गढ़वाल राजवंश: गढ़वाल राजवंश का राजनीतिक इतिहास | Garhwal Dynasty: Political History of Garhwal Dynasty.

गहड़वाल वंश के इतिहास के स्रोत (Sources of History of Gahdwal Dynasty):

प्रतिहार साम्राज्य के पतन के पश्चात कन्नौज तथा बनारस में जिस राजवंश का शासन स्थापित हुआ उसे गहड़वाल वंश कहा जाता है । इस वंश की उत्पत्ति के विषय में कोई निश्चित सूचना किसी भी साक्ष्य से नहीं मिलती है । कुछ लेख इसे ‘क्षत्रिय’ कहते है । 

कुछ विद्वान इस वंश का संबंध राष्ट्रकूटों से जोड़ते है किन्तु यह काल्पनिक है क्योंकि स्वयं इस वंश के सारनाथ से प्राप्त लेख में राष्ट्रकूट तथा गहड़वाल, दोनों का पृथक-पृथक उल्लेख मिलता है । वास्तविकता जो भी हो, इतना तो स्पष्ट है कि इस वंश के शासक हिम धर्म और संस्कृति के पोषक थे तथा पूर्वमध्यकाल में इनकी गणना प्रसिद्ध राजपूत कुलों में की जाती थी ।

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गहड़वाल वंश का इतिहास मुख्यतः हम अभिलेख तथा साहित्य से ज्ञात करते हैं ।

इस वंश के प्रमुख लेखों का विवरण इस प्रकार है:

(i) चन्द्रदेव का चन्द्रावली (वाराणसी) दानपत्र ।

(ii) मदनपाल के राहन तथा बसही अभिलेख ।

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(iii) गोविन्दचन्द्र के वाराणसी तथा कमौली के ताम्रपत्राभिलेख ।

(iv) गोविन्दचन्द्र का लार (देवरिया) से प्राप्त अभिलेख ।

(v) कुमारदेवी का सारनाथ अभिलेख ।

उपर्युक्त लेखों के अतिरिक्त कुछ अन्य लेख भी मिलते है । ये अधिकतर दानपरक हैं तथा इनसे राजनैतिक महत्व की बहुत कम बातें ज्ञात हो पाती हैं । समकालीन साहित्यिक कृतियों भी इस वंश के इतिहास पर कुछ प्रकाश डालती हैं ।

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इनमें सर्वप्रमुख चन्दबरदाई का पृथ्वीराजरासो है जो गहड़वाल शासक जयचन्द्र तथा चाहमान शासक पृथ्वीराज तृतीय के सम्बन्धों पर प्रकाश डालता हैं किन्तु इसका विवरण अधिकांशतः अनैतिहासिक तथा काल्पनिक है । मेरुतुंग द्वारा रचित प्रबन्ध-चिन्तामणि में भी जयचन्द्र के विषय में कुछ सूचनायें दी गयी हैं ।

गोविन्दचन्द्र का मन्त्री लक्ष्मीधर राजनीतिशास्त्र का प्रकाण्ड पंडित था जिसने ‘कृत्यकल्पतरु’ नामक ग्रंथ की रचना की थी । इससे तत्कालीन राजनीति, समाज तथा संस्कृति पर सुन्दर प्रकाश पडता है । मुसलमान लेखकों के विवरण से गहड़वाल तथा मुसलमानों के बीच संघर्ष का ज्ञान होता है ।

फरिश्ता जयचन्द्र की सैनिक शक्ति का विवरण देता है । हसन निजाम के विवरण से जयचन्द्र तथा मुहम्मद गोरी के बीच होने वाले संघर्ष तथा मुहम्मद गोरी के विजय की सूचना मिलती है । इन सभी साक्ष्यों के आधार पर गहडवाल वंश के इतिहास का वर्णन किया जायेगा ।

गहड़वाल वंश के राजनैतिक इतिहास (Political History of Gahdwal Dynasty):

i. चन्द्रदेव:

प्रतिहार-साम्राज्य के विघटन से फैली हुई अव्यवस्था का लाभ उठाकर 1090 ईस्वी के लगभग चन्द्रदेव नामक व्यक्ति ने कन्नौज पर अधिकार कर लिया । उसके पूर्वजों में महीचन्द्र तथा यशोविग्रह के नाम मिलते हैं । इनमें यशोविग्रह इस वंश का प्रथम पुरुष था जो कलचुरि शासन में कोई अधिकारी था ।

उसका पुत्र महीचन्द्र, चन्द्रदेव का पिता था । उसकी उपाधि ‘नृप’ की मिलती है जिसमें सूचित होता है कि वह एक सामन्त शासक था जो संभवतः कलचुरियों के अधीन था । गहड़वाल वंश की स्वतंत्रता का जनक चन्द्रदेव ही था । कन्नौज से उसके चार अभिलेख मिलते है जो दानपत्र के रूप में हैं ।

इनसे पता चलता है कि उसने वाराणसी, अयोध्या तथा दिल्ली आदि स्थानों पर भी अपना अधिकार दृढ़ कर लिया । अभिलेखों में उसे परमभट्टारक, महाराजाधिराज, परमेश्वर आदि उपाधियों से सम्बोधित किया गया है । उसके पुत्र मदनपाल तथा पौत्र गोविन्दचन्द्र का बसही से लेख मिलता है ।

इससे ज्ञात होता है कि ‘भोज की मृत्यु हो जाने तथा कर्ण के यशमात्र शेष बच जाने के बाद विपत्तिग्रस्त पृथ्वी ने चन्द्रदेव राजा को अपना रक्षक चुना ।’ इस विवरण से स्पष्ट है कि चन्द्रदेव ने कर्ण की मृत्यु (1073 ईस्वी) के बाद ही कन्नौज पर अधिकार किया था ।

पृथ्वी के विपत्ति ये पड़ने का कारण संभवतः तुर्क आक्रमण था । आक्रमणकारी लूटपाट करते हुए आगरा तक आ पहुँचे तथा उन्हें रोकने वाली कोई प्रबल शक्ति दोआब में नहीं रही । इसी आक्रमण से भारी अव्यवस्था उत्पन्न हो गयी जिसका लाभ चन्द्रदेव को मिला तथा उसने काशी, कन्नौज, कोशल और इन्द्रप्रस्थ के ऊपर अधिकार जमा लिया ।

इस विजय की प्रक्रिया में उसे कई शक्तियों से युद्ध करने पड़े होंगे । उसके चन्द्रावती लेख (1093 ई.) में बताया गया है कि उसने नरपति, गजपति, गिरिपति एवं त्रिशंकुपति को जीता था । इनमें प्रथम दो कलचुरि राजाओं की उपाधियां थीं । इस आधार पर ऐसा निष्कर्ष निकाला जाता है कि चन्द्रदेव ने कलचुरि नरेश यश:कर्ण को पराजित कर अन्तर्वेदी (गंगा-यमुना का दोआब) का प्रदेश जीत लिया था ।

काशी, कन्नौज, कोशल तथा इन्द्रप्रस्थ पर अधिकार कर लिया । आर. एस. त्रिपाठी का विचार है कि कन्नौज को चन्द्रदेव ने गोपाल नामक राजा से छीना था जिसे बदायूं तथा सेतमाहेत लेखों में ‘कान्नोज का राजा’ (गाधिपुराधिप) कहा गया है । कन्नौज पर अधिकार हो जाने से उसका पान्चाल प्रदेश पर भी अधिकार हो गया होगा ।

इन्द्रप्रस्थ दिल्ली तथा उसका समीपवर्ती प्रदेश था । यहाँ संभवतः तोमरवंशी राजाओं का शासन था जिन्होंने चन्द्रदेव की अधीनता स्वीकार की होगी। कुछ विद्वानों ने ‘रामचरित’ के आधार पर यह प्रतिपादित करने का प्रयास किया है कि चन्द्रदेव ने बंगाल में भी अधि पहर किया किन्तु उसे सफलता नहीं मिली तथा पालनरेश रामपाल के सामन्त भीमशय ने उसे पराजित कर दिया ।

किन्तु इस संबंध में निश्चित रूप से कुछ भी नहीं कहा जा सकता । चन्द्रदेव ने 1103 ईस्वी तक शासन किया । नि:संदेह वह एक शक्तिशाली राजा था जिसने अनेक राज्यों को जीत कर एक विशाल साम्राज्य स्थापित किया तथा अपने साम्राज्य को शक्ति और सुव्यवस्था प्रदान की ।

ii. मदनपाल:

चन्द्रदेव का पुत्र तथा उत्तराधिकारी मदनपाल एक निर्बल शासक था जिसकी उपलब्धियों के विषय में हम कुछ भी नहीं जानते । उसकी रानी के एक दानपत्र में उसे ‘परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर’ की उपाधि प्रदान की गयी है। किन्तु यह निश्चित नहीं है कि उसकी उपलब्धियां क्या थीं ।

कुछ विद्वानों का विचार है कि मदनपाल के समय में शासन की वास्तविक सत्ता एक संरक्षक समिति के हाथ में थी तथा वह नाममात्र का ही राजा था । गत होता है कि उसे तुर्क आक्रमणकारियों ने कन्नौज पर आक्रमण कर बन्दी बना लिया तथा उसके पुत्र गोविन्दचन्द्र ने कड़े संघर्ष के बाद उसे मुक्त कराया था ।

राहन लेख में कहा गया है कि बारम्बार वीरता प्रदर्शित करते हुए उसने अपने युद्ध कौशल से हम्मीर को शत्रुता त्यागने के लिये विवश कर दिया था (हम्मीरन्यस्तबैर मुहुरसमरक्रीडया यो विधत्ते) । यहाँ ‘हम्मीर’ से तात्पर्य ‘अमीर’ से है जो संभवत मसूद तृतीय का कोई सैनिक सरदार रहा होगा ।

ऐसा लगता है कि गोविन्दचन्द्र को तुर्कों से लम्बा संघर्ष करना पड़ा था । एच. सी. रे का विचार है कि गोविन्दचन्द्र को अपने पिता को छुड़ाने के लिये तुर्क आक्रान्ता को धन देना पड़ा था । इस प्रकार गोविन्द चन्द्र युवराज के रूप में ही काफी प्रसिद्ध हो गया था ।

iii. गोविन्दचन्द्र:

मदनपाल के पश्चात उसकी रानी राल्हादेवी से उत्पन्न पुत्र गोविन्दचन्द्र (1114-1155 ई.) गहड़वाल वंश का शासक बना । वह इस वंश का सर्वाधिक योग्य एवं शक्तिशाली शासक था । उसने कन्नौज के प्राचीन गौरव को पुन: स्थापित करने का प्रयास किया । इस उद्देश्य से उसने कई स्थानों की विजय की ।

अपने पिता के शासनकाल में ही तुक आक्रमणकारियों का सफल प्रतिरोध कर वह अपनी वीरता का परिचय दे चुका था । उसकी पत्नी कुमारदेवी के सारनाथ लेख में कहा गया है कि ‘दुष्ट तुरुष्क वीर से वाराणसी की रक्षा करने के लिये शिव द्वारा भेजा गया विष्णु का मानो वह अवतार ही था।’

उसके राजा बनने के बाद तुर्कों को आक्रमण करने का साहस नहीं हुआ । गोविन्दचन्द्र ने विभिन्न दिशाओं में सैनिक अभियान किया तथा विजयें भी प्राप्त की । गोविन्दचन्द्र की विजयों की सूचना उसके कुछ लेखों से मिलती है । पालि लेख (1114 ई.) में कहा गया है कि उसने ‘नवराज्यगज’ पर अधिकार किया ।

किन्तु इस शब्द के वास्तविक समीकरण के विषय में मतभेद है । वी. एन. पाठक का विचार है कि संभव है कि गोविन्दचन्द्र ने घाघरा नदी के उत्तर के क्षेत्रों (सरयूपार) को जीतकर वहाँ एक नया राज्य स्थापित किया हो । गोरखपुर से प्राप्त एक दूसरे लेख में दरदगण्डकी देश (घाघरा तथा बड़ी गण्डक के बीच स्थित प्रदेश) के शासक कीर्त्तिपाल की चर्चा है ।

संभव है गोविन्दचन्द्र ने उसे ही पराजित कर पूर्वोत्तर में बड़ी गण्डक नदी तक अपनी सीमा विस्तृत कर लिया हो । लार (देवरिया) लेख से पता चलता है कि उसने ब्राह्मणों को भूमिदान में दिया था । इससे भी सरयूपार क्षेत्र पर गोविन्दचन्द्र का अधिकार प्रमाणित होता है । पूर्वी भारत अर्थात् विहार और बंगाल में इस समय पाल राजाओं का शासन था ।

गोविन्दचन्द्र का रामपाल के साथ संघर्ष पहले से ही चल रहा था । राजा बनने के बाद उसने बिहार के कुछ पाल क्षेत्रों को विजित कर लिया जैसा कि उसके कुछ लेखों से सिद्ध होता है । पटना के समीप मनेर नामक स्थान से उसका एक लेख मिलता है जिसमें मालयारी पत्तला के गुणाव एवं पडाली गाँवों को दान में देने का उल्लेख है ।

उसी प्रकार लार लेख से भी पता चलता है कि मुगेर में निवास के समय उसने पोटाचवाड नामक ग्रामदान में दिया था । ऐसा लगता है कि गोविन्दचन्द्र ने मदनपाल को हराकर मुंगेर क्षेत्र को जीत लिया था जबकि पटना क्षेत्र की विजय उसने रामपाल के समय में ही की होगी ।

किन्तु यह अधिकार स्थायी नहीं रहा तथा मदनपाल ने पुन: वहाँ अपना अधिकार जमा लिया । संभव है गोविन्दचन्द्र के बाद ही पाली ने मुंगेर क्षेत्र पर अपना अधिकार किया हो । इसी प्रकार कलचुरियों को पराजित कर गिबिंदचन्द्र ने यमुना तथा सोन नदियों के बीच स्थित उनके कुछ प्रदेश अपने अधिकार में कर लिये थे ।

उसी ने सबसे पहले कलचुरि राजाओं द्वारा धारण की जाने वाली उपाधियां- अश्वपति, गजपति, नरपति, राजत्रयाधिपति धारण किया था । उसके एक लेख से विदित होता है कि करण्ड तथा करण्डतल्ल नामक ग्राम जो पहले कलचुरि नरेश यशकर्ण के अधीन थे, को गोविन्दचन्द्र ने एक ब्राह्मण को दान में दिया था ।

रंभामखरी नाटक जिसकी रचना जयचन्द्र ने की थी, से पता लगता है कि गोविन्दचन्द्र ने दशार्ण को जीता था ।  इससे तात्पर्य पूर्वी मालवा प्रदेश से है । यहाँ पहले परमारवंश का शासन था । संभवतः परमारवंशी राज्य यशोवर्मा को पराजित कर गोविन्दचन्द्र ने दशार्ण पर अधिकार किया था ।

जयचन्द्र लिखता है कि जिस दिन उसने दशार्ण को जीता उसी दिन उसके पौत्र का जन्म हुआ । इसी कारण उसका नाम जयचन्द्र रखा गया । इस प्रकार गोविन्दचन्द्र ने एक विशाल साम्राज्य पर शासन किया । विजेता होने के साथ-साथ वह एक महान् कूटनीतिज्ञ भी था । उसका चन्देल, चोल, कलचुरि, चालुक्य तथा कश्मीर के शासकों के साथ मैत्री-सम्बन्ध था ।

पालों तथा उनके सामन्तों से मैत्री सबध सुदृढ़ करने के उद्देश्य से गोविन्दचन्द्र ने पीठी के चिक्कोरवंशी देवरक्षित की पुत्री तथा रामपाल के मामा मथनदेव राष्ट्रकूट की दौहित्री कुमारदेवी के साथ अपना विवाह किया । इस वैवाहिक संबंध से सरयूपार के क्षेत्रों की विजय में उसे सहायता प्राप्त हुई ।

एच. सी. रे का अनुमान है कि कलचुरियों के विरुद्ध गहड़वालों तथा चोलों के बीच परस्पर मैत्री संबंध स्थापित हुआ था । इसी का प्रमाण त्रिचनापल्ली के गंगैकोंडचोलपुरम् मन्दिर से प्राप्त वह गहड़वाल लेख है जिसमें यशोविग्रह से लेकर चन्द्रदेव तक की वंशावली अंकित है ।

तुम्माण के कलचुरि शासक जाज्जलदेव प्रथम, जो पहले त्रिपुरी के कलचुरियों के अधीन था, को गोविन्दचन्द्र ने अपनी ओर मिला लिया था । प्रबन्धचिन्तामणि से पता चलता है कि चालुक्य नरेश जयसिंह सिद्धराज ने अपना एक दूत कन्नौज के दरबार में भेजा था । यह कन्नौज नरेश गोविन्दचन्द्र ही था । कल्हण के विवरण से ज्ञात होता है कि कश्मीर तथा कन्नौज के बीच मैत्री संबंध था ।

इस प्रकार विविध राजनयिक था संबंधों द्वारा गोविन्दचन्द्र ने अपनी स्थिति मजबूत बना ली । गोविन्दचन्द्र के अनेक दान-पत्र तथा सिक्के मिलते जो इस बात के प्रमाण हैं कि उसके समय में कन्नौज पुन एक महत्वपूर्ण नगर बन गया था । वहाँ अनेक लब्धप्रतिष्ठ विद्वान् निवास करते थे । उसके कुछ सिक्के जो कलचुरियों के सिक्कों के अनुकरण पर डाले गये है ‘बैठी हुई लक्ष्मी’ शैली के हैं ।

गोविन्दचन्द्र को उसके लेखों में ‘विविधविद्याविचारवाचस्पति’ कहा गया है जो इस बात का सूचक है कि वह स्वयं बहुत बडा विद्वान् था । उसका मन्त्री लक्ष्मीधर भी शास्त्रों का प्रकाण्ड पंडित था जिसने ‘कृत्यकल्पतरु’ नामक ग्रंथ लिखा था । इसमें चौदह अध्याय है । प्रत्येक को ‘कल्पतरु’ कहा गया है ।

इसका राजधर्म कल्पतरु तथा व्यवहार कल्पतरु क्रमशः राजनीति एवं विधि से संबंधित है । लक्ष्मीधर को यंत्र महिमा का आश्चर्य कहा गया है जिसकी सहायता एवं परामर्श से ही गोविन्दचन्द्र को सफलता प्राप्त हुई थी ।

उसके एक अभिलेख से पता चलता है कि उसने सूर्य, शिव, वासुदेव आदि देवताओं की पूजा की थी तथा उत्कल के बौद्ध भिक्षु शाक्यरक्षित तथा चोल देश के उनके शिष्य वागेश्वररक्षित का सम्मान करने के लिये उनके द्वारा संचालित जेतवन विहार को गाँव दान में दिया था । उसकी पत्नी कुमारदेवी बौद्ध मतानुयायी थे ।

iv. विजयचन्द्र:

गोविन्दचन्द्र के पश्चात् उसका पुत्र विजयचन्द्र (1155-1169 ईस्वी) शासक हुआ । उसके दो अन्य नाम मल्लदेव तथा विजयपाल भी मिलते है। गोविन्दचन्द्र के दो अन्य पुत्रों, अस्फोटचन्द्र तथा राज्यपालदेव, के नाम भी लेखों से मिलते हैं किन्तु वे शासक नहीं बन पाये ।

या तो उनकी पिता के समय में ही हो गयी अथवा विजयचन्द्र ने उन्हें उत्तराधिकार युद्ध में पराजित कर मार डाला । उसने लाहौर के मुसलमान शासक को परास्त किया था । उसके पुत्र जयचन्द्र के कमौली (बनारस) लेख में इसका विवरण मिलता है जिसमें कहा गया है कि उसने पृथ्वी का करते हुए हम्मीर की स्त्रियों के आंखों के आसूओं से, जो बादलों से गिरते हुए जल के समान थे, पृथ्वी के ताप का हरण किया ।

यह हम्मीर लाहौर के तुर्क शासक खुशरी शाह अथवा खुशरोमलिक का कोई अधिकारी था जिसने पूर्व की ओर अपना राज्य विस्तृत करने का प्रयास किया होगा तथा इसी क्रम में गहड़वाल नरेश ने उसे पराजित कर दिया होगा । हम्मीर से तात्पर्य अमीर अथवा तुर्क शासक से ही है ।

उत्तर में विजयचन्द्र के फंसे रहने के कारण पूर्व से सेनों को उसके राज्य पर आक्रमण करने का अच्छा मौका मिल गया । इसका लाभ उठाते हुए बंगाल के सेनवंशी शासक लक्ष्मणसेन ने आक्रमण कर दिया । माधाइ नगर लेख में कहा गया है कि उसने काशी नरेश को पराजित किया था (येनाड सौ काशीराज समरभुवि विजिता) । लेकिन लक्ष्मण सेन को गहड़वाल साम्राज्य के किसी भी भाग पर अधिकार करने में सफलता नहीं मिल सकी । कमौली लेख से पता चलता है कि काशी के ऊपर विजयचन्द्र का अधिकार पूर्ववत् बना हुआ था ।

बिहार में सहसाराम क्षेत्र तक उसका अधिकार कम से कम 1168-69 ई. तक बना रहा जैसा कि वहाँ से प्राप्त ताराचण्डी प्रतिमालेख से विदित होता है । किन्तु पश्चिम की ओर विजयचन्द्र को मात खानी पड़ी । दिल्ली में इस समय तोमरवंश का शासन था । वे पहले गहड़वालों के सामन्त के रूप में शासन करते थे ।

किन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि अब उन्होंने गहड़वाल सत्ता का जुआ उतार फेका तथा उसके स्थान पर चाहमानों को अपना संप्रभु स्वीकार कर लिया । शाकम्मरी के चाहमान शासक वीसलदेव (1153-1163 ई.) ने दिल्ली तथा हांसी को जीतकर अपने अधिकार में ले लिया । ये प्रदेश पहले गहड़वालों की अधीनता में थे । इस प्रकार विजयचन्द्र के समय में गहड़वाल साम्राज्य की सीमायें संकुचित हो गयी ।

v. जयचन्द्र:

विजयचन्द्र का पुत्र जयचन्द्र (1170-1194 ईस्वी) गहड़वाल वंश का अन्तिम शासक था । भारतीय लोक साहित्य तथा कथाओं में वह राजा जयचन्द्र के नाम से विख्यात है । मुस्लिम स्रोतों से पता चलता है कि कन्नौज तथा वाराणसी का वह सार्वभौम शासक था ।

मुसलमान इतिहासकार उसे भारत का सबसे बड़ा राजा बताते है जिसका साम्राज्य चीन से मालवा तक फैला था । उसके पास एक विशाल सेना थी जिसमें हाथी, घुड़सवार, धनुर्धारी, सैनिक, पदाति सभी सम्मिलित थे । उसकी सेना की विशालता का सकेत चन्द्रवरदायी भी करता है । लेकिन ये विवरण कोरी अतिरंजना लगते हैं ।

यह सही है कि जयचन्द्र को उत्तराधिकार में एक विशाल साम्राज्य प्राप्त हुआ जो शक्ति एवं संसाधनों की दृष्टि से अत्यन्त सम्पन्न था । किन्तु राजनीतिक सूझ-बूझ एवं दूरदर्शिता की कमी के कारण जयचन्द्र उसकी सुरक्षा नहीं कर सका ।

उसका समकालीन दिल्ली तथा अजमेर का चौहान नरेश पृथ्वीराज तृतीय था । चन्दबरदाई के ‘पृथ्वीराजरासो’ से दोनों की पारस्परिक शत्रुता का पता चलता है । इसके अनुसार पृथ्वीराज ने जयचन्द्र की पुत्री संयोगिता का अपहरण कर लिया था । अनेक विद्वान् रासो की सत्यता में संदेह व्यक्त करते है तथापि जयचन्द्र तथा पृथ्वीराज के बीच शत्रुता की बात सही लगती है ।

रासो से यह भी पता चलता है कि पृथ्वीराज के विरुद्ध जयचन्द्र ने चन्देल शासक परमदि की सहायता प्राप्त की थी । पूर्व की ओर सेनवंश के साथ भी जयचन्द्र की शत्रुता थी तथा उसका समकालीन सेनवंशी शासक लक्ष्मणसेन था । सेनवंश के लेखों से पता चलता है कि लक्ष्मणसेन ने काशी के राजा को जीता तथा काशी और प्रयाग में उसने विजय-स्तम्भ स्थापित किये थे ।

मजूमदार का विचार है कि लक्ष्मणसेन द्वारा पराजित काशी नरेश जयचन्द्र ही था जिससे उसने कुछ प्रदेश जीत लिया होगा । जब मुहम्मद गोरी ने पृथ्वीराज पर आक्रमण किया तब जयचन्द्र तटस्थ रहा । कुछ विद्वानों के अनुसार स्वयं जयचन्द्र ने ही गोरी को पृथ्वीराज के राज्य पर आक्रमण करने के लिये आमन्त्रित भी किया था ।

पृथ्वीराज को जीतने के पश्चात् 1194 ईस्वी में मुहम्मद गोरी ने जयचन्द्र के राज्य पर भी आक्रमण किया । कुछ भारतीय ग्रन्थों जैसे विद्यापति कृत पुरुषपरीक्षा, नयचन्द्र कृत रम्भामंजरी नाटक आदि में कहा गया है कि जयचन्द्र ने मोहम्मद गोरी को पहले कई चार हराया था । संभव है कुछ प्रारम्भिक भावों में उसे एकाध बार सफलता मिली हो ।

अन्तिम मुठभेड़ चन्दावर (एटा जिला) के मैदान में हुई जहाँ कुतुबउद्दीन के नेतृत्व में पचास हजार सैनिकों का जयचन्द्र की विशाल सेना से सामना हुआ । दुर्भाग्यवश हाथी पर सवार जयचन्द्र की आंख में एक तार लग जाने से वह गिर पड़ा तथा उसकी मृत्यु हो गयी । सेना में भगदड़ मच गयी तथा मुसलमानों की विजय हुई ।

गोरी ने असनी (फतेहपुर) स्थित जयचन्द्र के राजकोष पर अधिकार कर लिया । आक्रमणकारियों ने स्त्रियों तथा बच्चों को छोडकर सबकी हत्या कर दी । मुहम्मद गोरी ने कन्नौज तथा बनारस को खूब लूटा वनारस के लगभग एक हजार मन्दिरों को ध्वस्त कर दिया गया तथा उनके स्थान पर मस्जिदें बनवायी गयी ।

आक्रमणकारियों के हाथ लूट की भारी सम्पत्ति एवं बहुमूल्य वस्तुयें लगीं । इस प्रकार गहड़वाल साम्राज्य का पतन हुआ । ऐसा लगता है कि चन्दावर के युद्ध के बाद भी कुछ समय तक कन्नौज पर गहड़वालों की सत्ता बनी रही तथा मुसलमानों ने वहाँ अधिकार नहीं किया । मात्र फरिश्ता ही ऐसा लेखक है जो मुसलमान सेनाओं के कन्नौज पर अधिकार करने की बात करता है ।

किन्तु वह बाद का लेखक होने के कारण विश्वसनीय नहीं लगता । कुछ ऐसे सकेत मिलते हैं जिनके आधार पर यह कहा जा सकता है कि जयचन्द्र के पुत्र हरिश्चन्द्र ने कुछ समय तक अपने पिता के बाद कन्नौज पर शासन किया ।

मछलीशहर (जौनपुर) से प्राप्त उसके एक लेख (1198 ई०) में उसे “परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वराश्वपति गजपति-राजत्रयाधिपति विविध विद्याविचारवाचस्पति श्री हरिश्चन्द्र देव” कहा गया है । इससे स्पष्ट है कि वह एक स्वतंत्र शासक की हैसियत से शासन कर रहा था । लेख से पता चलता है कि उसने पमहई नामक गाँव दान में दिया था । हरिश्चन्द्र के पश्चात कन्नौज के गहड़वाल साम्राज्य का अन्त हो गया तथा वहाँ चन्देलों का अधिकार स्थापित हुआ ।

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