न्यून वित्त प्रबन्ध: मतलब, मतभेद और उपयोग | Deficit Financing: Meaning, Differences and Uses in Hindi.

न्यून वित्त प्रबन्ध | Essay on Deficit Financing


Essay Contents:

  1. न्यून वित्त प्रबन्ध के प्रस्तावना (Introduction to Deficit Financing)
  2. न्यून वित्त प्रबन्ध के आशय एवं परिभाषा (Meaning and Definitions of Deficit Financing)
  3. न्यून वित्त प्रबन्ध एवं पूंजी निर्माण (Deficit Financing and Capital Formation)
  4. न्यून वित्त प्रबन्ध एवं रोजगार (Deficit Financing and Employment)
  5. न्यून वित्त प्रबन्ध एवं मुद्रा प्रसार (Deficit Financing and Inflation)
  6. संसाधनों की गतिशीलता हेतु न्यून वित्त प्रबन्ध का समर्थ प्रयोग करने की दशाएँ (Effective Use of Deficit Financing for Mobilization of Resources)

Essay #

1. न्यून वित्त प्रबन्ध के प्रस्तावना (Introduction to Deficit Financing):

न्यून वित्त प्रबन्ध के घाटे की अर्थव्यवस्था से अभिप्राय है जानबूझ कर बजट में घाटा कायम करना । मुद्रा प्रसार को नियन्त्रित करने के लिए बजट-अतिरेक की नीति अपनाई जाती है ताकि उपभोक्ताओं के पास क्रय शक्ति की मात्रा कम की जा सके ।

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लेकिन मन्दी एवं बेरोजगारी की दशा में न्यून वित्त प्रबंध द्वारा सरकार व्यय को बढ़ाती है । राजकीय व्यय के राजकीय आगम से बढ़ने की स्थिति में बजट में राजस्व की न्यूनता का वित्त प्रबन्ध करने के लिए सरकार द्वारा इसे उधार लेकर या अधिक नोट छापकर पूरा किया जाता है ।

यह व्यय उन सार्वजनिक कार्यक्रमों पर लगाया जाता है जिनसे रोजगार की प्राप्ति हो तथा लोगों की क्रय शक्ति बड़े । कम विकसित देशों की विकास योजनाओं में जब विनियोग के लिए वित्त के अन्य स्रोतों से पर्याप्त संसाधन उपलब्ध नहीं हो पाते, तब सरकार न्यून वित्त प्रबन्ध का आश्रय लेती है ।


Essay #

2. न्यून वित्त प्रबन्ध के आशय एवं परिभाषा (Meaning and Definitions of Deficit Financing):

न्यूनता वित्त प्रबंध से आशय एक वित्तीय वर्ष में सरकार द्वारा सार्वजनिक आय से अधिक किए गए व्यय से है । यदि एक देश में कर एवं ऋण विकास हेतु वांछित धनराशि अथवा आगम में पर्याप्त वृद्धि न कर पाए तो न्यून वित्त प्रबन्ध द्वारा इसे पूरित किया जाता है ।

ADVERTISEMENTS:

प्रो॰ वी॰ के॰ आर॰ वी॰ राव के अनुसार विकसित देशों में न्यून वित्त प्रबन्ध से आशय सार्वजनिक आय एवं सार्वजनिक व्यय के मध्य जानबूझ कर अन्तराल या बजट घाटा उत्पन्न किया जाता है । वित्त प्राप्त करने की यह विधि एक प्रकार से उधार है जो राष्ट्रीय परिव्यय या समग्र व्यय में विशुद्ध वृद्धि करती है । संक्षेप में न्यून वित्त प्रबंध से आशय सरकार के चालू राजस्व की तुलना में व्यय की अधिकता से है । आगम या राजस्व के सापेक्ष व्यय की अधिकता से है ।

आगम या राजस्व के सापेक्ष व्यय की अधिकता से होने वाले घाटे को जनता से क्या लेकर या सरकार द्वारा नयी मुद्रा के सृजन द्वारा पूर्ण किया जाता विकसित देशों में न्यून वित्त प्रबन्ध सरकारी आगम प्राप्तियों के सापेक्ष सरकारी व्यय की अधिकता को प्रकट करता है यदि इसे ऋणों द्वारा प्राप्त राशि से पूर्ण किया गया है । स्पष्ट है कि विकसित देशों में न्यून वित्त प्रबन्ध को व्यापक अर्थों में प्रयुक्त किया जाता है ।

विकासशील देशों में न्यून वित्त प्रबन्ध को संकुचित अर्थ में प्रयुक्त किया जाता है अर्थात इसके अन्तर्गत बजट के घाटे की पूर्ति के लिए ऐसी विधियों का प्रयोग किया जाता है जिससे देश की कुल मुद्रा पूर्ति में वृद्धि हो जाये ।

भारत की प्रथम पंचवर्षीय योजना में न्यून वित्त प्रबन्ध शब्द बजट घाटे के द्वारा सकल राष्ट्रीय व्यय में होने वाली प्रत्यक्ष वृद्धि को सूचित करता है चाहे यह घाटा आगम से सम्बन्धित हो या पूंजी खाते से ।  इस नीति का सार इस प्रकार सरकारी आय के सापेक्ष व्यय की अधिकता से है जो करो के रूप में राज्य उपक्रमों की प्राप्तियों जमा एवं अन्य कोषों या अन्य स्रोतों से सम्भव होती है ।

ADVERTISEMENTS:

सार्वजनिक आगम से सापेक्ष सार्वजनिक व्यय की अधिकता से उत्पन्न घाटे को निम्न उपायों द्वारा पूरित कर सकती है:

(1) अपने नकद या संचयी भुगतान में कमी करके ।

(2) केन्द्रीय बैंक से उधार प्राप्त कर ।

(3) वाणिज्यिक बैंकों से उधार प्राप्त कर ।

(4) नयी मुद्रा का सृजन कर ।

न्यून वित्त प्रबन्ध एवं न्यून बजट प्रबन्ध के मध्य अन्तर:

न्यून बजट प्रबन्ध से आशय है सरकार का चालू व्यय उसके चालू राजस्व से अधिक होगा जिसमें पूंजीगत मदों को व्यय या राजस्व में सम्मिलित नहीं किया जाता ।

न्यून बजट प्रबंध के सापेक्ष न्यून वित्त प्रबन्ध अधिक व्यापक शब्द है जिससे अभिप्राय है चालू एवं पूंजीगत दोनों खातों पर सरकार का कुल व्यय सरकार की कुल आय से अधिक होता है । भारत के सन्दर्भ में यदि बजट के घाटे को सार्वजनिक ऋण द्वारा पूरित किया जाये तो न्यून वित्त प्रबन्ध नहीं होगा ।

इसका तर्क यह है कि सार्वजनिक ऋण जनता की वास्तविक बचतों से प्राप्त होते हैं जिससे क्रय शक्ति जनता के हाथ से हटकर सरकार के पास आ जाती है । ऐसे में क्रय शक्ति का स्थानान्तरण जनता से सरकार की ओर होता है पर मौद्रिक पूर्ति में कोई भी वृद्धि नहीं होती ।


Essay # 3.

न्यून वित्त प्रबन्ध एवं पूंजी निर्माण (Deficit Financing and Capital Formation):

पूँजी निर्माण तब सम्भव होता है जब बचतों को मशीन उपकरण जैसी पूँजीगत वस्तुओं के निर्माण में लगाया जाये । न्यून वित्त प्रबन्ध द्वारा मुद्रा प्रसार होता है ।

मुद्रा प्रसार की दर धीमी होने पर मजदूरी कीमतों के सापेक्ष अधिक नहीं बढ़ती । ऐसे में लाभ की दर में होने वाली वृद्धि उपक्रमियों एवं व्यावसायियों को बचत व विनियोग की प्रेरणा देती है । यह ध्यान रखना आवश्यक है कि मुद्रा प्रसार से आर्थिक विषमताएँ बढती हैं जो पूंजी निर्माण की दर को बढाती हैं ।

न्यून वित्त प्रबन्ध द्वारा पूँजी निर्माण निम्न प्रकार सम्भव है:

(i) अतिरिक्त करेन्सी का सृजन जिसके द्वारा संसाधनों को चालू उपभोग से हटाकर पूंजी निर्माण में लगाया जा सके ।

(ii) आय में वृद्धि जिससे बचत बढती है ।

(iii) अर्थव्यवस्था का अधिक मौद्रिकीकरण सम्भव जिससे मुद्रा की माँग में वृद्धि होती है ।

(iv) उत्पादन को सीमित करने वाली दृढ़ताओं व बाधाओं को दूर करना ।


Essay # 4.

न्यून वित्त प्रबन्ध एवं रोजगार (Deficit Financing and Employment):

विकसित देशों में चक्रीय बेकारी के निराकरण हेतु न्यून वित्त प्रबन्ध को अच्छा उपाय समझा जाता है । चक्रीय बेकारी इस कारण उत्पन्न होती है, क्योंकि प्रभावपूर्ण मांग कम होती है । प्रभावपूर्ण माँग में वृद्धि हेतु सार्वजनिक विनियोग आवश्यक हैं । सार्वजनिक विनियोग हेतु नवीन मुद्रा का सुजन उपयुक्त उपाय है इससे अर्थव्यवस्था में गुणक क्रियाशील हो जाता है ।

विकासशील देशों में बेकारी का स्वरूप चिरकालिक प्रकृति का होता है जिसका कारण पूँजीगत संसाधनों की कमी है । छदम रोजगार की प्रवृति भी दिखाई देती है । इसका कारण पूँजीगत ससाधनों की कमी के साथ तेजी से बढ़ती जनसंख्या ।

छद्‌म बेकारी की दशा में गुणक के क्रियाशील होने पर रोजगार की वृद्धि सम्भव होती है, क्योंकि जिस अनुपात में विनियोग में वृद्धि की जाती है उससे कहीं अधिक उत्पादन व रोजगार में वृद्धि होती है । वहीं विकासशील देशों में गुणक सिद्धान्त कार्य नहीं कर पाता ।

छद्‌म बेकारी गुणक की क्रियाशीलता में बाधा डालती है । इन देशों में विनियोग होने पर आय व उत्पादन में व रोजगार में शीघ्र वृद्धि नहीं हो पाती । संक्षेप में न्यून वित्त प्रबन्ध से विकासशील देशों में मौद्रिक पूर्ति तो बढ़ती है पर वस्तु व सेवाओं का उत्पादन उसी अनुपात में नहीं बढ़ पाता तथा मुद्रा प्रसार के खतरे उत्पन्न हो जाते हैं ।


Essay # 5.

न्यून वित्त प्रबन्ध एवं मुद्रा प्रसार (Deficit Financing and Inflation):

कम विकसित देशों में न्यून वित्त प्रबन्ध की नीति की गतिशीलता व आर्थिक विकास की प्रक्रिया को तीव्र करने में सहायक बन सकती है, लेकिन यह मुद्रा स्फीतिक दबावों को भी जन्म देती है ।

इसका कारण यह है कि न्यून वित्त प्रबन्ध कुल मुद्रा पूर्ति में वृद्धि करती है तथा आय में होने वाली वृद्धि के कारण सभी प्रकार की वस्तु व सेवाओं की माँग बढती है । परन्तु यह सम्भव है कि वस्तु व सेवाओं की पूर्ति में समानुपाती वृद्धि न हो । अत: मुद्रा प्रसारिक दबाव उत्पन्न होता है ।

मेयर एवं बाल्डविन के अनुसार न्यून वित्त प्रबन्ध के द्वारा विकासशील देशों में मुद्रा प्रसार उत्पन्न होता है क्योंकि इन देशों में उपभोग की प्रवृति उच्च होती है साथ ही बाजार अपूर्णताएँ भी विद्यमान रहती हैं । संयन्त्र एवं उपकरणों में सीमित अतिरिक्त क्षमता होती है ।

विकासशील देशों में आय में वृद्धि होने पर खाद्यान्नों पर अधिक व्यय किया जाता है । अल्प काल में खाद्यान्नों की पूर्ति में वृद्धि सम्भव नहीं होती । अतः उनकी कीमतें बढती है । खाद्य पदार्थों की कीमतें बढने पर अन्य वस्तुओं की कीमतें भी बढ़ना आरम्भ होती है ।

बाजार की अपूर्णताओं के कारण कुल उत्पादन व उत्पादन संरचना न्यूनाधिक रूप से स्थिर रहती है इससे उत्पादन पूर्ति की लोच अल्प बनी रहती है । कुछ अर्थशास्वियों के अनुसार विकासशील देशों में जून वित्त प्रबन्ध व मुद्रा प्रसार के मध्य कोई निश्चित सम्बन्ध होना आवश्यक नहीं ।

यह उस दशा में सम्भव है जब मुद्रा पूर्ति बढ़ने के साथ वस्तु व सेवाओं के उत्पादन में भी वृद्धि हो । वस्तु व सेवाओं की बढती हुई मांग इस दिशा में बढते हुए उत्पादन या पूर्ति के परिणामस्वरूप तटस्थ हो जाती है तथा मुद्रा प्रसार के खतरे उत्पन्न नहीं होते ।

इसके पक्ष में निम्न बिन्दु उल्लेखनीय है:

(1) विकासशील देशों में अमौद्रिक क्षेत्र विद्यमान होता है जहाँ वस्तु विनिमय प्रचलित होता है । न्यून वित्त प्रबन्ध से जो नई मुद्रा प्रवाहित होती है उसका कुछ भाग इस अमौद्रिक क्षेत्र द्वारा अवशोषित कर लिया जाता है ।

आशय यह है कि बढ़ी हुई मौद्रिक पूर्ति अमौद्रिक क्षेत्र पर भी प्रभाव डालती है तथा इसका आकार कम करती है । इस प्रकार अमौद्रिक क्षेत्र में भी मौद्रिकीकरण सम्भव बनाकर न्यून वित्त प्रबन्ध की नीति कीमत स्तर पर विशिष्ट प्रभाव नहीं डालती ।

(2) न्यून वित्त प्रबन्ध द्वारा यदि सार्वजनिक विनियोग को शीघ्र प्रतिफल देने वाले उत्पादक क्षेत्रों की ओर प्रवाहित किया जाये तो वस्तु व सेवाओं की आपूर्ति बढ़ती है अर्थात् मुद्रा की पूर्ति में वृद्धि के साथ उत्पादन वृद्धि होना मुद्रा प्रसार के दुष्प्रभाव को कम कर देता है ।

(3) न्यून वित्त प्रबन्ध की नीति ऐसे संसाधनों को उत्पादक क्षेत्र की ओर गतिशील करती है जिनका या तो अभी तक प्रयोग नहीं किया गया या जो अर्द्ध उपयोग में थे । इससे उत्पादन में वृद्धि होती है ।

कुछ अर्थशास्त्रियों का मत है कि न्यून वित्त प्रबन्ध की मुद्रा प्रसारिक प्रवृति कोई संकट उत्पन्न नहीं करती जब तक इसके दबाव काफी धीमें हों । इससे उत्पादक प्रेरणाएँ प्राप्त करते हैं, बढते हुए लाभों के कारण उत्पादन प्रोत्साहित होता है तथा देश के व्यर्थ पड़े संसाधनों का विदोहन सम्भव होता है ।

यह दशा कीमतों में फलनात्मक वृद्धि को निरूपित करती है जो उत्पादन क्षेत्र के विस्तार हेतु आवश्यक है । प्रो॰ ब्रोनफेन ब्रेनर ने इसे मुद्रा प्रसार का अनुकूलतम अंश कहा है । अनुसार मुद्रा प्रसार लाभप्रद होता है, क्योंकि यह अधिकारियों को विकास परियोजना हेतु आवश्यक श्रम व पूंजी वस्तु की सापेक्षिक कीमतों को बढ़ाने में सहायक होता है ।

साथ ही यह अर्थव्यवस्था के अन्य क्षेत्रों में मौद्रिक व कीमतों में कमी नही करता । इससे संसाधनों का पुर्नआबंटन सम्भव होता है । प्रो॰ बोनफेन ब्रेनर ने दूसरा तर्क मुद्रा भ्रम (Money Illusion) का दिया है उनके अनुसार एक धीमा मुद्रा प्रसार अपनी प्रारम्भिक अवस्था में श्रमिकों को वास्तविक आय की प्राप्ति हेतु अधिक गहनता से कार्य करने के लिए प्रेरित करता है जो वस्तुतः पूर्व स्तरों से अधिक नहीं होती बल्कि कम भी हो सकती है ।

मौद्रिक आय के बढ़ने पर श्रम व पूंजी के स्वामी भी अपनी सम्पत्ति को अधिक गहनता से आय प्राप्त करने हेतु प्रयुक्त करते हैं । प्रश्न यह है कि मुद्रा प्रसार की सुरक्षित सीमा क्या हो या मुद्रा प्रसार का अनुकूलतम अंश क्या हो ?

प्रो॰ बेंजामिन हिगिन्स के अनुसार मुद्रा प्रसार का अनुकूलतम अदा काफी अल्प होना चाहिए जो कीमतों में पाँच प्रतिशत वार्षिक तक की वृद्धि करें, लेकिन यह देखा गया है कि विकासशील देशों में मुद्रा प्रसार इस सुरक्षित सीमा से आगे बढ़ जाता है ।

(4) न्यूनता वित्त प्रबन्ध द्वारा उत्पन्न मुद्रा प्रसार एवं मुद्रा प्रसारिक दबावों के कारण पुन. न्यून वित्त प्रबन्ध को करने की बाध्यता मुद्रा प्रसारिक किंज के नाम से जाती है । इस स्थिति में साधनों की गतिशीलता व आर्थिक विकास की प्रक्रिया पर विपरीत प्रभाव डालता है ।

इसके कारण निम्न:

(a) विकासशील अर्थव्यवस्था में कुछ दृढ़ताएँ व अवरोध विद्यमान होते है, जिसके परिणामस्वरूप मौद्रिक पूर्ति के सापेक्ष उत्पादन में वृद्धि नहीं होती फलस्वरूप मुद्रा प्रसार होता है ।

(b) मुद्रा प्रसार से आय का पुर्नवितरण लाभ प्राप्त करने वाले उपक्रमियों, सट्‌टेबाजों, समृद्ध वर्ग की ओर होता है । समाज में निश्चित आय प्राप्त करने वाले वर्ग व निर्धन व्यक्तियों को महँगाई का सामना करना पडता है ।

(c) मुद्रा प्रसार विनियोग की प्रवृति को भी बदल देता । यदि उपक्रमी अपने विनियोग का प्रवाह सट्‌टे की क्रियाओं की ओर करें जिससे उन्हें अल्पकाल में अधिक लाभ प्राप्त हो या अपनी बचतों को भूमि, स्वर्ण आभूषण व अन्य अनुत्पादक क्रियाओं में विनियोजित करें तो इससे आर्थिक विकास पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा ।

(d) मुद्रा प्रसार के परिणामस्वरूप उत्पादन की लागतों में तेजी से वृद्धि होती है जिससे विकास परियोजना की लागत उच्च होती है । धीरे-धीरे विकास परियोजना के लिए एकत्रित किए गए आगम व परिव्यय के मध्य अन्तराल बढता जाता है जिसे पूरित करने के लिए पुन: न्यून प्रबन्ध किया जाता है । इस दुश्चक्र के चलते अर्थव्यवस्था की विकास प्रक्रिया को गहरा आघात पहुँचता है ।

(e) विकासशील देशों में औद्योगीकरण हेतु ऐसे आधारपत क्षेत्रों का विकास आवश्यक होता है जिनमें पूँजीगत संसाधनों की विशाल मात्रा विनियोग की जाती है, लेकिन उत्पादन दीर्घ समय अवधि के उपरान्त प्राप्त होता है । तात्पर्य यह है कि आर्थिक व सामाजिक उपरिमदों के निर्माण में काफी लम्बा समय लगता है । ऐसी दशा में मौद्रिक पूर्ति के सापेक्ष उत्पादन की वृद्धि धीमी पड जाती है ।

(f) विकासशील देशों में मुद्रा प्रसार जीवन की लागतों में वृद्धि करते हुए स्थिर आय वर्ग वाले समूह की बचत प्रवृतियों को कम करता है । यह भी सम्भव है कि यह समूह अपनी चालू उपभोग की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए पिछली बचतों का प्रयोग करें ।

बचतों में होने वाली यह कमी मुद्रा प्रसार द्वारा होने वाली जबरन की गयी बचतों से अधिक होती है । ऐसे में मुद्रा प्रसार समुदाय की समग्र बचतों में कमी कर समग्र विनियोग को कम करता है जिसका अर्थव्यवस्था के विकास की दरों पर विपरीत प्रभाव पड़ता है । यह भी सम्भव है कि मुद्रा प्रसार पूँजी निर्माण में वृद्धि करने के बजाय पूँजी उपभोग को प्रोत्साहन दे ।

(g) विदेशी नागरिकों द्वारा भेजी गयी धनराशियों से भी मुद्रा प्रसार होता है ।

(h) विकासशील देशों में न्यून वित्त प्रबन्ध नीति को गैर उत्पादक उद्देश्यों में भी प्रयुक्त किया जाता है जिससे मुद्रा प्रसार उत्पन्न होता है ।

(i) विकासशील देश मुद्रा प्रसारिक दबावों के नियन्त्रण में कुशल नीतियों व प्रशासनिक तब के अभाव के कारण कठिनाई का अनुभव करते है ।

उपर्युक्त से स्पष्ट है कि विकासशील देशों में न्यून वित्त प्रबन्ध की अपनी सीमाएं हैं ।

इन्हें निम्न बिन्दुओं द्वारा अभिव्यक्त किया जा सकता है:

(1) विकासशील देश अपनी मौद्रिक पूर्ति को समर्थ बनाने में काफी बाधाओं का सामना करते है ।

(2) इन देशों में साख नियंत्रण प्रणाली असमर्थ व अप्रभावी होती है कर आधार संकुचित व कर प्रसार अकुशल होता है ।

(3) प्रशासनिक स्तर पर भ्रष्टाचार व लालफीताशाही विद्यमान होती है जिसके परिणामस्वरूप कीमत नियन्त्रण के उपाय अप्रभावी रहते है ।

(4) इन देशों में कृषि क्षेत्र जड़ होता है तथा कीमतों में होने वाला परिवर्तन कृषि वस्तुओं की उत्पादकता में वृद्धि के समुचित प्रत्युत्तर नहीं देता ।

(5) औद्योगिक क्षेत्र में वृद्धि की दर तेजी से नहीं बढ़ पाती । उत्पादन में क्षमताओं का सीमित उपयोग ही किया जा सकता है ।

(6) इन देशों में निर्यात क्षेत्र के सम्मुख बाधाएँ उपस्थित होती है तथा भुगतान सन्तुलन के समायोजन की समस्या विद्यमान होती है ।

 


Essay # 6. संसाधनों की गतिशीलता हेतु न्यून वित्त प्रबन्ध का समर्थ प्रयोग करने

की दशाएँ (Effective Use of Deficit Financing for Mobilization of Resources):

विकासशील देशों में न्यूनता वित्त प्रबन्ध के द्वारा संसाधनों की गतिशीलता को बढ़ाने का उद्देश्य तब सुनिश्चित किया जा सकता है, जब कुछ निश्चित दशाओं की पूर्ति सम्भव बन सके । संसाधनों को गतिशील करने में न्यून वित्त प्रबन्ध प्रभावी उपकरण मात्र उन स्थितियों में बनता है जब इसे कुछ दृढ सीमाओं के मध्य किया जाये ।

न्यून वित्त प्रबन्ध की नीति के सन्दर्भ में सरकार मुख्यतः जिन तीन प्रश्नों से सम्बन्धित है वह निम्न हैं:

(1) वह उद्देश्य क्या हैं जिनके लिए न्यून वित्त प्रबन्ध का आश्रय लिया जा रहा है ।

(2) इसकी सीमा क्या होनी चाहिए ।

(3) इस नीति के द्वारा सृजित की गई मुद्रा किस प्रकार की वस्तु व सेवाओं का क्रय करेगी तथा इन वस्तु व सेवाओं की पूर्ति कितने अवधि में सम्भव हो पाएगी ?

विकासशील देशों में एक निश्चित समय पर न्यून वित्त प्रबन्ध की आदर्श मात्रा का परिकलन कठिन है । सामान्य रूप से यह कहा जा सकता है कि निश्चित समय पर एक देश में न्यून वित्त प्रबन्ध की अनुकूलतम मात्रा कुछ घटकों पर निर्भर रहती है, जैसे- (i) कृषि व उद्योग क्षेत्र की विद्यमान व सम्भावित उत्पादन क्षमता, (ii) मजदूरी वस्तुओं की पूर्ति दशा, (iii) देश में विदेशी विनियोग संसाधनों की स्थिति, (iv) विदेशों से प्राप्त होने वाली पूँजी व सहायता की सम्भावित मात्रा इत्यादि ।

न्यून वित्त प्रबन्ध की आदर्श मात्रा को स्पष्ट करने के लिए निम्न महत्वपूर्ण बिन्दुओं को ध्यान में रखना आवश्यक है:

(1) अवशोषण की क्षमता (Absorption Capacity):

न्यून वित्त प्रबन्ध की सीमा अर्थव्यवस्था के कृषि व उद्योग क्षेत्र की अवशोषित क्षमता पर निर्भर करती है । यदि न्यून वित्त प्रबन्ध को इन दोनों क्षेत्रों में होने वाले उत्पादन क्षमता में सम्भावित वृद्धि के अनुपात में रखा जाये तो संसाधनों की गतिशीलता का यह प्रभावी उपकरण बनेगा ।

(2) मौद्रिक नियन्त्रण (Monetary Control):

संसाधनों की गतिशीलता को बढाने में न्यून वित्त प्रबन्ध की नीति को एक प्रभावी यन्त्र के रूप में अपनाया जाना इस बात पर निर्भर करेगा कि अर्थव्यवस्था में मौद्रिक नियन्त्रणों को कितने कुशलता के साथ अपनाया जा रहा है । साख नियन्त्रण के उपाय यदि अर्थव्यवस्था में अतिरिक्त मुद्रा को कुशलता के साथ अवशोषित कर लें, तब यह नीति सफलतापूर्वक लागू की जा सकती है ।

(3) कीमत नियन्त्रण (Price Control):

न्यून वित्त प्रबन्ध इस तथ्य पर भी निर्भर करता है कि कीमत नियन्त्रण विधियों को कितनी समर्थता के साथ लागू किया जा रहा है । कीमतों में होने वाली वृद्धि को समर्थ कीमत नियन्त्रण एवं आवश्यक वस्तुओं की राशनिंग द्वारा नियमित किया जा सकता है ।

(4) कर प्रणाली (Tax System):

न्यून वित्त प्रणाली की सफलता की सीमा देश में लागू कर प्रणाली की समर्थता पर भी निर्भर करती है । न्यूनता वित्त प्रबन्ध के द्वारा व्यक्तियों की आय में वृद्धि होती है । भले ही आय में होने वाली वृद्धि का असन्तुलित वितरण हो ।

कर प्रणाली के समर्थ होने व कर प्रशासन की सक्रियता के साथ व्यक्तियों द्वारा ईमानदारी से कर दिये जाने की स्थिति में यह सम्भव होता है कि व्यक्तियों की अतिरेक आय का काफी बडा भाग वापस ले लिया जाये । इससे सरकार को ससाधन भी प्राप्त होंगे व मुद्रा प्रसारिक दबाव भी सीमित होंगे ।

(5) उत्पादक विनियोग (Productive Investment):

यदि विनियोग शीघ्र उत्पादन प्रदान करने वाली परियोजनाओं में किए जाये तो मुद्रा प्रसार का सकट उत्पन्न नहीं होता । दूसरी ओर विनियोग से दीर्घ समय अवधि के उपरान्त प्राप्त होने वाले उत्पादन से मुद्रा प्रसारिक दबाव उत्पन्न होते है ।

(6) भुगतान सन्तुलन की दशा (Position of Balance of Payments):

न्यून वित्त प्रबन्ध की नीति उस समय उपयोगी हो सकती है जब देश का भुगतान सन्तुलन प्रतिकूल हो अर्थात् निर्यातों के सापेक्ष आयातों का मूल्य अधिक हो । इस दशा में देश में वस्तुओं की आपूर्ति बढती है । साथ ही आयातों के भुगतान संतुलन के प्रतिकूल होने पर अवस्फीतिकारी प्रभाव पडते है; ऐसे में न्यून वित्त प्रबन्ध उपयोगी सिद्ध होता ।

(7) जन सहयोग (Public Co-Operation):

न्यून वित्त प्रबन्ध की नीति देश के विकास हेतु तब कारगर होती है जब जनमानस द्वारा इसकी महत्वपूर्ण भूमिका को समझा जाये तथा वह स्वयं भी कीमतों में स्थायित्व के प्रयास करें । इसके लिए उन्हें अपनी आवश्यकताओं का त्याग करना पडेगा तथा वस्तुओं क्रय करते समय सावधानी भी रखनी पड़ेगी ।


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