गरमपंथी राजनीति का उदय और स्वदेशी आंदोलन | Read this article in Hindi to learn about extremist politics in India during British rule which led to the rise of swadeshi movement. 
उन्नीसवीं सदी के अंत तक जब नरमपंथी राजनीति की असफलता एकदम स्पष्ट हो गई तब कांग्रेस की कतारों से ही एक प्रतिक्रिया पैदा हुई और इस नई प्रवृत्ति को 'गरमपंथी' (extremist) प्रवृत्ति कहा
जाता है ।
नरमपंथियों की यह आलोचना की गई कि वे बहुत डरपोक थे और उनकी राजनीति को भिक्षाटन की राजनीति के रूप में पेश किया गया । यह गरमपंथ तीन प्रमुख क्षेत्रों में तीन महत्त्वपूर्ण नेताओं के नेतृत्व में
विकसित हुआ: बंगाल में विपिनचंद्र पाल, महाराष्ट्र में बाल गंगाधर तिलक और पंजाब में लाला लाजपत राय ।

दूसरे क्षेत्रों में गरमपंथ एकदम गायब नहीं तो कम शक्तिशाली अवश्य था । गरमपंथी राजनीति के उदय की व्याख्या के लिए अनेक कारण दिए गए हैं । कुछ इतिहासकारों के अनुसार एक कारण गुटबंदी थी, क्योंकि सदी के परिवर्तन के आसपास भारत में संगठित सार्वजनिक जीवन के लगभग हर स्तर पर हम गुटों का काफ़ी टकराव देखते हैं ।

बंगाल में ब्रह्मसमाज के अंदर विभाजन था और दो समाचारपत्र समूहों के बीच तीखी शत्रुता थी नरमपंथी नेता सुरेंद्रनाथ बनर्जी द्वारा संपादित बंगाली और अधिक गरमपंथी मोतीलाल घोष द्वारा संपादित अमृत बाजार पत्रिका के बीच ।

बंदे मातरम् के संपादक के पद को लेकर एक ओर अरविंद घोष और दूसरी ओर विपिनचंद्र पाल और ब्रह्मबांधव उपाध्याय के बीच भी गुटबंदी थी । महाराष्ट्र में पूना सार्वजनिक सभा के नियंत्रण को लेकर गोखले और तिलक के बीच प्रतियोगिता थी ।

यह टकराव 1895 में सामने आ गया, जब तिलक ने संगठन पर कब्ज़ा कर लिया और अगले साल गोखले ने एक विरोधी संगठन दकन सभा का आरंभ किया । मद्रास में तीन गुट आपस में लड़ रहे थे: मइलापुर गुट, एगमोर गुट और उपनगरीय कुलीन ।

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दयानन्द की मृत्यु के बाद पंजाब में आर्यसमाज अधिक नरमपंथी कॉलेज गुट और गरमपंथी पुनरूत्थानवादी गुट के बीच बँट गया । इसलिए तर्क दिया जा सकता है कि नरमपंथियों और गरमपंथियों के बीच कांग्रेस का विभाजन केवल गुटों का टकराव था, जो उन दिनों भारत में हर जगह संगठित सार्वजनिक जीवन में व्याप्त था ।

लेकिन गरमपंथी के उदय को केवल गुटबंदी के रूप में व्याख्यायित नहीं किया जा सकता । नरमपंथी राजनीति को लेकर पैदा हुई कुंठा गरमपंथी प्रतिक्रिया के पीछे निश्चित ही एक बड़ा कारण थी । नरमपंथी नेतृत्व में कांग्रेस का संचालन एक अलोकतांत्रिक संविधान से हो रहा था ।

हालांकि तिलक की बार-बार की कोशिशों के बाद एक नया संविधान तैयार हुआ और 1899 में पारित किया गया, पर उसे कभी सही ढंग से आज़माया नहीं गया । कांग्रेस वित्तीय दृष्टि से भी दिवालिया थी क्योंकि पूँजीपति कुछ देते नहीं थे तथा कुछेक राजाओं और बड़े भूस्वामियों का संरक्षण कभी पर्याप्त नहीं होता था ।

नरमपंथियों का पाश्चात्य उदारवाद से प्रेरित सामाजिक सुधार भी लोगों में व्याप्त रूढ़िवाद का विरोधी था । यह बात 1895 में पूना कांग्रेस में सामने आई जब नरमपंथियों ने कांग्रेस के नियमित अधिवेशनों के साथ-साथ एक राष्ट्रीय सामाजिक सम्मेलन के आयोजन का प्रस्ताव किया ।

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तिलक जैसे अधिक रूढ़िवादी नेताओ का तर्क यह था कि सामाजिक सम्मेलन कांग्रेस को दोफाड़ कर देगा और यह प्रस्ताव आखिरकार छोड़ दिया गया । लेकिन इससे भी अहम बात यह है कि नरमपंथी राजनीति एक अंधी गली में फँस चुकी थी, क्योंकि उनकी अधिकांश माँगे अधूरी रहीं और यह बात गरमपंथ के उदय के पीछे निश्चित ही एक बड़ा कारण था ।

इससे उपनिवेशी शासन के विरुद्ध गुस्सा बढ़ा और उपनिवेशवाद की आर्थिक समालोचना के द्वारा नरमपंथियों ने स्वयं इस गुस्से को जन्म दिया था । कर्जन के प्रशासन ने राष्ट्रवादियों के इस क्षोभ को और

बढ़ाया ।

अंग्रेजों के सही होने में पूर्ण विश्वास रखनेवाले लॉर्ड कर्जन ( 1899-1905) में इतना साहस था कि भारतवासियों के विरुद्ध नस्ली दंभ दिखानेवाली एक कुलीन ब्रिटिश रेजिमेंट की उसने कसकर खिंचाई की

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थी ।

लेकिन वह आत्मविश्वास से भरे उस निरंकुश साम्राज्यवाद का अंतिम प्रवक्ता भी था जिसकी विचारधारा के निर्माता फ्रिट्‌ज़जेम्स स्टीफ़ेन और लिटन स्ट्रैची थे । उसने अनेक लोकविरोधी कानूनी और प्रशासनिक कदम उठाए जिससे शिक्षित भारतवासियों की भावनाएँ आहत हुई ।

1899 के कलकत्ता म्यूनिसिपल एडमंट ऐक्ट के द्वारा कलकत्ता नगर निगम के पुनर्गठन ने उसमें निर्वाचित प्रतिनिधियों की सख्या कम कर दी; 1904 के इंडियन यूनिवर्सिटीज़ ऐक्ट ने कलकत्ता विश्वविद्यालय को पूर्ण सरकारी नियंत्रण में पहुँचा दिया और 1904 के ही इंडियन आफ्रिशियल सीक्रेट्‌स ऐक्ट ने प्रेस की स्वतंत्रता को और सीमित कर दिया ।

उसके बाद कलकत्ता विश्वविद्यालय के उसके दीक्षांत भाषण ने, जिसमें उसने सत्य जैसे परम आदर्श को मूलत एक पश्चिमी धारणा कहा शिक्षित भारतवासियों की गर्व की भावना को निश्चित तौर पर आहत

किया । इस शृंखला में अंतिम कदम 1905 में बगाल का विभाजन था जिसका उद्देश्य कथित रूप से कांग्रेस को नियंत्रित करने वाले बंगाली राष्ट्रवादियों को कमजोर करना था ।

लेकिन कांग्रेस को कमजोर करना तो दूर, कर्जन के कदमों ने उसे नवजीवन देने के लिए संजीवनी का काम किया; अब गरमपंथी राजनीतिज्ञों ने कांग्रेस पर कब्ज़ा करने की कोशिशें कीं ताकि उसे उपनिवेशी शासन से और भी सीधे और उग्र टकराव के रास्ते पर ले जाया जा सके ।

गरमपंथियों का लक्ष्य था स्वराज, जिसकी अलग-अलग नेताओं ने अलग-अलग व्याख्याएँ कीं । तिलक इसका अर्थ प्रशासन पर भारतीय नियंत्रण समझते थे, न कि ब्रिटेन से पूरा-पूरा संबंध-विच्छेद ।

विपिन पाल समझते थे कि ब्रिटिश सर्वोच्चता के अंतर्गत कोई भी स्वशासन संभव नहीं; इसलिए उनके लिए स्वराज का अर्थ ब्रिटिश नियंत्रण से एकदम मुक्त पूर्ण स्वतंत्रता था । बंगाल में अरविंद घोष भी स्वराज को पूर्ण राजनीतिक स्वतंत्रता समझते थे ।

लेकिन अधिकांश दूसरे लोगों के लिए स्वराज का अर्थ ब्रिटिश साम्राज्यिक ढाँचे के दायरों के अंदर ही स्वशासन था । वास्तव में गरमपंथ आंदोलन की विधि में देखा जाता था और वे लोग प्रार्थनापत्रों और ज्ञापनों की पुरानी विधियों से हटकर सविनय अवज्ञा की विधियों का उपयोग करने लगे ।

इसका अर्थ अन्यायपूर्ण कानूनों के उल्लंघन के द्वारा उपनिवेशी शासन का विरोध, ब्रिटिश माँगों और संस्थाओं का बहिष्कार और उसके देसी विकल्पों का अर्थात् स्वदेशी और राष्ट्रीय शिक्षा का विकास था । इस नई राजनीति को वैचारिक प्रेरणा नए क्षेत्रीय साहित्य से मिली जिसने भारतीय राष्ट्र की परिभाषा उसकी विशिष्ट सांस्कृतिक धरोहर या सभ्यता के आधार पर करने के लिए चर्चा का एक आधार तैयार किया ।

यह प्राच्यवाद से भरपूर निश्चित ही एक पुनरूत्थानवादी सँवाद था और उसने एक परिकल्पित स्वर्णयुग का आह्वान किया और एक अतीतमुखी पुनर्रचित इतिहास से प्राप्त प्रतीकों का उपयोग राष्ट्रवादी भावनाओं को उभारने के लिए किया ।

यह उपनिवेशवाद के उस लिंग-केंद्रित संवाद का जवाब भी था, जिसने पुरुषत्व और राजनीतिक प्रभुत्व के बीच एक प्रयोजनवादी संबंध स्थापित किया था तथा उपनिवेशित समाज को ”स्त्रैण” और इसलिए शासन के अयोग्य ठहराया था ।

इस समाज ने फिर अपने शासन के अधिकार की वैधता स्थापित करने के लिए एक परिकल्पित आर्य युग के क्षत्रियत्व में अपना पुरुषत्व साबित करने की कोशिश की । जिन ऐतिहासिक पात्रों ने कभी शौर्य और साहस का परिचय दिया था उनको राष्ट्रीय नायकों के रूप में पेश किया गया ।

तिलक ने अप्रैल 1896 में महाराष्ट्र में शिवाजी उत्सव का आरंभ किया और ये विचार शीघ्र ही बं गाल में भी लोकप्रिय हो गए जहाँ राष्ट्रनायक-पूजा का एक उन्माद शुरू हो गया । उपनिवेशी नृजातिशास्त्र (ethnography) में ‘सैन्य नस्लों’ के रूप में प्रस्तुत किए गए मराठों राजपूतों और सिखों को अब एक आर्य परंपरा में स्थापित करके राष्ट्रनायकों का दर्जा दे दिया गया ।

रणजीतसिंह, शिवाजी और स्थानीय इतिहास से लिए गए प्रतापादित्य और सीताराम जैसे नायकों को, यहाँ तक कि सिराजुद्दौला को भी, राष्ट्रीय गरिमा के रक्षकों या स्वतंत्रता के शहीदों के रूप में प्रस्तुत किया गया । इस वैचारिक सवाद में विवेकानंद ने एक सुस्पष्ट हस्तक्षेप एक ”वैकल्पिक पुरुषत्व” के विचार का समावेश करके किया जो पुरुषत्व की पश्चिमी धारणाओं और आध्यात्मिक और ब्रह्मचारी संन्यास की ब्राह्मणवादी परंपरा का समन्वय था ।

भारी उत्साह के साथ एक व्यायाम आंदोलन का आरंभ हुआ, शारीरिक बल के विकास के लिए बंगाल के विभिन्न भागों में अखाड़ों का जन्म हुआ पर जोर आध्यात्मिक शक्ति और आत्मानुशासन पर ही रहा, जिसमें शरीर पर श्रेष्ठता का दावा किया गया, जबकि पुरुषत्व के पश्चिमी विचार में शरीर को ही प्रमुखता प्राप्त थी ।

भारत के राजनीतिक नेता आंग्ल-सैक्सन राजनीतिक व्यवस्थाओं के विकल्प के तौर पर पीछे मुड़कर प्राचीन हिंद-आर्य राजनीतिक परंपराओं की ओर भी देखने लगे । भारतीय परंपरा को ग्रामीण स्वशासन पर भारी बल देनेवाली तथा अधिक लोकतांत्रिक परंपरा घोषित किया गया ।

तर्क दिया गया कि धर्म की धारणा राजा की मनमानी की शक्ति पर रोक लगाती थी तथा यौधेय और लिच्छवी जनगणों की गणतांत्रिक परंपराओं से संकेत मिलता था कि भारतीय जनता के पास पहले से ही स्वशासन की एक शक्तिशाली परंपरा थी ।

इसका उद्देश्य सीधे-सीधे उस उपनिवेशी और नरमपंथी तर्क की काट प्रस्तुत करना था कि ब्रिटिश शासन भारतवासियों को स्वशासन के लिए तैयार करने हेतु ईश्वर का एक वरदान था । इस चरण में भारतीय राष्ट्रवाद का केंद्रीय विषय वास्तव में यही था ।

नरमपंथी चाहते थे कि भारतीय राष्ट्र का विकास आधुनिकता की तर्ज पर हो, लेकिन चूंकि आधुनिकता एक पश्चिमी धारणा थी, इसका अर्थ उपनिवेशी शासन को जारी रखने की पैरवी भी था । दूसरी ओर गरमपंथियों ने उपनिवेशी शासन का विरोध किया और इसलिए उन्हें एक अ-पश्चिमी शब्दावली में बात करनी पड़ रही थी ।

उन्होंने भारतीय राष्ट्र का निरूपण भारत के सुस्पष्ट सांस्कृतिक मुहावरों में किश्त जिससे एक स्वर्णयुग का स्मरण करनेवाला धार्मिक पुनरूत्थान पैदा हुआ; इसमें कभी-कभी तो उस अतीत को आंखें बंद करके स्वीकार और महिमामंडित तक किया गया ।

लेकिन उनका हिंदू धर्म केवल एक राजनीतिक प्रवर्ग (construct) था, जो सुनिश्चित धार्मिक विशेषताओं से निरूपित नहीं था । जैसे उन्नीसवीं सदी के अंग्रेज प्राचीन यूनान को अपनी सांस्कृतिक धरोहर मानते थे वैसे ही अँग्रेजी शिक्षा-प्राप्त भारतवासी भी वैदिक सभ्यता की उपलब्धियों पर गर्व करते थे ।

यह मूलत: एक ”परिकल्पित इतिहास” था, जिसका विशिष्ट ऐतिहासिक उद्देश्य अपने राष्ट्र को परिकल्पित करने की प्रक्रिया में लगे भारतवासियों के चुनिंदा समूह के मन में गर्व की भावना भरना था । तिलक या अरविंद जैसे कुछ नेता यह भी मानते थे कि हिंदू पुराण और इतिहास का यह उपयोग जनता तक पहुँचने और उसे अपनी राजनीति के पक्ष में लामबंद करने का बेहतरीन उपाय था ।

बुजुर्ग नरमपंथी राजनीनिज्ञों ने कांग्रेस की नीतियों और कार्यक्रमों के दायरे में हन नइ प्रवृत्तियों को जगह देने से मना कर दिया और इसके कारण 1907 में सूरत अधिवेशन में कांग्रेस विभाजित हो गईं । सूरत में कांग्रेस के विभाजन (1907) की बेतुकी कहानी में जाने से पहले हम बगाल में स्वदेशी आंदोलन के इतिहास (1905-11) पर विचार करेंगे जिसे गरमपंथी राजनीति की सर्वोत्तम अभिव्यक्ति कहा जा सकता है ।

इस आंदोलन का जन्म 1905 में बंगाल विभाजन के विरोध में हुआ जिसे लॉर्ड कर्जन ने इस प्रात में राजनीतिक विरोध को नष्ट करने के लिए किया था । विजय और अधिग्रहण के कारण नए-नए क्षेत्रों की प्राप्ति के कारण एक प्रशासनिक इकाई के रूप में बगाल प्रेसिडेंसी का आकार बढ़ता जा रहा था ।

फलस्वरूप एक समय तो उसकी सीमाएँ पश्चिमोत्तर में सतलुज तक, पूर्वात्तर में असम तक और दक्षिण-पूर्व में अरकान तक फैली हुई थीं । यह प्रेसीडेंसी वास्तव में भारी भरकम थी और इसलिए उड़ीसा  में  1866 के अकाल के समय से ही बंगाल के विभाजन की आवश्यकता पर बहस होती आ रही थी ।

1874 में 30 लाख की आबादी वाला असम वास्तव में अलग कर दिया गया और सिलहट, ग्वालपाड़ा और कछार जैसे तीन बंगलाभाषी क्षेत्र भी उसमें जोड़ दिए गए । इस चरण में बंगाल को कमजोर करने की बजाय असम के हितों की रक्षा करना नीतिगत निर्णय के पीछे अधिक महत्त्वपूर्ण दिखाई पड़ता था ।

उसके बाद उसका एक व्यावहारिक प्रशासनिक इकाई बनाना अंग्रेजों के ध्यान का केंद्र बन गया । 1892 में प्रस्ताव किया गया कि रही चटगाँव चट्टोग्राम कमिश्नरी असम में डाल दी जाए । 1896 में असम के तत्कालीन चीफ़ कमिश्नर विलियम वॉर्ड ने फिर से ढाका और मैमनसिंह जिलों के हस्तांतरण का प्रस्ताव किया ताकि असम सिविल सेवा के एक अलग काडर के साथ एक लेफ्टिनेंट गवर्नर वाला प्रांत बन सके पर उस समय इस योजना को स्वीकार नहीं किया गया ।

1897 में केवल लुशाई की पहाड़ियों को हस्तांतरित किया गया और बाकी योजना बस्ते में बंद कर दी गई । भारत आने के बाद लॉर्ड कर्जन जब मार्च 1900 में असम की यात्रा पर गया तो यह योजना फिर से जीवित की गई क्योंकि असम-बंगाल रेलवे पर अपनी निर्भरता कम करने के लिए चाय-बागानों के यूरोपीय मालिकों ने कलकत्ता से कम दूरी पर एक पत्तन की माँग की ।

1901 में बंगाल के विभाजन की आवश्यकता कहीं अधिक तात्कालिक मालूम हुई क्योंकि उस साल जनगणना से पता चला कि बंगाल की जनसंख्या 7.85 करोड़ हो चुकी थी । भारत के क्षेत्रीय पुनर्वितरण संबंधी कार्य विवरण (19 मई / 1 जून 1903) में कर्जन ने एक योजना तैयार की जिसे 3 दिसंबर, 1903 को रिजली पेपर्स के नाम से प्रकाशित किया गया ।

उसमें चटगाँव कमिश्नरी तथा ढाका और मैमनसिंह ज़िलों को असम को तथा छोटानागपुर को मध्यप्रांत को हस्तांतरित करने का प्रस्ताव किया गया था; बदले में बंगाल को मध्यप्रांत से संभलपुर और अधीनस्थ रजवाड़े तथा मद्रास प्रेसिडेंसी से जिला गंजाम और विशाखापत्तनम एजेंसी के इलाके मिलते ।

बाद के महीनों में हस्तांतरित किए जानेवाले जिलों की सूची को लंबा करके धीरे-धीरे योजना का विस्तार किया गया हालांकि यह गुप्त रूप से किया गया । अंतिम योजना भारत सचिव ब्रोडरिक के नाम कर्जन के 2 फरवरी, 1905 के डिस्पैच में दी गई थी; ब्रोडरिक ने भी इसे किसी उचित संसदीय बहस के बिना ही हिचक के साथ स्वीकार कर लिया ।

बंगाल-विभाजन की औपचारिक घोषणा 19 जुलाई को की गई और तीन माह बाद, 16 अक्टूबर, 1905 को लागू कर दी गई । इसका अर्थ पूर्वी बंगाल और असम नाम से एक नए प्रति का सृजन था, जिसमें चटगाँव, ढाका और राजशाही कमिश्नरियों के सारे जिले तथा टिपरा पहाड़ी मालदा और असम भी शामिल होते ।

नए प्रांत की जनसंख्या 3.1 करोड़ होती, जिसमें 1.8 करोड़ मुसलमान और 1.2 करोड़ हिंदू होते । जबकि बाकी बंगाल प्रति की जनसंख्या 5.4 करोड़ होती जिसमें 4.2 करोड़ हिंदू और 0.9 करोड़ मुसलमान होते । नए प्रात में मुसलमान बंगाली हिंदुओं से अधिक होते तथा पुराने प्रांत में वे एक भाषायी अल्पसंख्यक होते, जिनमें हिंदी और उड़िया बोलने वालों की बड़ी संख्या होती ।

दोनों प्रांतों की यही जनांकिकीय (demographic) विशेषताएँ थीं जिन्होंने नए सवाल खड़े किए: क्या विभाजन वास्तव में प्रशासनिक दक्षता के लिए था ? स्पष्ट है कि कर्जन के प्रशासन ने प्रशासनिक आधार योजना का पक्ष लिया कि इससे बंगाल सरकार का अत्यधिक प्रशासनिक बोझ कम होगा; इससे असम की समस्या भी हल होगी जो सिविल सेवा के एक अलग काडर के साथ लेफ्टिनेंट गवर्नर वाला प्रांत बन जाएगा;

इससे भारी व्यापारिक लाभ होंगे, क्योंकि चाय बागानों और तेल व कोयला उद्योगों के हितों की रक्षा होगी; असम के बागान मालिकों को चटगाँव पत्तन के रास्ते एक सस्ता समुद्री मार्ग प्राप्त होगा; तथा वह असम-बंगाल रेलवे एक ही प्रशासन के अंतर्गत आएगी जो पूर्वोत्तर भारत के आर्थिक विकास के लिए इस कदर महंत्त्वपूर्ण थी ।

लेकिन, जैसा कि सुमित सरकार ने दिखाया है ये सभी तर्क भ्रामक लगते हैं; वास्तव में प्रशासनिक चिंता उपनिवेशवादी मन में 1903 तक ही सर्वप्रमुख थी, उसके बाद नहीं । विभाजन अगर शुद्ध प्रशासनिक आधारों पर होता तो सरकार ने अनेक सिविल कर्मचारियों के वैकल्पिक प्रस्तावों को स्वीकार कर लिया होता जिनमें जनसंख्या के धार्मिक विभाजन की बजाय भाषायी विभाजन के आधार पर विभाजन करने की कहीं अधिक तार्किक योजनाओं के सुझाव दिए गार थे ।

लेकिन इन सभी प्रस्तावों को कर्जन ने राजनीतिक आधार पर अस्वीकार कर दिया कि भाषायी एकता बंगाली राजनीतिज्ञो की स्थिति को और भी मजबूत बनाएगी । इसलिए हमें विभाजन के वास्तविक कारणों की खोज उपनिवेशी सरकार के राजनीतिक पूर्वाग्रहों में करनी चाहिए ।

वास्तव में वायसरॉय बनने से पहले भी कर्जन की दीक्षा उपनिवेशी नौकरशाही की इन्हीं बंगाली-विरोधी भावनाओं में हुई थी और राजनीतिक रूप से मुखर इस समुदाय को कमजोर करने की उस इच्छा में हुई थी जो इस विभाजन के पीछे का प्रमुख उद्देश्य मालूम होती है ।

अपने 7 फ़रवरी, 1904 के नोट में गृहसचिव हरबर्ट रिज़ली ने यह बात स्पष्ट कर दी थी । उसका तर्क था: ”एकजुट बंगाल एक ताकत है । विभाजित बगाल अनेक दिशाओं मे आगे बढ़ेगा । यह बात एकदम सच है और इस योजना की अनेक विशेषताओं में से है ।”

कर्ज़न यह भी मानता था कि कांग्रेस को कलकत्ता से उसके ”बेहतरीन सूत्रधार और… जोशीले वक्ता” नचा रहे थे; इसलिए कलकत्ता का महत्त्व कम करने तथा कार्यकलाप और प्रभाव के वैकल्पिक केंद्रों को बढ़ावा देने पर कांग्रेस भी कमजोर होगी ।

उसका पक्का विश्वास था कि ”हमारे (बंग-भंग के) प्रस्ताव के राजनीतिक लाभ की सबसे अच्छी गारंटी उस पर कांग्रेस की नापसंदगी है । विभाजन से उद्देश्य और भी पूरा होता । जैसा कि कर्ज़न के बाद नए वायसरॉय बननेवाले लॉर्ड मिंटो (5 फरवरी, 1906) के ज्ञापन से और ( पूर्वी बंगाल व असम के दूसरे लेफ्टिनेंट गवर्नर) सर लैंसलॉट हेयर कै अक्टूबर 1906 के प्रस्ताव से संकेत मिलता है, इससे बंगाली भद्रलोक का लगभग पूर्ण ”वर्गीय शासन” नष्ट होता, अर्थात् भूस्वामी, साहूकार, पेशेवर और बाबू वर्गो का शासन, जो अधिकतर तीन ऊँवी जातियों ब्राह्मण, कायस्थ और वैश्य जातियों के थे ।

शिक्षा और रोज़गार पर उनका एकाधिकार था, इतना कि दूसरी सभी समुदाय इनसे लगभग पूरी तरह बाहर थे, और यही उनकी राजनीतिक शक्ति का मुख्य स्रोत था । इसलिए भद्रलोक की शक्ति का प्रतिकारक था दूसरे समुदायों के विकास को बढ़ावा देना; इस मामले में मुसलमानों की ओर ही उपनिवेशी शासकों का ध्यान गया ।

बंगाल के पूर्वी जिलों में मुस्लिम आबादी के भारी संकेंद्रण की ओर सबसे पहले संकेत उन्नीसवीं सदी में डॉ. फ्रांसिस बुखानन ने अपने समाजशास्त्रीय और सांख्यिकीय सर्वेक्षणों के माध्यम से किया था । 1836 में देशी भाषाओं की शिक्षा पर ऐडम की रिपोर्ट ने भी ऐसी ही जनांकिकीय संवृत्ति (phenomenon) का संकेत दिया था । 1872 में पहली जनगणना से पता चला कि बंगाल की 49.2 प्रतिशत, अर्थात् लगभग आधी आबादी मुसलमानों की थी और वे मुख्यत पूर्वी मध्य और उत्तरी जिलों में बसे हुए थे ।

दूसरे शब्दों में भागीरथी नदी के साथ-साथ एक स्पष्ट भौगोलिक विभाजन मौजूद था: पूर्वी बंगाल में मुसलमानों और पश्चिमी बंगाल में हिंदुओं की प्रधानता थी जबकि मध्य बंगाल में दोनों समुदायों के बीच एक संतुलन था । इतना ही नहीं यह मुस्लिम आबादी बेहद ग्रामीण चरित्र वाली थी और उनमें लगभग 90 प्रतिशत लोग खेतिहर और मामूली चाकर समूहों के थे ।

इसलिए बहुत पहले, 1896 में कहा गया था कि एक नया पूर्वी बंगाल प्रति काफ़ी बड़ी मुस्लिम आबादी को एकजुट करेगा और अविभाजित बंगाल मैं अल्पसंख्यक हिंदुओं की राजनीतिक रूप से खतरनाक स्थिति को कमजोर करेगा ।

ढाका में फ़रवरी, 1904 में दिए गए भाषण में कर्ज़न ने इस नीति को और भी दोटूक ढंग से निरूपित किया था: नए पूर्वी बंगाल प्रांत में मुसलमानों के बीच ऐसी एकता होगी जो पहले के मुस्लिम शासन के बाद उनमें कभी नहीं रही ।

विभाजन की योजना के आखिरी मसविदे में भी जिसे सितंबर 1904 में तैयार किया गया था इस बात पर जोर दिया गया था कि नए प्रांत: का मुख्यालय ढाका कालक्रम में ऐसी प्रांतीय राजधानी बनेगा जिसमें मुसलमानों के हित प्रधान नहीं भी होंगे तो उनका जबरदस्त प्रतिनिधित्व होगा ।

इसलिए हैरानी नहीं कि पूर्वी बंगाल के मुसलमान धीरे-धीरे विभाजन की योजना के पक्ष में आ गए । वास्तव में बंगालियों को बाँटने और कमजोर करने की बजाय विभाजन ने उनको एक बंग-भंग विरोधी आंदोलन के माध्यम से और भी एकजुट कर दिया ।

वास्तव में कर्ज़न के प्रशासन ने जिस चीज को अनदेखा किया था वह थी उभरती हुई बंगाली पहचान जो संकीर्ण हितबद्ध समूहों वर्गों से और क्षेत्रीय बाधाओं से भी ऊपर उठ चुकी थी । पहले से अधिक भौगोलिक गतिशीलता, उन्नीसवीं सदी में एक साहित्यिक भाषा के क्रमिक विकास और क्षेत्रीय समाचारपत्रों जैसे संचार के आधुनिक साधनों ने ऐसी क्षैतिज एकजुटता (horizontal solidarity) के लिए पहले ही एक शक्तिशाली तत्त्व पैदा कर रखा था ।

सदी के परिवर्तन के समय प्रांत की आर्थिक दशा ने भी तनाव की स्थिति पैदा कर दी थी । 1890 के दशक के अकालों और महामारियों ने दैव-विहित ब्रिटिश शासन में पहले वाली आस्था को चूर कर दिया था । शिक्षित बंगालियों के लिए कम होते अवसरों और बीसवीं सदी कें आरंभिक वर्षो में साल-दर-साल खराब फ्रसल के कारण बढ़ते दामों ने मध्य वर्गो का जीवन दूभर कर दिया था ।

ऐसे मोड़ पर विभाजन ने बंगाली समाज को तोड़ने की बजाय एक ”स्वदेशी गठबंधन” को जन्म दिया; इसके लिए उसने कलकत्ता के नेताओं और पूर्वी बंगाल में उनके अनुयायियों की राजनीतिक एकता को और पुष्ट किया जो रजत रे के शब्दों में ”बंगाली समाज के राजनीतिक ढाँचे में एक क्रांति से कम नहीं” थी ।

विभाजन विरोधी आंदोलन आरंभ तो 1903 में हो चुका था लेकिन विभाजन की योजना के 1905 में अंतत: घोषित और लागू किए जाने के बाद वह और भी मजबूत और भी संगठित हो गया । आरंभिक उद्देश्य विभाजन को रह कराना था लेकिन जल्द ही वह एक अधिक व्यापक आधार वाला आंदोलन बन गया जिसे स्वदेशी आंदोलन कहते हैं और जिसने व्यापक राजनीतिक और सामाजिक प्रश्नों को उठाया ।

सुमित सरकार (1973) ने बंगाल के स्वदेशी आंदोलन में चार प्रमुख प्रवृत्तियों की पहचान की है नरमपंथी प्रवृत्ति रचनात्मक स्वदेशी राजनीतिक गरमपथ और क्रांतिकारी आतंकवाद । उनका तर्क है कि इन प्रवृत्तियों को कालों में बाँटना संभव नहीं है क्योंकि ये सभी प्रवृत्तियाँ इस काल में कमोबेश साथ-साथ उपस्थित थीं ।

यहाँ सुमित सरकार की प्रस्तुति का संक्षेप इस प्रकार होगा नरमपंथी 1903 में विभाजन की योजना की घोषणा के बाद से ही उसकी आलोचना करने लगे थे । यह मानकर कि अंग्रेज प्रार्थनापत्रों ज्ञापनों और जनसभाओं के माध्यम से प्रस्तुत उनके तर्को को सुनेंगे उन्होंने आरंभिक चरण में ही उस योजना को संशोधित करने के प्रयास किए ।

लेकिन जब वे इसमें सफल नहीं हुए और 1905 में विभाजन की योजना की घोषणा कर दी गई तो उन लोगों ने एक संकीर्ण आदोलन को एक व्यापकतर स्वदेशी आदोलन में बदलने की प्रथम पहल की । वे पहली बार अपनी परंपरागत राजनीतिक विधियों से आगे बढे और कलकत्ता में 17 जुलाई, 1905 को एक जनसभा में सुरेंद्रनाथ बनर्जी ने अंग्रेजी मालों और संस्थाओं के बहिष्कार का आह्वान किया ।

कलकत्ता टाउनहॉल में 7 अगस्त की एक अन्य जनसभा में बहिष्कार का एक औपचारिक प्रस्ताव पारित किया गया जो स्वदेशी आंदोलन का आरंभ बिंदु था । यह पहला अवसर था जब नरमपंथियों ने जनता के पढ़े-लिखे वर्गों के अलावा दूसरों को भी लामबंद करने की पहल की उनमें से कुछ ने राष्ट्रीय शिक्षा के आंदोलन में भाग लिया और कुछ तो मजदूरों की हड़तालों तक में शामिल हुए ।

लेकिन उनका राजनीतिक दर्शन वही रहा और उन्होंने विभाजन को रह कराने के लिए केवल ब्रिटिश संसद पर दबाव डालने की कोशिशें कीं उन्होंने बहिष्कार की परिकल्पना राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के पुनर्जन्म की ओर एक चरण के रूप में या सविनय अवज्ञा आंदोलन चलाने के लिए नहीं की ।

इसकी प्रतिक्रिया में एक नई प्रवृत्ति का आरंभ हुआ जिसमें स्वावलंबन गाँव स्तर पर संगठन तथा विदेशी मालों और संस्थाओं के स्वदेशी विकल्प के विकास के लिए रचनात्मक कार्यक्रमों पर जोर दिया गया था । जैसा कि सरकार ने दिखाया है, 1905 तक इस गरमपंथी प्रवृत्ति में भी दो प्रमुख धाराएं नजर आने लगी थीं: अराजनीतिक रचनात्मक स्वदेशी, जिसमें आत्मविकास के प्रयासों पर भारी जोर दिया जाता था और राजनीतिक गरमपंथ, जिसमें सविनय अवज्ञा पर जोर दिया जाता था ।

आरंभ में बंगाल के गरमपंथी रचनात्मक कार्यक्रम की ओर अधिक झुके हुए थे, जिसमें दैनिक जीवन की आवश्यक वस्तुओं के निर्माण, राष्ट्रीय शिक्षा, पंचायती अदालतों और ग्राम संगठन के अपरिपक्व प्रयास शामिल थे । प्रदर्शनियों और दुकानों के जरिये स्वदेशी मालों की बिक्री के प्रयास 1890 के दशक से ही किए जाने लगे थे ।

बंगाल केमिकल का आरंभ 1893 में एक स्वदेशी उद्यम के रूप में हुआ था और फिर 1901 में चीनी मिट्टी की वस्तुओं के उत्पादन के लिए एक और कारखाना खोला गया था । सतीशचंद्र मुखर्जी के भागवत चतुष्पदी (1895), डॉन सोसायटी ( 1902-07), ब्रह्मबांधव उपाध्याय के सारस्वत आयतन (1902) और रवींद्रनाथ ठाकुर के शांतिनिकेतन आश्रम (1901) के साथ राष्ट्रीय शिक्षा के आंदोलन का आरंभ हो चुका था ।

राजनीतिक आंदोलन के आरंभ से पहले अराजनीतिक रचनात्मक कार्यक्रमों पर या एक आत्मवर्धक आंदोलन पर बल दिया जा रहा था जिसमें धार्मिक पुनरुत्थानवाद को महत्त्व दिया जाता था क्योंकि आशा की जाती थी कि हिंदू धर्म पूरे राष्ट्र के लिए एकता का सूत्र बनेगा । रवींद्रनाथ ठाकुर इस रचनात्मक स्वदेशी के प्रमुख चिंतक बनकर सामने आए हालांकि उनकी रचनाओं में पुनरूत्थानवादी विचार केवल 1901 और 1906 के बीच दिखाई देते हैं ।

अपने 1904 में दिए गए भाषण ”स्वदेशी समाज” में उन्होंने आत्मशक्ति का रचनात्मक कार्यक्रम सामने रखा और जुलाई 1905 के बाद यही पूरे बंगाल का मूलमंत्र बन गया; कपड़ा कारखानों और हथकरघों, माचिस और साबुन के कारखानों तथा चमड़ा के कारखानों जैसे स्वदेशी उद्यम हर जगह खड़े होने  लगे ।

राष्ट्रीय विद्यालयों की स्थापना के बाद और अगस्त 1906 में बंगाल नेशनल कॉलेज एंड स्कूल की स्थापना के बाद राष्ट्रीय शिक्षा का आंदोलन आगे बढ़ा । जिला बाकरगंज की स्वदेश बाधव समिति ने अगस्त 1906 तक अपनी 89 मध्यस्थता समितियों के माध्यम से 523 विवादों के निबटारे का दावा किया ।

सन् 1906 के आसपास ही इस प्रवृत्ति की आलोचना अरविंद घोष विपिनचंद्र पाल और ब्रह्मबांधव उपाध्याय जैसे राजनीतिक गरमपंथियों द्वारा की जाने लगी जिनका तर्क था कि स्वतंत्रता के बिना राष्ट्रीय जीवन का कोई पुनर्जीवन संभव नहीं । इसके बाद से आंदोलन एक नया मोड़ लेने लगा ।

अब केवल विभाजन की निरस्ति उसका लक्ष्य नहीं रहा बल्कि उसका लक्ष्य पूर्ण स्वाधीनता या स्वराज का हो गया और इस अर्थ में इस आंदोलन को किसी भी तरह संकीर्ण बंगाली उपराष्ट्रवाद की अभिव्यक्ति नहीं माना जा सकता ।

इस चरण में उसके कार्यक्रम में चार बातें शामिल थीं अंग्रेजी वस्तुओं और सस्थाओं का बहिष्कार, उनके स्वदेशी विकल्पों का विकास, अन्यायपूर्ण कानूनों का उल्लंघन और ब्रिटिश दमन के कारण आवश्यक होतो हिंस आंदोलन ।

जैसा कि सुमित सरकार का कथन है, यह गांधी के कार्यक्रम का पूर्वाभ्यास था इसमें उनका अहिंसा पर दिया जाने वाला जोर शामिल नहीं था । इस राजनीतिक कार्यक्रम के लिए स्पष्ट है कि जनता की लामबंदी की आवश्यकता थी और अरविंद घोष जैसे नेताओं ने जनता तक पहुंचने के लिए धर्म का सहारा लिया ।

इसलिए धार्मिक पुनरुत्थानवाद इस नई राजनीति की एक प्रमुख विशेषता था । स्वदेशी के स्वयंसेवकों के लिए भगवद्‌गीता आध्यात्मिक प्रेरणा की स्त्रोत बन गई और जनता को लामबंद करने के लिए अक्सर हिंदू धार्मिक प्रतीकों का खासकर शाक्त के बिंब का, उपयोग किया जाने लगा । लेकिन जैसा कि बारबरा सदर्द (1980) ने दिखाया है इसने मुसलमानों को पराया बना दिया और यह निम्नजातियों के किसानों को भी आकर्षित करने में असफल रही जिनमें से अनेक किसान वैष्णव थे ।

समितियों का गठन जनता की लामबंदी का दूसरा ढंग था । 1909 में पाँच प्रमुख समितियों पर प्रतिबंध लगने से पहले वे लामबंदी के विभिन्न रूपों का उपयोग कर रहीं थीं जैसे नैतिक और शारीरिक प्रशिक्षण, परमार्थ कार्य, स्वदेशी के संदेश का प्रचार, स्वदेशी दस्तकारियों, शिक्षा, मध्यस्थता की अदालतों आदि का गठन ।

लेकिन जनता की लामबंदी के ये प्रयास आखिरकार असफल रहे क्योंकि इन समितियों की सदस्यता कभी शिक्षित भद्रलोक की कतारों से आगे नहीं बड़ी और सवर्ण हिंदू कुलीनों के इस नेतृत्व ने अकसर अपने बल का प्रयोग करके निचली जातियों के किसानों को विमुख किया ।

और सहारा भी केवल शारीरिक बल का नहीं लिया गया; स्वदेशी के नेताओं ने प्रशासन से सहयोग करनेवालों को दंड देने या हिचकनेवाले भागीदारों को सहमत करने के लिए जातिगत संगठनों पेशेवर संगठनों और राष्ट्रवादी संगठनों के माध्यम से बेझिझक सामाजिक बलप्रयोग या सामाजिक बहिष्कार का सहारा लिया ।

अकसर भागीदारों की झिझक का कारण यह होता था कि उनका प्रतिनिधित्व करने का दावा करनेवाले नेताओं के हित उनके हितों से भिन्न होते थे । स्वदेशी माल अकसर ब्रिटिश मालों से अधिक महँगे होते थे राष्ट्रीय स्कूलों की संख्या पर्याप्त नहीं थी ।

इसके अलावा निचली जातियों के कुछ किसानों में जैसे उत्तरी बंगाल के राजवंशियों और पूर्वी बंगाल के नामशूद्रों में उस समय तक सामाजिक गतिशीलता और आत्मसम्मान की आकांक्षाओं का जन्म हो चुका था जिनको किसी सामाजिक कार्यक्रम से वंचित स्वदेशी आंदोलन महत्त्व देने में बल्कि स्वीकार करने तक में असफल रहा ।

स्वदेशी-समर्थकों का जनता की लामबंदी का दूसरा ढंग मजदूरों की हड़तालों का आयोजन करना था खासकर विदेशी मालिकों वाली कंपनियों में । लेकिन इस बारे में भी सफेदपोश राष्ट्रवादी श्रमिकों में ही अपनी पैठ बना सके जबकि हिंदुस्तानी (उत्तर भारतीय) मजदूरों का और बागान मजदूरों का भी विशाल समूह ऐसे राष्ट्रवादी प्रयासों से अछूता रहा ।

जनता की लामबंदी की यह असफलता ही इसका मुख्य कारण थी कि बहिष्कार का आंदोलन भारत में ब्रिटिश आयातों को प्रभावित नहीं कर सका । 1908 तक राजनीतिक गरमपंथ निश्चित ही अवसान पर था और

क्रांतिकारी राष्ट्रवाद के उदय के लिए रास्ता बना चुका था ।

लेकिन 1907 का सूरत विभाजन इस अवसान में निश्चित ही योगदान करने वाला एक तत्त्व रहा । 1906-07 के अखिल भारतीय राजनीतिक गठजोडों को कम से कम दिशाभ्रम के शिकार तो कहा ही जा सकता है । बंगाल के नरमपंथी फंड के नरमपंथी दल के साथ अपने संबंधों को महत्त्व देते थे पर स्थानीय राजनीति ने उन पर एक अधिक अतिवादी कार्यक्रम लाद दिया; उन्होंने पूरे दिल से विभाजन की भर्त्सना की तथा बहिष्कार, स्वदेशी और राष्ट्रीय शिक्षा का समर्थन किया ।

इन अतिवादी प्रवृत्तियों को बंबई के नेता जैसे फीरोजशाह मेहता, दिनशा वाचा या गोखले सराहने में एकदम असमर्थ रहे । दूसरी ओर गैर-बंगाली गरमपंथियों में लाला लाजपत राय स्पष्ट रूप से संयम के पक्ष में थे तथा नरमपंथियों और गरमपंथियों के बीच मेल चाहते थे ।

तिलक भी टकराव के पक्ष मैं नहीं थे; पंजाब के सिर्फ अजितसिंह ही किसी समझौते के कट्टर विरोधी थे । लेकिन 1906-07 में अखिल भारतीय राजनीति का वास्तविक मुद्दा यह था कि बंगाल में स्वदेशी आंदोलन से उत्पन्न अतिवादी वृत्ति को एक अखिल भारतीय सतह पर कांग्रेस की राजनीति में कहाँ तक खपाया जा सकता था ।

1905 के अंत तक भी संयुक्त प्रांत के 23 पंजाब के 20 मद्रास प्रेसिडेंसी के 13 जिलों से बंबई प्रेसिडेंसी के 24 और मध्य प्रति के 15 नगरों से राजनीतिक असंतोष की रिपोर्टें मिल चुकी थीं; रावलपिंडी और लाहौर से व्यापक खेतिहर दंगों की खबरें आ चुकी थीं ।

पूना में प्लेग (plague) और सरकार के हस्तक्षेपवादी, रोगरोधक कदमों ने ऐसी राजनीतिक भावनाएँ भड़का रखी थीं, जिन्होंने सार्वजनिक जीवन को अतिवादी मोड़ दिया-हालांकि अभी भी यह सब कुलीनों के स्तर तक ही था और गोखले व तिलक के बीच मनमुटाव को और बढ़ाया ।

बंगाल के गरमपंथियों ने महाराष्ट्र के तिलक गुट से संपर्क किया और कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन (1906) में उसके कार्यक्रम को एक नई दिशा देने की कोशिश की । यहाँ गोखले के विरोध और मेहता के जोड़-तोड़ के बावजूद उन्होंने बंगाल के नरमपंथियों की सहायता से एक शानदार सफलता पाई ।

चार प्रस्ताव-बहिष्कार स्वदेशी राष्ट्रीय शिक्षा और स्वराज के पक्ष में पारित हुए और बंग-भंग की निंदा की गई । तिलक को नेता बनाकर यहीं गरमपंथी दल ने जन्म लिया और उसका मुख्य लक्ष्य कलकत्ता के चारों प्रस्तावों को यथावत रखना था, जिन्हें कांग्रेस के अगले अधिवेशन में बदलवाने के लिए बंबई के नरमपंथी कृतसंकल्प थे ।

कांग्रेस का 1907 का सत्र पूना में होनेवाला था, जो गरमपंथियों का गढ़ था । इसलिए नरमपंथियों ने सत्र का स्थान बदलकर सूरत कर दिया । निर्वासित किए गए लाला लाजपत राय तब तक मांडले से वापस आ चुके थे और अगले कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में उनका नाम गरमपंथियों ने प्रस्तावित किया जबकि नरमपंथ के उम्मीदवार रासबिहारी घोष थे ।

लेकिन लाजपत राय ने जो विभाजन नहीं चाहते थे उम्मीदवार बनने से इनकार कर दिया और इसलिए दोनों विरोधी गुटों के बीच टकराव आखिर घटकर कलकत्ता के चारों प्रस्तावों को बनाए रखने या रह करने के सवाल तक सीमित रह गया ।

फ़ीरोजशाह मेहता ने इन प्रस्तावों को कांग्रेस की कार्यसूची से बाहर रखने का षड्‌यंत्र रचा जबकि इन प्रस्तावों को न रखे जाने पर गरमपंथियों ने रासबिहारी घोष की उम्मीदवारी के विरोध का निर्णय किया । बंगाल में कांग्रेस पहले ही विभाजित थी तथा मेदिनीपुर जिला सम्मेलन के अवसर पर सुरेंद्रनाथ बनर्जी और अरविंद घोष ने समानांतर अधिवेशन किए थे ।

फिर भी बनर्जी ने कांग्रेस की एकता बनाए रखने के लिए पहल की तथा तिलक और गोखले के बीच समझौता कराने की कोशिश की हालांकि उन्हें सफलता नहीं मिली । सूरत में कांग्रेस के खुले सम्मेलन का समापन रासबिहारी घोष के चुनाव के सवाल पर एक हंगामे के साथ हुआ जब जूते चले कुर्सियाँ टूटीं और छिपने के लिए लोग इधर-उधर भागने लगे ।

तिलक इस घटना के बाद भी कांग्रेस की एकता बहाल करने के पक्ष में थे पर मेहता अड़े हुए थे और उन्होंने गरमपंथी तत्त्वों को बाहर निकालकर पार्टी का पुनर्गठन करना चाहा जो उन्होंने इसके बाद आयोजित इलाहाबाद कनवेंशन में किया भी । 1908 की कांग्रेस में, जिसे मेहता कांग्रेस कहा गया, केवल नरमपंथी आए, जिन्होंने राज के प्रति अपनी निष्ठा फिर दोहराई । राजनीति का बंगाल मॉडल आखिर अस्वीकार कर दिया गया ।

इस चरण में कांग्रेस निश्चित ही कमजोर हुई और अप्रभावी बन गई । दूसरी ओर गरमपंथी राजनीति भी कोई एक  नए  राजनीतिक संगठन का रूप न ले सकी क्योंकि कुछ ही समय बाद तिलक गिरफ्तार करके मांडले जेल भेज दिए गए और अरविंद घोष का रुझान अध्यात्म की ओर अधिक हो गया ।

दोनों गुट 1910 के लखनऊ अधिवेशन में फिर एक हुए और कांग्रेस को नई शक्ति तब मिली जब 1910 में गांधी ने उसका नेतृत्व सँभाला । जहाँ तक बंगाल का सवाल था 1908 तक राजनीतिक स्वदेशी आंदोलन निश्चित ही अवसान पर था और उसकी जगह एक और प्रवृत्ति ने अंग्रेज अफसरों और उनके भारतीय सहयोगियों के विरुद्ध व्यक्तिगत हमलों की प्रवृत्ति ने ले ली थी ।

जैसा कि सुमित सरकार (1973) कहते हैं इसका अर्थ अहिंसा से हिंसा की ओर जनता की कार्रवाई से कुलीनों की कार्रवाई की ओर संक्रमण था जिसकी आवश्यकता जनता को लामबंद न कर पाने की असफलता से पैदा हुई थी ।

राजनीतिक प्रतिरोध के एक ढंग के तौर पर हिंसा की संस्कृति भारत में 1857 के विद्रोह के दमन के बाद भी हमेशा मौजूद रही । महाराष्ट्र में 1876-77 में वासुदेव बलवंत फड़के ने अपने साथ राकशी और दूसरे पिछड़े वर्गों का एक दल जमा कर लिया था और अंग्रेजों के विरुद्ध एक हथियारबंद बगावत की और भी भारी-भरकम योजना हेतु पैसा जमा करने के लिए उनसे डाके डलवाने लगे थे ।

वे 1879 में गिरफ्तार करके अंदर भेज दिए गए, जहाँ वे गुमनामी की मौत मरे । लेकिन शारीरिक व्यायाम के आंदोलन और युवा क्लबों के गठन ने महाराष्ट्र में क्रांतिकारी प्रवृत्ति को जारी रखा; इनमें सबसे विख्यात क्लब पूना में चापेकर भाइयों अर्थात् दामोदर और बालकृष्ण का क्लब था ।

लेकिन इससे भी आगे बढ्‌कर उन्होंने 1897 में पूना के प्लेग आयोग के बदनाम प्रमुख डक्यू सी रैंड की हत्या कर दी जो प्लेग के मरीजों की पहचान के लिए घर-घर तलाशी के दौरान सिपाहियों के अत्याचारों के लिए कथित रूप से जिम्मेदार था ।

दोनों चापेकर बंधु गिरफ्तार करके फिर फाँसी चढ़ा दिए गए पर उनकी परंपरा जारी रही । बंगाल में राष्ट्रवादी आंदोलन का विकास इसी तर्ज पर 1860 और 1870 के दशकों से ही होता आ रहा था जब शारीरिक व्यायाम आंदोलन का उन्माद छाया हुआ था और जिन चीजों को स्वामी विवेकानंद ने मजबूत पसलियाँ और लोहे की नसें कहा था, उनके विकास के लिए हर जगह अखाड़े कायम होने लगे थे ।

जैसा कि कहा जा चुका है, उपनिवेशवाद ने बंगालियों के स्त्रैण होने की जो छवि कायम कर दी थी, यह सब उससे बाहर निकलने का एक मनोवैज्ञानिक प्रयास था । उनकी मर्दानगी की प्रतीकात्मक पुनर्स्थापना और शूरवीरों की तलाश शरीर पर नियंत्रण पाने राष्ट्रीय गर्व की एक भावना विकसित करने तथा बंकिम और विवेकानंद के बताए आदर्शों के आधार पर सामाजिक सेवा की एक भावना जगाने के लिए नैतिक और आध्यात्मिक प्रशिक्षण के एक वृहत्तर कार्यक्रम के अंग थीं ।

वास्तव में बंगाल में क्रांतिकारी राष्ट्रवाद की कथा का आरंभ 1902 में हुआ जब चार समितियों की स्थापना हुई-तीन कलकत्ता और एक मेदिनीपुर में । पहली 1902 में गठित मेदिनीपुर समिति थी और उसके बाद बालीगंज सर्कुलर रोड, कलकत्ता में सरल घोषाल के अखाड़े की मध्य कलकत्ता के कुछ युवकों द्वारा आत्मोन्नति समिति की और मार्च 1902 में सतीशचंद्र बसु द्वारा अनुशीलन समिति की स्थापना हुई ।

1905 तक इस आंदोलन की प्रगति बहुत धीमी रही, पर उस साल स्वदेशी आंदोलन के आरंभ ने गुप्त संगठनों की कार्रवाईयों में तेजी ला दी । पुलिन बिहारी दास की पहल पर अक्टूबर 1906 में ढाका अनुशीलन समिति की स्थापना हुई ।

उसके बाद दिसंबर में क्रांतिकारियों का एक अखिल बंगाल सम्मेलन हुआ और उसी साल युगातर नाम से एक क्रांतिकारी साप्ताहिक का प्रकाशन आरंभ हुआ । कलकत्ता की अनुशीलन समिति के अंदर बारींद्र कुमार घोष (अरविंद घोष के भाई), हेमचंद्र कानूनगो और प्रफुल्ल चाकी के नेतृत्व में एक समूह ने जल्द ही कार्रवाइयाँ शुरू कर दीं ।

धन जमा करने के लिए पहला स्वदेशी डाका अगस्त 1906 में रंगपुर में पड़ा और मानिकतला (कलकत्ता) में एक बम कारखाना शुरू किया गया । दमनकारी अफ्रसरों और जासूसों की हत्या के प्रयास उन धनवान साहा सौदागरों के घरों में डाके जो पहले विदेशी मालों का व्यापार बंद करने से इनकार कर चुके थे 1907-08 के बाद क्रांतिकारी गतिविधियों के प्रमुख रूप बन गए ।

लेकिन 30 अप्रैल, 1908 को मुजफ़्फ़पुर में खुदीराम बोस और प्रफुल्ल चाकी द्वारा प्रेसिडेंसी मजिस्ट्रेट किंग्स फ्रोर्ड की जान लेने की असफल कोशिश के बाद जब अरविंद घोष और बारींद्र घोष समेत मानिकतला वाले दल के सारे सदस्य गिरफ्तार हो गए तो ऐसे क्रांतिकारी कार्यों को गहरा धक्का लगा ।

प्रत्यक्ष लाभ की दृष्टि से क्रांतिकारियों की उपलब्धि नगण्य रही; उनके अधिकांश प्रयास या तो असफल हो गए या बना दिए गए । उधर वे स्वयं भी यह नहीं मानते थे कि केवल हत्याओं या डकैतियों से भारत स्वतंत्र हो सकेगा; अरविंद का मूल विचार एक खुली सशस्त्र क्रांति की तैयारी करने का था ।

पर फिर भी उनकी काफ़ी उपलब्धियों रहीं । खुदीराम की फाँसी और मानिकतला बम षड्‌यंत्र मुकदमे ने, जिनको प्रेस ने प्रचारित किया और लोकगीतों ने अमर बना दिया, पूरी बंगाली जनता की सोच को प्रेरित

किया । चित्तरंजन दास, जो अभी भी एक साधारण बैरिस्टर थे, अरविंद के बचाव के लिए खड़े हुए और उनका तर्क था कि अगर स्वतंत्रता के सिद्धांत का प्रचार अपराध है तो मुलज़िम निश्चित रूप से अपराधी है ।

हरेक को आश्चर्य हुआ कि अरविंद तो रिहा कर दिए गए, पर बारींद्र और उल्लासकर दत्त को मौत की सजा सुनाई गई और दस अन्य लोगों को उम्रकैद की सजा मिली । अपील के बाद मौत की सजा को उम्रकैद में बदल दिया गया; कुछ दूसरी सजाएँ भी कम की गईं ।

उसके बाद यह आंदोलन भूमिगत और विकेंद्रीकृत हो गया पर समाप्त नहीं हुआ । अब तक क्रांतिकारी गतिविधियां जनमानस में वैधता पा चुकी थी और अनेक लोग मानते थे कि यह नरमपंथियों की याचना की नीतियों का एक प्रभावी विकल्प था । 1909 में जब मॉर्ले-मिंटो सुधारों की घोषणा हुई तो अनेक लोगों ने यही समझा कि यह क्रांतिकारी कार्यों से पैदा हुए डर का परिणाम था ।

जैसा कि एक इतिहासकार का तर्क है वायसरॉय की कार्यकारी परिषद में विधि सदस्य के रूप में लॉर्ड एस. पी. सिन्हा की नियुक्ति निश्चित ही क्रांतिकारी कार्यों से पैदा दबाव का परिणाम थी । स्वयं बंगाल के विभाजन को ही 1911 में निरस्त कर दिया गया और भले ही इसे जॉर्ज पंचम की ”ताजपोशी के तोहफे” के रूप में पेश किया गया हो यह कदम ऐसे दबावों से एकदम असंबद्ध तो नहीं ही रहा होगा ।

लेकिन दूसरी प्रशासनिक सोच भी थी । इनमें सबसे महत्त्वपूर्ण था राजधानी का कलकत्ता से दिल्ली में स्थानांतरण और इस कदम को सही ठहराने की जरूरत निश्चित ही थी । इसी के साथ भारत की राष्ट्रीय राजनीति में बंगाल का वर्चस्व समाप्त हो गया ।

कर्ज़न का बंगाली राजनीतिज्ञों को कमजोर करने का प्रयोजन अब दूसरे तरीके और कम प्रतिरोध के साथ पूरा हुआ । विभाजन की निरस्ति मात्र से क्रांतिकारी आंदोलन नहीं रूका क्योंकि हिंसा केवल विभाजन की उपज नहीं थी । अब गतिविधियों के केंद्र पंजाब और संयुक्त प्रति हो गए जहाँ बंगाली क्रांतिकारियों से उत्तरी अमेरिका से वापस आनेवाले पंजाबी आ मिले उन्होंने अमेरिका में क्रांतिकारी गदर पार्टी की स्थापना की थी ।

उन्होंने धन जमा करने  के लिए पूरे उत्तर भारत में डाके डाले और 1912 में वायसरॉय लॉर्ड हार्डिंग्ज़ की हत्या का असफल प्रयास किया । सितंबर 1914 में जहाज़ कामागाटा मारू पर सवार गदर पार्टी के पंजाबियों का कलकत्ता के पास बजबज में सेना से टकराव हुआ ।

पहले विश्वयुद्ध  के आरंभ के बाद जर्मनी या जापान की सहायता से भारतीय सेना में हथियारबंद विद्रोहों का आयोजन की और भी लंबी-चौड़ी योजनाएँ बनाई जाने लगीं । लाहौर में कार्यरत रासबिहारी बोस ने पूरे उत्तर भारत में एक सशस्त्र विद्रोह के आयोजन का प्रयास किया लंकिन वे सैनिकों से कोई समर्थन न पा सके और अंतत: भागकर जापान चले गए ।

बंगाल में जतीन मुखर्जी के नेतृत्व में संगठित क्रांतिकारियों ने जर्मनी से गुपचुप हथियार मँगाने का प्रयास किया, पर यह अपरिपक्व प्रयास आखिर बालासोर (उड़ीसा) में ब्रिटिश जिस के साथ एक असमान लड़ाई के साथ समाप्त हुआ । इस काल में नए युद्धकालीन भारत रक्षा कानून (डिफेंस ऑफ्र इंडिया ऐक्ट 1915) के मनमाने प्रयोग के साथ सरकार ने असीमित दमन ने हिंसात्मक हमलों में अधिकाधिक कमी की ।

लेकिन क्रांतिकारी हिंसा का भूत एकदम से नहीं भागा और इसके डर से सिडीशन कमिटी ने 1918 में निर्मम रौलट बिल्स (Rowlatt Bills) तैयार किए जिनके बाद महात्मा गांधी सक्रिय हो उठे और उन्होंने भारतीय राजनीति में एक नए चरण का आरंभ किया । हिंसा से अहिंसा और कुलीनों की कार्रवाई से जनता की कार्रवाई की ओर संक्रमण इस चरण का केंद्रीय तत्त्व था ।

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