परम्परा पर निबंध: अर्थ, प्रत्यय और समस्या | Essay on Tradition in  Hindi language.

परम्परा पर निबंध | Essay on Tradition


Essay Contents:

  1. परम्परा का अर्थ
  2. परम्परा और आधुनिकता का प्रत्यय
  3. आधुनिकता और परम्परा की सापेक्षता
  4. परम्परागत सांस्कृतिक प्रतिमान
  5. परम्परा और आधुनिकता के समन्वय की समस्या


Essay # 1. परम्परा का अर्थ:

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उपरोक्त सेमिनार में ‘परम्परा’ का कोई भी निश्चित अर्थ नहीं दिया गया, फिर भी स्थूल रूप से इसका क्षेत्र अवश्य बतलाया गया । परम्परा और आधुनिकता दोनों में ही विचारों की एक व्यवस्था, मूल्यों की एक व्यवस्था और संस्थाओं की व्यवस्था सम्मिलित है । ये विचार, मूल्य और संस्थायें परम्परा में अलग और आधुनिकता में अलग होते हैं ।

इस प्रकार परम्परा और आधुनिकता के जगत अलग-अलग है किन्तु कोई भी वास्तविक समाज न तो केवल परम्परागत है और न पूरी तरह से आधुनिक ही कहा जा सकता है इसलिए परम्परा और आधुनिकता का यह भेद केवल सैद्धान्तिक रूप से ही किया जा सकता है अन्यथा प्रत्येक समाज में परम्परा और आधुनिकता परस्पर मिले-जुले रूप में दिखलाई पड़ते हैं ।

डॉ. योगेन्द्र सिंह ने भारत में “परम्परा और आधुनिकता’ पर सेमिनार में अपना लेख प्रस्तुत करते हुए उसमें परम्परा की व्याख्या करने का प्रयास किया है । उनके अपने शब्दों में- “परम्परा समाज की एक सामूहिक विरासत है जो कि सामाजिक संगठन के सभी स्तरों में व्याप्त होती है, उदाहरण के लिए मूल्य-व्यवस्था सामाजिक संरचना और व्यक्तित्व की संरचना । इस प्रकार परम्परा सामाजिक विरासत को कहा जाता है इस सामाजिक विरासत के तीन तत्व हैं- मूल्यों की व्यवस्था, सामाजिक संरचना और उसके परिणामस्वरूप व्यक्तित्व की संरचना ।”

यह परम्परा का समाजशास्त्रीय अर्थ है । इसके अतिरिक्त भी परम्परा को अनेक अर्थ दिए गए हैं जैसे- अर्थ यात्मशास्त्रीय अर्थ अथवा ऐतिहासिक अर्थ । परम्परा का समाजशास्त्रीय अर्थ सामाजिक सांस्कृतिक और कार्यात्मक होता है । अध्यात्मशास्त्रीय अथवा दार्शनिक दृष्टि से परम्परा से तात्पर्य उन सत्यों से है जो अति प्राचीन काल में अभिव्यक्त हुए थे और जो शाश्वत सत्य हैं ।

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इन सत्यों में आध्यात्मिक एकता पाई जाती है । ऐतिहासिक दृष्टि से प्रत्येक परम्परा उद्‌विकास के बाद पतन की सीढ़ी पर पहुँचती है । परम्परा आध्यात्मिक शक्तियों में निहित होती है जो कि मानव शक्तियों से परे होती हैं, इसलिए उसका विकास भी दैवी शक्ति पर निर्भर है । भिन्न-भिन्न परम्पराएँ परस्पर समन्वित नहीं होती बल्कि अपने-अपने भाग्य के अनुसार आगे बढ़ती, विकसित होती या पतन की ओर अग्रसर होती हैं ।

परम्परा का ऐतिहासिक अर्थ ऐतिहासिक दर्शन पर आधारित है । इसमें यथा सम्भव अनुभवात्मक और वस्तुगत दृष्टिकोण ग्रहण करने का प्रयास किया जाता है । परम्परा के अध्यात्मशास्त्रीय और ऐतिहासिक दोनों ही अर्थ समाजशास्त्र की दृष्टि से उपयुक्त नहीं है ।

समाजशास्त्र में परम्परा का सामाजिक-सांस्कृतिक अथवा कार्यात्मक दृष्टिकोण अपनाया जाता है परम्परा यह अर्थ अपेक्षाकृत आधुनिक काल में विकसित हुआ है । किसी भी समाज में संस्कृति में बराबर विकास होता रहता है, फिर भी कुछ मूल्य, संस्थाएँ और सामाजिक संरचना के कुछ अंग न्यूनाधिक रूप से स्थायी बने रहे हैं । इन्हें ही परम्परा कहा जा सकता है । परम्परा का यह प्रत्यय भारतवर्ष में परम्परागत संस्कृति के विवेचन से और भी अधिक स्पष्ट होगा ।


Essay # 2. परम्परा और आधुनिकता का प्रत्यय:

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भारत में परम्परा और आधुनिकता की समस्या को समझने से पहले यह जानना जरूरी है कि आधुनिकता क्या है । आधुनिकता की धारणा पश्चिमी देशों की आधुनिक प्रगति विशेषतया संयुक्त राज्य अमरीका अथवा ब्रिटेन की सामाजिक संरचना के नमूने के आधार पर बनाई-गई है ।

डॉ॰ लर्नर ने अपनी पुस्तक “The Passing of Traditional Society-Modernization the Middle East” में आधुनिकता का पश्चिमी नमूना उपस्थित करते हुए उसके पांच मुख्य लक्षण बतलाए हैं- पहला बढ़ता हुआ नगरीकरण, दूसरा बढ़ती हुई साक्षरता, तीसरा साक्षरता में वृद्धि के साथ-साथ सामाचारपत्र, पुस्तकों रेडियो इत्यादि सन्देशवहन के भिन्न-भिन्न साधनों के द्वारा पढ़े-लिखे व्यक्तियों का परस्पर अर्थपूर्ण विचार-विमर्श चौथा इससे कौशलों में वृद्धि और मानवीय शक्ति का निर्माण जिस पर किसी देश का आर्थिक विकास और प्रति व्यक्ति आय की वृद्धि निर्भर होती है, पाँचवा इससे राजनीतिक जीवन का विकास होता है ।

आधुनिकता औद्योगीकरण का परिणाम है । औद्योगीकरण के परिणामस्वरूप जो सांस्कृतिक क्रान्ति हुई उसको आधुनिकता के अन्तर्गत वर्णन किया जाता है । यह औद्योगिक क्रान्ति ही पश्चिमी देशों के आधुनिकीकरण का आधार है । चूंकि यह औद्योगीकरण पूर्व के देशों की तुलना में पश्चिम के देशों में पहले और अधिक व्यापक हुआ है इसलिए पश्चिमी समाज ही आधुनिक समाज का नमूना उपस्थित करते हैं ।

आधुनिकता की धारणा आधुनिकीकरण से अधिक व्यापक है । आधुनिकीकरण से तात्पर्य सभ्यता और साक्षरता तथा नगरीयता के उच्च स्तर से है इसमें भौगोलिक गतिशीलता बढ़ जाती है, प्रति व्यक्ति आय बढ़ जाती है और अधिकतर क्षेत्रों में यन्त्रीकरण होता है ।

दूसरी ओर आधुनिकता संस्कृति की एक विशेष प्रकार की परिचायक है जिसका गुण विवेकशीलता, उदारता विविधता, अनेकता, स्वतन्त्रता, लौकिकता, तथा व्यक्ति के सम्मान आदि से निर्धारित होता है । इस प्रकार आधुनिकता में दूसरों के मतों का सम्मान किया जाता है और प्रत्येक को अपने मत का अनुगमन करने की स्वतन्त्रता होती है ।

आधुनिकता का एक महत्वपूर्ण लक्षण बहुतत्ववाद विशेष रूप से सांस्कृतिक अथवा मूल्यात्मक बहुतत्ववाद है । जैसे-जैसे कोई समाज परम्परा से आधुनिकता की ओर बढ़ता है वैसे-वैसे उसमें नए-नए प्रकार का ज्ञान, अनुभव और विविध प्रकार के मूल्य बढ़ते रहते हैं । परम्परागत यूरोपीय समाज में धर्मशास्त्र का बोलबाला था, आधुनिक यूरोपीय समाज विज्ञान पर आधारित है ।

इस प्रकार आधुनिकता में ज्ञान और अनुभव का विभागीकरण होता है तथा नए-नए क्षेत्र खुलते हैं । आधुनिकता व्यावहारिक विज्ञानों के विकास का परिणाम है । व्यावहारिक विज्ञानों की प्रगति से औद्योगीकरण, व्यक्तिवाद, जनतन्त्र, स्वतन्त्रता और अध्यात्म शास्त्र-विरोधी तथा धर्मशास्त्र-विरोधी दर्शनों का विकास हुआ । उससे सामाजिक व्यवहार की नई आदतों का सूत्रपात हुआ ।

आधुनिकता सब प्रकार के रूढ़िवाद के विरुद्ध है । उसमें किसी भी बात को इसलिए नहीं माना जाता है कि वह परम्परा से मानी जाती रही है बल्कि विवेक और विज्ञान के आधार उसकी परीक्षा की जाती है आधुनिकता का लक्ष्य शक्ति, यौवन, कौशल और विवेक है । उसमें इन्हीं पर अधिक जोर दिया जाता है ।


Essay # 3. आधुनिकता और परम्परा की सापेक्षता:

अन्त में आधुनिकता औद्योगीकरण के परिणामस्वरूप संस्कृति की वर्तमान स्थिति है । औद्योगीकरण बढ़ने के साथ-साथ आधुनिकता बढ़ती जाती है । यह ठीक है कि चूकि पश्चिम में औद्योगीकरण अधिक बढ़ा है इसलिए पश्चिमी समाज ही आधुनिकता का नमूना उपस्थित करते हैं किन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि आधुनिक बनने के लिए भारतीय समाज का पूरी तरह पश्चिमीकरण होना अति आवश्यक है यद्यपि जापान जैसे कुछ एशियाई समाजों ने आधुनिक बनने के प्रयास में पश्चिमी नमूने को पूरी तरह से अपना लिया है ।

भारतवर्ष में आधुनिक समाज की स्थापना के लिए परम्परागत संस्कृति की पूरी तरह अवहेलना न उचित है, न अनिवार्य है । परम्परागत सामाजिक विरासत में बहुत से ऐसे तत्व मिल सकते है जो आधुनिक औद्योगिक समाजों के सांस्कृतिक तत्वों से मिलते-जुलते हैं ।

किसी भी देश के सांस्कृतिक विकास के लिए यह आवश्यक होता है कि पुरानी स्थितियों से निरन्तरता बनाई रखी जाए । भूत के आधार पर ही भविष्य का विकास किया जा सकता है । फिर हजारों सालों के व्यावहारिक अनुभवों से जो सामाजिक संस्थाएँ मानव-जीवन में मूल्यवान पाई गई हैं उनको औद्योगिक क्रान्ति से पूरी तरह छोड़ देने की आवश्यकता नहीं है, केवल नई परिस्थितियों के अनुसार उनका रूप बदलना आवश्यक है ।

यह बात इसलिए भी सत्य है क्योंकि परम्परा और आधुनिकता सापेक्ष तत्व है । समकालीन समाजों में किसी भी समाज को पूरी तरह परम्परावादी और दूसरे समाज को पूर्णतया आधुनिक नहीं कहा जा सकता । कोई भी समाज दूसरे समाज की तुलना में परम्परावादी या आधुनिक हो सकता है ।

अमरीका की तुलना में भारतीय समाज अधिक परम्परावादी है जबकि भारतीय समाज की तुलना में अमरीकी समाज अधिक आधुनिक है । यह नहीं कहा जा सकता कि निरपेक्ष रूप से भारतीय समाज परम्परावादी और अमरीकी समाज आधुनिक है ।

प्रोफेसर शिल्प ने लिखा है- “यह दिखलाने से कोई भी अच्छा प्रयोजन पूरा नहीं होता मानो कि परम्परागत समाज और आधुनिक समाज में कोई अनुल्लंघनीय खाई है अथवा दूसरे का आधुनिक रूप जनसमाज में । परम्परागत समाज किसी भी प्रकार से पूरी तरह परम्परागत नहीं है, आधुनिक समाज किसी भी प्रकार से परम्परा से मुक्त नहीं है ।”

परम्परा सामाजिक विरासत है यह हो सकता है कि किसी समाज की परम्पराएँ कुछ सौ वर्ष की और दूसरे समाज की परम्पराएँ हजारों साल पुरानी हों किन्तु कोई भी समाज परम्परा के नितान्त अभाव में नहीं चल सकता ।

इसी प्रकार कहीं पर परम्पराओं का परिवर्तन तीव्र गति से और कहीं मन्द गति से होता है किन्तु मानव-समाज संसार में सब-कहीं गतिशील है और परम्पराओं में परिवर्तन होता ही रहता है । दूसरे शब्दों में, परम्परा से आधुनिकता की ओर परिवर्तन सामाजिक परिवर्तन का स्वाभाविक रूप है, कभी यह तीव्र गति से होता है और कभी मन्द गति से, कहीं यह कम मालूम पड़ता है और कहीं ज्यादा ।

आधुनिक काल में औद्योगिक क्रान्ति के कारण परम्परा से आधुनिकता की ओर विकास तेजी से बढ़ रहा है और समकालीन सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और अन्तर्राष्ट्रीय परिस्थितियों के कारण आधुनिकता की ओर यह विकास अनिवार्य हो गया है । परम्परा का महत्व यह है कि वह हमें जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में कार्य करने के अनुभव-सिद्ध प्रतिमान देती है ।

उदाहरण के लिए विवाह के अवसर पर परम्परा के अनुसार विवाह संस्कार सम्पन्न किया जाता है और प्रत्येक व्यक्ति को नए सिरे से यह विचार नहीं करना पड़ता कि स्त्री-पुरुष में विवाह-सम्बन्ध स्थापित करने के लिए क्या संस्कार किए जाने चाहिए । भिन्न-भिन्न समाजों में अपनी-अपनी परम्पराओं के अनुसार विवाह संस्कार किए जाते हैं ।

युग की मांगों के साथ-साथ ये परम्पराएँ बदलती है किन्तु फिर बदलती हुई परम्पराओं से काम लिया जाता है । आप एक नई परम्परा छोड़कर दूसरी परम्परा ग्रहण कर सकते हैं या पुरानी परम्परा के स्थान पर नई परम्परा स्थापित कर सकते है किन्तु परम्परा के अभाव में सामाजिक जीवन नहीं चल सकता । यह परम्परा का कार्यात्मक महत्व है ।


Essay # 4. परम्परागत सांस्कृतिक प्रतिमान:

परम्परा के पीछे दिए गए अर्थ के अनुसार भारतीय परम्परागत सांस्कृतिक प्रतिमान का निम्नलिखित पहलुओं में वर्णन किया जा सकता है:

(i) सामाजिक व्यवस्था:

भारतीय सामाजिक व्यवस्था के मुख्य लक्षण जाति-व्यवस्था, संयुक्त परिवार ग्रामीण पंचायतें तथा ग्रामीण जनतन्त्रीय संस्थाएँ हैं परम्परागत सामाजिक व्यवस्था में सामाजिक सम्बन्धों स्थितियों और कार्यों को निर्धारित करने के लिए अत्यन्त प्रभावशाली संरचना बनाई गई थी ।

इससे भारतवर्ष में एक स्थायी सामाजिक संगठन की स्थापना हुई । सामाजिक व्यवस्था के मौलिक मूल्यों के अनुरूप ही समाज में मान्यताओं और पुरस्कारों की व्यवस्था बनाई गई । गाँव में जाति-पंचायतों से लेकर राज्य के स्तर तक केन्द्रीकरण और विकन्द्रीकरण में सन्तुलन कायम किया गया ।

जाति-व्यवस्था भारतीय परम्परागत सामाजिक स्तरीकरण का आधार है । जाति से हिन्दू मूल्य-व्यवस्था के अनुरूप व्यक्तियों को सामाजिक स्थिति प्रदान की जाती है । जाति से व्यवसाय निश्चित होते है जिससे जाति पर आधारित सामाजिक संरचना और भी स्थायी बन जाती है । भारतीय ग्रामों में विभिन्न जातियों के व्यक्तियों के परस्पर सम्बन्ध जजमानी व्यवस्था से निर्धारित होते है ।

जजमानी व्यवस्था से समाज के विभिन्न अंगों में परम्परा के अनुसार श्रम-विभाजन होता है । जजमानी व्यवस्था से सामाजिक स्थिति निर्धारित होती है और विभिन्न व्यवसायों में लगे व्यक्तियों के परस्पर सम्बन्ध निर्धारित होते हैं जाति-व्यवस्था ने परम्परागत सामाजिक स्तरीकरण को वर्ग-संघर्ष से बचाए रखा भारतवर्ष में सामाजिक और राजनीतिक संघर्ष अधिकतर समाज में उच्च स्तर के लोगों में ही होते रहे, उन्होंने सामान्य जन समाज को प्रभावित नहीं किया, यहाँ तक कि एक साम्राज्य के बाद दूसरा साम्राज्य स्थापित होते रहने पर भी भारत के ग्रामीण समाजों पर उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा ।

पश्चिमी समाजों में आर्थिक और सामाजिक स्तरीकरण के सिद्धान्त अलग-अलग होते हैं जिससे वर्ग-संघर्ष बढ़ता है और स्तरीकरण स्थायी नमनीय तथा गतिशील बन जाता है भारतवर्ष में जाति-व्यवस्था के रूप में आर्थिक और सामाजिक स्तरीकरण के आधार में तादात्मय बना रहा ।

(ii) यन्त्र और गृह उद्योग अर्थव्यवस्था:

भारतीय परम्परागत आर्थिक व्यवस्था यन्त्रों और गृह उद्योगों पर आधारित है । उसमें मुद्रा का बहुत कम महत्व है; अधिकतर विनिमय वस्तुओं की अदला-बदली के रूप में होता है । उसमें बड़े पैमाने पर उद्योग नहीं होते इसलिए आर्थिक कारणों से व्यापक सामाजिक परिवर्तन नहीं होते ।

आधुनिकीकरण आधुनिक औद्योगीकरण का परिणाम है परम्परागत भारतीय अर्थव्यवस्था में औद्योगीकरण न होने के कारण उससे आधुनिकता को प्रोत्साहन नहीं मिलता ज्यों-ज्यों यह परम्परागत आर्थिक व्यवस्था औद्योगिक अर्थ-व्यवस्था में बदलती जाएगी त्यों-त्यों भारतवर्ष में परम्परा से आधुनिकता की ओर विकास होगा ।

औद्योगिक समाज-व्यवस्था परम्परागत समाज-व्यवस्था से बिल्कुल भिन्न होती है । उसमें विज्ञान और प्रौद्योगिकी की तेजी से प्रगति होती है जिससे विचारों सम्बन्धों और सामाजिक संस्थाओं पर प्रभाव पड़ता है । उसमें मनुष्य के विचार और गतियाँ अपने से नहीं बल्कि दूसरों से निर्धारित होती है ।

जनसमाज औद्योगिक अर्थव्यवस्था का ही परिणाम है । केवल आर्थिक दृष्टि से ही नहीं बल्कि नैतिक, संगठनात्मक तथा अन्य दृष्टि से भी औद्योगिक समाज परम्परागत समाज से भिन्न होता है । समकालीन भारतीय समाज में एक ओर परम्परा और दूसरी ओर आधुनिकता में संघर्ष परम्परागत अर्थव्यवस्था के स्थान पर औद्योगिक अर्थ-व्यवस्था की स्थापना के रूप में दिखलाई पड़ता है ।

औद्योगिक अर्थव्यवस्था के साथ-साथ राष्ट्रवाद, लौकिकवाद, ऊर्ध्वोन्मुख सामाजिक गतिशीलता, व्यापक शिक्षा और प्राविधिक प्रशिक्षण और अनुसन्धान में प्रगति दिखलाई पड़ती है । वर्ग-संघर्ष उसका अनिवार्य परिणाम है । वह व्यक्तिवाद की ओर ले जाती है । उसमें सामाजिक संस्थाओं में व्यक्तिगत सम्बन्ध होते हैं और सामाजिक नियन्त्रण कम हो जाता है ।

औद्योगिक समाज में व्यक्तिवाद परम्परा अथवा अन्तर्रात्मा से निर्देशित न होकर अन्य लोगों के व्यवहार से निर्देशित होता है । उसमें व्यक्ति-सामाजीकरण और व्यक्तित्व निर्माण की प्रक्रियाएँ परम्परागत समाज से भिन्न होती हैं ।

परम्परागत और औद्योगिक समाज का यह अन्तर केवल प्राचीन भारतीय और आधुनिक अमरीकन समाज की तुलना में भी नहीं बल्कि प्राचीन भारतीय और आधुनिक भारतीय समाज की तुलना में देखा जा सकता है क्योंकि प्राचीन भारतीय समाज की तुलना में आधुनिक भारतीय समाज तेजी से आधुनिकता की ओर बढ़ रहा है ।

वर्तमान भारतीय संस्कृति नमनीय समन्वयवादी है  । यह समन्वयवाद औद्योगिक परिवर्तन के लिए अनुकूल परिस्थिति है । परम्परागत संस्कृति और औद्योगिक संस्कृति में अनार है किन्तु जिस तरह भारतीय संस्कृति भिन्न-भिन्न संस्कृतियों के सम्पर्क में आकर उनसे समन्वय करती रही और उसका रूप बदलता रहा उसी तरह आधुनिक काल में औद्योगीकरण के प्रभाव से भी उसमें संघर्ष न होकर रूपान्तर की सम्भावना हो सकती है ।

आधुनिक भारतीय संस्कृति संक्रमण काल से गुजर रही है । इस संक्रमण में प्राचीन परम्परावादी और आधुनिक औद्योगिक व्यवस्थाओं और मूल्यों में संघर्ष हो रहा है । इस संघर्ष से नवीन सामाजिक व्यवस्था और नए मूल्यों की स्थापना हो रही है । देश को स्वतन्त्रता मिलने के बाद से इस दिशा में विशेष प्रगति हुई है ।

इस संक्रमण काल में सबसे बड़ी आवश्यकता देश में एक ऐसे बौद्धिक वर्ग के निर्माण करने की है जो कि औद्योगिक और समाजिक परिवर्तन को उपयुक्त प्रतीकों में बाँधकर जनसमाज में फैला सके । यह परिवर्तन भी क्रमशः हो रहा है यद्यपि अभी भी भारतवर्ष में इस प्रकार के बौद्धिक वर्ग की बड़ी कमी है । पंचवर्षीय योजनाओं तथा शिक्षा के प्रसार से और बढ़ते हुए औद्योगीकरण तथा नगरीकरण के कारण ग्रामीण जनता में भी क्रमश: परम्परागत संस्कृति के स्थान पर आधुनिकता की ओर प्रगति देखी जा सकती है ।

(iii) व्यक्ति के कार्य और प्रेरणा के लिए परम्परागत मान्यताओं का महत्व:

भारतवर्ष में परम्परागत संस्कृति में व्यक्तियों के सभी कार्यों और प्रेरणाओं के लिए कुछ मान्यताएँ प्रचलित है । उदाहरण के लिए पुरुषार्थ-विचार भारतीय व्यक्ति को जीवन के परम्परागत लक्ष्य प्रदान करता है । धर्म अर्थ काम और मोक्ष के लक्ष्य को प्राप्त करने की प्रेरणा से व्यक्ति, ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास आश्रमों में भिन्न-भिन्न कार्य करता है ।

धर्मशास्त्रों में नित्य और नैमित्तिक कर्मों की लम्बी सूची दी गई है भिन्न-भिन्न आयु में भिन्न-भिन्न संस्कारों की व्यवस्था की गई है और ये संस्कार न्यूनाधिक रूप से अलग-अलग वर्ग के अनुसार अलग-अलग होते है ।

जहाँ तक व्यक्ति का व्यवहार इस प्रकार की परम्परागत मान्यताओं के आधार पर निर्धारित होता है वहाँ तक उसे परम्परागत कहा जाना चाहिए उदाहरण के लिए यदि किसी परिवार में विद्या आरम्भ करने, विवाह करने इत्यादि प्रत्येक महत्वपूर्ण अवसर पर यह प्रश्न उठता हो कि परम्परा के अनुसार ऐसे अवसर पर क्या किया जाना चाहिए तो वह परिवार परम्परावादी है ।

परम्परावादी व्यक्ति प्रत्येक अवसर पर परम्परा की ओर देखता है; और जैसी परम्परा होती है उसी का अनुगमन करता है । वह परम्परा की आलोचना नहीं करता और न अपने विवेक से सोच-विचार ही करता है । चूंकि किसी भी समाज में परम्पराएँ सबके लिए एक-सी होती हैं इसलिए परम्परा से सामाजिक व्यवहार में समानता देखी जाती है, उससे व्यक्तिवाद को प्रोत्साहन नहीं मिलता ।

सभी लोग उसी तरह व्यवहार करते हैं जैसा दूसरे करते हैं और जैसा कि पहले से होता आया है । उदाहरण के लिए भारतवर्ष में हिन्दुओं में विवाह के अवसर पर बूढ़े-कूड़ियों से बराबर यह पूछा जाता है कि कौन सा संस्कार किस तरह किया जाएगा, किस अवसर पर किस रीति का पालन होना चाहिए ।

वेदी पर लड़की-लड़के के बाई ओर बैठेगी या दाई ओर इत्यादि इस तरह चौक पूरने से लेकर सप्तपदी तक विवाह के सभी विधि-विधान परम्परा के आधार पर पूरे किए जाते हैं, भले ही उनके पीछे कोई बौद्धिक कारण हो या नहीं । दूसरी ओर आधुनिकता से प्रभावित व्यक्ति प्रत्येक अवसर पर अपनी बुद्धि और व्यक्तिगत रुचि, स्वभाव, व्यक्तित्व आदि के अनुसार कार्य करने का प्रयास करता है ।

भारतीय धर्मशास्त्रों में विभिन्न वर्णों, आश्रमों और आयु के नर-नारियों के लिए उनके कार्यों और प्रेरणाओं के विषय में विस्तारपूर्वक विधान किया गया है । क्या उचित है या अनुचित, क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए, परिवार के विभिन्न सदस्यों के अधिकार और कर्तव्य क्या है आदि से लेकर खाने-पीने, सोने-जागने, उठने-बैठने आदि, दिनचर्या के विभिन्न कार्यों तक के विषय में शास्त्रों में विस्तारपूर्वक विधान किया गया है यह परम्परावादी संस्कृति का सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण चिन्ह है ।

(iv) मानव-प्रकृति और व्यक्तित्व की क्रमबद्ध धारणा:

भारतीय संस्कृति के अनुसार वर्ण-व्यवस्था मानव-प्रकृति और व्यक्तित्व के मौलिक अनार पर आधारित है । ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र मनुष्यों में स्वभाव और व्यक्तित्व का अन्तर पाया जाता है । दूसरे शब्दों में, स्वभाव और व्यक्तित्व के अन्तर के आधार पर ही वर्ण-व्यवस्था की स्थापना की गई थी किन्तु स्वभाव और व्यक्तित्व का यह निश्चय किसी वैज्ञानिक विधि से नहीं होता था ।

यह ठीक है कि ऐसे अनेक उदाहरण मिलते हैं जिनमें गुरुकुलों में गुरु विद्यार्थी का वर्ण निश्चित करता था और ऐसा करने में उसकी प्रकृति और व्यक्तित्व का ध्यान रखता था किन्तु इस वर्गीकरण का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं था । यह गुरु के अपने व्यक्तिगत अनुमान पर आधारित था ।

दूसरे शब्दों में, इस वर्गीकरण की तुलना आधुनिक व्यावसायिक निर्देशन की मनोवैज्ञानिक व्यवस्था से नहीं की जा सकती क्योंकि यह व्यवस्था किसी व्यक्ति के अनुभव पर नहीं बल्कि वस्तुगत वैज्ञानिक परीक्षणों पर आधारित होती है । यही कारण था कि वर्ण-व्यवस्था को जाति-व्यवस्था के रूप में रूढ़ बन जाने में अधिक समय नहीं लगा और मानव-प्रकृति तथा व्यक्तित्व का वर्गीकरण व्यक्ति की जन्मजात जाति के आधार पर होने लगा ।

(v) पवित्र मूल्य-व्यवस्था का प्रभाव:

भारतवर्ष में मूल्यों की व्यवस्था व्यावहारिक आधार पर नहीं बल्कि अव्यावहारिक, अनुपयोगितावादी धार्मिक और आध्यात्मिक आधार पर बनी हुई है । पुरुषार्थ-विचार में मूल्यों की व्यवस्था में मोक्ष को सर्वोच्च स्थान दिया गया है । भले ही भारतीय दार्शनिकों ने जीवित रहते हुए मोक्ष प्राप्त करने की सम्भावना को माना है किन्तु मोक्ष का लक्ष्य सब प्रकार से अतिभौतिक लक्ष्य है ।


Essay # 5. परम्परा और आधुनिकता के समन्वय की समस्या:

पश्चिमी देशों में औद्योगीकरण के परिणामस्वरूप आधुनिकता की ओर प्रवृति उत्पन्न हुई । जैसे-जैसे औद्योगीकरण बढ़ता गया वैसे-वैसे आधुनिकता भी बढ़ती गई । भारतीय समाज में गांधी जी जैसे विचारकों ने यह सोचा था कि औद्योगीकरण के बिना ही देश की सामाजिक-आर्थिक समस्याओं को सुलझाया जा सकता है और इसलिए उन्होंने परम्परावाद का समर्थन किया किन्तु स्वतन्त्रता प्राप्त करने के पश्चात् से, भले ही नेतागण गांधी जी के अनुयायी होने का कितना भी दम्भ करते रहे हों देश में औद्योगीकरण तेजी से बढ़ता रहा है ।

अब तो यह स्पष्ट है कि सामाजिक आर्थिक समस्याओं को सुलझाने के लिए यह औद्योगीकरण और भी तेजी से बढ़ाना होगा । किन्तु जब तक हम परम्परा से आधुनिकता की ओर जाने के लिए तैयार नहीं होंगे तब तक औद्योगीकरण की नवीन परिस्थितियों से हमारा समायोजन नहीं हो सकेगा ।

अमरीका में औद्योगीकरण के साथ-साथ आधुनिकता की दिशा में परिवर्तन हुआ । यही भारत में भी होना है, यदि इस बात को समझ लिया जाए तो यह आयोजित रूप में किया जा सकता है जिससे प्राचीन परम्परा के मूल्यवान तत्वों को बनाए रखा जा सकता है और आधुनिक समाज के अनेक दोषों से बचा रहा जा सकता है । किन्तु यदि यह आयोजनपूर्वक न हुआ तो यह साम्यवादी अथवा अन्य उपायों से होगा ।

भारत में औद्योगिक परिवर्तन में भारतीय समाज द्वारा चुनाव, परिवर्तन के प्रति हमारी प्रतिक्रिया और इस प्रक्रिया से ऐतिहासिक-सांस्कृतिक परम्पराओं का योगदान महत्वपूर्ण है । ऐतिहासिक दृष्टि से भारतीय संस्कृति में सदैव विभिन्न संस्कृतियों का समन्वय होता रहा है ।

पाश्चात्य सभ्यता के सम्पर्क में आने पर कुछ परम्परागत विचारकों ने उसकी पूर्ण अवहेलना की, कुछ लोगों ने पूरी तरह पश्चिमीकरण को ग्रहण किया और सबसे अधिक प्रवृति पश्चिमी और भारतीय परम्पराओं के समन्वय की रही । औद्योगीकरण भारतवर्ष में ‘अंग्रेजों’ द्वारा शुरू किया गया और उससे भारत की परम्परागत अर्थव्यवस्था छिन्न-भिन्न हो गई जिसका भारतीय सामाजिक संगठन पर भी प्रभाव पड़ा ।

वास्तव में यह औद्योगीकृत और औद्योगिक संस्कृतियों में मुठभेड़ थी । इससे समाज में परस्पर विरोधी प्रवृतियाँ उत्पन्न हुई । कुछ समय तक गांधीवाद और सर्वोदय का बोलबाला रहा किन्तु अब यह प्रवृति कमजोर पड़ती जा रही है । दूसरी ओर पश्चिमीकरण की दिशा में तेजी से परिवर्तन हो रहा है ।

यह परिवर्तन केवल वेशभूषा और भौतिक पहलुओं में ही नहीं किन्तु विचारों में भी देखा जा सकता है । शुरू-शुरू में उच्च वर्ग के लोगों में स्वदेशी की ओर प्रवृति थी किन्तु अब यह प्रवृत्ति कम होती जा रही है । स्वतन्त्रता के बाद से भारत में विचारवान लोगों का एक समूह वैज्ञानिक और प्रौद्योगिक प्रगति का तीव्र समर्थन करता रहा है ।

इसीलिए देश में पंचवर्षीय योजनाओं के द्वारा नियोजित आधुनिकता उत्पन्न करने का प्रयास किया गया । किंग्सले डेविस के अनुसार किसी भी समाज के आर्थिक आधुनिकीकरण के लिए राष्ट्रवाद, लौकिकीकरण, सामाजिक गतिशीलता शिक्षा और प्रौद्योगिक प्रशिक्षण की आवश्यकता होती है । भारतवर्ष में यह सब तेजी से बढ़ रहा है ।


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