मदर टेरेसा पर निबंध! Here is an essay on ‘Mother Teresa’ in Hindi language.

ऐसा कहा जाता है कि जब ईश्वर को धरती पर अवतरित होने का मन हुआ, तो उन्होंने माँ का रूप धारण कर लिया । ऐसा माने जाने का कारण भी बिलकुल स्पष्ट हैं- दुनिया की कोई भी माँ अपने बच्चों की न केवल जन्मदात्री होती है, बल्कि उनके लिए उसका प्रेम अलौकिक एवं ईश्वरीय होता है, इसलिए माँ को ईश्वर का सच्चा रूप कहा जाता है ।

दुनिया में बहुत कम ऐसी माँ हुई हैं, जिन्होंने अपने बच्चों के अलावा भी दूसरों को अपनी ममतामयी छाँव प्रदान की । किसी से इस पूरे जगत् की एक ऐसी माँ का नाम पूछा जाए, जिसने बिना भेदभाव के सबको मातृवत्-स्नेह प्रदान किया, तो प्रत्येक की जुबां पर केवल एक ही नाम आएगा- ‘मदर टेरेसा’ ।

जी हाँ, मदर टेरेसा ही एक ऐसा नाम है, जिन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन मानव-सेवा हेतु समर्पित कर दिया । मदर टेरेसा का जन्म 27 अगस्त, 1910 को एक अल्बानियाई परिवार में उस्कुव नामक स्थान में हुआ था, जो अब मेसिडोनिया गणराज्य में है ।

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उनके बचपन का नाम एग्नेश गोंक्षा बोजक्सिहाउ था । जब वे मात्र 9 वर्ष की थीं, उनके पिता निकोला बोयाजू का देहान्त हो गया । फिर उनकी माँ ने उनकी शिक्षा की जिम्मेदारी अपने ऊपर ले ली ।  उन्हें बचपन में पढ़ना, प्रार्थना करना और चर्च में जाना अच्छा लगता था, इसलिए वर्ष 1928 में वे आयरलैण्ड की संस्था ‘सिस्टर्स ऑफ लोरेटो’ में शामिल हो गईं, जहाँ सोलहवीं सदी के एक प्रसिद्ध सन्त के नाम पर उनका नाम ‘टेरेसा’ रखा गया और बाद में लोगों के प्रति ममतामयी व्यवहार के कारण जब दुनिया ने उन्हें ‘मदर’ कहना शुरू किया, तब वे ‘मदर टेरेसा’ के नाम से प्रसिद्ध हो गईं ।

धार्मिक जीवन की शुरूआत के बाद वे इससे सम्बन्धित कई विदेश यात्राओं पर गईं । इसी क्रम में वर्ष 1929 की शुरूआत में वे मद्रास (भारत) पहुँची । फिर उन्हें कलकत्ता में शिक्षिका बनने हेतु अध्ययन करने के लिए भेजा गया ।

अध्यापन का प्रशिक्षण प्राप्त करने के बाद वे कलकत्ता के लोरेटो एटली स्कूल में अध्यापन कार्य करने लगीं तथा अपनी कर्त्तव्यनिष्ठा एवं योग्यता के बल पर प्रधानाध्यापिका के पद पर प्रतिष्ठित हुई ।  प्रारम्भ में कलकत्ता में ही उनका निवास क्रिक लेन में था, किन्तु बाद में वे सर्कुलर रोड स्थित आवास में रहने लगी । वह आवास आज विश्वभर में ‘मदर हाउस’ के नाम से जाना जाता है ।

अध्यापन कार्य करते हुए मदर टेरेसा को महसूस हुआ कि वे मानवता की सेवा के लिए इस पृथ्वी पर अवतरित हुई हैं । इसके बाद उन्होंने अपना जीवन मानव-सेवा हेतु समर्पित करने का निर्णय लिया । मदर टेरेसा किसी भी गरीब, असहाय एवं लाचार को देखकर उसकी सेवा करने के लिए तत्पर हो जाती थीं तथा आवश्यकता पड़ने पर वे बीमार एवं लाचारों की स्वयं सेवा एवं मदद करने से भी नहीं चूकती थीं, इसलिए उन्होंने बेसहारा लोगों के दु:ख दूर करने का महान् व्रत लिया ।

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बाद में ‘नन’ के रूप में उन्होंने मानव-सेवा की शुरूआत की एवं भारत की नागरिकता भी हासिल की । कलकत्ता को उन्होंने अपनी कार्यस्थली के रूप में चुना और निर्धनों एवं बीमार लोगों की सेवा करने के लिए वर्ष 1950 में ‘मिशनरीज ऑफ चैरिटी’ नामक संस्था की स्थापना की ।

इसके बाद वर्ष 1952 में कुष्ठ रोगियों, नशीले पदार्थों की लत के शिकार लोगों तथा दीन-दु:ख्यों की सेवा के लिए कलकत्ता में काली घाट के पास ‘निर्मल हृदय’ तथा ‘निर्मला शिशु भवन’ नामक संस्था बनाई । यह संस्था उनकी गतिविधियों का केन्द्र बनी ।

विश्व के 120 से अधिक देशों में इस संस्था की कई शाखाएँ हैं, जिनके अन्तर्गत लगभग 200 विद्यालय, एक हजार से अधिक उपचार केन्द्र तथा लगभग एक हजार आश्रय गृह संचालित हैं । दीन-दु:खियों के प्रति उनकी सेवा-भावना ऐसी थी कि इस कार्य के लिए वे सड़कों एवं गली-मुहल्लों से उन्हें खुद ढूँढकर लाती थीं ।

उनके इस कार्य में उनकी सहयोगी अन्य सिस्टर्स भी मदद करती थीं । जब उनकी सेवा-भावना की बात दूर-दूर तक पहुँची, तो लोग खुद उनके पास सहायता के लिए पहुँचने लगे । अपने जीवनकाल में उन्होंने लाखों दरिद्रों, असहायों एवं बेसहारा बच्चों व बूढ़ों को आश्रय एवं सहारा दिया ।

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मदर टेरेसा को उनकी मानव-सेवा के लिए विश्व के कई देशों एवं संस्थाओं ने सम्मानित किया । वर्ष 1962 में भारत सरकार ने उन्हें ‘पद्मश्री’ से अलंकृत किया । वर्ष 1973 में संयुक्त राज्य अमेरिका ने उन्हें ‘टेम्पलटन पुरस्कार’ से सम्मानित किया ।

वर्ष 1979 में उन्हें ‘शान्ति का नोबेल पुरस्कार’ प्रदान किया गया । वर्ष 1980 में भारत सरकार ने उन्हें ‘भारत रत्न’ से सम्मानित किया । वर्ष 1983 में ब्रिटेन की महारानी द्वारा उन्हें ‘ऑर्डर ऑफ मेरिट’ प्रदान किया गया ।  वर्ष 1992 में उन्हें भारत सरकार ने ‘राजीव गाँधी सद्भावना पुरस्कार’ से सम्मानित किया । वर्ष 1993 में उन्हें ‘यूनेस्को शान्ति पुरस्कार’ प्रदान किया गया ।

वर्ष 1997 में मदर टेरेसा को ‘रैमन मैग्सेसे पुरस्कार’ प्राप्त हुआ । इन पुरस्कारों के अतिरिक्त भी उन्हें अन्य कई पुरस्कार एवं सम्मान प्राप्त हुए ।  यद्यपि उनके जीवन के अन्तिम समय में कई बार क्रिस्टोफर हिचेन्स, माइकल परेंटी, विश्व हिन्दू परिषद आदि द्वारा उनकी आलोचना की गई तथा आरोप लगाया गया कि वह गरीबों की सेवा करने के बदले उनका धर्म बदलवाकर ईसाई बनाती हैं ।

पश्चिम बंगाल में उनकी निन्दा की गई ।  मानवता की रखवाली की आड़ में उन्हें ईसाई धर्म का प्रचारक भी कहा जाता था । उनकी धर्मशालाओं में दी जाने वाली चिकित्सा सुरक्षा के मानकों की आलोचना की गई तथा उस अपारदर्शी प्रकृति के बारे में सवाल उठाए गए, जिसमें दान का धन खर्च किया जाता था, किन्तु यह सत्य है कि जहाँ सफलता होती है, वहाँ आलोचना होती ही है ।

वस्तुतः मदर टेरेसा आलोचनाओं से परे थीं । वर्ष 1983 में 73 वर्ष की आयु में मदर टेरेसा रोम में पोप जॉन पॉल द्वितीय से मिलने गई, उन्हें वहीं पहला हृदयाघात आया । वर्ष 1989 में दूसरा हृदयाघात आया । 5 सितम्बर, 1997 को 87 वर्ष की अवस्था में उनकी कलकत्ता में मृत्यु हो गई ।

आज वे हमारे बीच नहीं हैं, किन्तु उनके द्वारा स्थापित संस्थाओं में आज भी उनके ममतामयी स्नेह को महसूस किया जा सकता है । वहाँ होते हुए ऐसा लगता है मानो मदर हमें छोड़कर गई नहीं हैं, बल्कि अपनी संस्थाओं और अनुयायियों के रूप में हम सबके साथ हैं ।

उनकी उपलब्धियों को देखते हुए दिसम्बर, 2002 में पोप जॉन पॉल द्वितीय ने उन्हें धन्य घोषित करने की स्वीकृति दी तथा 19 अक्टूबर, 2003 को रोम में सम्पन्न एक समारोह में उन्हें धन्य घोषित किया गया । उन्होंने पूरी निष्ठा से न केवल बेसहारा लोगों की नि:स्वार्थ सेवा की, बल्कि विश्व शान्ति के लिए भी सदा प्रयत्नशील रहीं । उनका सम्पूर्ण जीवन मानव-सेवा में बीता । वे स्वभाव से ही अत्यन्त स्नेहमयी, ममतामयी एवं करुणामयी थीं । वह ऐसी शख्सियत थीं, जिनका जन्म लाखों-करोड़ों वर्षों में एक बार होता है ।

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