जाति प्रथा पर निबंध | Essay on Caste System: Meaning and Origin in Hindi Language.

Essay # 1. जाति प्रथा का अर्थ (Meaning of Caste System):

वर्ण व्यवस्था का प्रारंभिक आधार कर्म था किन्तु कालान्तर में वर्ण कठोर होकर विभिन्न जातियों में परिणत हो गये तथा जाति का आधार विशुद्ध रूप से जन्म हो गया । वैदिक साहित्य में जाति प्रथा का कोई उल्लेख नहीं मिलता । धर्मसूत्रों में ‘जाति’ शब्द का प्रयोग केवल मिश्रित वर्णों के लिये किया गया है तथा उन्हें प्रायः शूद्र की संज्ञा दी गयी है ।

निरुक्त तथा अष्टाध्यायी में हमें सर्वप्रथम ‘कृष्णजातीय’ और ‘ब्राह्मण जातीय’ शब्दों का प्रयोग मिलता है । यह इस बात का सूचक है कि ईसा पूर्व पांचवीं शती तक समाज में जाति प्रथा प्रतिष्ठित हो गयी थी तथा चारों वर्ण भी कठोर होकर जाति का रूप लेने लगे थे ।

धर्मसूत्रों के समय से हमें ‘जातिधर्म’ का उल्लेख प्राप्त होने लगता है । यूनानी लेखकों के विवरण तथा जातक साहित्य से पता चलता है कि सामान्यतः प्रत्येक जाति के लोग अपने ही पेशे का अनुसरण करते थे । जाति शब्द ‘जन्’ से बना है जिसका अर्थ होता है जन्म लेना ।

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इस प्रकार यह स्पष्ट है कि जाति वर्ण से पृथक् संस्था है । वर्ण मात्र चार है, जबकि जातियाँ अनेक हैं । वर्ण परिवर्तन सरल किन्तु जाति परिवर्तन कठिन था । विभिन्न जातियों के बीच पारस्परिक वैवाहिक सम्बंध एवं खानपान पर भी प्रतिबन्ध था ।

वर्ण व्यवस्था में इस प्रकार का कोई प्रतिबन्ध नहीं था । अत: वर्ण तथा जाति को एक मानना भूल होगी । इसी प्रकार जाति तथा वर्ग में भी बहुत अन्तर है । वर्ग का निर्माण भिन्न-भिन्न व्यवसायों के आधार पर समाज में मनुष्यों के गठित होने पर होता है ।

इसका जन्म अथवा अन्तर्जाताय विवाह से कोई सम्बन्ध नहीं है । विभिन्न वर्गों के बीच खान-पान तथा विवाह पर कोई प्रतिबन्ध नहीं होता । जातियों के व्यवसाय प्रायः सुनिश्चित होते हैं किन्तु वर्ग के व्यवसाय परिवर्तनशील हैं । किसी निम्न वर्ग का व्यक्ति अपनी योग्यता एवं कार्यकुशलता बढ़ाकर उच्चवर्ग में स्थान ले सकता है, जबकि जाति में यह कदापि संभव नहीं है । इस प्रकार वर्ग-विभाजन का मुख्य आधार व्यवसाय ही है ।

जाति प्रथा की उत्पत्ति के लिये विभिन्न विद्वानों ने भिन्न-भिन्न मत दिये हैं । इसका एक परम्परागत अथवा दैवी सिद्धान्त भी है जो इसे दैवी-संस्था के रूप में मान्यता देता है तथा परम पुरुष (ब्रह्मा) से उत्पन्न बताता है ।

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इसका विवेचन वर्ण व्यवस्था की उत्पत्ति के संदर्भ में किया जा चुका है । किन्तु आधुनिक समाजशास्त्रियों को यह मत तर्कसंगत नहीं लगता तथा उन्होंने इस संस्था की उत्पत्ति के लिये कुछ अन्य कारणों को उत्तरदायी बताया है ।

Essay # 2. जाति प्रथा की उत्पत्ति (Origin of Caste System):

i. प्रजातीय उत्पत्ति का सिद्धान्त:

प्रजाति से तात्पर्य ऐसे मनुष्यों के समूह से है जिन्हें प्राणी-विज्ञान के कुछ सामान्य शारीरिक लक्षणों के आधार पर दूसरों से अलग किया जा सकता है । ये समूह भिन्न-भिन्न स्थानों में बिखरे होने पर भी एक ही प्रजाति का निर्माण करते हैं ।

सर्वप्रथम रिजले ने यह मत प्रतिपादित किया कि जाति प्रथा की उत्पत्ति प्रजातीय विभेदों के कारण हुई । भारोपीय (इन्डो-आर्यन्) जब भारत में आये तो उन्होंने यहाँ के मूल निवासियों को पराजित कर उन पर अपना अधिकार कर लिया ।

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उनकी शारीरिक विशेषतायें उन्हें यहाँ के निवासियों से अलग करती थीं । उन्होंने अपने को श्रेष्ठ माना तथा अपने रक्त पर गर्व किया । पराजित जातियों की कन्याओं के साथ उनके विवाह हुए जिससे पंजाब क्षेत्र में कई जातियाँ उत्पन्न हो गयीं ।

इस प्रकार से उत्पन्न जातियाँ आर्य समाज में स्वीकृत नहीं की गयीं जिसके कारण वे अलग रह गयीं । कालान्तर में उनकी संख्या बढ़ गयी । धुर्ये ने भी इस मत का समर्थन करते हुए बताया है कि आर्य समाज में अन्तर्वर्ण विवाह की जो प्रथा प्रचलित थी उसका प्रचार यहाँ की पराजित जातियों में उन्होंने किया ।

इससे समाज में कई जातियाँ उत्पन्न हो गयीं । इस प्रथा का प्रचार सर्वप्रथम गंगा के मैदानों में हुआ तथा बाद में यह अन्य भागों में फैल गयी । एन. के. दत्त, एच. राव आदि विद्वानों ने भी इस सिद्धान्त का समर्थन किया है ।

किन्तु उपर्युक्त सिद्धान्त जाति प्रथा की उत्पत्ति की पूर्ण व्याख्या नहीं कर पाता । प्रजातीय विभेदों का क्रम केवल भारत तक हो सीमित नहीं था । विश्व के कुछ अन्य देशों, जैसे दक्षिणी अफ्रीका, अमेरिका आदि में भी प्रजातीय विभेद मिलते हैं किन्तु वहाँ जाति जैसी कठोर संस्था की उत्पत्ति नहीं हो सकी ।

भारत में आने वाली ईसाई तथा मुस्लिम जातियों में भी प्रजातीय विभेद विद्यमान थे, किन्तु उनकी विभिन्न जातियों नहीं बन पाई । इस प्रकार मात्र प्रजातीय आधार पर ही जाति प्रथा की उत्पत्ति ढूँढ़ना तर्कसंगत नहीं लगता है ।

ii. व्यावसायिक उत्पत्ति का सिद्धान्त:

इसका प्रतिपादन नेसफील्ड ने किया है । उनके अनुसार इस प्रथा की उत्पत्ति के लिये व्यवसायगत कारण ही मुख्य रूप से उत्तरदायी रहे । एक व्यवसाय करने वाले समान वर्ण में गठित हो गये । व्यवसायिक उच्चता तथा निम्नता ही जाति की उच्चता एवं निम्नता का आधार बनी । इस प्रकार समाज में विभिन्न जातियों की स्थिति का निर्धारण हुआ ।

ऊंच-नीच की भावना ने ही समाज में जातिगत भेद-भाव को जन्म दिया । नेसफील्ड के इस मत का समर्थन जर्मन विद्वान् दहलमन्न ने भी किया है तथा बताया है कि प्रारम्भ में जो वर्ग थे वे व्यावसायिक आधार पर श्रेणियों में बदल गये । श्रेणियाण वाद में कठोर होकर जातियों में बदल गयीं ।

इनकी अपनी अलग-अलग परम्परायें हो गयी तथा अन्तर्जातीय विवाह एवं परस्पर खान-पान पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया । नि:सदेह व्यावसायिक आधार पर जाति प्रथा की उत्पत्ति बताने का मत कुछ सीमा तक तर्कसंगत है क्योंकि प्राचीन भारतीय समाज में बहुत-सी जातियाँ व्यावसायिक ही थीं । किन्तु एकमात्र व्यवसाय को ही जाति प्रथा की उत्पत्ति के लिये उत्तरदायी मानना समीचीन नहीं होगा ।

हमें ज्ञात है कि मिस्र, मध्य यूरोप आदि में भी व्यावसायिक आधार पर वर्गों का गठन हुआ किन्तु कहीं भी जाति जैसी कठोर संस्था का जन्म नहीं हुआ । यह मत भारतीय परम्परा की पूर्ण उपेक्षा करता है । समान व्यवसाय करने वाले लोगों में भी ऊँच-नीच की भावना मिलती है । अत: इस सिद्धान्त द्वारा जाति प्रथा की उत्पत्ति पूर्णतया विवेचित नहीं हो पाती ।

iii. ब्राह्मण उत्पत्ति का सिद्धान्त:

डुंबायसन, धुर्ये, इवेट्‌सन आदि विद्वान हिंदू जाति संस्था की संरचना के पीछे ब्राह्मणों की चाल देखते हैं । उनके अनुसार ब्राह्मणों ने समाज में अपनी श्रेष्ठता एवं उच्चता कायम रखने के उद्देश्य से ही इस प्रथा की रचना की थी । अपनी बुद्धि द्वारा उन्होंने विभिन्न वर्गों के व्यवसाय सुनिश्चित किये तथा उन्हें शास्त्रीय मान्यता प्रदान कर दिया ।

इससे उनके द्वारा बनाये गये नियमों का पालन करना सबके लिये अनिवार्य हो गया । घुर्ये के अनुसार- ‘जाति व्यवस्था इण्डो-आर्यन् संस्कृति के ब्राह्मणों का शिशु है जो गंगा-यमुना के मैदानों में विकसित हुआ तथा यहाँ से देश के अन्य भागों में पहुंचाया गया ।’

इस प्रकार यह पूरी योजना ब्राह्मणों के मस्तिष्क की उपज थी जिसमें बड़ी चालाकी से उन्होंने अपनी स्थिति विशिष्ट बना लिया । शूद्रों को इस व्यवस्था में सबसे निम्न स्तर पर रखा गया । किन्तु जाति प्रथा एक प्राचीन संस्था है । इसे मात्र ब्राह्मणों की चाल का परिणाम नहीं कहा जा सकता ।

iv. धार्मिक उत्पत्ति का सिद्धान्त:

होकार्ट, सेनार्ट आदि विद्वान् जाति प्रथा की उत्पत्ति के पीछे धर्म एवं धार्मिक क्रियाओं को ही मुख्य प्रेरक तत्व बताते हैं । इस मत के अनुसार जाति प्रथा देवताओं को बलि चढ़ाने का संगठन मात्र है । प्राचीन हिन्दू समाज में देवताओं को प्रसन्न करने के लिये बलि दी जाती थी । पशुओं तथा मनुष्यों तक की वलि का विधान था ।

इस कर्मकाण्ड के निमित्त विभिन्न वर्गों की आवश्यकता पड़ती थी । ब्राह्मण तथा अन्य उच्चवर्गों के लोग पशुओं की हत्या का कार्य स्वयं नहीं कर सकते थे । इस कार्य के लिये निम्न वर्ग को नियुक्त किया जाता था । हवन सामग्री लाने तथा एकत्रित करने वालों का भी अलग वर्ग था ।

इसी प्रकार के कुछ अन्य वर्ग भी थे जो बलि के कार्य में मदद देते थे । बाद में इन सभी की अलग-अलग जातियाँ वन गयीं । हिन्दू समाज के विभिन्न वर्गों में व्यवसायों का जो विभाजन हुआ, वह भी धार्मिक आधार पर किया गया । समान धार्मिक कार्यों को करने वालों के समान व्यवसाय हो गये ।

कालान्तर में विभिन्न वर्गों में रूढ़ता आई तथा उनकी अनेक जातियाँ बन गयीं । इस प्रकार धर्म ही जातियों की उत्पत्ति में मुख्य कारक रहा । किन्तु जाति प्रथा एक सामाजिक संगठन है । अत: केवल धर्म के आधार पर ही इसकी उत्पत्ति की व्याख्या करना उचित नहीं प्रतीत होता है ।

v. प्रागैतिहासिक उत्पत्ति का सिद्धान्त:

इस सिद्धान्त का प्रतिपादन हट्टन ने किया है । उनके अनुसार आर्यों के आगमन के पूर्व भारतीय आदिम जातियों में कुछ ऐसी परम्परायें, विश्वास एवं निषेध विद्यमान थे जिनसे जाति प्रथा का जन्म हुआ । इन प्रथाओं एवं विश्वासों के आधार पर वे विभिन्न समूहों में बँटी हुई थीं ।

वे ‘माना’ नामक एक आधिभौतिक शक्ति में विश्वास रखती थीं । यह मान्यता थी कि यह शक्ति प्रत्येक तत्व में विद्यमान है तथा अच्छे और बुरे दोनों प्रकार के फल देती है । इस शक्ति के भय से समान स्थान पर रहने वाले लोग अपरिचितों के साथ सम्बन्ध करने में डरते थे ।

एक गाँव के लोग दूसरे गाँव के लोगों के साथ सम्बन्ध स्थापित करने पर भी नियंत्रण एवं निषेध रखते थे । आज भी असम की नागा जातियों में हम इस प्रकार की प्रथा पाते हैं । एक गाँव के पहाड़ी लोग प्रायः एक ही व्यवसाय अपनाते थे ।

‘माना’ में विश्वास के कारण ही आपसी खान-पान एवं अन्य सामाजिक सम्बन्धों के ऊपर नियंत्रण स्थापित हुआ । क्रमशः इनका विकास हुआ तथा ये तत्व ही वाद में जाति प्रथा को जन्म देने में सहायक सिद्ध हुए । आर्यों ने इस प्रकार के विभाजन को सुदृढ़ आधार प्रदान कर दिया ।

किन्तु हट्टन का उपर्युक्त मत एकांगी है । हमें पता है कि इस प्रकार की प्रथायें एवं निषेध विश्व के दूसरे भागों में भी पाये जाते हैं किन्तु कहीं भी भारत जैसी जाति प्रथा का जन्म नहीं हो पाया । अफ्रीका निवासियों में भी इसी प्रकार के निषेध मिलते हैं । अत: आदिम परम्पराओं को जाति प्रथा की उत्पत्ति में एक कारण तो माना जा सकता है, किन्तु इसे ही प्रधान कारण मानना तर्कसंगत नहीं लगता ।

vi. भौगोलिक उत्पत्ति का सिद्धान्त:

गिल्बर्ट आदि विद्वान जाति प्रथा की उत्पत्ति के लिये भौगोलिक तत्वों को उत्तरदायी मानते हैं । प्राचीन साहित्य से पता चलता है कि एक ही भौगोलिक परिवेश में रहने वाले लोग एक ही प्रकार का व्यवसाय करते थे ।

वाद में विभिन्न स्थानों के निवासियों की भिन्न-भिन्न जातियाँ बन गयीं । बंगाल के निवासी गौड़ कहे गये, दक्षिण के दाक्षिणात्य । त्रिवर गाँव के लोग तिवारी कहलाये । इसी प्रकार भौगोलिक आधार पर कुछ जातियों की उत्पत्ति हो गयी ।

जाति प्रथा की उत्पत्ति सम्बन्धी समस्त मतों को देखने के बाद हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि इस जटिल संस्था की उत्पत्ति के लिये किसी कारण-विशेष को उत्तरदायी मानना उचित नहीं होगा । वस्तुतः जाति प्रथा की उत्पत्ति विभिन्न कारणों के संघात से हुई । हट्टन ने ठीक लिखा है कि ‘भारत की जाति-प्रथा विभिन्न सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, धार्मिक एवं भौगोलिक तत्वों के पारस्परिक प्रभावों का स्वाभाविक परिणाम है जो अन्यत्र कहीं भी एक साथ नहीं मिलते हैं ।

Essay # 3. जाति प्रथा की विशेषतायें (Characteristics of Caste System):

एन. के. दत्त ने भारतीय जाति प्रथा की कुछ प्रमुख विशेषताओं अथवा लक्षणों का उल्लेख किया है ।

जो संक्षेप में इस प्रकार हैं:

(1) विभिन्न जातियों के व्यक्ति अपनी जाति के अतिरिक्त किसी अन्य जाति में विवाह नहीं कर सकते ।

(2) एक जाति का व्यक्ति दूसरी जाति में खान-पान पर प्रतिबन्ध रखता है ।

(3) अधिकांशतः विभिन्न जातियां सुनिश्चित व्यवसाय का अनुसरण करती है ।

(4) जातियों में ऊँच-नीच की भावना रहती है जिसमें ब्राह्मणों का सर्वोच्च स्थान रहता है ।

(5) मनुष्य की जाति उसके जन्म से निर्धारित होती है, जब तक कि वह जाति के नियमों के उल्लंघन के लिये इससे बहिष्कृत न कर दिया जाये ।

(6) एक जाति से दूसरी जाति में संक्रमण सम्भव नहीं होता है ।

(7) ब्राह्मण जाति की प्रतिष्ठा सम्पूर्ण संगठन का आधार स्तम्भ होती है ।

दास प्रथा:

भारत में दास-प्रथा की प्राचीनता त्रग्वैदिक काल तक जाती है । ऋग्वेद में ‘दास’, दस्यु तथा असुरों का उल्लेख आर्यों से भिन्न वर्ण के रूप में किया गया है । सुनीत कुमार चटर्जी ने भाषा-विज्ञान के आधार पर यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि ऋग्वेद में जिन दास-दस्युओं का उल्लेख किया गया है वे द्रविड़ भाषा-भाषी लोग थे तथा उन्हें ही सैन्धव सभ्यता का निर्माता स्वीकार किया है । किन्तु इस विषय में हम निश्चित रूप से कुछ भी नहीं कह सकते हैं ।

ऋग्वेद में दासों की निम्नलिखित विशेषतायें बताई गयी हैं:

(i) अकर्मन् – वे वैदिक क्रियाओं का सम्पादन नहीं करते थे ।

(ii) अदेवयु: – वे वैदिक देवताओं की उपासना नहीं करते थे ।

(iii) अयज्वन् – वे यज्ञ करने वाले नहीं थे ।

(iv) अब्रह्मन् – वे श्रद्धा तथा धार्मिक विश्वासों से हीन थे ।

(v) अन्यव्रत – वे वैदिकेत्तर व्रतों का अनुसरण करने वाले थे ।

(vi) मृद्धवाक् – वे अपरिचित भाषा बोलते थे ।

(vii) शिश्नदेवा – वे लिंग पूजा करते थे ।

स्पष्टतः ये अनार्यों की ही विशेषतायें हैं । आर्यों को भारत में अपना अधिकार जमाने के इनसे कड़ा संघर्ष करना पड़ा । ऋग्वेद से पता चलता है कि वे चौड़े तथा पाषाण निर्मित पुरों में रहते थे । इन पुरों को देवता इन्द्र ने विनष्ट कर दिया जिसके कारण वे ‘पुरन्दर’ नाम से विख्यात हो गये । एक स्थान पर कहा गया है कि इन्द्र ने दास वर्ण को गुहा के नीचे ढकेल दिया (यो दासवर्ण अधर गुहाक:) । इस प्रकार अनार्य पराजित हुये तथा उन्हें दास बना लिया गया ।

उत्तर वैदिक साहित्य में भी हमें दासों के विषय में जानकारी मिलती है । तैत्तिरीय संहिता से पता चलता है कि दास-दासियों को उपहार में दिये जाने की प्रथा थी । ऐतरेय ब्राह्मण एक ऐसे राजा का उल्लेख करता है जिसने अपने अभिषेक के समय दस हजार दासियों का उपहार पुरोहित को दिया था ।

उपनिषद् साहित्य में भी दास-दासियों से सम्बन्धित कई उल्लेख प्राप्त होते हैं । इनसे पता चलता है कि दास रखना सामाजिक कुलीनता का प्रतीक समझा जाता था । राजाओं, महाराजाओं तथा कुलीन वर्ग के लोगों के यहाँ दास-दासियों सेवा कार्य किया करती थीं । मौर्य युगीन समाज में हमें दास-प्रथा के प्रचलन के प्रमाण मिलते हैं ।

अर्थशास्त्र पाँच प्रकार के दासों का उल्लेख करता है:

(1) उदरदास (अपना पेट पालने के लिये दास बनने वाले) ।

(2) आत्मविक्रयी (किसी विशेष परिस्थिति में अपने को बेचकर दासता ग्रहण करने वाले) ।

(3) आत्माधाता (अपने आपको दास के रूप में धनी व्यक्ति के पास बन्धक रखने वाले) ।

(4) दण्डप्रणीतदाम (राज्य द्वारा लगाये गये आर्थिक दण्ड को न चुका सकने के कारण बनाये गये दास) ।

(5) ध्वजाह्रत (युद्ध में बन्दी बनाये गये दास) ।

अशोक के लेखों में भी दासों का उल्लेख मिलता है । इसके विपरीत मौर्ययुग का यवन राजदूत मेगस्थनीज तत्कालीन समाज में दास प्रथा प्रचलित होने का कोई उल्लेख नहीं करता । उनके अनुसार- ‘समस्त भारतवासी स्वतंत्र हैं । उनमें कोई भी दास नहीं है । भारतीय विदेशियों तक को दास नहीं बनाते, अपने देशवासियों की तो बात ही क्या है ।’ परन्तु इस विवरण के बावजूद अर्थशास्त्र के प्रमाण के आधार पर यह कहा जा सकता है कि भारत में दास-प्रथा विद्यमान थी ।

किन्तु यहाँ दासों की स्थिति प्राचीन रोम तथा यूनान के दासों की अपेक्षा बहुत अच्छी थी । उनके प्रति मानवीय आचरण किये जाते थे । अशोक अपने लेखों में दासों तथा सेवकों के प्रति उचित व्यवहार किये जाने का आदेश देता है । लगता है, इसी कारण यूनानी लेखकों को यहाँ दास प्रथा दिखाई नहीं दी ।

मनुस्मृति में सात प्रकार के दासों का उल्लेख किया गया है:

(i) ध्वजाह्रत (युद्ध में बन्दी बनाया गया) ।

(ii) भक्तदास (भोजन पाने की लालच से बना हुआ दास) ।

(iii) गृहज (घर में उत्पन्न दासी-पुत्र) ।

(iv) क्रीत (खरीदा गया दास) ।

(v) दत्त्रिम (किसी के द्वारा उपहार में दिया गया) ।

(vi) पौत्रिक (पितृपरम्परा से चला आता हुआ) ।

(vii) दण्ड दास (ऋणादि न चुका सकने के कारण दण्ड स्वरूप बनाया गया दास) ।

नारद तथा कात्यायन स्मृतियों में दासों के कुछ अन्य प्रकारों का भी उल्लेख प्राप्त होता है ।

विज्ञानेश्वर ने मिताक्षरा में पन्द्रह प्रकार के दासों का उल्लेख किया है:

I. गृहजात (घर में उत्पन्न),

II. क्रीत (खरीदा गया),

III. लब्ध (उपहारादि में प्राप्त),

IV. दायादुपगत (उत्तराधिकार में प्राप्त),

V. अनाकाल भृत (अकालवश दास बना हुआ),

VI. आहित (बन्धक रखा गया),

VII. ऋण दास (किसी ऋण चुकाने के उद्देश्य से बना हुआ),

VIII. युद्ध प्राप्त (युद्ध में जीता गया),

IX. पणेजित (जुए में जीता गया),

X. उपागत (अपनी इच्छा से आया हुआ),

XI. प्रव्रज्यावसित (व्रात्य सन्यासी जिसने अपने आपको दास बनने के लिये प्रस्तुत किया हो),

XII. कृत (एक निश्चित समय के लिये अपने को दास बनाने वाला),

XIII. भक्त-दास (स्वामी के प्रति भक्ति के कारण बना हुआ दास),

XIV. बडवह्रत (दासी के प्रेम में फँसकर अपने को दास बनाया हुआ) तथा

XV. आत्म विक्रेता (अपने आपको बेच देने वाला) ।

ईसा की चौथी-पाँचवीं शताब्दियों से दासों के उपर्युक्त पन्द्रह प्रकार समाज में मान्य हो गये । किन्तु हमारे प्राचीन व्यवस्थाकारों ने दास प्रथा की निन्दा की है तथा उससे मुक्ति का विधान भी प्रस्तुत किया है । कौटिल्य तथा मनु दोनों ने इस बात पर बल दिया है कि आर्य दास नहीं बनाये जा सकते, बल्कि इस कार्य के लिये केवल शूद्र वर्ण ही है ।

प्रायः सभी व्यवस्थाकार इस बात से सहमत हैं कि आर्थिक कारणों से दास बने हुये व्यक्ति अपने स्वामी को मूल्य चुका कर दासत्व से मुक्ति प्राप्त कर सकते हैं । जो व्यक्ति धन देने में असमर्थ होते थे उन्हें एक निश्चित अवधि तक सेवा करने के पश्चात् मुक्ति मिल सकती थी ।

ऐसी दशा में उनके द्वारा की गयी सेवा को ही मूल्य माना जाता था । दासों को अपनी पृथक कमाई करने का अधिकार दिया गया है । यह उनकी अपनी सम्पत्ति होती थी । साथ ही वे अपनी पैतृक सम्पत्ति को उत्तराधिकार में प्राप्त कर सकने के भी अधिकारी थे ।

इस धन का उपयोग वे अपनी मुक्ति के लिये कर सकते थे । युद्ध के समय बन्दी बनाये गये दासों को एक निश्चित अवधि तक सेवा कर लेने अथवा बन्दी बनाये जाने के समय उसके ऊपर जो धन खर्च हुआ हो उसका आधा भाग अपने स्वामी को देकर स्वतंत्र हो सकने का अधिकार था ।

जो स्वामी दास से निष्क्रय मूल्य लेकर भी उसे स्वतंत्र नहीं करते थे उनके लिये अर्थशास्त्र में दण्ड की व्यवस्था की गयी है । यह भी व्यवस्था दी गयी है कि यदि स्वामी के सम्पर्क से दासी को पुत्र उत्पन्न हो जाये तो दासी तथा उनके पुत्र दोनों को ही दासता से मुक्ति मिल जायेगी ।

बौद्ध ग्रन्थ दीर्घ निकाय में दासत्व से मुक्ति के तीन उपाय बताये गये हैं:

(1) दास द्वारा सन्यास ग्रहण कर लेने पर,

(2) धन देकर,

(3) स्वामी द्वारा स्वतंत्र कर दिये जाने पर ।

सोणनन्द जातक में कहा गया है कि यदि कोई स्वामी सन्यास ग्रहण कर ले तो उसके सभी दास स्वतंत्र हो जायेंगे । नारद के अनुसार यदि कोई दास अपने स्वामी की किसी भारी विपत्ति से रक्षा करता था तो वह स्वतंत्र होने का अधिकारी था । दास को धन देकर मुक्ति पाने का अधिकार स्मृतिकार याज्ञवल्क्य ने भी दिया है ।

नारद ने कुछ प्रकार के दासों जैसे उपहार में प्राप्त हुए, खरीदे गये, उत्तराधिकार में मिले हुए, स्वयं अपने को बेचने वाले आदि की मुक्ति के लिये उनके स्वामियों की सम्मति को अनिवार्य बताया है । कौटिल्य के अनुसार स्वामी की इच्छा के विरुद्ध उसके घर से भागने बाला दास कभी भी मुक्ति पाने का अधिकारी नहीं होता है ।

यद्यपि प्राचीन व्यवस्थाकारों ने दास प्रथा की यंत्र-तंत्र आलोचना की है तथा उससे मुक्त होने के लिये व्यापक उपायों का निर्देश किया है तथापि यह स्पष्ट है कि समाज में घरेलू दासों को रखने की प्रथा बनी रही । ‘लेखपद्धति’ नामक रचना में दासियों के विविध कर्तव्यों का निरूपण किया गया है ।

इससे पता चलता है कि कभी-कभी स्वामियों के अत्याचार से तंग आकर दासियाँ जहर खाकर अथवा कुयें में कूदकर आत्महत्या कर लेती थीं । दासों के अतिरिक्त कुलीन परिवारों में बहुसंख्यक अन्य सेवक भी रहते थे ।

सामान्य सेवकों तथा दासों के कार्यों में अन्तर यह था कि सेवक केवल शुद्ध कार्य ही करते थे जबकि दासों को झाडू लगाने, मैला साफ करने, स्वामी की व्यक्तिगत सेवा करने जैसे निम्न कार्यों में नियोजित किया जाता था । इस प्रकार विभिन्न प्रमाणों से यह सूचित होता है कि भारत में वैदिक युग से लेकर पूर्वमध्ययुग तक किसी न किसी रूप में दास-प्रथा विद्यमान रही ।

किन्तु यह प्राचीन यूनान तथा रोम जैसी बर्बर नहीं थी । यह कहना उचित नहीं है कि यूनान तथा रोम में जो कार्य दासों (हेलाटों) द्वारा किया जाता था, वही कार्य भारत में शूद्र वर्ग करता था । भारतीय तथा यूनानी-रोमन दासों की जीवन पद्धति परस्पर भिन्न थी ।

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