दक्षिण भारत: प्रागितिहास तथा इतिहास का प्रारम्भ | South India: Prehistory & Beginning in Hindi.

उत्तर भारत के ही समान दक्षिण भारत में भी मानव सभ्यता का प्रारम्भ पाषाणकाल से ही हुआ । सर्वप्रथम 13 मई, 1863 ई॰ में भारतीय भूतत्व सर्वेक्षण विभाग के विद्वान् राबर्ट ब्रुसफुट ने मद्रास के पास स्थित पल्लवरम् नामक स्थान से पूर्व पाषाण काल के एक पाषाणोपकरण (क्लीवर) की खोज की ।

तत्पश्चात् डी॰ टेरा पीटरसन, कृष्णास्वामी, अध्यपन, बर्किट, एच॰डी॰ संकालिया, अल्चिन आदि विद्वानों ने खोज की परम्परा जारी रखी जिसके परिणामस्वरूप प्रागैतिहासिक मानव द्वारा प्रयुक्त उपकरणों तथा उसकी सभ्यता के विषय में जानकारी बड़ी । विद्वानों का अनुमान है कि आज से लगभग डेढ़ लाख वर्ष पूर्व मद्रास के समीपवर्ती क्षेत्रों में मानव सभ्यता का प्रारम्भ हो चुका था ।

मद्रास क्षेत्र से जो पाषाणोपकरण मिले हैं वे मुख्यत: हस्तकुठार (हैण्डऐक्स) तथा तराशने के उपकरण (क्लीवर्स) हैं । इन्हें मद्रास के समीप वदमदुरै तथा अत्तिरपक्कम् से प्राप्त किया गया है । ये साधारण पत्थरों से कोर तथा फ्लेक प्रणाली द्वारा निर्मित किये गये है । इन्हें जदासीय संस्कृति नाम दिया जाता है ।

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इस संस्कृति के उपकरण सर्वप्रथम मद्रास के समीपवर्ती क्षेत्र से प्राप्त हुये । इसी कारण इसे ‘मद्रासीय संस्कृति’ भी कहा जाता है । जैसा कि पहले बताया जा चुका है, सर्वप्रथम 1863 ई॰ में राबर्ट ब्रूसफुट ने मद्रास के पास पल्लवरम् नामक स्थान से पहला हैन्डऐक्स प्राप्त किया था ।

उनके मित्र किंग ने अतिरमपक्कम् से पूर्व पाषाणकाल के उपकरण खोज निकाले । इसके बाद डी॰ टेरा तथा पीटरसन के नेतृत्व में एल कैम्ब्रीज अभियान दल ने इस क्षेत्र में अनुसंधान प्रारम्भ किया । वी॰डी॰ कृष्णास्वामी, आर॰वी॰ जोशी तथा के॰डी॰ बनर्जी जैसे विद्वानों ने भी इस क्षेत्र में अनुसन्धान कार्य किये ।

दक्षिणी भारत की कीर्तलयार नदी घाटी पूर्व पाषाणिक सामग्रियों के लिये महत्वपूर्ण है । इसकी घाटी में स्थित वदमदुरै नामक स्थान से निम्न पूर्व पाषाणकाल के बहुत से उपकरण मिले है जिनका निर्माण क्वार्टजाइट पत्थर से किया गया है । वदमदुरै के पास कोर्तलयार नदी की तीन वेदिकायें मिली है ।

इन्हीं से उपकरण एकत्र किये गये है । इन्हें तीन भागों में बाँटा गया है । सबसे नीचे की वेदिका को वोल्डर काग्लोमीरेट कहा जाता है । इससे कई औजार-हथियार मिलते है । इन्हें भी विद्वानों ने दो श्रेणियों में रखा है । प्रथम श्रेणी में भारी तथा लम्बे हैन्डऐक्सों और कोर उपकरण है । इन पर सफेद रंग की काई जमी हुई है । इन उपकरणों के निर्माण के लिये काफी मोटे फलक निकाले गये हैं ।

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हैन्डऐक्सों की मुठियों के सिरे काफी मोटे है । कोर उपकरणों के किनारे टेढ़े-मेले है तथा उन पर गहरी फ्लेकिंग के चिन्ह दिखाई देते है । हैन्डऐक्सों फ्रान्स के अवेवीलियन परम्परा के हैन्डऐक्सों के समान हैं । द्वितीय श्रेणी में भी हैन्डऐक्सों तथा कोर उपकरण ही आते है किन्तु वे कलात्मक दृष्टि से अच्छे हैं ।

इन पर सुव्यवस्थित ढंग से फलकीकरण किया गया है । कहीं-कहीं सोपान पर फलकीकरण) के प्रमाण भी प्राप्त होते है । इस श्रेणी के हैन्डऐक्स अश्यूलियन कोटि के हैं । दूसरे वर्ग के उपकरण कलात्मक दृष्टि से विकसित तथा सुन्दर है । चूँकि बीच की वेदिका लाल रंग के पाषाणों से निर्मित है, इस कारण इनके सम्पर्क से उपकरणों का रंग भी लाल हो गया है ।

इस कोटि के हैन्डऐक्स चौड़े तथा सुडौल है । इन पर सोपान पर फलकीकरण अधिक है तथा के भी प्रमाण मिलते है । इन्हें मध्य अश्यूलियन कोटि में रखा गया है । तीसरे वर्ग के उपकरणों का रग न तो लाल और न उनके ऊपर काई लगी हुई है । तकनीकी दृष्टि से ये अत्यन्त विकसित है ।

अत्यन्त पतले फलक निकालकर इनको सावधानीपूर्वक गढ़ा गया है । हैन्डऐक्स अण्डाकार तथा नुकीले दोनों प्रकार के हैं । वदमदुरै से कुछ क्लीवर तथा कोर उपकरण भी प्राप्त हुए हैं । कोर्तलयार-घाटी का दूसरा महत्वपूर्ण पूर्व पाषाणिक स्थल अत्तिरम्पक्कम् है । यहाँ से भी खड़ी संख्या में हैन्डऐक्स, क्लीवर तथा फलक उपकरण प्राप्त हुए है जो पूर्व पाषाणकाल से संबन्धित है ।

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हैन्डऐक्स पतले, लम्बे, चौड़े तथा फलक निकालकर तैयार किये गये है । यहाँ के हैन्डएक्स अश्यूलियन प्रकार के हैं । भारत के अन्य भागों से भी मद्रासीय परम्परा के उपकरणों की खोज की गयी है । नर्मदा घाटी, मध्यप्रदेश की सोन घाटी, महाराष्ट्र की गोदावरी तथा उसकी सहायक प्रवरा घाटी, कर्नाटक की कृष्णा-तुंगभद्रा घाटी, गुजरात की साबरमती तथा माही नदी घाटी, राजस्थान की चम्बल घाटी, पूछा की सिंगरौली बेसिन, बेलनघाटी आदि से ये उपकरण मिलते है । ये सभी पूर्व पाषाणकाल की प्रारम्भिक अवस्था के हैं ।

आन्ध्र प्रदेश में नागार्जुनकोड, गिद्दलूर तथा रेनिगुन्दा प्रमुख स्थल है जहां से मध्य पाषाणिक उपकरण प्रकाश में लाये गये हैं । कर्नाटक में बेल्लारी जिले में स्थित संगनकल्लू नामक स्थान पर सुब्बाराव तथा संकालिया द्वारा क्रमश: 1946 तथा 1969 में खुदाइयाँ करवायी गयीं जिसके फलस्वरूप अनेक उपकरण प्राप्त हुए ।

तमिलनाडु के तिरुनेल्वेलि जिले में स्थित टेरी पुरास्थलों से भी बहुसंख्यक लघुपाषाणोपकरण मिलते हैं । कर्नाटक, आन्ध्र प्रदेश तथा तमिलनाडु से भी नव पाषाणकाल के कई पुरास्थल प्रकाश में आये है जहाँ की खुदाइयों से इस काल के अनेक उपकरण, मृदभाण्ड आदि प्राप्त किये गये हैं । कर्नाटक में स्थित प्रमुख पुरास्थल मास्की, ब्रह्मगिरि, सगनकल्लू हल्लूर, कोडेकल, टी॰ नरसीपुर, पिकलीहल, तेक्कलकोट है ।

आन्ध्र प्रदेश के पुरास्थल नागार्जुनीकोड, उतनूर, फलवाय एवं सिगनपल्ली है । पैस्यमपल्ली तमिलनाडु का प्रमुख पुरास्थल है । ये सभी कृष्णा तथा कावेरी नदियों की घाटियों में बसे हुए है । इन स्थानों से पालिशदार प्रस्तर कुल्हाड़ियां, सलेटी या काले रग के मिट्टी के वर्तन तथा हड्‌डी के बने हुए कुछ उपकरण प्राप्त होते हैं ।

इस काल के निवासी कृषि तथा पशुपालन से पूर्णतया परिचित थे । मिट्टी तथा सरकन्दे की सहायता से वे अपने निवास के लिये गोलाकार अथवा चौकोर घर बनाते थे । हाथ तथा चाक दोनों से वे वर्तन तैयार करते थे । कुछ बर्तनों पर चित्रकारी भी की जाती थी। खुदाई में घड़े, तश्तरी, कटोरे आदि मिले है ।

कुथली, रागी, चना, पूरा आदि अनाजों का उत्पादन किया जाता था । गाय, वैल, भेड़, बकरी, भैंस, सूअर उनके प्रमुख पालतू पशु थे । दक्षिणी भारत के नव पाषाणयुगीन सभ्यता की संभावित तिथि ईसा पूर्व 2500 से 1000 के लगभग निर्धारित की जाती है ।

नवपाषाणकालीन संस्कृति अपनी पूर्वगामी संस्कृतियों की अपेक्षा अधिक विकसित थी । इस काल का मानव न केवल खाद्य-पदार्थों का उपभोक्ता ही था वरन् वह उनका उत्पादक भी बना वह कृषि-कर्म से पूर्णतया परिचित हो चुका था । कृषिकर्म के साथ-साथ पशुओं को मनुष्य ने पालना भी प्रारम्भ कर दिया । गाय, बैल, भैंस, कुत्ता, घोड़ा, भेड़, बकरी आदि जानवरों से उनका परिचय बढ़ गया ।

इस काल के मनुष्यों का जीवन खानाबदोश अथवा घुमक्कड़ न रहा । उसने एक निश्चित स्थान पर अपने घर बनाये तथा रहना प्रारम्भ कर दिया । कर्नाटक प्रान्त के ब्रह्मगिरि तथा संगलकल्लु (बेलारी) से प्राप्त नव-अवशेषों से पता चलता है कि वर्षों तक मनुष्य एक ही स्थान पर निवास करता था ।

इस काल के मनुष्य मिट्टी के बनाते थे तथा अपने मृतकों को समाधियों में गाड़ते थे । अग्नि के प्रयोग से परिचित होने के कारण मनुष्य का जीवन अधिक सुरक्षित हो गया था । कुछ विद्वानों का अनुमान है कि इस युग के मनुष्य जानवरों की खाली को सीकर वस्त्र बनाना भी जानते थे ।

ईसा पूर्व एक हजार के पश्चात् दक्षिण भारत के प्रागितिहास से सम्बन्धित बहुत कम अवशेष हमें प्राप्त होते है । एक हजार ईसा पूर्व से प्रथम शताब्दी ईस्वी के बीच हमें दक्षिण भारत में एक ऐसी संस्कृति का पता चलता है जिसके निर्माता अपने मृतकों को सम्मानपूर्वक समाधियों में गाड़ते थे तथा उनकी सुरक्षा के लिये बड़े-बड़े पत्थरों का उपयोग करते थे ।

इसी कारण इसे श्हत्पावाणिक संस्कृति ‘कल्चर’ कहा जाता है । सर्वप्रथम 1९४४ ईस्वी में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के वी॰डी॰ कृष्णास्वामी के नेतृत्व में दक्षिण भारत की वृहत्पाषाणिक समाधियों की खोज की गयी जिसके फलस्वरूप विद्वानों को इनके सम्बन्ध में विधिवत जानकारी प्राप्त हुई । 1947 ई॰ में हीलर ने ब्रह्मगिरि (कर्नाटक में स्थित) की खुदाई से इनके विषय में प्रामाणिक विवरण प्रस्तुत कर दिया ।

वृहत्याषाणिंक समाधियां अस्पष्ट, कर्नाटक, केरल तथा तमिलनाडु के विभिन्न स्थानों से प्राप्त की गयी है । इनमें ब्रह्मगिरि, मास्की, संगनकज्य पिकलीहाल, नागार्जुनीकीण्डा, चिंगलपुत, शापुर, कुचक्र, पैप्यमपक्की, कोकैई आदि प्रमुख है । वृहत्पाषाणिक संस्कृति के निर्माता काले तथा लाल रंग के वर्तनों का उपयोग करते थे । वर्तनों में थाली, कटोरे, घड़े, मटके आदि मिलते है ।

इनका भीतरी तथा गर्दन का भाग काले रंग और शेष भाग लाल रग का मिलता है । समाधियों की खुदाई में लोहे के औजार-हथियार जैसे- कुल्हाड़ी, हसिया, फावड़ा, चाकू, छेनी, त्रिशूल, तलवार, कटार आदि प्रचुरता से मिलते है जो इस बात का सूचक है कि इस संस्कृति के लोग लोहे का व्यापक रूप से प्रयोग करते थे । वे कृषिकर्म तथा पशुपालन करते थे ।

कृषि द्वारा जौ, धान, चना, रागी आदि फसलें पैदा की जाती थी । गाय, बैल, भैंस, भेड़, बकरी आदि उनके प्रमुख पालतू पशु थे । कृषि क्षेत्र में लौह उपकरणों के प्रयोग के कारण पैदावार काफी बढ़ गयी होगी जिससे उनका भौतिक जीवन अधिक सुखी एवं सुविधापूर्ण हो गया होगा ।

इतिहास का प्रारम्भ:

यद्यपि दक्षिण में इतिहास का प्रारम्भ पूर्ववैदिक काल में ही हो गया तथापि ईसा पूर्व छठीं शताब्दी तक उत्तर भारत के साहित्य में विन्ध्य पर्वत के दक्षिणी भाग के विषय में जानकारी प्राय नहीं मिलती है । वैदिक साहित्य में उल्लिखित रक्षिणपय तथा चेरपद की व्याख्या करना कठिन है ।

वैयाकरण पाणिनि दक्षिण से परिचित नहीं थे । सर्वप्रथम कात्यायन के वार्त्तिक (ईसा पूर्व चतुर्थ शती) में सुदूर दक्षिण के चोल, पाण्ड्य, केरल राज्यों का उल्लेख मिलता है । यवन राजदूत मेगस्थनीज ने अपनी ‘इण्डिका’ में पाण्ड्य जनपद का उल्लेख किया है । उसके अनुसार हेरिक्लीज की पुत्री वहाँ की शासिका थी ।

कौटिल्य के अर्थशास्त्र में पाण्ड्य देश के मोती तथा मदुरा के सूती वस्त्रों का उल्लेख मिलता है । रामायण में चोल, केरल तथा पाण्ड्य राज्यों का उल्लेख मिलता है । महाभारत में भी सहदेव की विजय के संदर्भ में पाण्ड्य तथा दक्षिणापथ का उल्लेख प्राप्त होता है । इन महाकाव्यों में दक्षिण को कुछ नदियों तथा पर्वतों के भी नाम प्राप्त होते है ।

महाकाव्यों, पुराणों तथा तमिल साहित्य में अगस्थ्य ऋषि की कथा मिलती है जिन्हें दक्षिण में आर्य संस्कृति को फैलाने का श्रेय दिया गया है । रामायण से पता चलता है कि जिस समय राम दण्डकवन में ठहरे हुए थे, अगस्ल ने उनसे भेंटकर बताया कि उन्होंने दक्षिण को आर्यों के निवास योग्य बनाया है ।

एक अन्य स्थल पर विवरण मिलता है कि अगस्थ्य आश्रम की ओर जाते हुए राम ने लक्ष्मण को बताया था कि सदा संसार का कल्याण चाहने वाले अगस्थ्य ऋषि ने ही राक्षसों का संहार कर पृथ्वी को आर्य जनों के निवास योग्य बनाया था । इस प्रसंग में उनके द्वारा वातापि राक्षस के वध की भी कथा मिलती है ।

महाभारत में बताया गया है कि जब अगसत्य दक्षिण की ओर जा रहे थे, मार्ग में विन्ध्यपर्वत ने विनम्र होकर उनका अभिवादन किया । अगसत्य ने उसे आशीष देते हुए कहा कि जब तक ने वापस न लौटे वह इसी प्रकार नम्र बना रहे । अगस्थ्य कभी वापस नहीं लौटे । एक तमिल परम्परा में बताया गया है कि शिव-पार्वती विवाह के अवसर पर सभी काम-शुल्क तथा देवता हिमालय पर्वत पर एकत्रित हो गये जिससे पृथ्वी का संतुलन बिगड़ गया ।

तत्पश्चात् सभी ने मिलकर शिव से प्रार्थना की कि वे किसी तेजस्वी ऋषि को दक्षिण की ओर भेजे ताकि उसे पुन आवास योग्य बनाया जा सके । इस पर शिव ने अगस्त्य को चुना, उन्हें तमिल व्याकरण का बोध कराया तथा दक्षिण में आर्य संस्कृति के प्रचार-प्रसार के लिये भेजा ।

इन विवरणों से स्पष्ट है कि आयों के प्रवेश के पूर्व दक्षिण का प्रदेश जंगलों से भरा था । वैदिक साहित्य में वहाँ के निवासियों को ‘असुर’ तथा ‘राक्षस’ कहा गया है । ऐतरेय ब्राह्मण में दक्षिण के निवासियों को आन्ध्र, पुण्ड़, शवर, पुलिन्द, मुतिव कहा गया है जो विश्वामित्र के पुत्रों के वंशज थे जिन्हें उन्होंने आर्य प्रदेश से बहिस्कृत कर दिया था ।

इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि दक्षिण भारत के आर्यीकरण की प्रक्रिया ईसा पूत एक हजार से प्रारम्भ हुई तथा चौथी शताब्दी ईसा-पूर्व में समाप्त हुई । दक्षिण में आर्य सभ्यता का प्रचार-प्रसार नन्द तथा मौर्य राजवंशों के काल में तीयगति से हुआ ।

चतुर्थ शताब्दी ईसा पूर्व में नन्दों तथा मौर्यों के नेतृत्व में मगध साम्राज्य का चरमोत्कर्ष हुआ । नन्द शासक महापद्‌म नन्द ने प्रशम वार एक ऐसे साम्राज्य की स्थापना की जिसकी सीमायें गंगाघाटी के मैदानों को लाँघती हुई विन्ध्यपर्वत के दक्षिण में पहुँच गयी ।

पुराणों में उसके द्वारा विजित राज्यों की सूची में दक्षिण भारत के कीलग तथा अश्मक के नाम मिलते है । कलिंग से तात्पर्य वर्तमान उड़ीसा प्रान्त से है । खारवेल के हाथीगुखा लेख से भी पता चलता है कि किसी नन्द राजा ने कलिंग को जीता, वहाँ एक नहर का निर्माण करवाया तथा अपने साथ ‘जिन’ की एक प्रतिमा उठा ले गया था ।

इस शासक की पहचान महापद्‌मनन्द से ही की जाती है । अश्मक राज्य आन्ध्र प्रदेश की गोदावरी नदी घाटी में स्थित था जिसे कलिंग से आगे बढ़कर महामद्‌मनन्द ने जीता । गोदावरी तट पर ‘नवनन्द देहरा’ (नान्देर) नामक नगर विद्यमान है । रेखा लगता है कि इसका नामकरण नन्दों की विजय की स्मृति में ही हुआ होगा ।

ग्यारहवीं शती के एक कन्नड़ लेख से पता चलता है कि नन्दों ने का प्रदेश जीत लिया था । तमिल परम्परा में नन्दों की अतुल सम्पत्ति का भी उल्लैख मिलता है । इससे सूचित होता कि नन्द राजाओं ने जो सम्पत्ति एकत्र कर रखी थी उसका ज्ञान तमिल देश के लोगों को अच्छी तरह था । संगमकालीन कवि मामूलनार स्पष्टत: इसका उल्लेख करता है ।

जहाँ तक मौर्य साम्राज्य के विन्ध्यपर्वत के दक्षिण में विस्तार का प्रश्न है, इस सम्बन्ध में जैन रख तमिल परम्पराओं तथा अशोक के लेखों के आधार पर हम निष्कर्ष निकाल सकते है । जैन अनुश्रुतियों गे कहा गया है कि भद्रबाहु ने मगध मैं बारह वर्षीय अकाल की भविष्यवाणी की । फलस्वरूप चन्द्र्गुप्त ने अपने पुत्र के पक्ष में सिंहासन त्याग दिया तथा उन्हीं के साथ श्रवणवेलगोला (कर्नाटक राज्य में स्थित) नामक स्थान पर तपस्या करने चला गया ।

यहीं सल्लेखन विधि (उपवास) द्वारा उसने अपना शरीर त्याग किया । श्रवणवेलगोला के समीपवर्ती क्षेत्रों से प्राप्त कुछ शिलालेखों में भी भद्रवाहु तथा उनके शिष्य चन्द्रगुप्त मुनीन्द्र का उल्लेख मिलता है । पाँचवी तथा छठीं शताब्दी के दो शिलालेखों में भी भद्रबाहु तथा चन्द्रगुप्त का उल्लेख मिलता है ।

बताया गया है कि उज्जैन में जब भद्रबाहु ने बारह वर्षों तक पड़ने वाले अकाल के विषय में भविष्यवाणी की तब उत्तर का सम्पूर्ण जैन संघ दक्षिण में चला गया । जब वे चन्दगिरि पहाड़ी श्रवणवेलगोला स्थित पर पहुँचे तो वहाँ पहले से तपस्या कर रहे प्रधाचन्द्र नामक आचार्य ने सम्पूर्ण संघ को उनकी सेवा में समर्पित कर किया तथा स्वयं निर्वाण को प्राप्त किया ।

श्रीरगपट्टम् के नवीं शती के एक लेख में बताया गया है कि भद्रवाहु तथा चन्द्रगुप्त दोनों चन्दगिरि पहाड़ी पर तपस्या किया करते थे । श्रवणवेलगोला से ही मिलने वाले बारहवीं तथा पन्द्रहवीं शती के दो शिला-लेखों में भी उपर्युक्त कथानक की स्मृति सुरक्षित है ।

अत: यह निष्कर्ष निकालना स्वाभाविक लगता है कि चन्द्रगुप्त अपने जीवनकाल के अन्त में उसी स्थान पर गया होगा जो उसके साम्राज्य के अन्तर्गत रहा हो । दूसरे शब्दों में उसने कर्नाटक तक का भूभाग जीता होगा । तमिल परम्परा में भी मौर्यों के दक्षिण अभियान का विवरण सुरक्षित है ।

संगमकालीन कवि मामूलनार अपनी कुछ कविताओं में इसका उल्लेख करता है । तदनुसार मौर्यों ने एक विशाल सेना लेकर दक्षिण में ‘मोहर’ के राजा पर आक्रमण किया । इस अभियान में ‘कोशर’ तथा ‘नामक’ स्थानीय जातियों ने उनकी सहायता की थी ।

कुछ विद्वान यहाँ मौर्यों से तात्पर्य कोंकण के मौर्यों से लगाते किन्तु यह तर्कसंगत नहीं फना क्योंकि इसी परम्परा में नन्दों की अतुल सम्पत्ति का भी विवरण सुरक्षित है । इससे निष्कर्ष निकलता है कि मित कवि मगध के मौर्यों की ओर ही संकेत कर रहा है जो नन्दों के उत्तराधिकारी थे । इस परम्परा के आधार पर भी मौर्यों द्वारा तमिल देश तक सैन्याभियान किये जाने का निष्कर्ष निकलता है ।

कुछ विद्वानों की मान्यता है कि सुदूर दक्षिण में तमिल देश तक का क्षेत्र नन्दों द्वारा ही जीता गया था और चन्द्रगुप्त ने नन्द साम्राज्य पर अधिकार करने के वाद उसई स्वाभाविक रूप से प्राप्त कर लिया । स्पष्ट प्रमाणों के अभाव में हम इस सम्बन्ध में निश्चित रूप से कुछ भी नहीं कह सकते ।

अशोक के लेखों के प्राप्ति स्थानों पर दृष्टिपात करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि दक्षिण में आन्ध्र तथा कर्नाटक तक का प्रदेश उसके साम्राज्य में सम्मिलित था । ये लेख आन्ध्र प्रदेश के गोविमठ, पालक्किगुण्डू मास्की, छी (करनूल जिला) तथा कर्नाटक के ड़ह्मगिरि, सिद्धपुर, जटिंग रामेश्वर पहाड़ी चित्तलदुर्ग जिले में स्थित) आदि से मिलते है ।

इनसे प्रमाणित होता है कि सुदूर दक्षिण में कर्नाटक तक अशोक का साम्राज्य विस्तृत था तथा दक्षिण प्रदेश की राजधानी सुवर्णगिरि थी । द्वितीय शिलालेख से पता चलता है कि उसके साम्राज्य की दक्षिणी सीमा पर (चोल, चेर, पाण्ड्य, सतियपुत्त, केरलपुत्र तथा ताम्रपर्णि लंका) के राज्य स्थित थे और ये सभी तमिल राज्य थे जो उसकी साम्राज्य सीमा के बाहर पड़ते थे ।

अशोक के तेरहवें शिलालेख से ज्ञात होता है कि उसने एकमात्र कलिंग को जीता था तथा इसके पश्चात् उसने युद्ध बन्द कर देने की घोषणा की । ऐसी स्थिति में कर्नाटक तक की विजय या तो अशोक के पिता बिन्दुसार ने की या फिर बिन्दुसार के पिता चन्द्रगुप्त ने ।

जहाँ तक बिन्दुसार का प्रश्न है वह एक विलासी प्रकृति का शासक था जिसे इतिहास विजेता के रूप में स्मरण नहीं करता । तिब्बती इतिहासकार तारानाथ का यह विवरण कि चणक्य ने सोलह नगरों को रौंद डाला तथा विन्दुसार को पूर्व से पश्चिम समुद्र तट तक के भूभाग का स्वामी बनाया अत्यन्त भ्रामक है जिसकी पुष्टि किसी अन्य प्रमाण से नहीं होती ।

अत: यही निष्कर्ष निकालना तर्कसंगत लगता है कि चन्द्रगुप्त ने ही सुदूर दक्षिण में कर्नाटक तक का भाग जीता था । इस प्रकार मौर्य काल में दक्षिण भारत मगध साम्राज्य का अंग था तथा वहाँ आर्य संस्कृति का व्यापक रूप से प्रचार-प्रसार हुआ । मौर्य साम्राज्य के पतनोपरान्त दक्षिण में स्वतंत्र राजवंशों का उत्कर्ष हुआ ।

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