भारत में भ्रष्टाचार विरोधी मशीनरी | Anti-Corruption Machinery in India in Hindi.

नागरिकों की शिकायतों को निपटाने के लिए और भ्रष्टाचार को रोकने के लिए भारत में विद्यमान वैधानिक एवं संस्थागत ढाँचा निम्नलिखित तरीके से निर्मित है:

1. लोक सेवक (जाँच) अधिनियम, 1850

2. भारतीय दंड अवस्थापन, 1860

ADVERTISEMENTS:

3. विशेष पुलिस अवस्थापन, 1941

4. दिल्ली पुलिस अवस्थापन अधिनियम, 1946

5. भ्रष्टाचार निरोध अधिनियम, 1947

6. जाँच आयोग अधिनियम, 1952 (राजनैतिक नेताओं तथा प्रतिष्ठित सार्वजनिक व्यक्तियों के लिए)

ADVERTISEMENTS:

7. अखिल भारतीय सेवा (आचरण) नियम, 1954

8. केंद्रीय लोक सेवा (आचरण) नियम, 1955

9. रेलवे सेवा (आचरण) नियम, 1956

10. मंत्रालयों/विभागों में सतर्कता संगठन, संबद्ध एवं अधीनस्थ कार्यालय तथा सार्वजनिक उपक्रम

ADVERTISEMENTS:

11. केंद्रीय जाँच ब्यूरो, 1903

12. केंद्रीय सतर्कता आयोग, 1964

13. राज्य सतर्कता आयोग, 1964

14. राज्यों में भ्रष्टाचार रोधी ब्यूरो

15. राज्यों में लोकायुक्त (ऑम्बुड्‌समैन)

16. मंडलीय सतर्कता आयोग

17. जिला सतर्कता अधिकारी

18. राष्ट्रीय उपभोक्ता विवाद एवं निपटान आयोग

19. अनुसूचित जाति एवं जनजाति आयोग

20. सर्वोच्च न्यायालय एवं राज्यों में उच्च न्यायालय

21. प्रशासनिक ट्रिब्यूनल (अर्ध-न्यायिक निकाय)

22. मंत्रिपरिषद सचिवालय का जन शिकायत निदेशालय, 1988

23. संसद और इसकी समितियाँ ।

केरल जैसे कुछ राज्यों में ‘फाइल टु फील्ड’ कार्यक्रम लागू किया गया है । इस नई योजना में प्रशासक गाँवों/क्षेत्रों में जाकर, लोगों की शिकायतें सुनते हैं और यथासंभव, तत्काल कार्यवाही करते हैं ।

इनमें से कुछ का विस्तृत विवरण इस प्रकार हैं:

1. केंद्रीय जाँच ब्यूरो (Central Bureau of Investigation):

केंद्रीय जाँच ब्यूरो (CBI) की स्थापना 1963 में गृहमंत्रालय के प्रस्ताव पर की गई थी । वर्तमान में यह कार्मिक मंत्रालय के अंतर्गत है और इसको संबद्ध कार्यालय का दर्जा प्राप्त है । 1941 में गठित विशेष पुलिस अवस्थापन (जो सतर्कता के मामले देखता था) को भी अब सीबीआई में मिला दिया गया ।

सीबीआई केंद्रीय सरकार की मुख्य जाँच एजेंसी है । भ्रष्ट्राचार रोकने और प्रशासन की ईमानदारी बनाए रखने में यह महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करती है । यह केंद्रीय सतर्कता आयोग की भी सहायता करती है । विशेष पुलिस स्थापन (सीबीआई का प्रभाग) राज्य पुलिस बलों का संपूरक है ।

राज्य पुलिस बलों के साथ दिल्ली पुलिस अवस्थापन अधिनियम 1946 के अधीन विशेष पुलिस अवस्थापन (SPE) को अपराधों की जाँच करने और मुकदमा चलाने के अधिकार प्राप्त हैं ।

परंतु इन दो एजेंसियों के बीच मामलों की आवृत्ति और परस्पर व्यापन से बचने के लिए निम्नलिखित प्रबंध किए गए हैं:

(i) एसपीई उन मामलों को हाथ में लेगी जिनका संबंध मूलतया और बड़े तौर पर केंद्र सरकार या उसके कर्मचारियों से है; चाहे वे किसी राज्य सरकार के कर्मचारियों से भी संबंधित क्यों न हों ।

(ii) राज्य पुलिस वे मामले लेगी जिनका संबंध बड़े तौर पर राज्य सरकार या कर्मचारियों से है; चाहे इनमें केंद्र सरकार के कर्मचारियों से भी क्यों जुड़े न हों ।

(iii) एसपीई केंद्र सरकार द्वारा स्थापित एवं वित्त पोषित सार्वजनिक उपक्रमों तथा वैधानिक निकायों के कर्मचारियों के विरुद्ध मामले लेगी ।

सीबीआई के कार्य निम्नलिखित हैं:

(i) केंद्र सरकार के कर्मचारियों के भ्रष्टाचार, घूसखोरी और दुराचार के मामलों की जाँच करना ।

(ii) राजकोषीय एवं आर्थिक कानूनों के उल्लंघन अर्थात आयात-निर्यात नियंत्रण, तटकर, केंद्रीय उत्पाद शुल्क, आयकर, विदेशी मुद्रा विनियम इत्यादि संबंधी कानूनों को तोड़ने से संबंधित मामलों की जाँच; परंतु ऐसे मामलों को या तो संबद्ध विभाग की सलाह से या उसके अनुरोध पर लिया जाएगा ।

(iii) पेशेवर अपराधियों के संगठित गिरोहों, जिनकी राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय शाखाएँ हों; के गंभीर अपराधों की जाँच करना ।

(iv) भ्रष्टाचार रोधी एजेंसियों तथा विभिन्न राज्यों के पुलिस बलों की गतिविधियों में तालमेल बिठाना ।

(v) राज्य सरकार के अनुरोध पर किसी भी सार्वजनिक महत्व के मामले की जाँच करना ।

(vi) अपराध के आंकड़ों का रख-रखाव और आपराधिक सूचनाओं को प्रसारित करना ।

संथानम समिति रिपार्ट:

भ्रष्टाचार निरोधक समिति की नियुक्ति भारत सरकार ने 1962 में की थी । इसके अध्यक्ष के संथानम थे तथा चार अन्य सांसदों सहित दो वरिष्ठ अधिकारी इसके सदस्य थे । इसे भारत सरकार के विभागों में भ्रष्टाचार के विभिन्न पक्षों की तहकीकात करने तथा इस पर रोक लगाने के उपायों की सिफारिश करने का कार्य सौंपा गया था । परंतु राजनीतिक भ्रष्टाचार (अर्थात मंत्रीमंडलीय स्तर के भ्रष्टाचार) के विषय को इसके विचारार्थ विषयों से अलग रखा गया था ।

संथानम समिति ने अपनी रिपोर्ट 1964 में पेश की । इसमें कहा गया था कि लोक सेवकों को प्राप्त विवेकाधिकार उत्पीड़न, दुराचार और भ्रष्टाचार पैदा करते हैं । समिति ने 137 सिफारिशें की थीं जिनमें से सरकार ने 106 को स्वीकार किया ।

इसकी प्रमुख सिफारिशें निम्नलिखित हैं:

(i) संविधान की धारा 311 में इस तरह से संशोधन किया जाए कि भ्रष्टाचार के मामलों में न्यायिक प्रक्रिया सरल हो और इसे तेजी से आगे बढ़ाया जा सके । इस धारा को 1976 में संशोधित किया गया ।

(ii) भारत प्रतिरक्षा विधेयक, 1962 में संशोधन ।

(iii) स्वाधीन सतर्कता आयोग का गठन किया जाए । यह 1964 में गठित किया गया ।

(iv) सरकारी कर्मचारियों के आचरण नियमों में संशोधन हो, ताकि सेवानिवृत्त लोक सेवकों को निजी क्षेत्र में जाने से रोका जा सके । इसमें सिफारिश की थी कि सरकारी कर्मचारियों पर सेवानिवृत्ति के बाद दो साल तक निजी क्षेत्र में नौकरी करने पर रोक लगाई जाए ।

(v) भारतीय दंड संहिता के अनुच्छेद 21 में संशोधन किया जाये ताकि ‘लोकसेवक’ की परिभाषा को अधिक स्पष्ट किया जा सके । इसमें लोक सेवकों के कुछ अधिक प्रवर्गों को शामिल करने के लिए 1964 में संशोधित किया गया ।

(vi) भ्रष्ट आचरण करने के अवसरों को समाप्त करने के लिए कानूनों, नियमों, कार्यविधियों तथा प्रक्रियाओं को आसान बनाए जाए ।

(vii) कर्मियों और अधिकारों में बढ़ोतरी करके विशेष पुलिस अवस्थापन को सुदृढ़ किया जाए । इसको अतिरिक्त अधिकार देकर सुदृढ़ किया गया ।

(viii) सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों में सतर्कता तंत्र की स्थापना ।

(ix) लोक सेवकों, मंत्रियों और विधायकों द्वारा अपनी निजी संपत्ति की घोषणा की जाय ।

(x) मंत्रियों के लिए आचरण संहिता बनाई जाए । बाद में ऐसी संहिता को मंत्रिमंडल के द्वारा अनुमोदित कर दिया गया ।

(xi) राजनीतिक दलों को उस पैसे और चंदे का हिसाब-किताब रखना और उसे प्रकाशित करना चाहिए जो वे निजी क्षेत्र से एकत्र करते हैं ।

(xii) न्यूजीलैंड के संसदीय जाँच आयुक्त की तर्ज पर ऑम्बुड्‌समैन जैसी संस्था की स्थापना की जाए ।

(xiii) मंत्रालयों/विभागों में सतर्कता संगठनों को मजबूत किया जाए ।

(xiv) अनुशासनात्मक नियमों के संबंध में समिति ने यह सिफारिश की, कि यदि किसी व्यक्ति की ईमानदारी पर संदेह है तो उसकी पूरी या आंशिक पेंशन को वापस लिया जाए, 25 वर्ष की सेवा या 50 वर्ष की आयु पूरी करने पर (जो भी पहले हो) उसे अनिवार्यत: सेवानिवृत्त कर दिया जाए ।

2. केंद्रीय सतर्कता आयोग (CVC):

इसकी स्थापन 1964 में संथानम समिति की सिफारिश पर की गई थी । इसका गठन केंद्र सरकार के कार्यकारी प्रस्ताव द्वारा किया गया । मूलतया यह न तो कोई संवैधानिक संगठन था और न ही वैधानिक । हाल ही में, सितम्बर 2003 में केंद्र सरकार ने एक अध्यादेश जारी करके सीवीसी को वैधानिक दर्जा दे दिया ।

अध्यादेश में एक बहु-सदस्यीय आयोग का गठन करने को कहा गया है जिसका प्रमुख केंद्रीय सतर्कता आयुक्त हो और इसके सहायकों के तौर पर अधिक से अधिक तीन सतर्कता आयुक्त हों । इनकी नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा उच्चस्तरीय समिति की सिफारिश पर की जाएगी जिसके अध्यक्ष प्रधानमंत्री और सदस्य गृहमंत्री तथा लोकसभा में विरोधी दल के नेता होंगे । केंद्रीय सतर्कता आयुक्त का कार्यकाल 4 वर्ष है जबकि सतर्कता आयुक्तों का 3 वर्ष; परंतु उनकी आयु 65 वर्ष से अधिक नहीं होनी चाहिए ।

अगस्त 1998 से पूर्व सीवीसी एक सदस्यीय आयोग था जिसका प्रधान 6 वर्ष के लिए राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त (अधिकतम आयु 65 वर्ष) केंद्रीय सतर्कता आयुक्त था । केंद्रीय सतर्कता आयुक्त को लोकसेवा आयोग के अध्यक्ष को हटाने के ढंग से हटाया जा सकता है ।

सेवा निवृत्ति के पश्चात वह केंद्रीय अथवा राज्य, किसी सरकार में किसी पद पर काम करने का पात्र नहीं । 1998 के अध्यादेश ने सीवीसी को सीबीआई और प्रवर्तन निदेशालय जैसी जाँच एजेंसियों की तरह जाँच करने और अपने प्रमुखों को नियुक्त करने की सिफारिश करने के व्यापक अधिकार प्रदान किए हैं ।

सीवीसी केंद्र सरकार में भ्रष्टाचार रोकने की प्रमुख एजेंसी है । यह केंद्र सरकार को उन तमाम मामलों पर सलाह देती है जिनका संबंध प्रशासन में ईमानदारी की सुरक्षा करना और इसे बनाए रखना है । अत: लोक सेवा आयोग की तरह इसकी भूमिका सलाहकार जैसी है ।

अपने कार्यों का निष्पादन करने के लिए उसको लोक सेवा आयोग के स्तर की ही स्वायत्तता तथा स्वतंत्रता प्रान्त है । केंद्रीय सतर्कता आयोग कार्मिक मंत्रालय के अधिकार क्षेत्र मैं आता है ।

अपनी गतिविधियों की वार्षिक रिपोर्ट यह मंत्रालय को देता है जो तत्पश्चात संसद के दोनों सदनों में रखी जाती है । आयोग के अधिकार क्षेत्र के अंतर्गत वे सारे मामले आते हैं जो केंद्र सरकार के कार्यकारी अधिकारों की सीमा में आते हैं ।

इसके अधिकार क्षेत्र के अंतर्गत निम्नलिखित लोकसेवक आते हैं:

(i) केंद्र सरकार के सभी कर्मचारी (अर्थात जिनको केंद्र सरकार द्वारा विभिन्न मंत्रालयों/विभागों द्वारा नियुक्त किया जाता है ।)

(ii) सार्वजनिक उपक्रमों, निगमों तथा केंद्र सरकार के अधीन काम करने वाले अन्य संस्थान ।

(iii) दिल्ली महानगर परिषद और नई दिल्ली नगर पालिका परिषद के सभी कर्मचारी ।

परंतु वर्तमान में इसका अधिकार क्षेत्र केवल राजपत्रित अधिकारियों के समान स्तर के अधिकारियों तक सीमित है । यह केवल उच्चतर लोकसेवकों से संबंधित सतर्कता के व्यक्तिगत मामलों पर ही सलाह देता है । इसको राजनीतिक भ्रष्टाचार के मामलों (अर्थात सांसदों और मंत्रियों से जुड़े मामले) में जांच करने का अधिकार नहीं है ।

आयोग को भ्रष्टाचार और दुराचार के विरुद्ध शिकायतें सीधे पीड़ित नागरिकों से मिलती हैं । इनसे संबंधित सूचनाओं को आयोगों- (i) प्रेस रिपोर्टों, (ii) लेखा-परीक्षा रिपोर्टों, (iii) विभिन्न विभागों/संबद्ध प्रतिष्ठानों, (iv) सांसदों द्वारा लगाए गए आरोपों और (v) संसदीय समिति की रिपोर्टों से भी एकत्र कर सकता है ।

केंद्रीय सतर्कता आयोग के कार्य निम्नलिखित हैं:

(i) उस प्रत्येक लेन-देन की छानबीन करना जिसमें किसी लोकसेवक पर भ्रष्ट ढंग से अथवा किसी अनुचित उद्देश्य के लिए काम करने का संदेह या आरोप है ।

(ii) लोक सेवक के विरुद्ध भ्रष्टाचार, दुराचरण, अपराध, ईमानदारी के अभाव या अन्य प्रकार के अनाचार की शिकायतों की जाँच पड़ताल करना ।

(iii) मंत्रालयों, विभागों, सार्वजनिक प्रतिष्ठानों, बैंकों इत्यादि में निरीक्षण करने और सतर्कता तथा भ्रष्टाचार विरोधी कार्य की सामान्य जाँच करने के उद्देश्य से एजेंसियों से रिपोर्टें या विवरण लेना ।

(iv) अनुशासनिक मामलों में अनुशासनिक अधिकारियों को निष्पक्ष और स्वतंत्र ढंग से सलाह देना ।

(v) भ्रष्टाचार के क्षेत्र को कम करने और प्रशासन में ईमानदारी बनाए रखने की कार्यपद्धतियों तथा कार्यों की समीक्षा करना ।

(vi) आगे की कार्यवाही के लिए शिकायतों को सीधे अपने अधीन लेना ।

इसके अंतर्गत की जाने वाली कार्यवाहियां निम्न हैं:

(क) संबंधित मंत्रालय/विभाग से इसकी जाँच करने को कह सकता है,

(ख) यह सीबीआई से इसकी जाँच करने को कह सकता है ।

(ग) यह इस संबंध में सीबीआई से एक नियमित मामला दर्ज करने और इसकी जाँच करने को कह सकता है ।

मंत्रालयों और विभागों में नियुक्त मुख्य सतर्कता अधिकारी केंद्रीय सतर्कता आयोग और मंत्रालयों/विभागों के बीच एक कड़ी का काम करते हैं । इनसे संबंधित कार्यालयों, अधीनस्थ कार्यालयों तथा सार्वजनिक उपक्रमों में भी सतर्कता अधिकारी होते हैं । केंद्रीय सतर्कता आयोग की तर्ज पर 1964 में विभिन्न राज्यों ने भी राज्य सतर्कता आयोगों का गठन किया था ।

लोकपाल:

मोरारजी देसाई की अध्यक्षता मैं प्रशासनिक सुधार आयोग (ARC) ने 1966 में ‘नागरिकों की शिकायतों के निपटान की समस्या’ पर एक विशेष अंतरिम रिपोर्ट पेश की थी । इस रिपोर्ट में ‘नागरिकों की शिकायत के निपटाने’ के लिए ‘लोकपाल’ और ‘लोकायुक्त’ नामक दो विशेष अधिकरणों की स्थापना की गई थी । इन संस्थाओं का गठन स्केंडीनेवियन देशों की ऑम्बुड्‌समैन संस्था और न्यूजीलैंड के संसदीय जाँच आयुक्त के नमूने पर किया जाना था ।

लोकपाल का काम केंद्र तथा राज्यों के स्तर पर मंत्रियों तथा सचिवों के विरुद्ध शिकायतों को निपटाना था और लोकायुक्त (एक केंद्र में तथा प्रत्येक राज्य में एक) का काम विशेष उच्च अधिकारियों के विरुद्ध शिकायतों को निपटाना है ।

परंतु प्रशासनिक सुधार आयोग ने न्यूजीलैंड की तरह ही न्यायपालिका को लोकपाल और लोकायुक्त के अधिकार क्षेत्र से बाहर रखा था जबकि स्वीडन में ऑम्बड्‌समैन के अधिकार क्षेत्र में न्यायपालिका भी आती है । एआरसी के अनुसार लोकपाल की नियुक्ति भारत के मुख्यन्यायाधीश, लोकसभा अध्यक्ष और राज्यसभा के सभापति की सलाह से राष्ट्रपति द्वारा की जाएगी ।

एआरसी ने यह भी सिफारिश की थी कि लोकपाल और लोकायुक्त की संस्थाओं में निम्न विशेषताएँ होनी चाहिए:

(i) वे स्पष्ट रूप से स्वाधीन और निष्पक्ष हों ।

(ii) उनके द्वारा की जाने वाली जाँच और कार्यवाही गुप्त रूप से की जानी चाहिए तथा यह अनौपचारिक प्रकृति की होनी चाहिए ।

(iii) उनकी नियुक्ति जहाँ तक संभव हो गैर-राजनीतिक होनी चाहिए ।

(iv) उनकी पदस्थिति देश के सर्वोच्च न्यायिक अधिकारियों के समकक्ष होनी चाहिए ।

(v) उन्हें विवेकानुसार उन मामलों से निपटना चाहिए जिनका संबंध अन्याय, भ्रष्टाचार या पक्षपात के कार्यों से हो ।

(vi) उनकी कार्यवाहियाँ न्यायिक हस्तक्षेप के अधीन नहीं होनी चाहिए ।

(vii) अपने कार्यों से संबंधित प्रासंगिक सूचनाओं को प्राप्त करने के लिए उनको अधिकतम छूट और अधिकार मिलने चाहिए ।

(viii) कार्यकारी सरकार से उनको किसी प्रकार के हित या आर्थिक लाभ की आशा नहीं करनी चाहिए ।

इस संबंध में भारत सरकार ने एआरसी की सिफारिशों को स्वीकार कर लिया । इस विषय पर विधान बनाने के लिए अभी तक आठ सरकारी प्रयास हो चुके हैं ।

संसद में विधेयकों को निम्नलिखित वर्षों में प्रस्तुत किया गया था:

(i) मई 1968 में इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार द्वारा,

(ii) अप्रैल 1971 में दोबारा इंदिरा गांधी वाली नेतृत्व में कांग्रेस सरकार द्वारा,

(iii) जुलाई 1977 में मोरारजी के नेतृत्व वाली जनता सरकार द्वारा,

(iv) अगस्त 1985 में राजीव गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार द्वारा,

(v) दिसंबर 1989 में वी.पी. सिंह के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय मोर्चा सरकार द्वारा,

(vi) सितंबर 1996 में देवगौड़ा के नेतृत्व वाली संयुक्त मोर्चा सरकार द्वारा,

(vii) अगस्त 1998 में ए.बी. वाजपेयी के नेतृत्व वाली बी. जे.पी. साझा सरकार द्वारा,

(viii) अगस्त 2001 में ए.बी. वाजपेयी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार द्वारा ।

परंतु किसी न किसी कारण से उपरोक्त में से कोई भी विधेयक पारित न हो सका । पहले चार विधेयक लोकसभा के भंग हो जाने के कारण पारित नहीं हो सके । जबकि पांचवे को सरकार ने वापस ले लिया ।

छठे और सातवें विधेयक भी 11वीं और 12वीं लोकसभा के भंग होने के कारण पारित नहीं हुए । आठवाँ विधेयक (2001) 13वीं लोकसभा के भंग होने के कारण विफल हो गए । अत: लोकपाल की संस्था हमारे देश में अभी तक अस्तित्व में नहीं आ पाई है हालांकि इसकी आवश्यकता लंबे समय से महसूस की जा रही है ।

2001 के लोकपाल विधेयक की प्रमुख विशेषता निम्न हैं:

(i) विधेयक में ‘लोकपाल’ संस्था की स्थापना का प्रावधान है जिसका काम प्रधानमंत्री सहित सभी सार्वजनिक कार्यकर्त्ताओं के विरुद्ध भ्रष्टाचार के आरोपों की जाँच करना है । शर्त यह है कि अपराध शिकायत किए जाने से दस वर्ष के भीतर किया गया हो ।

(ii) लोकपाल संस्था में एक सभापति होगा जो या तो सर्वोच्च न्यायालय का मुख्यन्यायाधीश हो या रह चुका हो अथवा सर्वोच्च न्यायालय का न्यायाधीश हो । इसके दो अन्य सदस्य वे होंगे जो या तो सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश हों, या रह चुके हों अथवा उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश हों ।

(iii) सभापति और सदस्यों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा एक समिति की सिफारिश पर की जाएगी जिसके प्रमुख उपराष्ट्रपति होंगे तथा सदस्य प्रधानमंत्री, लोकसभा अध्यक्ष, गृहमंत्री, सदन का नेता (उस सदन के अतिरिक्त जिसका नेता स्वयं प्रधानमंत्री हो) और लोकसभा तथा राज्यसभा दोनों में विपक्ष के नेता होंगे ।

(iv) विधेयक में सभापति तथा सदस्यों का कार्यकाल तीन वर्ष का रखा गया है ।

(v) विधेयक यह सुनिश्चित करता है कि लोकपाल स्वतंत्रतापूर्वक काम करेगा और अपने कार्यों को बिना किसी भय तथा पक्षपात के करेगा । इसके लिए विधेयक में कहा गया है कि लोकपाल के सभापति या इसके किसी सदस्य को उसके पद से तब तक हटाया नहीं जा सकता है जब तक राष्ट्रपति उसे दुर्व्यवहारी, अकुशल और अयोग्य घोषित न कर दें ।

निष्कासन का आदेश राष्ट्रपति उस समिति की जाँच के बाद ही जारी कर सकता है जिसके सदस्य भारत के मुख्यन्यायाधीश तथा सर्वोच्च न्यायालय के दो न्यायाधीश (वरिष्ठता में न्यायाधीश के बाद) होंगे ।

(vi) लोकपाल उन शिकायतों की जाँच करेगा जिनमें किसी सार्वजनिक कार्यपालक पर भ्रष्टाचार निरोधक अधिनियम (1988) के अधीन दंडनीय अपराध करने का आरोप हो ।

‘सार्वजनिक कार्यपालक’ के अंतर्गत प्रधानमंत्री तथा संसद सदस्यों सहित केंद्रीय मंत्रियों के तीनों प्रवर्ग आते हैं । लोकपाल के अधिकार क्षेत्र से सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों और निर्वाचन आयुक्त जैसे संवैधानिक कार्यकर्ताओं को बाहर रखा गया है ।

(vii) लोकपाल के अधिकार क्षेत्र से प्रधानमंत्री के उन कार्यों को भी बाहर रखा गया है जिनका संबंध राष्ट्रीय सुरक्षा एवं लोक व्यवस्था बनाए रखने से है ।

(viii) लोकपाल को प्रभावी तथा अर्ध-न्यायिक ढंग से कार्य करने के योग्य बनाने के लिए, किसी व्यक्ति को बुलाने, उसको उपस्थिति के लिए बाध्य करने तथा शपथ पर उससे पूछताछ करने के संबंध में उसे दीवानी न्यायालय के अधिकार दिए गए हैं ।

(ix) विधेयक में खुले न्यायालय या यदि लोकपाल चाहता है तो बंद कमरे में कार्यवाही की व्यवस्था रखी गयी है । कार्यवाहियों को 6 महीने में पूरा हो जाना चाहिए । छह महीने का अतिरिक्त समय दिया जाने का भी प्रावधान किया गया है ।

(x) झूठी शिकायतों को हतोत्साहित करने के लिए लोकपाल को दंडात्मक अधिकार दिया गया है । इस प्रकार की शिकायतों के लिए 50,000 रुपये के जुर्माने के साथ ही एक से तीन साल तक की कैद हो सकती है ।

लोकायुक्त:

जहाँ केंद्र सरकार लोकपाल की संस्था की स्थापना पर अभी तक बहस ही कर रही है, वहाँ अनेक राज्यों ने लोकायुक्त संस्था का गठन कर भी दिया है । डोनाल्ड सी. रोवाट कहते हैं कि ”दुनियाभर में सबसे घनी आबादी का ऑम्बड्‌समैन अधिकार क्षेत्र भारत में है ।”

लोकायुक्त संस्था की स्थापना सबसे पहले 1971 में महाराष्ट्र में की गई थी हालांकि उससे संबंधित विधेयक उड़ीसा में 1970 में पारित कर दिया गया था । उड़ीसा में अधिनियम 1983 में लागू हुआ था । लोकायुक्त संस्थान के विभिन्न पक्षों की व्याख्या नीचे की गई है ।

संरचनात्मक विभिन्नताएँ:

लोकायुक्त की संरचना सभी राज्यों में एक समान नहीं है । राजस्थान, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और महाराष्ट्र में लोकायुक्त के साथ-साथ उप-लोकायुक्त की भी स्थापना की गई है जबकि बिहार, उत्तर प्रदेश और हिमाचल प्रदेश, जैसे अन्य राज्यों ने केवल लोकायुक्त का गठन किया गया है; इनमें उपलोकायुक्त का कोई प्रावधान नहीं है । पंजाब और उड़ीसा जैसे राज्यों ने अधिकारियों को लोकपाल का पदनाम दिया गया है । प्रशासनिक सुधार आयोग ने राज्यों में यह नमूना नहीं सुझाया था ।

नियुक्तियाँ:

अधिकांश राज्यों में लोकायुक्त और उपलोकायुक्त की नियुक्ति राज्यपाल करते हैं । नियुक्त करते समय राज्यपाल- (i) मुख्यमंत्र, (ii) राज्य के उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश और (iii) राज्य विधान सभा में विपक्ष के नेता की सलाह लेता है ।

योग्यताएँ:

उत्तर प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, आंध्र प्रदेश, गुजरात, उड़ीसा और कर्नाटक तथा असम के राज्यों में लोकायुक्त के लिए न्यायिक योग्यताएँ उल्लिखित की गयी हैं जबकि बिहार, महाराष्ट्र और राजस्थान में किन्हीं विशेष योग्यताओं का उल्लेख नहीं किया गया है ।

कार्यकाल:

अधिकतर राज्यों में लोकायुक्त का कार्यकाल 5 वर्ष या 65 वर्ष की आयु पूरी होने तक, जो भी पहले हो, तय किया गया है । वह दूसरी बार नियुक्त होने का पात्र नहीं होता है ।

अधिकार क्षेत्र:

राज्यों में लोकायुक्त के अधिकार क्षेत्र अलग-अलग हैं ।

इस संबंध में निम्नलिखित बिंदुओं को उल्लिखित किया जा सकता है:

(क) हिमाचल प्रदेश, आंध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश और गुजरात राज्यों में मुख्यमंत्री लोकायुक्त के अधिकार क्षेत्र में आता है जबकि महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, उड़ीसा और असम में मुख्यमंत्री इसके अधिकार क्षेत्र से बाहर है ।

(ख) लगभग सभी राज्यों में मंत्री और उच्च लोकसेवक लोकायुक्त के अधिकार क्षेत्र में आते हैं । महाराष्ट्र में इसके दायरे में पूर्व मंत्रियों तथा लोकसेवकों को भी शामिल किया गया है ।

(ग) आंध्र प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, गुजरात, उत्तर प्रदेश और असम राज्यों में लोकायुक्त के अधिकार क्षेत्र में राज्य विधान सभाओं के सदस्य भी आते हैं ।

(घ) अधिकांश राज्यों में स्थानीय निकायों, निगमों, कंपनियों तथा समितियों के अधिकारियों को लोकायुक्त के अधिकार क्षेत्र में लाया गया है ।

जाँच:

अधिकांश राज्यों में लोकायुक्त अपनी जाँच प्रशासन के अनुचित कार्य के विरुद्ध किसी नागरिक से प्राप्त शिकायत के आधार पर या अपनी पहल पर कर सकता है । किंतु अपनी पहल पर जाँच शुरू करने का अधिकार उसे उत्तर प्रदेश, हिमाचल प्रदेश और असम राज्यों में नहीं है ।

मामलों का क्षेत्र:

महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, असम, बिहार तथा कर्नाटक में लोकायुक्त ‘शिकायतों’ तथा ‘आरोपों’ दोनों प्रकार के मामलों पर विचार कर सकता है परंतु हिमाचल प्रदेश, आंध्र प्रदेश, राजस्थान और गुजरात में लोकायुक्तों का काम आरोपों (भ्रष्टाचार) की जांच तक सीमित है । वह शिकायतों (कुप्रशासन) की जाँच करने का अधिकारी नहीं है ।

अन्य विशेषताएँ:

(क) लोकायुक्त राज्य विधायिका के प्रति उत्तरदायी है । वह राज्यपाल को अपने कार्य निष्पादन से जुड़ी वार्षिक रिपोर्ट पेश करता है । राज्यपाल इस रिपोर्ट को विश्लेषणात्मक स्मृति पत्र के साथ राज्य की विधायिका के पटल पर रखता है ।

(ख) जाँच करने के लिए वह राज्य की जाँच एजेंसियों की सहायता लेता है ।

(ग) वह राज्य सरकार के विभागों से प्रासंगिक फाइलों और दस्तावेजों को तलब कर सकता है ।

(घ) लोकायुक्त की सिफारिशें केवल सलाहकारी हैं और राज्य सरकार उन्हें मानने के लिए बाध्य नहीं है ।

Home››Essay››