुछ मन्दिरों में दिखाई देते है । इन मिश्रित को ‘बेसर शैली’ कहा जाता है ।

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