गौतम बुद्ध पर निबंध: गौतम बुद्ध का प्रारंभिक जीवन, सलाह, शिक्षण और बौद्ध धर्म का उदय। | Read this essay on Gautama Buddha in Hindi. Gautama Buddha’s Early Life, Advice, Teaching and Rise of Buddhism.

गौतम बुद्ध पर निबंध | Essay on Gautama Buddha


Essay Contents:

  1. गौतम बुद्ध का प्रारम्भिक जीवन (Gautama Buddha’s Early Life)
  2. गौतम बुद्ध के उपदेश तथा शिक्षायें (Gautama Buddha’s Advice and Teachings)
  3. बौद्ध धर्म का प्रचार (Promotion of Buddhism)
  4. बौद्ध संगतियों (Buddhist Councils)
  5. बौद्धधर्म के सम्प्रदाय (Buddhist Religions)
  6. बौद्धधर्म का उत्थान और पतन (Rise and Fall of Buddhism)
  7. बौद्धधर्म की देन (Contribution of Buddhism)


Essay # 1. गौतम बुद्ध का प्रारम्भिक जीवन (Gautama Buddha’s Early Life):

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ईसा पूर्व छठीं शताब्दी के नास्तिक सम्प्रदाय के आचार्यों में महात्मा गौतम बुद्ध का नाम सर्वप्रमुख है । उन्होंने जिस धर्म का प्रवर्त्तन किया वह कालान्तर में एक अन्तर्राष्ट्रीय धर्म मन गया । ‘विश्व के ऊपर उनके मरणोत्तर प्रभावी के आधार पर भी उनका मूल्यांकन किया जाये तो वे भारत में जम लेने वाले महानतम व्यक्ति थे ।’

गौतम बुद्ध का जन्म लगभग 563 ईसा पूर्व में कपिलवस्तु के समीप लुम्बिनी वन (आधुनिक रुमिन्देई अथवा रुमिन्देह नामक स्वान) में हुआ था । उनके पिता शुद्धोधन कपिलवस्तु के शाक्यगण के प्रधान थे । उनकी माता का नाम मायादेवी था जो कोलिय गणराज्य की कन्या थी । गौतम के बचपन का नाम सिद्धार्थ था ।

उनके जन्म के कुछ ही दिनों बाद उनकी माता माया का देहान्त हो गया तथा उनका पालन-पोषण विमाता प्रजापति गौतमी ने किया । उनका पालन-पोषण राजसी ऐश्वर्य एवं वैभव के वातावरण में हुआ । उन्हें राजकुमारों के अनुरूप शिक्षा-दीक्षा दी गयी । परन्तु बचपन से ही वे अत्यधिक चिन्तनशील स्वभाव के थे ।

प्रायः एकान्त स्थान में बैठकर वे जीवन-मरण, सुख-दुख आदि समस्याओं के ऊपर गम्भीरतापूर्वक विचार किया करते थे । उन्हें इस प्रकार सांसारिक जीवन से विरक्त होते देखे उनके पिता को गहरी चिन्ता हुई । इन्होंने बालक सिद्धार्थ को सांसारिक विषयभोगों में फँसाने को भरपूर कोशिश की । विलासिता की सामग्रियाँ उन्हें प्रदान की गयीं ।

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इसी उद्देश्य से 16 वर्ष की अल्पायु में ही उनके पिता ने उनका विवाह शाक्यकुल की एक अत्यन्त रूपवती कन्या के साथ कर किया । इस कन्या का नाम उत्तरकालीन बौद्ध अन्यों में यशोधरा, बिम्बा, गोपा, भद्कच्छना आदि दिया गया है । कालान्तर में उसका यशोधरा नाम ही सर्वप्रचलित हुआ । यशोधरा से सिद्धार्थ को एक पुत्र भी उत्पन्न हुआ जिसका नाम ‘राहुल’ पड़ा ।

तीनों ऋतुओं में आराम के लिये अलग-अलग आवास बनवाये गये तथा इस बात की पूरी व्यवस्था की गयी कि वे सांसारिक दुखों के दर्शन न कर सकें । परन्तु सिद्धार्थ सांसारिक विषयभोगों में वास्तविक संतोष नहीं पा सके । विहार के लिये जाते हुए उन्होंने प्रथम बार वृद्ध, द्वितीय बार एक व्याधिग्रस्त मनुष्य, तृतीय बार एक मृतक तथा अन्ततः एक प्रसन्नचित्त संन्यासी को देखा ।

उनका हृदय मानवता को दुख में फँसा हुआ देखकर अत्यधिक खिन्न हो उठा । बुढ़ापा, व्याधि तथा मृत्यु जैसी गम्भीर सांसारिक समस्याओं ने उनके जीवन का मार्ग बदल दिया और इन समस्याओं के ठोस हल के लिये उन्होंने अपनी पत्नी एवं पुत्र को सोते हुए छोड़कर गृह त्याग दिया । उस समय सिद्धार्थ की आयु 29 वर्ष की थी । इस त्याग को वौद्ध ग्रन्थों में ‘महाभिनिष्क्रमण’ की संज्ञा दी गयी है ।

इसके पश्चात् ज्ञान की खोज में वे एक स्थान से दूसरे स्थान पर भ्रमण करने लगे । सर्वप्रथम वैशाली के समीप अलारकालाम नामक संन्यासी के आश्रम में उन्होंने तपस्या की । वह सांख्य दर्शन का आचार्य था तथा अपनी साधना-शक्ति के लिये विख्यात था । परन्तु यहाँ उन्हें शान्ति नहीं मिली ।

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यहीं उन्हें वे रुद्रकरामपुत्त नामक एक दूसरे धर्माचार्य के समीप पहुँचे जो राजगृह के समीप आश्रम थे निवास करता था । यहां भी उनके अशान्त मन को संतोष नहीं मिल सका । खिन्न हो उन्होंने उनका भी साथ छोड़ दिया तथा उरुवेला (बोधगया) नामक स्थान को प्रस्थान किया । यहाँ उनके साथ पाँच बाह्मण संन्यासी भी आये थे । अब उन्होंने अकेले तपस्या करने का निश्चय किया ।

प्रारम्भ में उन्होंने कठोर तपस्या किया जिससे उनका शरीर जर्जर हो गया और कायाक्लेश की निस्सारता का उन्हें भास हुआ । तब उन्होंने एक ऐसी साधना प्रारम्भ की जिसकी पद्धति पहले की अपेक्षा कुछ सरल थी । इस पर उनका अपने साथियों से मतभेद हो गया तथा वे उनका साथ छोड़कर सारनाथ में चले गये ।

सिद्धार्थ अन्न-जल भी ग्रहण करने लगे । छः वर्षों की साधना के पश्चात् 35 वर्ष की आयु ने वैशाख पूर्णिमा की रात को एक पीपल के वृक्ष के नीचे उन्हें ‘ज्ञान’ प्राप्त हुआ । अब उन्होंने दुख तथा उसके कारणों का पता लगा लिया । इस समय से वे ‘बुद्ध’ नाम से विख्यात हुए ।


Essay # 2. गौतम बुद्ध के उपदेश तथा शिक्षायें (Gautama Buddha’s Advice and Teachings):

ज्ञान-प्राप्ति के पश्चात् गौतम बुद्ध ने अपने मत के प्रचार का निश्चय किया । उरुवेला से वे सर्वप्रथम ऋषिपत्तन (सारनाथ) आये । यहाँ उन्होंने पांच ब्राह्यण संन्यासियों को अपना पहला उपदेश दिया । ये संन्यासी कठोर साधना से विरत हो जाने के कारण पहले उनका साथ छोड़ चुके थे ।

इस प्रथम उपदेश को ‘धर्मचक्रप्रवर्त्तन’ (धम्मचक्कापवत्तन) की अता दी जाती है । यह उपदेश दुःख, दुख के कारणों तथा उनके समाधान से सम्बन्धित था । इसे ‘चार आर्य सत्य’ (चतारि आरिय सच्चानि) कहा जाता है ।

‘प्रतीत्यसमुत्पाद’:

संबोधि में गौतम बुद्ध को प्रतीत्यसमुत्पाद के सिद्धान्त का बोध हुआ था । प्रतीत्यसमुत्पाद का अर्थ है ‘संसार की सभी वस्तुएँ किसी न किसी कारण से उत्पन्न हुई हैं और इस प्रकार वे इस पर निर्भर हैं’ । इस कार्य-कारण सिद्धान्त को उन्होंने सम्पूर्ण जगत् पर लागू किया ।

सम्पूर्ण उन्होंने जिन चार आर्य सत्यों का उपदेश दिया वे इस प्रकार है:

(1) दुःख:

संसार में सर्वत्र दुख ही दुख है । जीवन दुखों तथा कष्टों से परिपूर्ण है । जिन्हें हम सुख समझते है वे भी दुखों से भरे हुए है । सदा यह भय बना रहता है कि हमारे आनन्द कहीं समाप्त न हो जायँ । आनन्दों की समाप्ति पर कष्ट होता है । आसक्ति से भी दुख उत्पन्न होते है । संसार में नाना प्रकार के दुख व्याप्त है । जैसे-दरिद्रता, व्याधि, जरा, मृत्यु आदि । अतः कह सकते हैं कि जीवन दुखों से परिपूर्ण है ।

(2) दुःख समुदय:

प्रत्येक वस्तु का कोई न कोई कारण अवश्य होता है । अतः दुख का भी कारण है क्योंकि कोई भी वस्तु बिना किसी कारण के नहीं हो सकती । प्रतीत्यसमुत्पाद के अनुसार विश्लेषण करने पर ज्ञात होता है कि दुख का मूल कारण अविद्या (अज्ञान) है । संसार के समस्त दुखों का सामूहिक नाम है- ‘जरामरण’ । जरा-मरण से लेकर अविद्या तक दुख-समुदय में 12 कड़ियाँ बताई गयी हैं ।

(3) दुःख निरोध:

दुख का अन्त सम्भव है । चूँकि प्रत्येक वस्तु किसी न किसी कारण से उत्पन्न होती है, अतः यदि उस कारण का विनाश हो जाये तो वस्तु का भी विनाश हो जायेगा । कारण समाप्त होने पर कार्य का अस्तित्व भी समाप्त हो जावेगा । अतः यदि दुखों के कारण अविद्या का विनाश कर दिया जाये तो दुःख भी नष्ट हो जावेंगे ।

दुख-निरोध को ही ‘निर्वाण’ कहा जाता है । यही जीवन का चरम लक्ष्य है । इसकी प्राप्ति जीवन-काल में भी सम्भव है । निर्वाण का अर्थ जीवन का विनाश न होकर उसके दुखों का विनाश है । इसकी प्राप्ति से पुर्नजन्म रुक जाता है तथा दुखों का भी अन्त हो जाता है । बुद्ध ने इस अवस्था को वर्णनातीत बताया है ।

(4) दुःख निरोधगामिनी प्रतिपदा:

दुख के मूल अविद्या के विनाश का उपाय अष्टांगिक मार्ग हैं ।

अष्टांगिक मार्ग:

आधुनिक खोजों से यह स्पष्ट हो गया है कि गौतम बुद्ध ने शील, समाधि एवं प्रज्ञा को ही दुख-निरोध का साधन बताया था । प्राचीन बौद्ध ग्रन्थों में इन्हीं का उल्लेख मिलता है । शील का अर्थ सम्यक् आचरण, समाधि का अर्थ सम्यक् ध्यान तथा प्रजा का अर्थ सम्यक् ज्ञान से है । शील तथा समाधि से प्रज्ञा की प्राप्ति होती है जो सांसारिक दुखों से मुक्ति पाने का मूल साधन है ।

कालान्तर में इसके आठ साधन स्वीकार कर लिये गये तथा इसे ‘अष्टांगिक मार्ग’ कहा गया । ये साधन हैं:

(i) सम्यक् दृष्टि – वस्तुओं के वास्तविक स्वरूप का ध्यान करना सम्यक् दृष्टि है ।

(ii) सम्यक् संकल्स – आसक्ति, द्वेष तथा हिंसा से मुक्त विचार रखना सम्यक् संकल्प है ।

(iii) सम्यक् वाक – अप्रिय वचनों के सर्वथा परित्याग को सम्यक् वाक् कहा जाता है ।

(iv) सम्यक् कर्मान्त – पशान, दया, सत्य, अहिंसा आदि सत्कर्मों का अनुसरण ही सम्यक् कर्मान्त है ।

(v) सम्यक् आजीव – सदाचार के नियमों के अनुकूल आजीविका के अनुसरण करने को सम्यक आजीव कहते हैं ।

(vi) सम्यक् व्यायाम – नैतिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक उन्नति के लिये सतत् प्रयत्न करते रहना सम्यक् व्यायाम है ।

(vii) सम्यक् स्मृति – अपने विषय में सभी प्रकार की मिथ्या धारणाओं का त्याग कर सच्ची धारणा रखना ही सम्यक् स्मृति है ।

(viii) सम्यक् समाधि – मन अथवा चित्त की एकाग्रता को सम्यक् समाधि कहते हैं ।

उपर्युक्त अष्टांगिक मार्ग में शील के अन्तर्गत सम्यक कर्मान्त तथा अजीव, समाधि के अन्तर्गत सम्यक् व्यायाम, स्मृत तथा समाधि और प्रज्ञा के अन्तर्गत सम्यक् दृष्टि, संकल्प तथा वाक् को रखा जा सकता है ।

प्रतीत्यसमुत्पाद ही बुद्ध के उपदेशों का सार है तथा बुद्ध की समस्त शिक्षाओं का आरम्भ-स्तम्भ है । यह द्वितीय तथा तृतीय आर्य सत्यों में निहित है जो दुख का कारण तथा उसके निरोध को बताते हैं । दुख संसार है तथा दुख निरोध निर्वाण है । दोनों एक ही सत्ता के पहलू हैं ।

सापेक्षवादी दृष्टि से विचार करने पर प्रतीत्यसमुत्पाद संसार है तथा वास्तविकता की दृष्टि से विचार करने पर यही निर्वाण है । प्रतीत्यसमुत्पाद बताता है कि भौतिक जगत में सब कुछ सापेक्ष्य, परनिर्भर तथा जरामरण के अधीन होने के कारण अनित्य है । संसार की प्रत्येक वस्तु सापेक्ष्य होने के कारण न तो पूर्ण रूप से सत्य है और न ही पूर्ण असत्य है ।

पूर्ण सत्य इसलिये नहीं है कि यह जरामरण के अधीन है और पूर्ण असत्य इसलिये नहीं है कि इसका अस्तित्व दिखाई देता है । इस प्रकार सभी दृश्यमान वस्तुयें वास्तविकता तथा शून्यता के बीच में स्थित हैं । इस प्रकार बुद्ध अपने मत को मध्यम-मार्ग (मध्यमा-प्रतिपद्) कहते हैं । यह दोनों अतिवादी विचारधाराओ- शाश्वतवाद तथा उच्छेदवाद-का निषेध करता है ।

बुद्ध का मध्यम-मार्ग अरस्तु के स्वर्णिम मार्ग के समान है । उन्होंने अतिशय आसक्ति तथा कायाक्लेश दोनों का विरोध किया । अपने प्रथम उपदेश में उन्होंने भिक्षुओं को सम्बोधित करते हुए कहा था- ”संसार में दो अतियां हैं । इनसे धार्मिक व्यक्ति को बचना चाहिये । प्रथम सुख में पूरी तरह लिप्त होना है । यह निम्न, अयोग्य, अपवित्र, अनैतिक, अवास्तविक है । द्वितीय कायाक्लेश का जीवन है । यह भी अन्धकारपूर्ण, अयोग्य तथा मिथ्या है । तथागत ने इन दोनों से परे होकर मध्यम मार्ग की खोज की है जो नेत्र तथा मस्तिष्क को प्रकाशित करता है तथा शान्ति, ज्ञान, सम्बोधि, निर्वाण की ओर ले जाता है ।”

बुद्ध स्वय प्रतीत्य समुत्पाद को अत्यधिक महत्व देते हैं तथा इसका तादात्म्य ‘धम्म’ के साथ स्थापित करते हुये कहते है- ”जो प्रतीत्य समुत्पाद को समझता है वह धम्म को समझता है तथा जो धम्म को समझता है वह प्रतीत्य को समझता है ।” बुद्ध के उपदेश अत्यन्त व्यावहारिक तथा सरल होते थे ।

ब्राह्मण ग्रन्थों द्वारा प्रतिपादित वेदों की अपौरुषेयता एवं आत्मा की अमरता के सिद्धान्त को उन्होंने स्वीकार नहीं किया । किन्तु आत्मा के अस्तित्व को अस्वीकार करने पर भी वे पुनर्जन्म तथा कर्म के सिद्धान्त को मानते थे । उनके अनुसार जीवन विभिन्न अवस्थाओं की सन्तति है जो एक दूसरे पर निर्भर करती है । किसी अवस्था की उत्पत्ति उसकी पूर्ववर्ती अवस्था से होती है । इसी प्रकार वर्तमान अवस्था परवर्ती अवस्था को जन्म देती है ।

इस प्रकार रिजडेविड्स के अनुसार- ‘यह चरित्र है जिसका पुनर्जन्म होता है, किसी आत्मा का नहीं । एक व्यक्ति के मरने पर उसका चरित्र बना रहता है तथा अपनी शक्ति से एक अन्य व्यक्ति को उत्पन्न कर देता है । यह भिन्न आकार का होते हुये भी पूर्णतया उससे प्रभावित रहता है । यह प्रक्रिया तब तक चलती है जब तक कि व्यक्ति की भवतृष्णा पूर्णतया समाप्त नहीं हो जाती ।’

यज्ञीय कर्मकाण्डों तथा पशु वलि जैसी कुप्रथाओं का बुद्ध ने जमकर विरोध किया । वैदिक अनुष्ठानों, कर्मकाण्डों, पशुबलि आदि का भी उन्होंने विरोध किया । वे मानव जाति की समानता के अनन्य पोषक थे । उनका कहना था कि मनुष्य- मनुष्य में भेद जन्म के आधार पर नहीं, अपितु गुण, बुद्धि तथा कर्म के आधार पर होता है ।

अतः, उन्होंने ब्राह्मणों की जन्मना श्रेष्ठता के दावे का खण्डन किया । जाति-पांति, छुआ-छूत जैसा कोई भेद-भाव उनकी दृष्टि में नहीं था और यही कारण था कि उन्होंने अपने संघ का द्वार सभी जाति के लिये खोल दिया था । एक सच्चे समाज सुधारक के रूप में वे अपने समकालीन समाज को जाति तथा धर्म के दोषों से मुक्त करना चाहते थे । बुद्ध जटिल दार्शनिक समस्याओं में कभी नहीं उलझे तथा एक नैतिक दार्शनिक के रूप में उन्होंने मनुष्य के नैतिक तथा सामाजिक गुणों के विकास पर ही बल दिया ।

उनकी धार्मिक दृष्टि बड़ी उदार थी । उनकी दृष्टि में शान तथा नैतिकता दोनों ही महत्वपूर्ण थे किन्तु गान को नैतिकता के ऊपर रखने के लिये वे कदापि प्रस्तुत नहीं थे । ज्ञान की अपेक्षा शील (नैतिकता) को उन्होंने अधिक महत्वपूर्ण बताया क्योंकि यही ज्ञान की प्राप्ति का माध्यम है ।

उन्होंने तत्कालीन समाज में प्रचलित अनेक मान्यताओं तथा अंधविश्वासों जैसे-नदियों के जल की पवित्रता, शकुन, भविष्यवाणियों, स्वप्न-विचार, जादूगरी चमत्कारपूर्ण प्रदर्शनों आदि की निंदा करते हुये उन्हें त्याज्य बताया ।

काया-क्लेश, घोर तपस्या, संसार-त्याग के भी वे पक्ष में नहीं थे, किन्तु अपने कुछ उत्साही अनुयायियों को उन्होंने संसार त्याग कर भिक्षु जीवन व्यतीत करने को प्रोत्साहित किया क्योंकि सांसारिक सुखों को वे निर्वाण प्राप्ति के मार्ग में बाधक समझते थे ।

सामान्य मनुष्यों के लिये बुद्ध ने जिस धर्म का उपदेश दिया वह भिक्षु धर्म से भिन्न था और उसे उपासक धर्म कहा जाता है । दीघनिकाय के सिगालोवाद सुत में इस धर्म का विवरण प्राप्त होता है । बुद्धघोष ने इसे ‘गिहिविननय’ अर्थात् ‘गृहस्थों के लिये आचरण’ की सता प्रदान की है ।

इसमें इस धर्म के प्रमुख लक्षण अहिंसा, प्राणियों पर दया, सत्य, भाषण, माता-पिता की सेवा, गुरुजनों का सम्मान, ब्राह्मणों तथा श्रमणों को दान, मित्रों, परिचितों, सम्बन्धियों आदि के साथ अच्छा बर्ताव करना इत्यादि बताये गये हैं । ये बातें सभी धर्मों में समान रूप से श्रद्धेय मानी जाती हैं ।

बुद्ध के उपदेशों का लक्ष्य मानव जाति को उसके दुःखों से त्राण दिलाना था और इस रूप में उनका नाम मानवता के महान् पुजारियों में सदैव अग्रणी रहेगा । उनके उपदेशों में आद्योपान्त सरलता एवं व्यावहारिकता दिखायी देती है ।


Essay # 3. बौद्ध धर्म का प्रचार (Promotion of Buddhism):

बुद्ध ने अपना प्रथम उपदेश सारनाथ में दिया जहाँ पाँच ब्राह्मण उनके प्रथम शिष्य बने । इसके बाद उन्होंने अपने धर्म का प्रचार प्रारम्भ किया । वर्षा ऋतु में वे विभिन्न नगरों में विश्राम करते तथा शेष ऋतुओं में एक स्थान से दूसरे स्थान में घूम-घूम कर अपने मत का प्रचार करते थे । बौद्ध साहित्य में उनके प्रचार कार्य का बड़ा ही रोचक विवरण प्राप्त होता है ।

सारनाथ से अपने ब्राह्मण अनुयायियों के साथ बुद्ध वाराणसी गये जहाँ यस नामक एक धनी श्रेष्ठिपुत्र को उन्होंने अपना शिष्य बनाया । यहाँ से मगध की राजधानी राजगृह पहुँचे । राजगृह में उन्होंने द्वितीय, तृतीय तथा चतुर्थ वर्षाकाल व्यतीत किया । विम्बिसार, जो इस समय मगध का राजा था, ने उनके निवास के लिये ‘वेलुवन’ नामक विहार बनवाया ।

मगध में इस समय अनेक प्रसिद्ध बाह्मण तथा ब्राह्मणेतर आचार्य एवं संन्यासी निवास करते थे । कई के साथ बुद्ध का शास्त्रार्थ हुआ तथा बुद्ध ने सभी को परास्त किया । फलस्वरूप अनेक विद्वान् उनके शिष्य बन गये । इनमें सारिपुत्र, मौद्‌गल्यायन उपालि, अभय आदि प्रमुख हैं ।

बुद्ध ने गया, नालन्दा, पाटलिपुत्र आदि की भी यात्रा की तथा अनेक लोगों को अपना शिष्य बनाया । राजगृह में ही रहते हुए उन्होंने एक बार अपने गृह नगर कपिल- वस्तु की भी यात्रा की जहां अपने परिवार के सभी लोगों को उन्होंने अपने मत में दीक्षित किया । शाक्यों ने उनसे अपने नवनिर्मित संस्थागार का उद्‌घाटन करवाया था ।

राजगृह से चलकर बुद्ध लिच्छवियों की राजधानी वैशाली पहुँचे । यहाँ उन्होंने पाँचवाँ वर्षा काल बिताया । लिच्छवियों ने उनके निवास के लिये महावन में प्रसिद्ध कूटाग्रशाला का निर्माण करवाया । वैशाली की प्रसिद्ध नगर-वधू आम्रपाली उनकी शिष्या बनी तथा उसने भिक्षु-संघ के निवास के लिये अपनी आम्रवाटिका प्रदान कर दिया ।

इसी स्थान पर बुद्ध ने प्रथम बार महिलाओं को भी अपने सध में प्रवेश करने की अनुमति प्रदान की तथा भिक्षुणियों का संघ स्थापित हुआ । संघ में प्रवेश पाने वाली प्रथम महिला बुद्ध की सौतेली माता प्रजापती गौतमी थी जो राजा शुद्धोधन की मत्यु के बाद कपिलवस्तु से चलकर वहाँ पहुँची थी ।

बुद्ध पहले तो महिलाओं को संघ में लेने के विरोधी थे किन्तु गौतमी के अनुनयविनय करने तथा अपने प्रिय शिष्य आनन्द के आग्रह करने पर उन्होंने इसकी अनुमति प्रदान कर दिया । कपिलवस्तु से राजगृह जाते समय बुद्ध ने अनुपिय नामक स्थान पर कुछ काल तक विश्राम किया । यहीं शाक्य राजा भद्रिक, अनुरुद्ध, उपालि, आनन्द, देवदत्त को साथ लेकर बुद्ध से मिला था ।

बुद्ध ने इन सभी को अपने मत में दीक्षित किया तथा आनन्द को अपना व्यक्तिगत सेवक बना लिया । वैशाली से बुद्ध भग्गों की राजधानी सुमसुमारगिरि गये और वहाँ आठवाँ वर्षाकाल व्यतीत किया। यहाँ बोधिकुमार उनका शिष्य बना । यहाँ से वे वत्सराज उदयन की राजधानी कौशाम्बी गये तथा वहाँ नवां विश्राम लिया ।

उदयन पहले बौद्ध मत में रुचि नहीं रखता था किन्तु खाद में बौद्ध भिक्षु पिन्डोला भारद्वाज के प्रभाव से बौद्ध बन गया । उसने घोषिताराम विहार भिक्षु-संघ को प्रदान किया । यहाँ से बुद्ध मथुरा के समीप वेरन्जा गये जहाँ उन्होंने बारहवाँ वास किया ।

अवन्ति के राजा प्रद्योत ने भी उन्हें आमंत्रित किया किन्तु उन्होंने अपनी वृद्धावस्था के कारण वहाँ जाने में अपनी असमर्थता व्यक्त करते हुए अपने शिष्य महाकच्चायन को उसे उपदेश देने के लिये कहा । अवन्ति में भी बुद्ध के कुछ अनुयायी बन गये । बुद्ध ने चम्पा तथा कजंगल की भी यात्रा की तथा उन स्थानों में कुछ समय तक रहकर अनेक लोगों को अपने मत में दीक्षित किया ।

बौद्धधर्म का सबसे अधिक प्रचार कोशल राज्य में हुआ । यहाँ युद्ध ने इक्कीस दास किये । यहाँ अनाथपिण्डक नामक एक अत्यन्त धनी व्यापारी ने उनकी शिष्यता ग्रहण की तथा संघ के लिये जेतवन विहार को, अदवार करोड़ स्वर्ण मुद्राओं में राजकुमार जेत से खरीद कर प्रदान किया । भरहुत से प्राप्त एक शिल्प के ऊपर इस दान का अंकन मिलता है ।

इसमें ‘जेतवन अनाथपेन्डिकों देति कोटिसम्थतेनकेता’ लेख उत्कीर्ण मिलता है । कोशल नरेश प्रसेनजित ने भी अपने परिवार के साथ बुद्ध की शिष्यता ग्रहण की तथा संघ के लिये ‘पुब्बाराम’ (पूर्वा- राम) नामक विहार बनवाया । बुद्ध जेतवन तथा पूर्वाराम नामक विहारों में बारी- बारी से विश्राम लेते थे ।

श्रावस्ती में ही रहते हुए बुद्ध ने अंगुलिमाल नामक कुख्यात डाकू, जो मनुष्यों के अगुलियों को काटकर उनकी माला पहनता था, को अपने मत में दीक्षित करने में सफलता प्राप्त की । इस प्रकार कोशल राज्य में उनके सबसे अधिक अनुयायी बन गये ।

विभिन्न स्थानों का भ्रमण करते हुये तथा लोगों को अपने मत में दीक्षित करते हुए युद्ध मल्लों की राजधानी पावा पहुँचे । यहाँ चुन्द नामक लुहार की आम्रवाटिका में ठहरे । उसने बुद्ध को भोजन दिया । इसमें उन्हें ‘सूकरमइव’ जाने को दिया गया । कुछ विद्वानों ने इसका अर्थ ‘सुअर का मद्य अथवा मांस’ बताया है, किन्तु यह तर्कसंगत नहीं है ।

वस्तुतः यह कोई वनस्पति थी जो सुअर के माँद के पास उगती थी, जैसे कुकुरमुत्ता आदि । इससे उन्हें रक्तातिसार हो गया और भयानक पीड़ा उत्पन्न हुई । इस वेदना को सहन करते हुए वे कुशीनारा पहुँचे । यहीं 483 ईसा पूर्व में 80 वर्ष की आयु में उन्होंने शरीर त्याग किया ।

इसे बौद्ध ग्रन्थों में ‘महापरिनिर्वाण’ कहा गया है । मृत्यु के पूर्व बुद्ध ने भिक्षुओं को सम्बोधित करते हुए कहा था- ”सभी सांघातिक वस्तुओं का विनाश होता है । अपनी मुक्ति के लिये उत्साहपूर्वक प्रयास करो ।” मल्लों ने अत्यन्त सम्मानपूर्वक उनका अत्येष्टि संस्कार किया । अनुश्रुति के अनुसार उनकी शरीर-धातु के आठ भाग किये गये तथा प्रत्येक भाग पर स्तूप बनवाये गये ।

महापरिनिर्वाण सूत्र में बुद्ध की शरीर- धातु के दावेदारों के नाम इस प्रकार मिलते हैं:

(i) पावा तथा कुशीनारा के मल्ल,

(ii) कपिलवस्तु के शाक्य,

(iii) वैशाली के लिच्छवि,

(iv) अलकप्प के बुलि,

(v) रामगाम के कोलिय,

(vi) पिप्पलिवन के मोरिय,

(vii) वैठद्वीप के ब्राह्मण,

(viii) मगधराज अजातशत्रु ।

इस प्रकार बुद्ध के जीवन-काल में ही उनका धर्म भारत के समस्त मध्यक्षेत्र में फैल गया । बौद्ध साहित्य में बुद्ध के परिभ्रमण स्थानों का जो विवरण प्राप्त होता है उससे स्पष्ट है कि उनके धर्म का प्रचार पूर्व में चम्पा से लेकर पश्चिम में अवन्ति तक तथा उत्तर में हिमालय की तराई से लेकर दक्षिण में मगध तक हो गया था ।

इसकी सफलता के पीछे महात्मा बुद्ध का आकर्षक एवं महात्मा व्यक्तित्व मुख्य रूप से उत्तरदायी था । ज्ञान-प्रप्ति के पश्चात् उन्होंने अपने धर्म के प्रचारार्थ व्यापक भ्रमण किया । उनके उपदेश अत्यन्त व्यवहारिक एवं सरल हुआ करते थे तथा कोई भी व्यक्ति, चाहे वह अमीर हो अथवा गरीब, उनका अनुसरण कर सकता था ।

इसके लिये जाति-पाँति, छुआ-छूत तथा ऊँच-नीच का कोई बन्धन नहीं था । उनमें लोगों को प्रभावित करने की अद्‌भुत क्षमता थी । उन्होंने प्रचार के लिये जनसाधारण की भाषा ‘मागधी’ को अपनाया जो प्राकृत का ही एक रूप थी । बुद्ध ने कभी भी अपने मत को बलात् थोपने का प्रयास नहीं किया । वे गूढ दर्शन के प्रतिपादक भी नहीं थे । वे कहा करते थे कि यदि उनकी शिक्षायें अच्छी लगे तभी उन्हें ग्रहण किया जाये ।

रिजडेविड्‌स ने सही ही लिखा है कि ‘यदि बुद्ध मात्र दर्शन का उपदेश करते तो अनुयायियों की संख्या अत्यन्त सीमित रही होती ।’ उनके समकालीन बड़े-बडे राजाओं जैसे-मगधराज बिम्बिसार और अजातशत्रु, कोशलनरेश प्रसेनजित तथा वत्सराज उदयन ने उन्हें राजाश्रय प्रदान किया और उनकी शिष्यता ग्रहण कर ली ।

इन राज्यों की जनता ने भी खुले हृदय से इस धर्म को अपनाया । इस प्रकार बुद्ध के जीवन-काल में उनके अनुयायियों की संख्या अधिक हो गयी । अपने कार्य को स्थायित्व प्रदान करने के लिये उन्होंने भिक्षुओं के एक संघ की स्थापना की । संघ का संगठन तथा कार्य-पद्धति गणतन्त्रों की पद्धति के ही अनुकूल थी ।

प्रारम्भ में केवल पुरुष ही संघ में भिक्षु हो सकते थे, परन्तु बाद में बुद्ध ने संघ का द्वार स्त्रियों के लिये भी खोल दिया । बुद्ध की मृत्यु के पश्चात् इसी बौद्ध सध द्वारा उनके मत का अधिकाधिक प्रचार हुआ तथा बुद्ध, धम्म और संघ-ये तीनों बौद्ध धर्म के ‘त्रिरत्न’ स्वीकार किये गये ।

बौद्ध भिक्षु अपनी दैनिक प्रार्थनाओं में इन तीनों को इस प्रकार दुहराते हैं:

बुद्ध, शरणं गच्छामि ।

धम शरणं गच्छामि ।

सघं शरणं गच्छामि ।

यहाँ उल्लेखनीय है कि तत्कालीन बदली हुई सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों ने भी बौद्ध धर्म को लोकप्रिय बनाने में योगदान दिया था । आर्थिक दृष्टि से यह काल गंगा-घाटी में नगरीय क्रान्ति का काल था । उत्तरी पूर्वी भारत में अनेक नगरों जैसे-कौशाम्बी, कुशीनगर, वाराणसी, वैशाली, राजगृह आदि की स्थापना हुई जहाँ बहुसंख्यक व्यापारी एवं शिल्पी बस गये ।

बुद्धकाल में ही भारतीय अर्थव्यवस्था सर्वप्रथम द्रव्य-युग में अवतीर्ण हुई । सिक्कों का व्यापक रूप से प्रचलन हुआ । आर्थिक समृद्धि तथा व्यापार-वाणिज्य की प्रगति के कारण लोगों का जीवन के प्रति दृष्टिकोण बदल रहा था । ब्राह्मण धर्म अपने ग्रामीण आधार के कारण इस प्रकार के परिवेश के लिये अनुपयुक्त था ।

अतः लोग बौद्ध धर्म की ओर आकर्षित हुए जो बदले हुए सामाजिक दृष्टिकोण तथा नवीन आर्थिक परिवेश के पूर्णतया अनुकूल था । यही कारण है कि बुद्ध तथा उनके धर्म को उस समय के कई धनी व्यापारियों तथा साहूकारों ने संरक्षण एवं सहायता प्रदान किया था ।

कौशाम्बी के घोषित, अंग के मण्डक, श्रावस्ती के अनाथपिण्डक आदि इस काल के समृद्ध श्रेष्ठि थे । इनके माध्यम से कोई आर्थिक कठिनाई उनके समक्ष उपस्थित नहीं हुई तथा उनका धर्म व्यापक आधार प्राप्त कर सका । प्रो॰ आर॰ एस॰ शर्मा के अनुसार ”बौद्ध धर्म का उदय, नवविकसित नगरीय परिवेश में अवमानित हुए मूल्यों को समाप्त करने तथा जो अच्छा और प्रगतिशील था उसे सर्मथन प्रदान करने के लिये हुआ था ।”

इसके सिद्धान्त नई अर्थव्यवस्था तथा अतिरिक्त उत्पादन के आधार पर विकसित हो रहे नगरीय जीवन के अनुकूल थे । किन्तु प्रो. जी सी. पाण्डे यह स्वीकार नहीं करते कि श्रेष्ठियों की अनुकूलता ने नास्तिक धर्मों के विकास में कोई सहायता दी होगी ।

उनके अनुसार जैन तथा बौद्ध सम्प्रदाय निवृत्तिपरक थे तथा उनके अनुसरण का धार्मिक सम्पत्ति हथियाने के लोभ के साथ कोई सम्बन्ध स्थापित नहीं किया जा सकता । इन धर्मों के उदय में श्रेष्ठियों की अनुकूलता को सहयोगी कारण बताने के मत के लिये विशुद्ध सम्भावना के अतिरिक्त विशेष प्रमाण नहीं है ।

पुनश्च बुद्धकाल में ‘नगर-क्रान्ति’ की बात को भी वे नहीं मानते । उनके अनुसार अस्तुतः कृषि-प्रधान भारतीय उपमहाद्वीप में कुछ नगरों के उदय को नागरिक क्रान्ति की संज्ञा देना एक परिप्रेक्षात्मक भ्रान्ति है । प्राचीन सभ्यतायें नागरिक क्रान्ति से उतनी ही दूर थीं जितनी प्राचीन कारीगरी औद्योगिक क्रान्ति से ।


Essay # 4. बौद्ध संगतियों (Buddhist Councils):

बौद्ध धर्म के विकास के इतिहास में चार बौद्ध संगीतियों अथवा महासभाओं का अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान है । प्रथम संगति बुद्ध की मृत्यु के तत्काल बाद राजगृह की सप्तपर्णि गुफा में हुई । इस समय मगध का शासक अजातशत्रु था । इस संगीति की अध्यक्षता महाकस्सप ने की तथा इसमें बुद्ध के प्रमुख शिष्य आनन्द और उपालि भी उपस्थित थे ।

इसमें बुद्ध की शिक्षाओं का संकलन हुआ तथा उन्हें सुत्त और विनय नाम के दो पिटकी में विभाजित किया गया । आनन्द तथा उपालि क्रमशः धर्म और विनय के प्रमाण माने गये । सुत्तपिटक में धर्म के सिद्धान्त तथा विनयपिटक में आचार के नियम थे ।

द्वितीय बौद्ध संगीति का आयोजन कालाशोक के शासनकाल में बुद्ध की मृत्यु के लगभग 100 वर्ष बाद वैशाली में किया गया । इस समय वैशाली के भिक्षुओं ने विनय सम्बन्धी कुछ ऐसे नियमों को अपना लिया था जिन्हें अवन्ति आदि पश्चिमी स्थानों के भिक्षु त्याज्य समझते थे । अतः पूर्वी तथा पश्चिमी भिक्षुओं के आपसी मतभेदों को दूर करने के लिये ही यह महासभा बुलाई गयी । इसका आयोजन स्थविरयश ने किया ।

पश्चिमी भिक्षु इस सभा में समूह बनाकर आये तथा उन्होंने पूर्वी भिक्षुओं से विनय के नियमों को त्याग देने का आग्रह किया । जब मतभेद बढ़ गया तो दोनों दलों के चार-चार वरिष्ठ भिक्षुओं को मिलाकर एक उपसमिति गठित की गयी । पूर्वी प्रदेश के भिक्षुओं में से सर्वकामी, साल्ह, क्षुद्रशोभित और वार्षभग्रामिक तथा पश्चिमी प्रदेश से रेवत, सम्भूतयश तथा सुमन को सम्मिलित किया गया ।

इनमें सबसे वयोवृद्ध तथा विद्वान् आचार्य सर्वकामी थे । अतः उन्हें ही महासभा तथा उपसमिति का अध्यक्ष मनोनीत कर दिया गया । इस समिति ने पर्याप्त विचार-विमर्श के बाद इन नियमों को महासभा में धर्म-विरुद्ध घोषित कर दिया । ये नियम नमक संग्रह, दोपहर के बाद भोजन करना, खाने के बाद छाछ पीना, साड़ी पीना, गद्देदार बिस्तर का प्रयोग, सोने-चाँदी का दान लेना, किसी कार्य को कर लेने के बाद संघ की अनुमति लेना, एक ही क्षेत्र में विभिन्न स्थानों पर सभायें (उपोस्थ) करना आदि थे ।

ऐसा गत होता है कि पूर्वी भिक्षुओं ने, जिन्हें ‘वज्जिपुत्र’ कहा गया, इस निर्णय को स्वीकार नहीं किया तथा उन्होंने दूसरी महासंगीति बुलाकर इन नियमों को धर्मसंगत घोषित करते हुए स्वीकार कर लिया । इसके फलस्वरूप भिक्षु संघ दो सम्प्रदायों में विभाजित हो गया ।

परम्परागत विनय में आस्था रखने वालों का सम्प्रदाय स्थविर अथवा थेरावादी तथा परिवर्तन के साथ विनय को स्वीकार करने वालों का सम्प्रदाय महासांघिक अथवा सवास्तिवादी कहा गया । प्रथम का नेतृत्व महाकच्चायन तथा द्वितीय का नेतृत्व महाकस्सप ने किया । बौद्ध संघ का यह विभेद बढ़ता गया तथा कालान्तर में दोनों सम्प्रदाय अट्‌ठारह उपसम्प्रदायों में विभक्त हो गये ।

तृतीय बौद्ध संगीति मौर्यशासक अशोक के काल में पाटलिपुत्र में बुलायी गयी । इसकी अध्यक्षता मोग्गलिपुत्त तिस्य ने किया तथा इसमें स्थविर सम्प्रदाय का ही बोलबाला था । मोग्गलिपुत्त ने महासांघिक मतों का खण्डन करते हुए अपने सिद्धान्तों को ही बुद्ध के मौलिक सिद्धान्त घोषित किये ।

उन्होंने ‘कथावत्थु’ नामक ग्रन्थ का संकलन किया जो अभिधम्म पिटक के अन्तर्गत आता है । इस समिति ने बुद्ध की शिक्षाओं का विभाजन नये सिरे से किया तथा उसमें अभिधम्म नामक तीसरा पिटक जोड़ दिया । इसमें धर्म के सिद्धान्त की दार्शनिक व्याख्या मिलती है ।

इस प्रकार बुद्ध की शिक्षाओं के तीन भाग हो गये-सुत्त, विनय तथा अभिधम्म । इन्हें ‘त्रिपिटक’ की सका दी जाती है ।  तृतीय संगीति ने संघ-भेद को रोकने के लिये अत्यन्त कड़े नियम बना दिये तथा बौद्ध धर्म का साहित्य निश्चित एवं प्रामाणिक बना दिया गया । ऐसा लगता है कि इसी आधार पर अशोक ने संघभेद रोकने सम्बन्धी अपनी राजाज्ञा प्रसारित की थी ।

बौद्ध धर्म की चतुर्थ तथा अन्तिम संगीति कुषाण शासक कनिष्क के राज्यकाल में कश्मीर के कुण्डलवन में हुई । इसकी अध्यक्षता वसुमित्र ने की तथा अश्वघोष इसके उपाध्यक्ष बने । इस सभा में महासंघिकों का बोलबाला था ।

यहाँ बौद्ध गन्थों के कठिन अंशों पर सम्यक् विचार-विमर्श किया गया तथा प्रत्येक पिटक पर भाष्य लिखे गये । कनिष्क ने इन्हें ताम्रपत्रों पर खुदवा कर एक स्तूप में रखवा दिया । त्रिपिटकों पर लिखे गये इन भाष्यों को ही ‘विभाषाशास्त्र’ कहा जाता है । इसी समय बौद्ध धर्म हीनयान तथा महायान नामक दो स्पष्ट एवं स्वतंत्र सम्प्रदायों में विभक्त हो गया जो क्रमशः स्थविर तथा महासांधिक से उद्‌भूत हुए थे ।


Essay # 5. बौद्धधर्म के सम्प्रदाय (Buddhist Religions):

हीनयान तथा महायान:

कनिष्क के समय में बौद्ध धर्म स्पष्टतः दो सम्प्रदायों में विभक्त हो गया:

(1) हीनयान,

(2) महायान ।

इस समय तक बौद्ध मतानुयायियों की संख्या बहुत अधिक बढ़ गयी थी । अनेक लोग इस धर्म में नवीन विचारों एवं भावनाओं के साथ प्रविष्ट हुये थे । अतः बौद्ध धर्म के प्राचीन स्वरूप में समयानुसार परिवर्तन लाना जरूरी था । अतः इसमें सुधार की मांग होने लगी । इसके विपरीत कुछ रूढ़िवादी लोग बौद्ध धर्म के प्राचीन आदर्शों को ज्यों-का-त्यों बनाये रखना चाहते थे और वे उसके स्वरूप में किसी प्रकार का परिवर्तन अथवा सुधार नहीं चाहते थे ।

ऐसे लोगों का सम्प्रदाय ‘हीनयान’ कहा गया । हीनयान का शाब्दिक अर्थ है-निम्न मार्ग । यह मार्ग केवल भिक्षुओं के लिये ही सम्भव था । बौद्ध धर्म का सुधारवादी सम्प्रदाय ‘महायान’ कहा गया । महायान का अर्थ है-उत्कृष्ट मार्ग । इसमें परसेवा तथा परोपकार पर विशेष बल दिया गया ।

बुद्ध की मूर्ति के रूप में पूजा होने लगी । यह मार्ग सर्वसाधारण के लिये सुलभ था । इसकी व्यापकता एवं उदारता को देखते हुये इसका ‘महायान’ नाम सर्वथा उपयुक्त लगता है । इसके द्वारा अधिक लोग मोक्ष प्राप्त कर सकते थे ।

इन दोनों सम्प्रदायों में निम्नलिखित मुख्य विभेद है:

(1) हीनयान में महात्मा बुद्ध को एक महापुरुष माना जाता था । परन्तु महायान में उन्हें देवता माना गया तथा उनकी पूजा की जाने लगी, इसी के साथ अनेक बोधिसत्वों की भी पूजा प्रारम्भ हुई, मोक्ष (निर्वाण) प्राप्त करने वाले वे व्यक्ति, जो मुक्ति के बाद भी मानव जाति को उसके दुखों से छुटकारा दिलाने के लिये प्रयत्नशील रहते थे बोधिसत्व कहे गये, प्रत्येक व्यक्ति बोधिसत्व हो सकता है । निर्माण में सभी मनुष्यों की सहायता करना बोधिसत्व का परम कर्तव्य है, उसमें करुणा तथा प्रज्ञा होती है ।

करुणा द्वारा वह जनसेवा करता है तथा प्रज्ञा से संसार का वास्तविक गान प्राप्त करता है, बोधिसत्व को दम आदर्शों को प्राप्त करने का आदेश दिया गया है । इन्हें ‘पारमिता’ कहा जाता है । पारमितायें वस्तुतः चारित्रिक पूर्णतायें है । ये हैं- दान, झील, सहनशीलता, वीर्य, ध्यान, प्रज्ञा, उपाय, प्रणिधान, बल तथा ज्ञान । इन्हें ‘दशशील’ कहा जाता है ।

(2) महायान में परसेवा तथा परोपकार पर बल दिया गया । उसका उद्देश्य समस्त मानव जीवन जाति का कल्याण है । इसके विपरीत हीनयान व्यक्तिवादी धर्म है, इसके अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को अपने प्रयत्नों से ही मोक्ष प्राप्त करना चाहिये ।

(3) महायान अत्मा एवं पुनर्जन्म में विश्वास करता है, महायान में मूर्ति-पूजा का भी विधान है तथा मोक्ष के लिये बुद्ध की कृपा आवश्यक मानी गयी है, परन्तु हीनयान मूर्ति-पूजा एवं भक्ति में विश्वास नहीं रखता, महायान में तीर्थों को भी स्थान दिया गया,

(4) हीनयान की साधन-पद्धति अत्यन्त कठोर है तथा वह भिक्षु जीवन का हिमायती है । परन्तु महायान के सिद्धान्त सरल एवं सर्वसाधारण के लिए सुलभ है । यह मुख्यतः गृहस्थ धर्म है जिसमें भिक्षुओं के साथ-साथ सामान्य उपासकों को भी महत्व दिया गया है,

(5) हीनयान का आदर्श ‘अर्हत्’ पद को प्राप्त करना है । जो व्यक्ति अपनी साधना से निर्वाण प्राप्त करते हैं उन्हें ‘अर्हत्’ कहा गया है, परन्तु निर्वाण के बाद उनका पुर्नजन्म नहीं होता । इसके विपरीत महायान का अदर्श ‘बोधिसत्व’ है । बोधिसत्व मोक्ष प्राप्ति के बाद भी दूसरे प्राणियों की मुक्ति का निरन्तर प्रयास करते रहते हैं । महायान की महान्‌ता का रहस्य उसकी निस्वार्थ सेवा तथा सहिष्णुता है ।

इस प्रकार महायान में व्यापकता एवं उदारता है । जापानी बौद्ध विद्वान डी॰ टी॰ सुजुकी के शब्दों में महायान ने बुद्ध की शिक्षाओं के आन्तरिक महत्व का खण्डन किये बिना बौद्ध धर्म के मौलिक क्षेत्र को विस्तृत कर दिया ।

आगे चलकर उपर्युक्त दोनों सम्प्रदायों के अन्तर्गत भी दो-दो सम्प्रदाय बन गये । हीनयान के प्रमुख सम्प्रदाय है- वैभाषिक तथा सौत्रान्तिक । महायान के सम्प्रदाय है- शून्यवाद (माध्यमिक) तथा विज्ञानवाद योगाचार । सातवीं-आठवीं शताब्दी में वज्रयान नामक एक अन्य सम्प्रदाय का उदय हुआ ।

इनका विवरण इस प्रकार है:

i. वैभाषिक सम्प्रदाय:

इस मत की उत्पत्ति मुख्य रूप से कश्मीर में हुई । विभाषाशास्त्र पर आधारित होने के कारण इसे वैभाषिक नाम दिया गया है । वैभाषिक मतानुयायी चित्त तथा बाह्य वस्तु के अस्तित्व को स्वीकार करते हुए यह प्रतिपादित करते है कि वस्तुओं को ज्ञान केवल प्रत्यक्ष से ही सम्भव है । इसके अतिरिक्त कोई दूसरा साधन नहीं है । अतः इस मत को ‘वाह्य प्रत्यक्षवाद’ भी कहा जाता है ।

वैभाषिक सम्यक् ज्ञान को प्रमाण कहते है । उनके अनुसार प्रत्येक वस्तु का निर्माण परमाणुओं से होता है जो प्रतिक्षण अपना स्थान बदलते रहते है । उनके अनुसार जगत् का अनुभव इन्द्रियों द्वारा होता है ।

धर्मत्रात, घोषक, वसुमित्र, बुद्धदेव आदि वैभाषिक मत के प्रमुख आचार्य हैं ।

ii. सौत्रान्तिक सम्प्रदाय:

इस मत का मुख्य आधार सूत्र (सुत्त) पिटक है, अतः इसे मौत्रान्त्रिक कहा जाता है । सौत्रान्तिक चित्त तथा वाह्य जगत् दोनों की सत्ता में विश्वास करते है । किन्तु वे यह नहीं मानते कि वस्तुओं का ज्ञान प्रत्यक्ष रूप से होता है । उनके मत में बाह्य जगत् की वस्तुओं का जो हम अनुभव करते है वह वस्तुतः हमारे मन के विकल्प मात्र है । वह हमारे विचारों के ही प्रतिरूप है ।

मन में बाह्य वस्तुओं के आकार बनते हैं जो बाह्य सत्ता का बोध कराते है । बाह्य वस्तुओं के अनेक आकार होने के कारण ही शान के भी भिन्न-भिन्न आकार होते है । ज्ञान दीपक के समान अपने को स्वतः प्रकाशित करता है । सौत्रान्तिक सम्प्रदाय के प्रवर्त्तक कुमारलात थे । श्रीलाभ नामक एक अन्य आचार्य का नाम भी इसमें मिलता है ।

iii. माध्यमिक (शून्यवाद) सम्प्रदाय:

इस मत के प्रवर्त्तक नागार्जुन है जिसकी प्रसिद्ध रचना ‘माध्यमिककारिका’ है । इसे सापेक्ष्यवाद भी कहा जाता है जिसके अनुसार प्रत्येक वस्तु किसी न किसी कारण से उत्पन्न हुई है और वह पर-निर्भर है । नागार्जुन ने ‘प्रतित्यसमुत्पाद’ को ही शून्यता कहा है ।

इस मत में महात्मा बुद्ध द्वारा प्रतिपादित मध्यम-मार्ग को विकसित किया गया है । शून्यवाद के अनुसार परम तत्व को बुद्धि अथवा विचारों के द्वारा नहीं समझा जा सकता । उसका स्वरूप सर्वथा अवर्णनीय है ।

सामान्यतः किसी वस्तु के ज्ञान के सम्बन्ध में चार प्रकार होते हैं:

(a) वस्तु का अस्तित्व है ।

(b) वस्तु का अस्तित्व नहीं है ।

(c) वस्तु का अस्तित्व है भी और नहीं भी है ।

(d) वस्तु का अस्तित्व न तो है और न नहीं ही है ।

किन्तु पारमार्थिक अथवा परमतत्व का ज्ञान उपर्युक्त चारों कोटियों से रहित है और इस कारण वह शून्य है । अतः वर्णनातीत तत्व ही शून्यता है । इस प्रकार शून्यवाद का अर्थ विनाशवाद नहीं है, अपितु यह परम तत्व अथवा पारमार्थिक सत्ता को तर्क एवं बुद्धि की सीमा से परे मानता है ।

शून्यता दो प्रकार की मानी गयी है- अस्तित्व शून्यता तथा विचार शून्यता । अस्तित्व शून्यता का अर्थ यह है कि संसार की सभी वस्तुएं कार्य-कारण के नियम से बँधी हुई है (अप्रतीत्य-समुत्पन्नोधर्मः कश्चिन्नविद्यते) । विचार-शून्यता का अर्थ यह है कि हमारे विचारों में भी कोई स्थायी आन्तरिक सूत्र नहीं होता है और वे निरन्तर परिवर्तनशील होते हैं ।

शून्यवादी दो प्रकार के सत्य स्वीकार करते हैं:

(I) संवृत्ति सत्य तथा

(II) पारमार्थिक सत्य ।

संवृत्ति सत्य सांसारिक सत्य है जो साधारण मनुष्यों के लिये है । यह बुद्धि द्वारा समझा जा सकता है । पारमार्थिक सत्य से तात्पर्य परम सत्य से है जो तर्क और बुद्धि से परे है । संवृत्ति सत्य पारमार्थिक सत्य की प्राप्ति साधन मात्र होता है । यह अन्ततोगत्वा मिथ्या है । इसका आवरण हटने पर ही परम सत्य की प्राप्ति होती है ।

माध्यमिक कारिका में एक स्थान पर कहा गया है कि जो इन दोनों सत्यों का भेद समझता है वही बुद्ध की गूढ़ शिखाओं को समझ सकता है । शून्यवाद का लक्ष्य शून्य दृष्टि की प्राप्ति है जिसे प्रज्ञा अथवा अलौकिक ज्ञान कहा जाता है । यह समाधि द्वारा सम्भव है । समाधि में छः पारमिताओं-दान, शील, शान्ति वीर्य ध्यान तथा प्रज्ञा का बोध एवं अध्यास कराया जाता है, इन्हीं के अभ्यास एवं पालन से साधक शून्यदृष्टि को प्राप्त करता है ।

शून्य दृष्टि को प्राप्त करने पर दुखों का विनाश हो जाता है तथा निर्वाण की प्राप्ति होती है । यह वर्णनातीत है । माध्यमिक कारिका में नागार्जुन एक स्थान पर निर्वाण का वर्णन इस प्रकार करते हैं- ‘जो अज्ञात है, जिसकी प्राप्ति नई नहीं है, जिसका विनाश नहीं है, जो उत्पन्न भी नहीं है, उसी का नाम निर्वाण है ।’

इस प्रकार शून्यवाद में बुद्ध के उपदेशों को ही विकसित करने का प्रयास किया गया है । बुद्ध ने स्वयं मध्यम मार्ग का उपदेश दिया था और निर्वाण को वर्णनातीत बताया था । नागार्जुन के अतिरिक्त इस मत के अन्य विद्वान् चन्दकीर्ति, शान्तिदेव, आर्य देव, शान्ति रक्षित आदि थे । इन्होंने अपनी रचनाओं के द्वारा शून्यवाद के सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया ।

iv. विज्ञानवाद (योगाचार) समुदाय:

इस सम्प्रदाय की स्थापना ईसा की तीसरी शताब्दी में मैत्रेय या मैत्रेयनाथ ने की थी । असंग तथा वसुबन्धु ने इसका विकास किया । वसुबन्धु कृत ‘वज्रछंदिका’ नामक ग्रन्थ में विज्ञानवाद का विकास दिखाया गया है । यह मत चित्त अथवा विज्ञान की ही एक मात्र सत्ता स्वीकार करता है जिससे इसे विज्ञानवाद कहा जाता है । योग तथा आचार पर विशेष वल देने के कारण इसे योगाचार भी कहते है ।

योगाचार मत के अनुसार चित्त (मन) या विज्ञान के अतिरिक्त संसार में किसी भी का अस्तित्व नहीं है । समस्त बाह्य पदार्थ, जिन्हें देखते हैं, चित्त के विज्ञान मात्र है । जो पदार्थ बाहर समझे जाते हैं वे वस्तुतः हमारे मन के ही अन्तर्गत है । जिस तरह स्वप्न की अवस्था में वस्तुओं को बाह्य मानते हैं जबकि वे मन के भीतर ही रहती है, उसी प्रकार जो पदार्थ सामान्य अवस्था में वाह्य प्रतीत हैं वे विज्ञान मात्र है । विज्ञान से भिन्न किसी वस्तु का अस्तित्व ही नहीं हैं ।

विज्ञानवादी चित्त को आलय विज्ञान कहते हैं क्योंकि वह सभी प्रकार के विज्ञानों का आलय (घर) है । इसमें सभी ज्ञान बीज रूप में निवास करते हैं । योगाचार द्वारा आलय विज्ञान को वश में करके विषय ज्ञान की उत्पत्ति को रोका जा सकता है । ऐसा हो जाने पर व्यक्ति निर्वाण को प्राप्त करता है ।

ऐसा न होने पर सांसारिक वस्तुओं के प्रति आसक्ति बढ़ती जाती है तथा भवबन्धन से छुटकारा कभी नहीं मिलता है । इस प्रकार आलय विज्ञान अन्य दर्शनों की आत्मा से सदृश है । किन्तु जहां आत्मा नित्य है वहाँ यह परिवर्तनशील चित्तवृत्तियों का प्रवाह मात्र है ।

विज्ञानवादी भी शून्यवादियों की भाँति वाह्य वस्तुओं का अस्तित्व स्वीकार नहीं करते किन्तु वे चित्त की सत्ता को मानते हैं क्योंकि ऐसा न मानने पर कोई भी विचार प्रतिपादित नहीं किया जा सकता । उनके अनुसार केवल चित्त की ही प्रवृत्ति और निवृत्ति होती है । यही उत्पन्न होती है तथा इसी का निरोध भी होता है ।

v. वज्रयान सम्प्रदाय:

ईसा की पाँचवीं या छठीं शताब्दी से बौद्ध धर्म के ऊपर तंत्र-मंत्री का प्रभाव बढ़ने लगा जिसके फलस्वरूप वज्रयान नामक नये सम्प्रदाय का जन्म हुआ । इसमें मंत्रों तथा तांत्रिक क्रियाओं द्वारा मोक्ष प्राप्त करने का विधान प्रस्तुत किया गया है । वज्रयानी ‘वज्र’ को एक अलौकिक तत्व के रूप में मानते हैं । इसका तादात्म्य ‘धर्म’ के साथ स्थापित किया गया है ।

इसकी प्राप्ति के लिए भिक्षा, तप आदि के स्थान पर मैथुन, मांस आदि के सेवन पर जोर दिया गया । वज्रयानियों की क्रियायें शाक्त मतावलम्बियों से मिलती-जुलती हैं । इसमें तारा आदि देवियों को महत्व प्रदान किया गया है ।

यह प्रतिपादित किया गया है कि रूप, शब्द, स्पर्श आदि भोगों से बुद्ध की पूजा की जानी चाहिये । रागचर्या को सर्वोत्तम बताया गया है । वज्रयान का सबसे अधिक विकास आठवीं शताब्दी में हुआ । इसके सिद्धान्त मंजुश्रीमूलकल्प तथा गुह्यसमाज नामक ग्रन्थों में मिलते हैं । वज्रयान ने भारत से बौद्धधर्म के पतन का मार्ग प्रशस्त कर दिया ।


Essay # 6. बौद्धधर्म का उत्थान और पतन (Rise and Fall of Buddhism):

महात्मा गौतमबुद्ध ने जिस धर्म का प्रवर्त्तन किया वह उनके जीवन-काल में ही उत्तरी भारत का एक लोकप्रिय धर्म बन गया ।

इसकी सफलता के लिए निम्नलिखित कारण मुख्य रूप में उत्तरदायी थे:

(1) बौद्धधर्म के प्रसार के लिये स्वयं महात्मा बुद्ध का आकर्षक एवं प्रभावपूर्ण व्यक्तित्व बहुत कुछ अंशों में उत्तरदायी रहा । ज्ञान प्राप्त करने के पश्चात् उन्होंने अपने मत का प्रचार करने के लिये व्यापक रूप से परिभ्रमण किया । दूर-दूर स्थानों में जाकर सामान्य जनता के बीच उन्होंने अपने उपदेश दिये । ये अत्यन्त सरल एवं सुग्राह्य होते थे ।

उनकी दृष्टि में अमीर-गरीब का कोई भेदभाव नहीं था तथा सभी वर्गों के लोग, चाहे वे ब्राह्मण हो या शूद्र, इन्हें श्रवण कर सकते और अपना सकते थे । बुद्ध मानव मात्र की समानता में विश्वास रखते थे । उनके ओजपूर्ण तर्कों को सुनकर लोग प्रभावित हो जाते तथा उनकी शिष्यता ग्रहण कर लेते थे ।

(2) बौद्धधर्म का दार्शनिक एवं क्रिया पक्ष अत्यन्त सरल था । ब्राह्मण धर्म की कर्मकाण्डीय व्यवस्था से लोग ऊब गये थे । ऐसे समय में बौद्धधर्म ने जनता के समक्ष एक सरल एवं आडम्बररहित धर्म का विधान प्रस्तुत किया । इसके पालनार्थ किसी पण्डित-पुरोहित की आवश्यकता नहीं थी और न ही जाति एवं सामाजिक स्तर का कोई भेद-भाव था । अतः समाज के उपेक्षित वर्गों ने उत्सुकतापूर्वक इस धर्म को ग्रहण कर लिया ।

(3) महात्मा बुद्ध के समय में पाली सामान्य जनता की भाषा थी । उन्होंने अपने उपदेश पाली में दिये जिससे सामान्य-जन इसे आसानी से समझ सके । इसके विपरीत ब्राह्मण धर्म-साहित्य क्लिष्ट संस्कृत में होने के कारण सभी के द्वारा बोधगम्य नहीं था । भाषा की सुगमता तथा बोधगम्यता ने भी बौद्धधर्म को लोक धर्म बनाने में योगदान दिया ।

(4) ब्राह्मण धर्म के कर्मकाण्डों एवं उसकी क्रियाओं के अनुष्ठान में बहुत अधिक धन की आवश्यकता होती थी । जिससे केवल कुलीन वर्ग के लोग ही इन्हें सम्पादित कर सकते थे । इसके विपरीत बौद्धधर्म के अनुपालन में किसी व्यय की आवश्यकता नहीं थी । इसमें केवल नैतिकता तथा सच्चरित्रता पर बल दिया गया था । अतः अधिकाधिक लोग इस मत की और आकर्षित हुए ।

(5) महात्मा बुद्ध ने अपने जीवन-काल में ही संघ की स्थापना की थी । बाद में इन्हीं संघों द्वारा बौद्ध धर्म का व्यापक प्रचार हुआ । इनमें बहुसंख्यक भिक्षु निवास करते थे । वे स्थान-स्थान पर जाकर अपने मत का प्रचार-प्रसार करते थे । बौद्ध संघ देश के विभिन्न भागों में फैले हुए थे ।

(6) बौद्ध धर्म के प्रसार में राजकीय संरक्षण का महत्वपूर्ण योगदान रहा है । स्वयं युद्ध के समय में तथा उनके बाद भी भारत के अनेक महान् राजाओं ने इस धर्म को ग्रहण किया तथा इसके प्रचार-प्रसार में अपने राज्य के साधनों को लगा दिया । ऐसे राजाओं में बिम्बिसार, अजातशत्रु, कनिष्क, हर्षवर्धन आदि के नाम उल्लेखनीय हैं ।

अशोक ने तो इस धर्म को स्थानीय स्तर पर ऊपर उठाकर अपने प्रयासों द्वारा अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर पहुँचा दिया । मध्य-एशिया, चीन, कोरिया, जापान, लंका, दक्षिणी-पूर्वी एशिया आदि के विभिन्न भागों में इस धर्म का प्रचार हुआ । अशोक ने यूनानी राज्यों में भी इसका प्रचार करवाया था ।

(7) बौद्धधर्म को तत्कालीन भारत के सुप्रसिद्ध व्यापारियों एवं साहूकारों ने भी उदारतापूर्वक धन दान दिये क्योंकि इसके सिद्धान्त उनकी कुछ मान्यताओं के अनुकूल थे । बुद्ध ने सूदखोरी को सम्मानित व्यवसाय मानते हुए उसको मान्यता प्रदान की जबकि बाह्मण ग्रन्थ इसे निन्दनीय मानते थे । इस कारण उस युग के श्रेष्ठि बौद्ध धर्म की ओर आकर्षित हो गये ।

इनकी सहायता में इसके समक्ष कोई आर्थिक संकट उपस्थित नहीं हुआ । सातवीं शताब्दी तक भारत में बौद्ध धर्म की निरन्तर प्रगति होती रही । तत्पश्चात् उसका क्रमिक ह्रास प्रारम्भ हुआ तथा अन्ततोगत्वा बाहरहीं शताब्दी तक यह धर्म अपनी मूलभूमि से विलुप्त हो गया । बौद्धधर्म के अवनति काल में विहार तथा बंगाल के पाल राजाओं ने उसे संरक्षण प्रदान किया किन्तु उनके बाद इसे कोई संरक्षण नहीं मिला ।

बौद्धधर्म के पतन के लिए विभिन्न कारणों को उत्तरदायी माना गया है । इसमें मुख्य कारण बौद्धसंघ में विभेद तथा उसके अनुयायियों का विभिन्न सम्प्रदायों में विभाजित होना है । कनिष्क के समय में यह धर्म स्पष्टत हीनयान तथा महायान नामक दो सम्प्रदायों में विभाजित हो गया ।

महायानियों ने हिन्दू धर्म की पूजा-पद्धति एवं संस्कारों को अपना लिया तथा बुद्ध को देवता मान कर उनकी पूजा प्रारम्भ कर दी गयी । साथ ही साथ अनेक बोधिसत्वों की पूजा का विधान प्रस्तुत किया गया । बुद्ध तथा बोधिसत्वों की उपासना के लिये मन्दिरों का भी निर्माण हुआ ।

बुद्ध तथा बोधिसत्वों के अतिरिक्त अन्य कई देवी- देवताओं का भी इस मत में आविष्कार हो गया जिन्हें बुद्ध के विविध प्रतीकों से सम्बन्धित करके पूजा जाने लगा । इस प्रकार बौद्धधर्म हिन्दू धर्म के अत्यन्त निकट आ गया । बौद्ध विहार तथा मन्दिरों में महिलाओं का प्रवेश हो जाने से भ्रष्टाचार बढ़ गये तथा भिक्षुओं का चारित्रिक पतन हो गया ।

बौद्धधर्म में नैतिकता का स्थान तन्त्र-मन्त्र ने ग्रहण कर लिया तथा भिक्षु अनेक छू एवं तान्त्रिक साधनाओं द्वारा लोगों को अपनी ओर आकर्षित करने लगे । तान्त्रिक भिक्षुओं का सम्प्रदाय ‘वज्रयान’ कहा गया । वे अपनी साधना में सुरा-सुन्दरी को प्राथमिकता देने लगे । उनकी संख्या बढ़ती गयी जिससे बौद्धधर्म का मूल स्वरूप ही नष्ट हो गया । नवीं शती तक आते-आते वज्रयान का भारत में खूब प्रचार हो गया ।

अब नालन्दा उनके प्रचार का प्रमुख केन्द्र बन गया । बारहवीं शती तक बौद्धधर्म पूर्ण रूप से तन्त्रयान (वज्रयान) के प्रभाव में आ गया । तान्त्रिक भिक्षु तारादेवी की उपासना करते थे । बौद्धधर्म में किसी ऐसे महापुरुष का जन्म नहीं हुआ जो उसमें व्याप्त कुरीतियों को समाप्त कर उसे सही दिशा दे सकता । इधर हिन्दू धर्म में शहर, कुमारिल, रामानुज जैसे महान् आचार्यों का आविर्भाव हुआ ।

उन्होंने हिन्दू धर्म की व्याख्या नये सिरे से की जिससे अधिकाधिक लोग इस धर्म की ओर आकर्षित हो गये । बुद्ध को भगवान विष्णु का एक अवतार मानकर हिन्दू धर्म में ग्रहण कर लिया गया । इसके फलस्वरूप बहुसंख्यक बौद्धों ने हिन्दू धर्म को ग्रहण कर लिया ।

जिस समय उत्तरी भारत में बौद्धधर्म वज्रयानियों द्वारा नैतिकताविहीन तथा जर्जर किया जा रहा था उसी समय वहाँ तुर्कों का आक्रमण हुआ । इस आक्रमण ने पतनोन्मुख बौद्धधर्म को घातक चोट पहुँचायी जिससे वह कभी उबर न सका ।

नालन्दा तथा अन्य स्थानों के प्रसिद्ध बौद्धमठ तथा स्मारक ध्वस्त कर दिये गये तथा बहुसंख्यक भिक्षुओं की हत्या कर दी गयी । इस आक्रमण ने तन्त्रयानियों की सिद्धि-शक्ति एवं तन्त्र-मन्त्र के प्रभाव को मिथ्या सिद्ध कर दिया । फलस्वरूप भारतीय जनता का विश्वास उनसे उठ गया तथा किसी ने उन्हें शरण अथवा सहायता देकर उनके ध्वस्त स्मारकों के जीर्णोद्धार कराने का प्रयास नहीं किया ।

अधिकांश बौद्ध भिक्षु तिब्बत भाग गये तथा बचे हुए में से कई ने हिन्दू तथा इस्लाम आदि धर्मों को ग्रहण कर लिया । इस प्रकार बौद्ध धर्म अपनी जन्मभूमि से विलुप्त हो गया । जी. सी. पाण्डे यह स्वीकार नहीं करते कि बौद्ध धर्म के पतन में तंत्रयानियों के आचार अथवा कुमारिल और शकर जैसे हिन्दु दार्शनिकों के वाद-कौशल का हाथ रहा है ।

उनके अनुसार शैव तथा शाक्त धर्म में भी तांत्रिक आचार तथा उनसे संबद्ध कुछ विकृतियों विद्यमान थी किन्तु इनका विलोप नहीं हुआ और न तार्किक खण्डन से किसी धर्म का लोप माना जा सकता है । वस्तुतः बौद्धधर्म मुख्य रूप से भिक्षुओं का धर्म था जिनका जीवन विहारों में केन्द्रित था ।

उपासकों के लिये यह अपना पृथक् और पर्याप्त नैतिक-सामाजिक आचार एवं संस्थायें विहित नहीं कर पाया था । बौद्ध विहार प्रायः राजकीय अनुदान पर निर्भर करते थे । अतः विहारों के लोप के साथ-साथ उपासकों की क्षीण बौद्धता का विलोप अनिवार्य था । सम्प्रति भारत में महाबोधि सभा, जिसकी स्थापना सिंहल के स्वर्गीय देवमित्र धर्मपाल ने की थी, बौद्धधर्म को पुनरुज्जीविन करने का श्लाध्य प्रयास कर रही है ।


Essay # 7. बौद्धधर्म की देन (Contribution of Buddhism):

भारतीय संस्कृति के विभिन्न पक्षों के निर्माण एवं विकास में बौद्धधर्म का योगदान अत्यन्त महत्वपूर्व रहा है ।

इसकी देनों को निम्नलिखित प्रकार से रख सकते हैं:

(i) बौद्धधर्म ने ही सर्वप्रथम भारतीयों को एक सरल तथा आडम्बररहित धर्म प्रदान किया जिसका अनुसरण राजा-रंक, ऊँच-नीच सभी कर सकते थे । धर्म के क्षेत्र में इसने अहिंसा रख सहिष्णुता का पाठ पढ़ाया । अशोक कनिष्क, हर्ष आदि राजाओं में जो धार्मिक सहिष्णुता देखने को मिलती है वह बौद्धधर्म के प्रभाव का ही परिणाम थी । अशोक ने युद्ध विजय की नीति का परित्याग कर धम्मविजय की नीति को अपनाया तथा लोककल्याण का आदर्श समस्त विश्व के समक्ष प्रस्तुत किया ।

(ii) बौद्धधर्म के उपदेश तथा सिद्धान्त पाली भाषा में लिखे गये जिससे पाली भाषा एवं साहित्य का विकास हुआ ।

(iii) बौद्ध संघों की व्यवस्था जनतन्त्रात्मक प्रणाली पर आधारित थी । इसके तत्वों को हिन्दू मठों तथा बाद में राजशासन में ग्रहण किया गया ।

(iv) भारतीय दर्शन में तर्कशास्त्र की प्रगति बौद्धधर्म के प्रभाव से ही हुई । बौद्ध दर्शन में शून्यवाद तथा विज्ञानवाद की जिन दार्शनिक पद्धतियों का उदय हुआ उनका प्रभाव शंकराचार्य के दर्शन पर पड़ा । यही कारण है कि शंकराचार्य को कभी-कभी प्रच्छन्न-बौद्ध भी कहा जाता है ।

(v) बौद्धधर्म ने लोगों के जीवन का नैतिक स्तर ऊँचा उठाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया । जन-जीवन में सदाचार एवं सच्चरित्रता की भावनाओं का विकास हुआ । बुद्ध स्वयं नैतिकता को सर्वोच्च प्राथमिकता देते थे तथा गान से भी इसे बढ्‌कर मानते थे ।

(vi) बौद्धधर्म ने न केवल भारत अपितु विश्व के देशों को अंहिसा, शान्ति बन्धुत्व, सह-अस्तित्व आदि का आदर्श बताया । इसके कारण ही भारत का विश्व के देशों पर नैतिक आधिपत्य कायम हुआ । बुद्ध ने मानव जाति की समानता का आदर्श प्रस्तुत किया था ।

(7) बौद्धधर्म के माध्यम से भारत का सांस्कृतिक सम्पर्क विश्व के विभिन्न देशों के साथ स्थापित हुआ । भारत के भिक्षुओं ने विश्व के विभिन्न भागों में जाकर अपने सिद्धान्तों का प्रचार किया । महात्मा बुद्ध की शिक्षाओं से आकर्षित होकर शक, पार्थियन, कुषाणादि विदेशी जातियों ने बौद्धधर्म को ग्रहण कर लिया ।

यवन-शासक मेनाण्डर तथा कुषाण शासक कनिष्क ने इसे राजधर्म बनाया और अपने साम्राज्य के साधनों को इसके प्रचार में लगा दिया । अनेक विदेशी यात्री तथा विहार बौद्धधर्म का अध्ययन करने तथा पवित्र बौद्धस्थलों को देखने की लालसा से भारत की यात्रा में आये । फाहियान, हुएनसांग तथा इत्सिंग जैसे चीनी यात्रियों ने भारत में वर्षों तक निवास कर इस धर्म का प्रत्यक्ष ज्ञान प्राप्त किया । आज भी विश्व की एक तिहाई जनता बौद्धधर्म तथा उसके आदर्शों में अपनी श्रद्धा रखती है ।

(8) बौद्धधर्म की सर्वाधिक महत्वपूर्ण देन भारतीय कला एवं स्थापत्य के विकास में रही । इस धर्म की प्रेरणा पाकर शासकों एवं श्रद्धालु जनता द्वारा अनेक स्तूप, विहार, चैत्यगृह, गुहायें, मूर्तियाँ आदि निर्मित की गयी जिन्होंने भारतीय कला को समृद्धशाली बनाया ।

साँची, सारनाथ, भरहुत आदि के स्तुप, अजन्ता की गुफायें एवं उनकी चित्रकारियों, अनेक स्थानों से प्राप्त एवं संग्रहालयों में सुरक्षित बुद्ध एवं बोधिसत्वों की मूर्तियों आदि बौद्धधर्म की भारतीय संस्कृति को अनुपम देन है । गन्धार, मथुरा, अमरावती, नासिक, कार्ले, भाजा आदि बौद्धकला के प्रमुख केन्द्र थे । गन्धार शैली के अन्तर्गत ही सर्वप्रथम बुद्ध मूर्तियों का निर्माण किया गया । आज भी भारत के कई स्थानों पर बौद्ध स्मारक विद्यमान है तथा श्रद्धालुओं के आकर्षण के केन्द्र बने हुए हैं ।

(9) विश्व के देशों को अहिंसा, करुणा, प्राणिमात्र पर दया आदि का सन्देश भारत ने बौद्धधर्म के माध्यम से ही दिया । इस प्रकार यह स्पष्ट है कि शताब्दियों पूर्व महात्मा युद्ध ने जिन सिद्धान्तों एवं आदर्शों का प्रतिपादन किया वे आज के वैज्ञानिक युग में भी अपनी मान्यता बनाये हुए है तथा संसार के देश उन्हें कायान्वित करने का प्रयास कर रहे हैं ।

भारत ने अपने राजचिह्न के रूप में बौद्ध प्रतीक को ही ग्रहण किया है तथा वह शान्ति एवं सह-अस्तित्व के सिद्धान्तों का पोषक बना हुआ है । पंचशील का सिद्धान्त बौद्धधर्म की ही देन है । आधुनिक संघर्षशील युग में यदि बुद्ध के सिद्धान्तों का अनुसरण करें तो निसन्देह शान्ति एवं सद्‌भाव स्थापित हो सकती है ।


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