भारत में बैंकिंग पर निबंध | Essay on Banking in India in Hindi.

भारत वर्ष में बैंकिंग व्यवसाय की प्रथा अति प्राचीनकाल से ही किसी न किसी रूप में विद्यमान रही है । तब से लेकर अब तक इसके स्वरूप में निरन्तर परिवर्तन होता रहा है । वर्तमान में किसी भी देश की वित्तीय व्यवस्था और सामाजिक आर्थिक निर्माण में बैंकों का अपना विशिष्ट स्थान है ।

इस विशिष्ट स्थान को पाने के लिये बैंकों ने निरंतर परिवर्तनशील व्यवस्था का एक लम्बा सफर तय किया है । वर्तमान में बैंकिंग व्यवस्था का जो आधुनिक स्वरूप अपने चरम पर पहुंचा हुआ सा लगता है, वह विकास के रथ पर सवार दृढ़ इच्छाशक्ति, चुनौतियों के दमन और विश्वास आधारित भावनाओं का मिला-जुला मिश्रण है ।

विगत वर्षों में भारत में शहरी क्षेत्रों के साथ-साथ ग्रामीण क्षेत्रों में भी बैंकों की स्थापना ने देश के चहुंमुखी विकास की संभावनाओं को जीवंत किया है ।

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वर्तमान में आधुनिक बैंकिंग का स्वरूप बहुत व्यापक हो गया है । परम्परागत बैंकिंग के स्थान पर अब सामाजिक-आर्थिक बैंकिंग अपना विशिष्ट स्थान ग्रहण कर चुकी है । समाज निरंतर अभिनव आर्थिक क्रियाओं के साथ नये आयामों की ओर अग्रसर हो रहा है ।

ग्राहकों के नये-नये वर्गों के उदय के परिणास्वरूप बैंकों से न केवल अपेक्षाएं ही बढी है अपितु अपेक्षाओं का स्वरूप भी बदल गया है । अपनी अपेक्षाओं पर खरा उतरने के लिये बैंक अपने आधारभूत सिद्धांतों में नवीन रूपों का मिश्रण कर रहे हैं, जिससे बैंकों की कार्यप्रणाली में भी निरन्तर परिवर्तन आ रहा है ।

आज बैंक अपने परम्परागत कार्य-जमाओं के संग्रहण में विभिन्न योजनाओं के माध्यम से इसे बहुपयोगी सिद्ध करने की ओर प्रवृत्त है । जमा खातों के विभाजन में अब जमा राशि की अवधि के स्थान पर जमाकर्ता की आवश्यकता के आधार के महत्व दिया जाने लगा है ।

इसी प्रकार बैंकों द्वारा ऋण देने में ग्राहक की आवश्यकतानुसार ऋण की मात्रा तथा ऋण देने के लिये चुने गये वर्ग व क्षेत्र पर विशेष ध्यान दिया जा रहा है । इन सभी परिवर्तनों के करण भारत में बैंकिंग व्यवस्था अपने परम्परागत स्वरूप से निकलकर आधुनिक परिवेश में ढलती हुई प्रतीत हो रही है ।

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देश के आर्थिक विकास में योगदान देने वाले प्रमुख क्षेत्रों जैसे- कृषि, उद्योग, व्यापार आदि की आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु विभिन्न बैंक स्थापित किये गये हैं जो अपने मार्गदर्शी सिद्धांतों में निरन्तर नवीनता का सम्मिश्रण कर रहे हैं ।

व्यापारिक बैंक अपने कार्यों एवं उद्देश्यों की प्रकृति के अनुसार लाभ अर्जित करने वाले संगठन होते है । अन्य व्यावसायिक संस्थाओं के समान इनका प्रमुख उद्देश्य विभिन्न क्रियाओं के निष्पादन के माध्यम से लाभार्जन कर अंशधारियों में वितरण करना होता है ।

व्यापारिक बैंक अपने प्रमुख एवं आधारभूत व्ययों के अन्तर्गत जन-साधारण की बचतों में जमाओं के रूप में संग्रहीत कर व्यावसायिक एवं औद्योगिक संस्थाओं तथा व्यक्तियों को उत्पादक कार्यों हेतु वित्तीय सहायता प्रदान करते हैं । इस रूप में बैंकिंग संस्थाएँ ऋणी तथा ऋणदाता दोनों ही रूपों में कार्य करती हैं ।

इसके अतिरिक्त बैंकिंग संस्थाएं औद्योगिक प्रतिष्ठानों द्वारा निर्गमित विभिन्न प्रतिभूतियों में भी विनियोग कर उन्हें न केवल सामान्य अंश पूँजी प्रदान करती है अपितु लाभांश एवं ब्याज प्राप्त कर अपने कुल लाभों में भी वृद्धि करती हैं ।

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बैंकिंग संस्थाओं में जन-विश्वास निहित होता है तथा इसी आधार पर वे विशाल मात्रा में आर्थिक साधनों को संग्रहीत करने में सफलता प्राप्त करती है, अतः उन्हें पूँजी कोषों का विभिन्न क्षेत्रों एवं माध्यमों में विनियोग करते समय पूर्ण सतर्कता एवं सावधानी बरतनी पड़ती है ।

इसके अतिरिक्त उन्हें दूरदर्शिता एवं स्वविवेक का भी प्रयोग करना पड़ता है तथा कुछ निश्चित सिद्धांतों की अनुपालना करनी पड़ती है । इन्हीं सिद्धान्तों को ‘व्यापारिक बैंकिंग सिद्धान्त’ की संज्ञा दी जाती है । बैंकों के आर्थिक साधनों का अधिकांश भाग समाज में विभिन्न वर्गों के व्यक्तियों एवं संस्थाओं से बैंक जमाओं के रूप में प्राप्त किया जाता है ।

ये जमाएँ विभिन्न शर्तों के अन्तर्गत एवं विभिन्न समयावधि के लिए स्वीकार की जाती हैं, जिन्हें अनुबन्धीय उत्तरदायित्व (Contractual Obligation) के आधार पर जमाकर्ताओं द्वारा माँग किये जाने पर लौटाना पड़ता है । यदि ये संस्थाएँ इस उत्तरदायित्व का निर्वाह करने में असफल रहती हैं तो इनकी साख एवं प्रतिष्ठा विपरीत रूप से प्रभावित होती है ।

अतएव बैंकों द्वारा जन-विश्वास को अर्जित करने के लिए व्यवसाय संचालन में बहुत सावधानी आवश्यकता होती है । उन्हें अपने ग्राहकों द्वारा उत्पन्न माँग को पूरा करने के लिए आर्थिक साधनों का विनियोग ऐसी तरल संपत्तियों में करना पड़ता है जिन्हें आवश्यकता पड़ने पर शीघ्रतापूर्वक नकदी में परिवर्तित किया जा सके । इस प्रकार बैंकों को अपने साधनों की तरलता पर विशेष ध्यान देना पड़ता है ।

विनियोगों की तरलता के अतिरिक्त बैंकों को अपने कोषों का विनियोग करते समय उनकी लाभदायकता के सम्बन्ध में पूर्ण सतर्कता एवं सावधानी बरतनी पड़ती है क्योंकि उन्हें अपनी क्रियाओं के संचालन के सन्दर्भ में अनेक प्रकार के व्यय करने पड़ते है तथा जमाकर्ताओं को जमा-राशि पर ब्याज का भुगतान भी करना पड़ता है ।

इसके अतिरिक्त अंशधारियों (Shareholders) को लाभांश भी वितरित करना पड़ता है । अतः इन सभी दृष्टिकोणों से बैंकों को अपनी स्थिति तरल बनाये रखने के साथ-साथ विनियोगों की लाभदायकता के सम्बन्ध में भी विशेष ध्यान देना पड़ता है ।

किन्तु उल्लेखनीय है कि अधिकतम लाभ अर्जित करने हेतु बैंकिंग संस्थाएँ अनावश्यक जोखिम वहन नहीं कर सकती हैं । उन्हें तरलता एवं लाभदायकता के मध्य प्रभावी समन्वय स्थापित करना आवश्यक होता है । लाभ अर्जित करने के दृष्टिकोण से कोषों का विनियोग करते समय उन्हें इस तथ्य पर सक्रिय एवं पैनी दृष्टि रखनी पड़ती है कि वे जन-साधारण से धरोहर के रूप में प्राप्त वित्तीय कोषों में व्यवहार कर रहे हैं ।

अतः तरलता एवं लाभदायकता के अतिरिक्त बैंकिंग संस्थाओं को अपने साधनों की सुरक्षा पर भी पर्याप्त ध्यान देना पड़ता है । सुरक्षा के अभाव में उनकी साख एवं प्रतिष्ठा विपरीत रूप से प्रभावित हो सकती है । इसके अतिरिक्त उनमें निहित जन-विश्वास भी समाप्त हो जाता है ।

अतः संक्षेप में, यह कहा जा सकता है कि वित्तीय कोषों के विनियोग की प्रक्रिया में उन्हें विनियोगों की तरलता, लाभदायक तथा सुरक्षा पर समान रूप से ध्यान देना पड़ता है । सुरक्षा की दृष्टि से बैंक अपने कोषों का विनियोग किसी एक ही व्यवसाय एवं क्षेत्र में न करके अलग-अलग क्षेत्र एवं व्यवसाय में करते हैं । इस प्रकार विनियोगों में विविधता एवं नवीन दिशाओं के माध्यम से वे जोखिम की मात्रा को सीमित करते हैं ।

उपरोक्त बैंकिंग सिद्धान्तों से स्पष्ट होता है कि बैंकों को अपने साधनों का विनियोग सावधानी, दूरदर्शिता एवं स्वविवेक से करना पड़ता है ।

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