प्राचीन भारत में विज्ञान और प्रौद्योगिकी पर निबंध | Essay on Science and Technology in Ancient India.

प्राचीन भारत के विज्ञान (Science of Ancient India):

यद्यपि यह एक सुविदित तथ्य है कि प्राचीन भारतीयों ने धर्म और दर्शन में ही विशेष रुचि ली तथापि इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि व्यवहारिक विज्ञान में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं थी । सभ्यता के आदि काल-पाषाणकाल-से ही हमें यहाँ के निवामियों में वैज्ञानिक बुद्धि होने का स्पष्ट प्रमाण मिलता है ।

विज्ञान के कुछ क्षेत्रों जैसे गणित, ज्योतिष, धातु विज्ञान आदि के क्षेत्र मैं भारत के लोगों ने जो अविष्कार किये तथा सफलता प्राप्त की वह सम्पूर्ण विश्व में प्रसिद्ध है । भारतीयों की वैज्ञानिक बुद्धि का परिचय प्रागैतिहासिक काल से ही मिलने लगता है । वस्तुतः पाषाणकालीन मानव ही विज्ञान की कुछ शाखाओं- बनस्पति शास्त्र, प्राणी शास्त्र, ऋतु शास्त्र आदि का जन्मदाता है ।

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पशुओं का चित्र तैयार करने के निमित्त उसने उनकी शरीर संरचना की अच्छी जानकारी प्राप्त की थी । खाद्य-अखाद्य पदार्थों का भी उसे ज्ञान था । खाद्य पदार्थ कहाँ और किस ऋतु में पाये जाते है, कौन पशु कहां तथा कब पाया जाता है-ये सब बातें उसे ज्ञात थी । मनुष्य ने अग्नि पर नियंत्रण स्थापित किया तथा सुन्दर एवं सुडौल औजार-हथियार, उपकरण आदि बनाना प्रारम्भ कर दिया ।

इसी गन ने कालान्तर में भौतिकी तथा रसायन को जन्म दिया । गार्डन चाइल्ड ने उचित ही सुझाया है- बन परम्परा में वनस्पति विज्ञान, ज्योतिर्विज्ञान तथा जलवायु विज्ञान का मूल अन्तर्निहित है । अग्नि पर नियंत्रण तथा उपकरणों का अविष्कार उन परम्पराओं का प्रारम्भ करते है जिसमें कालान्तर में भौतिकी एवं रसायन शास्त्र का उदय हुआ ।

वैज्ञानिक प्रगति का स्पष्ट ज्ञान सैन्धव सभ्यता में दिखाई देता है । सैन्धव नगरों का निर्माण एक सुनिश्चित योजना के आधार पर किया गया है । यहाँ के निवासियों के भार-माप के पैमाने भी सुनिश्चित हैं । इनका मानकीकरण दृष्टव्य है । संभवतः फुट तथा क्यूबिट का ज्ञान उन्हें रहा होगा । ने दशमलव पद्धति से भी परिचित लगते हैं ।

मोहेनजोदड़ो की खुदाई में एक स्केल मिली है जिसमें नौ समानान्तर रेखायें है तथा एक रेखा टूटी हुई है । इस आधार पर इसका निर्माण दाशमिक पद्धति पर माना गया है । पात्रों के ऊपर ज्यामितीय अलंकरणों से यह स्पष्ट आभास होता है कि रेखागणित के सिद्धान्तों से उनका अवश्यमेव परिचय रहा होगा ।

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तौल की इकाई 16 की संख्या तथा उसके आवर्त्तक थे । यह महत्वपूर्ण बात है कि सोलह के अनुपात की यह परम्परा आधुनिक काल तक भारत में चलती रही क्योंकि पुराना रुपया सोलह आने का ही होता था । सैन्धव लोगों का प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में ज्ञान भी काफी उन्नत था ।

पाषाण एवं धातु उद्योग दोनों अत्यन्त विकसित अवस्था में थे । विशाल पाषाण फलकों, मनकों, सेलखड़ी की आयताकार मुहरों, सोने, चाँदी, ताँवा, सीसा, कांसा आदि के आभूषण, मूर्तियाँ, उपकरण आदि का उत्पादन एवं निर्माण विकसित तकनीकी ज्ञान के परिचायक है ।

कालीबंगन तथा लोथल से प्राप्त बालक के दो कपालों के आधार पर ऐसा निष्कर्ष निकाला गया है कि इस काल के लोग खोपड़ी की शल्य चिकित्सा करना जानते थे । कालीबंगन से प्राप्त खोपड़ी पर छ: छेद हैं जो कुछ भर गये है । लोथल से भी प्राप्त एक बालक की खोपड़ी में छेद पाया गया है ।

एस. आर. राव के अनुसार यह खोपड़ी पर शल्य चिकित्सा किये जाने का प्राचीनतम उदाहरण है । के॰ के॰ थपल्याल के अनुसार यह चिकित्सा सिर-दर्द और चोट आदि के कारण असह्य पीड़ा को ठीक करने के लिये कि गयी होगी ।

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i. गणित:

वैदिक काल में गणित शास्त्र के विकसित होने का प्रमाण प्राप्त करते हैं । इस दृष्टि से सूत्र-काल (लगभग ई॰ पू॰ 600-400) महत्वपूर्ण है । इसमें कल्पसूत्र के अन्तर्गत आने वाला शुल्क-सूत्र विशेष महत्व का है । शुल्क का शाब्दिक अर्थ नापना होता है । यज्ञों में वेदियाँ और मण्डप बनाये जाते थे ।

वेदी की आकृति विभिन्न थी-वर्ग, समचतुर्भुज, समबाहु समलंब, आयत, समकोण त्रिभुज, आदि । इन्हें तैयार करने के लिये नाप-जोख की आवश्यकता पडती थी । इस कार्य के लिये जो विधि-विधान बनाये गये उन्हें शुल्ब सूत्रों में लिखा गया । वस्तुतः ये सूत्र ही भारत के गणितशास्त्र में प्राचीनतम ग्रन्थ कहे जा सकते हैं जिनमें ज्यामिति अथवा रेखागणित संबंधी ज्ञान को अत्यन्त विकसित पाते हैं ।

गौतम बौधायन, आपस्तम्भ, कात्यायन, मैत्रायण, वाराह, वसिष्ठ आदि प्राचीन सूत्रकार हैं । रेखागणित संबंधी सिद्धान्तों के प्रतिपादन तथा विकास का प्रधान श्रेय बौधायन को ही दिया जा सकता है । उन्होंने ही सबसे पहले √2 जैसी संख्याओं को अपरिमेय मानते हुए उनका अधिकतम शुद्ध मूल्य शत किया था ।

यूनानी दाशनिक पाइधागोरस (540 ई॰ पू॰) के नाम से प्रचलित प्रमेय जिसके अनुसार समकोण त्रिभुज के कर्ण पर का वर्ग शेष दो भुजाओं पर बने वर्गों के योग के बराबर होता है का ज्ञान बौद्धायन को शताब्दियों पूर्व ही था और अब अधिकांश विद्वान् इसे चुल्य प्रमेय ही कहना पसन्द करते हैं ।

बौद्धायन ने वृत्त को वर्ग तथा वर्ग को मृत में बदलने का नियम प्रस्तुत किया तथा त्रिभुज, आयत, समलम्ब चतुर्भुज जैसी रेखागणित की आकृतियों से वे पूर्ण परिचित थे । यजुर्वेद में अग्नि की स्तुति के संबंध में एक (1), दस (10), शत (100), सहस्त्र (1000), अयुत (10000), नियुत (100000) प्रयुत (1000000), अर्बुद (10000000), न्यर्बुद (100000000), समुद्र (1000000000), मध्य (10000000000), अन्त (100000000000) तथा परार्ध (1000000000000) जैसी संख्याओं का उल्लेख मिलता है ।

विष्णु पुराण में वर्णित है कि एक स्थान से दूसरे स्थान का मान दस गुना होता है तथा अठारहवें स्थान की संख्या को परार्ध कहते हैं । इस प्रकार स्पष्ट है कि एक से दस तथा दस पर आधारित अन्य संख्याओं के संबंध में दशमिक पद्धति का ज्ञान वैदिककालीन भारतीयों को था ।

लेकिन अंक चिन्हों के साथ इस पद्धति का प्रयोग सर्वप्रथम वक्षाली पाण्डुलिपि (तीसरी-चौथी शताब्दी ईस्वी) में ही प्राप्त होता है । बक्षाली, पाकिस्तान के पेशावर के समीप एक ग्राम है । यहीं से 1881 ई॰ में एक किसान को खुदाई करते समय खण्डित अवस्था में यह पाण्डुलिपि प्राप्त हुई थी समकालीन गणित की स्थिति पर प्रकाश डालने वाला यह एकमात्र ग्रन्थ है ।

इसमें न केवल भाग, वर्गमूल, अंकगणितीय एवं ज्यामितीय श्रेणियों जैसे प्रारम्भिक विषयों की व्याख्या है, अपितु यह कुछ विकसित विषयों जैसे सम्मिश्र श्रेणियों के योग, समरेखीय समीकरणों तथा प्रारम्भिक द्विघात समीकरणों जैसे विकसित विषयों पर भी प्रकाश डालता है ।

सूत्रकाल के बाद ज्यामितीय सिद्धान्तों का विकास गुप्तकाल के गणितज्ञ आर्यभट्ट द्वारा किया गया जिनकी सुप्रसिद्ध रचना ‘आर्यभट्टीयम्’ है । इसमें अंकगणित, ज्यामिति, बीजगणित तथा त्रिकोणमिति के सिद्धान्त दिये गये हैं । यह वृत्तों, त्रिभुज, चतुर्भुजी और ठोसों के कुछ महत्वपूर्ण गुणधर्मों का संकेत भी करता है ।

वृत्त के क्षेत्रफल के विषय में उनका कहना है कि यह परिधि तथा व्यास के आधे का गुणनफल (1/2 परिधि × 1/2 व्यास) होता है । त्रिभुज के क्षेत्रफल के विषय में उनका कहना है कि यह आधार तथा समान कोटी के गुणनफल का आधा है । उन्होंने पाई का आसन्न मान 22/7 अर्थात् 3.1416 बताया है जो इस समय भी शुद्धतम है ।

आर्यभट्ट ने अंकसंख्याओं का उल्लेख करते हुए उसमें गणना की दशमिक पद्धति का प्रयोग किया है । यह प्रथम नौ संख्याओं के स्थानीय मान तथा शून्य के प्रयोग पर आधारित था । वस्तुतः शून्य तथा दशमिक पद्धति की खोज जो अब समस्त विश्व में स्वीकृत है, भारतीयों की गणित क्षेत्र में महानतम् उपलब्धि है ।

बहुत समय तक यह माना जाता रहा कि संख्याओं के दशमलव सिद्धान्त का आविष्कार अरबवासियों ने किया था, किन्तु तथ्य यह नहीं है । अरबवासी स्वयं गणित को ‘हिन्दसा’ अथवा ‘हिन्दिस्त’ (भारतीय विद्या) कहते थे ।  अब यह स्पष्ट हो चुका है कि ‘दशमलव अंकन प्रणाली’ तथा अन्य गणितशास्त्र मुसलिम जगत् ने या तो पश्चिमी भारत के समुद्री व्यापारियों अथवा सिन्ध विजेता अरबों (712 ई॰) के माध्यम से सीखा था । इस संबंध में पश्चिमी संसार भारत का चिरऋणी है ।

‘वह अज्ञात व्यक्ति जो इस नवीन सिद्धान्त का जन्मदाता था, संसार के मतानुसार महात्मा बुद्ध के पश्चात् हुआ था, वह भारत माता का सबसे महत्वपूर्ण पुत्र था, उसकी यह महान् सफलता, यद्यपि सरलता के साथ सर्वमान्य हो गयी, प्रथम श्रेणी के विश्लेषणात्मक मस्तिक की उपज थी स्टैर जितना सम्मान उसे आज तक प्राप्त हुआ है उसमें कहीं अधिक का वह अधिकारी था ।’

इब्नवशिया (9वीं शती), अल्‌मसुदी (दशवीं शती) तथा अल्बरूनी (12वीं शती) जैसे अरब लेखक इस पद्धति के आविष्कार का श्रेय हिन्दुओं को ही देते हैं । आर्यभट्ट के पश्चात् ब्रह्मगुप्त (लगभग सातवीं शती) का नाम आता है । वे भिनमल निवासी विष्णु के पुत्र थे । उनकी प्रसिद्ध कृति ‘ब्रह्मस्फूट सिद्धान्त’ 628 ई॰ में लिखी गयी ।

इसमें वृत्तीय चतुर्भुजों, वर्गों, आयतों, आदि की परिभाषा तथा व्याख्या के लिये अनेक मूत्र दिये गये हैं । वृत्तीय चतुर्भुजों के क्षेत्रफल को 21वें श्लोक में, ‘टालेमी प्रमेय’ को 28वें श्लोक में, सूची स्तंभ और छिन्नक के आयतन को 45वें एवं 46वें श्लोक में उन्होंने वर्णित किया है । ब्रह्मगुप्त के पश्चात् महावीर (नवीं शती) तथा भास्कर अथवा भास्कराचार्य (12वीं शती) जैसे प्रसिद्ध गणितज्ञों का नाम आता है ।

इन्होंने जो अनुसंधान किये उनके विषय में पश्चिमी जगत् पुनर्जागरण काल अथवा उसके बाद तक नहीं जानता था । महावीर ने अत्यन्त सुबोध शैली में विविध प्रकार के वृत्तों का क्षेत्रफल निकालने की विधि प्रस्तुत किया ।

धनात्मक तथा ऋणात्मक परिणामों से वे परिचित थे, वर्गमूल एवं घनमूल निकालने की ठोस प्रणाली का प्रवर्त्तन किया तथा वर्ग समीकरण एवं अन्य प्रकार के अनिश्चित समीकरणों का हल निकालने में वे निपुण थे । गणितज्ञ भास्कर खानदेश (महाराष्ट्र) के निवासी थे जिनका सुप्रसिद्ध ग्राम्य सिद्धान्त शिरोमणि है ।

इसके चार भाग- लीलावती, बीजगणित, ग्रहगणित तथा गोला । अन्तिम में मुख्यतः खगोल का वर्णन है । कुछ विद्वान् लीलावती तथा बीजगणित को स्वतंत्र ग्रन्थ मानते हैं । भास्कराचार्य ने ‘लीलावती’ के ‘क्षेत्र व्यवहार’ नामक अध्याय में निम्न प्रकरणों पर लिखा है-समकोण त्रिभुजों पर प्रश्न, त्रिभुजों और चतुर्भुजों के क्षेत्रफल, वृत्तों के क्षेत्रफल और पाई का मान, नोलों के तल और आयतन ।

भास्कर ने ‘शुल्ब प्रमेय’ (पाइथागोरस प्रमेय) की उपपत्ति दी है । लीलावती अंकगणित और महत्वमानव (क्षेत्रफल, घनफल) का स्वतंत्र ग्रन्थ है, जिसमें पूर्णाक और भिन्न, त्रैराशिक, ब्याज, व्यापार गणित, मिश्रण, श्रेणियां, क्रमचय, मापिकी और थोड़ी बीजगणित भी है । लीलावती को पाटी गणित भी कहते हैं चूंकि प्राचीनकाल में गणना पाटी पर धूल बिछाकर उंगली या लकड़ी से की जाती थी ।

यद्यपि अनिर्णीत समीकरणों का अध्ययन आर्यभट्ट प्रथम के समय से ही आरंभ हो गया था, लेकिन भास्कर ने उसे चरम तक पहुँचाया । अपने महत्वपूर्ण ग्रंथ ‘बीजगणित’ में भास्कर ने 213 पद्य लिखे हैं । वर्णित विषय हैं- धनर्ण (धनात्मक) संख्याओं का योग, करणी संख्याओं का योग, कुट्‌टक (भाजक और भाज्य) की प्रक्रिया, वर्ग प्रकृति, एक-वर्ग समीकरण, अनेक-वर्ग समीकरण आदि ।

भास्कर ने अनिर्णीत वर्ग समीकरण के हल की जो विधि दी है, उसे ‘चक्रवाल विधि’ की सगा दी गई और यह खोज जो भास्कर ने 12वीं शती में की, उसे 16वीं शती में पाश्चात्य गणितज्ञों ने खोजा । सिद्धान्त शिरोमणि में सबसे महत्वपूर्ण ‘निरन्तर गति का विचार’ है ।

यह अरबों द्वारा बारहवीं शताब्दी में यूरोप में फैलाया गया । इसी से कालान्तर में शक्ति तकनीक का विकास हुआ । न्यूटन से शताब्दियों पूर्व भास्कर ने पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण सिद्धान्त का पता लगा लिया था । भास्कर ने बताया कि पृथ्वी का कोई आधार नहीं है और यह केवल अपनी शक्ति से स्थिर है ।

गुरुत्वाकर्षण को स्पष्ट करते हुए वे लिखते है- ‘पृथ्वी में आकर्षण शक्ति है जिसके द्वारा बलपूर्वक वह सभी वस्तुओं को अपनी ओर खींचती है । वह जिसे खींचती है वह वस्तु भूमि पर गिरती हुई प्रतीत होती है ।’ वे शून्य तथा अनन्त का निहितार्थ भलीभांति समझते थे । गणित द्वारा उन्होंने यह सिद्ध किया कि शून्य वस्तुतः अनन्तः है जो कभी भी विभाजित नहीं होता ।

इसे किसी राशि में जोड़ने अथवा इसमें कोई राशि जोड़ने या फिर किसी राशि में से घटाने से राशि चिह में कोई परिवर्तन नहीं होता । शून्य को किसी राशि से गुणा करने पर गुणनफल शून्य रहेगा किन्तु राशि को शून्य से भाग देने से फल ‘खहर’ अथवा ‘खछेद’ होता है । यही ‘खहर’ आज का अनंत (∞) का है । इस प्रकार शून्य का कितना भी विभाजन किया जाय वह अनन्त ही रहेगा ।

भास्कर ने इसे इस समीकरण द्वारा स्पष्ट किया ∞/x = ∞ । भारत में इस अनन्तता की अनुभूति ब्रह्म अथवा आत्मा के संबंध में वेदान्तियों द्वारा शताब्दियों पूर्व की जा चुकी थी जहाँ बताया गया कि ‘पूर्ण से पूर्ण निकालने पर पूर्व ही शेष रहता है ।’ इस प्रकार की स्पष्ट अवधारणा क्लासिकल गणितज्ञों की कभी नहीं रही । वस्तुत शून्य तथा अनन्त ही आधुनिक गणित के आधार है ।

इस प्रकार नवीन अंकन पद्धति, शून्य तथा दाशमिक पद्धति का आविष्कार गणित क्षेत्र में प्राचीन भारतीयों की सर्वाधिक महत्वपूर्ण उपलब्धियाँ है । अपनी जिन महत्वपूर्ण खोजों तथा आविष्कारों के ऊपर यूरोप के लोग इतना गर्व करते है, उनमें से अधिकांश विकसित गणितीय पद्धति के बिना संभव नहीं थे और यदि उन्होंने रोम की भारी भरकम अंक पद्धति को अपनाया होता तो वे और भी असंभव होते ।

भास्कर के पश्चात् भारत में गणित शास्त्र का कोई मौलिक लेखक नहीं हुआ । मुगलकाल में शेख फैजी (1587 ई॰) ने लीलावती का फारसी अनुवाद प्रस्तुत किया । तत्पश्चात् उनकी कृतियों का अंग्रेजी अनुवाद भी हुआ ।

ii. ज्योतिष एवं खगोल विद्या:

भारतीय ज्योतिष का इतिहास भी अत्यन्त प्राचीन है । वेदों को भलीभाँति समझने के लिये जिन छ: वेदांगों की रचना की गयी थी उनमें अन्तिम ज्योतिष है । यह यज्ञ-याग के उचित समय का निर्देश करता है । इसके लिये समय-शुद्धि की महती आवश्यकता होती थी ।

यश के कुछ विधानों का संबंध संवत्सर तथा ऋतु से भी होता था । नक्षत्र, तिथि, पक्ष, माह का भी निर्धारण यश के लिये आवश्यक था । इन सबका ज्ञान ज्योतिष के गान के बिना संभव नहीं था । यह बताया गया है कि ज्योतिष को भली-भाँति जानने वाला व्यक्ति ही यज्ञ का यथार्थ ज्ञाता होता है । इस प्रकार प्राचीन ज्योतिर्विद्या का उद्देश्य समय-समय पर होने वाले यज्ञों का मूहुर्त एवं काल निधारित करना था ।

उस काल की आवश्यकताओं के लिये यह पर्याप्त था । गुप्तकाल के पूर्व भारतीय ज्योतिष के विषय में हमारी जानकारी अत्यल्प है । संभवतः प्राचीन काल के भारतीय ज्योतिष ज्ञान पर मेसोपोटामिया का प्रभाव था । ईसा की प्रारम्भिक शताब्दियों से ज्योतिष पर यूनानी प्रभाव के विषय में स्पष्ट सूचना मिलने लगती है ।

बृहत्संहिता में यवनों को ज्योतिष का जन्मदाता होने के कारण कषियों के समान पूज्य बताया गया है । भारतीय अन्यों में ज्योतिष के पाँच सिद्धान्तों-पैतामह, वाशिष्ठ, सूर्य, पौलिश तथा रोमक उल्लिखित है । इनमें अन्तिम दो की उत्पत्ति यूनान से मानी गयी है ।

रोमक सिद्धान्त के अवध में वाराहमिहिर ने जिन नक्षत्रों का उल्लेख किया है वे यूनानी लगते हैं । पौलिश सिद्धान्त सिकन्दरिया के प्राचीन ज्योतिषी पाल के सिद्धान्तों पर आधारित प्रतीत होता है । ज्योतिष के माध्यम से यूनानी भाषा के अनेक शब्द संस्कृत तथा बाद की भारतीय भाषाओं में प्रचलित हो गये ।

गुप्त काल में संस्कृति के अन्य पक्षों के साथ-साथ ज्योतिष एवं खगोल विद्या का भी सर्वागीण विकास हुआ । इस समय तक खगोल विद्या का अध्ययन इतना अधिक लोकप्रिय हो गया था कि कालिदास जैसे कवियों ने भी इसका अनेकश उल्लेख किया ।

गुप्तकाल के इतिहास-प्रसिद्ध ज्योतिषी आर्यभट्ट प्रथम एवं वाराहमिहिर हैं । आर्यभट्ट प्रसिद्ध खगोलविद् होने के साथ-साथ महान् गणितज्ञ भी थे । आर्यभट्ट का जन्म पाटलिपुत्र में 476 ई॰ के लगभग हुआ । 23 वर्ष की आयु (499 ई॰) में उन्होंने अपने प्रसिद्ध ‘ग्रन्थ’ आर्यभट्टीयम्’ की रचना की थी ।

ज्योतिष के प्रगति की निश्चित एवं प्रत्यक्ष जानकारी इसी ग्रन्थ से मिलती है । आर्यभट्ट प्रथम ज्योतिष पर लेखनी उठाने वाले प्राचीनतम ज्ञात ऐतिहासिक व्यक्ति थे । निसंदेह वे भारत द्वारा उत्पन्न महानतम् वैज्ञानिकों में से है । उन्हें सिकन्दरिया के यूनानी ज्योतिषियों के प्रमुख सिद्धान्तों और निष्कर्षों का अच्छा ज्ञान था ।

साथ ही साथ अपने भारतीय पूर्व सूरियों के ग्रन्थों तथा पद्धतियों का भी उन्होंने ध्यानपूर्वक अध्ययन किया था । तथापि आर्यभट्ट ने किसी का भी अन्धानुकरण नहीं किया तथा सभी प्रकार के पूर्वाग्रहों से रहित होकर अपने निष्कर्षों का प्रतिपादन किया ।

वे लिखते है कि जैंने खगोलीय सिद्धान्तों के सच्चे-टूटे समुद्र में गहरी डूबका लगायी तथा अपनी बुद्धि रूपी नौका के माध्यम से सच्चे ज्ञान की मूल्यवान निमज्जित मणि का उद्धार किया । स्पष्टत उनके निष्कर्ष स्वयं के निरीक्षणों एवं अन्वेषणों पर आधारित थे ।

सिकन्दरिया के खगोल सम्प्रदाय के निष्कर्षों का भी आर्यभट्ट ने अन्धानुकरण नहीं किया अपितु अपने अन्वेषणों एवं निरीक्षणों द्वारा उनमें परिष्कार भी किया । उनके मन में भारतीय धर्मशास्त्रों- श्रुति, स्मृति, पुराण आदि के प्रति सम्मान था लेकिन इनके द्वारा प्रतिपादित इस मान्यता को मानने से उन्होंने इन्कार कर दिया कि सूर्य एवं चन्द्र ग्रहणों का कारण राहु और केतु जैसे असुर हैं ।

उन्होंने यह मत दिया कि चन्द्र या सूर्य ग्रहण चन्द्रमा पर मृथ्वी की छाया पड़ने से अथवा सूर्य और पृथ्वी के बीच चन्द्रमा के आ जाने से लगते हैं । आर्यभट्ट पहले भारतीय खगोलशास्त्री थे जिन्होंने यह खोज की कि पृथ्वी गोल है तथा अपने अक्ष के चारों ओर परिक्षण करती है, सूर्य स्थित है तथा पृथ्वी गतिशील है, चन्द्रमा तथा दूसरे ग्रह सूर्य के प्रकाश से ही प्रकाशित होते है, उनमें स्वयं कोई प्रकाश नहीं होता है ।

उन्होंने ही जीवा के फलनो का पता लगाया तथा खगोल के लिये उनका उपयोग किया, दो क्रमागत दिनों की अवधि में वृद्धि या कमी को नापने के लिये सटीक सूत्र प्रस्तुत किया, ग्रहीय गतियों के विवरण की व्याख्या के लिये अधिचक्रीय सिद्धान्त की स्थापना किया, चन्द्र की कक्षा में पृथ्वी की छाया के कोणीय व्यास को शुद्ध रूप में प्रकट किया ।

उन्होंने यह निश्चित करने के भी नियम बनाये कि किसी ग्रहण में चन्द्रमा का कौन सा भाग आच्छादित होता है तथा ग्रहण की अवधि में अर्धाश तथा पूर्ण ग्रास का ज्ञान किस प्रकार किया जा सकता है । आर्यभट्ट ने वर्ष लम्बाई 365.2586805 दिनों की बताई । यह टालमी द्वारा मान्य लम्बाई 365.2631579 दिनों की यथार्थ अवधि के सज्ञिकट है ।

सूर्य की पराकाष्ठा के देशान्तर तथा चन्द के पातों के नक्षत्र काल विषयक उनके विचार भी सही हैं । ये सभी खगोल क्षेत्र में उठत ज्ञान के परिचालक है किन्तु यह खेद का विषय है कि उन पद्धतियों तथा परीक्षणों के बारे में कुछ भी नहीं जानते जिन्होंने इन उपलब्धियों को सुगम बनाया ।

दूरवीक्षण यन्त्र के ज्ञान के अभाव में खगोल क्षेत्र में इतनी उच्चकोटि की उपलब्धि सचमुच आश्चर्य की बात कही जायेगी । पाश्चात्य जगत् कोपरनिसस (1473-1543) को ब्रह्माण्ड के ‘सूर्य केन्द्रिक सिद्धान्त’ का अन्वेषक मानता है, जबकि इसके शताब्दियों पूर्व भारतीय खगोलशास्त्री आर्यभट्ट ने इस सिद्धान्त का पता लगाकर ब्रह्माण्डीय गतिविधियों का केन्द्र सूर्य को घोषित कर दिया था ।

आर्यभट्ट ने ज्योतिष को गणित से अलग शास्त्र के रूप में प्रतिस्थापित कर दिया । उनके विचार सबसे अधिक वैज्ञानिक थे । आर्यभट्ट के पश्चात् उनके शिष्यों-नि:शंक, पाण्डुरंगस्वामी तथा लाटदेव द्वारा उनके सिद्धान्तों का प्रचार-प्रसार किया गया । इनमें लाटदेव सबसे अधिक प्रसिद्ध है जिसने पैलिस तथा रोमक सिद्धान्तों की व्याख्या प्रस्तुत की ।

उन्हें चर्व ‘सिद्धान्त गुरू’ भी कहा जाता है । आर्यभट्ट के पश्चात् भारतीय ज्योतिषियों में वाराहमिहिर (छठीं शताब्दी) का नाम उल्लेखनीय है । यदि आर्यभट्ट गणित ज्योतिष के प्रवर्तक थे तो वाराहमिहिर फलित ज्योतिष के प्रणेता के रूप में स्मरणीय है ।

वे उज्जयिनी के निवासी तथा आदित्यदास के पुत्र थे । उनका गणित ज्योतिष संबंधी प्रसिद्ध ग्रन्थ ‘पंचसिद्धान्तिका’ है जिसमें ईसा की तीसरी-चौथी शती में प्रचलित ज्योतिष के पाँचों सिद्धान्तों-पैतामह, वाशिष्ठ, रोमक, पौलिश तथा सूर्य-का उल्लेख मिलता है । ‘पंचसिद्धान्तिका’ के प्रथम खराड में खगोल विज्ञान पर विशद प्रकाश डाला गया है ।

ब्रह्माण्डीय पिण्डों का अस्तित्व, उनका परस्पर संबंध तथा प्रभाव संबंधी वाराहमिहिर का ज्ञान आज भी चमत्कृत करता है । इनमें मात्र सूर्य सिद्धान्त संबंधी पाण्डुलिपि तथा टीकायें ही इस समय प्राप्त है । वाराहमिहिर ने विज्ञान की उन्नति में कोई मौलिक योगदान तो नहीं दिया किन्तु ‘पंचसिद्धान्तिका’ लिखकर उन्होंने ज्योतिष का बड़ा उपकार किया ।

यदि यह ग्रन्थ न मिलता तो ज्योतिष शास्त्र का इतिहास ही अपूर्ण रहता । ‘पंचसिद्धान्तिका’ के अतिरिक्त वाराहमिहिर ने कुछ अन्य गुच्छों-बृहज्जातक, बृहत्संहिता तथा लघुजातक-की भी रचना की । ये फलित ज्योतिष की रचनायें है । बृहल्लातक एव वृहत्संहिता में भौतिक भूगोल, नक्षत्र विद्या, वनस्पति विज्ञान, प्राणि शास्त्र आदि का विश्लेषण किया गया है।

पौधों में होने वाले विभित्र रोगों तथा उनके उपचार के क्षेत्र में भी उन्होंने बड़ा काम किया । विभिन्न औषधि के रूप में पौधों के गुणकारी उपयोग सवधी उनके शोध आयुर्वेद की अमूल्य निधि है । वृहत्संहिता, ज्योतिष, भौतिक भूगोल, वनस्पति तथा प्राकृतिक इतिहास का विश्वकोश ही है ।

आर्यभट्ट तथा वाराहमिहिर के पश्चात् भारतीय ज्योतिषियों में ब्रह्मगुप्त का नाम प्रसिद्ध है । इनके प्रसिद्ध ‘ब्राह्मस्फुट सिद्धान्त’ के कुल चौबीस अध्यायों में से वाइस ज्योतिष से संबंधित है । ‘खण्ड खाद्यक’ इनका दूसरा ग्रन्थ है । ब्रह्मगुप्त को इस बात का श्रेय जाता है कि अरबों में ज्योतिष का प्रचार सर्वप्रथम उन्होंने ही किया । उनके गुच्छों का अल्वरूनी द्वारा अनुवाद किया गया ।

उनके सिद्धान्तों का विदेशों में वड़ा सम्मान था । साचो के अनुसार ‘प्राच्च सुधार के इतिहास में ब्रह्मगुप्त का स्थान अत्यन्त ऊंचा है । टालमी के पूर्व उन्होंने ही अरब के निवासियों को ज्योतिष का ज्ञान सिखाया था ।’

भारतीय खगोलशास्त्री अच्छे गणितज्ञ भी थे तथा इस विषय में उनका ज्ञान यूनानियों की अपेक्षा अधिक था । गणित के माध्यम से ही भारतीय खगोलविद्या यूरोप पहुंचाई गयी । सातवीं शताब्दी के सीरियाई ज्योतिषविद् सिविरस सिवोख्त को इसकी महानता का ज्ञान था तथा बगदाद के खलीफा ने अपने यहाँ भारतीय खगोलविदों को नियुक्त कर रखा था । मध्यकालीन यूरोपीय खगोलशास्त्र में प्रचलित शब्द ‘आक्स’ (ग्रहपथ का सर्वोच्च स्थान) निश्चित रूप से संस्कृत के ‘उच्च’ से लिया गया है ।

iii. भौतिक तथा रसायन:

a. भौतिक विज्ञान:

इस क्षेत्र में प्राचीन भारतीयों की उपलब्धियां अपेक्षाकृत सीमित हैं । भौतिकी विषयक भारतीय विचार धर्म एवं आध्यात्म के साथ घनिष्ठ रूप से संबंधित थे । अतः इस शास्त्र का स्वतन्त्र रूप से विकास नहीं हो पाया । आधुनिक भौतिकी का सर्वप्रमुख सिद्धान्त परमाणुवाद है ।

भारत में इस सिद्धान्त का अस्तित्व बुद्धकाल (ईसा पूर्व छठीं शती) में ही दिखाई देता है । बुद्ध के एक समकालीन पकुधकात्यायन ने यह बताया कि सृष्टि का निर्माण सात तत्वों-पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, सुख, दुख तथा जीव से मिलकर हुआ है । इनमें कम से कम चार तत्वों का अस्तित्व सभी सम्प्रदाय स्वीकार करते है ।

आस्तिक हिन्दुओं तथा जैनियों ने इसमें ‘आकाश’ नामक पाँचवाँ तत्व जोड़ दिया तथा इस प्रकार ये पन्चतत्व सृष्टि रचना अथवा मानव शरीर के रचनात्मक तत्व स्वीकार कर लिये गये । भारत में परमाणुवाद का संस्थापक वैशेषिक दर्शन के प्रवर्त्तक महर्षि कणाद (ई. पू. छठी शती) को माना जाता है जिन्होंने भारत में भौतिक शास्त्र का आरम्भ किया ।

उनका कहना था कि समस्त भौतिक वस्तुयें परमाणुओं के संयोग से ही बनती हैं । तत्व के सूक्ष्मतम एवं अविभाज्य कण को परमाणु कहते हैं । दो परमाणुओं का प्रथम संयोग द्वयणुक कहा जाता है । यह अणु, ह्रस्व तथा अगोचर होता है । तीन द्वन्द्वणुक मिलकर त्र्यणुक का निर्माण करते हैं । परमाणुओं के संयोग का यह कम तब तक चलता रहता है जब तक कि पृथ्वी, जल, तेज तथा वायु महाभूत उत्पन्न नहीं हो जाते । परमाणु नित्य एवं अविभाज्य होते हैं ।

उन्नीसवीं शती के जॉन डाल्टन को परमाणुवाद के सिद्धान्त का प्रतिपादक माना जाता हैं किन्तु इसके शताब्दियों पूर्व भारतीय मनीषियों द्वारा इसकी कल्पना की जा चुकी थी । भारतीय परमाणुवाद यूनानी प्रभाव से मुक्त था क्योंकि बुद्ध के ज्येष्ठ समकालीन पकुधकत्यायन जिन्होंने सर्वप्रथम परमाणुओं की कल्पना की थी, यूनानी डेमोक्रिटस के पहले हुए थे ।

भारतीय परमाणु सिद्धान्त परीक्षण पर आधारित न होकर अन्तर्दृष्टि एवं तक पर आधारित थे । इसी कारण उन्हें विश्व में मान्यता नहीं मिल सकी । तथापि ये विश्व की भौतिक संरचना की अद्‌भुत कल्पनात्मक व्याख्यायें हैं जो कई अर्थों में आधुनिक भौतिकी अनुसंधानों से समता रखती हैं ।

b. रसायन शास्त्र:

प्राचीन भारत में रमायन शास्त्र तकनीक का सहायक न होकर औषधि शास्त्र की दासी था जिस कारण इसका स्वतंत्र विकास नहीं हो सका । प्राचीन रसायन शास्त्र रसविद्या अथवा रसशास्त्र के नाम से जाना जाता है ।

रसायनज्ञों ने मध्ययुगीन यूरोपीयनों के समान मूल धातु को स्वर्ण से रूपान्तरण करने की तकनीक में दिलचस्पी नहीं ली तथा अपना ध्यान अधिकांशतः औषधियों, आयुवर्धक रसायनों, वाजीकरों, विषों तथा उनके प्रतिकारों आदि के बनाने पर ही केन्द्रित किया ।

ये रसायनज्ञ विचूर्णन तथा आसवन जैसी सामान्य प्रक्रिया द्वारा विविध प्रकार के अस्त, क्षार तथा धातु लवण बनाने में सफल भी हो गये । उन्होंने एक प्रकार की बारुद का भी अविष्कार कर लिया था । प्राचीन गन्थों में रसविद्या को ‘पराविद्या’ कहा गया है जो तीनों लोकों में दुर्लभ तथा भोग और मुक्ति प्रदान करती है ।

भारतीय परम्परा में बौद्ध दार्शनिक नागार्जुन को रसायन का नियामक माना गया है जो कनिष्क के समकालीन थे । संभव है इस नाम के कुछ और आचार्य भी बाद में हुए हो । ह्वेनसांग के अनुसार नागार्जुन दक्षिण कोशल में निवास करते थे । वे रसायन शास्त्र में सिद्ध थे तथा उन्होंने अत्यन्त लम्बी आयु देने वाली एक सिद्धवटी का अविष्कार किया था ।

सोने, चाँदी, ताँबे, लोहे आदि के भस्मों द्वारा उन्होंने विविध रोगों की चिकित्सा का विधान भी प्रस्तुत किया था । पारा की खोज उनका सबसे महत्वपूर्ण अविष्कार था जो रसायन के इतिहास में युगान्तकारी घटना है । संभव है नागार्जुन के शिष्यों ने इस विद्या को संरक्षित रखा हो लेकिन हमें इससे संबंधित कोई ग्रन्थ नहीं मिलता । महर्षि कणाद के वैशेषिक दर्शन में भी रासायनिक प्रक्रिया की कल्पना की गयी है ।

मेहरौली स्थित लौह स्तम्भ इस बात का जीता-जागता प्रमाण है कि प्राचीन भारतीय वैज्ञानिक धातु विज्ञान में अत्यन्त निष्णात थे । जिस समय पश्चिमी विश्व में भी लोहा बनाने की विधि का अधूरा ज्ञान था, भारतीय धातु शोधकी ने इस लौह स्तम्भ को इतनी निपुणता से बनाया कि पिछले डेढ़ हजार वर्षों से धूप और वर्षा में खुला खड़ा होने पर भी इसमें किसी प्रकार की जंग नहीं लगने पाई है । इसकी पालिश आज भी धातु वैज्ञानिकों के लिये आश्चर्य की वस्तु है । कई शताब्दियों तक इतने बड़े लौह स्तम्भ का निर्माण मानव कल्पना से परे था ।

iv. चिकित्सा शास्त्र:

इस क्षेत्र में प्राचीन भारतीयों की उपलब्धियाँ अपेक्षाकृत अधिक महत्वपूर्ण यही जा सकती है । भारत में चिकित्सा अथवा औषधिशास्त्र का इतिहास अत्यन्त प्राचीन है और यह वैदिक काल तक जाता है । ऋग्वेद में ‘अश्विन्’ को देवताओं का कुशल वैद्य कहा गया है जो अपने औषधों से रोगों को दूर करने में थे ।

वे बीमार पड़े लोगों को रोग मुक्त करते थे । अथर्ववेद में आयुर्वेद के सिद्धान्त तथा व्यवहार संबंधी वातें मिलती । रोग, उनके प्रतिकार तथा औषध संबंधी अनेक उपयोगी तथा वैज्ञानिक तथ्यों का विवरण इसमें दिया गया है । विविध प्रकार के ज्वरों, यक्ष्मा, अपचित (गण्डमाला), अतिसार, जलोदर जैसे रोगों के प्रकार एवं उनकी चिकित्सा का विधान प्रस्तुत किया गया है ।

प्रतीकार संबंधी वर्तमान शल्य क्रियाओं का भी यंत्र-सत्र निर्देश मिलता है । ‘विषस्य विषमौषधम्’ अर्थात् विष की दवा विष ही होती है का सिद्धान भी अथर्ववेद के एक मन्त्र (7.88.1) में मिलता है । उल्लेखनीय है कि इसी पद्धति पर आधुनिक होमियोपैथी चिकित्सा आधारित है जिसका मूल सिद्धान्त ‘सम से सम की चिकित्सा’ (सम: समे शमयति) है ।

इसी को लैटिन भाषा में सिमिलिया सिमिलिबस क्यूरेन्टर कहा जाता है । प्राचीन भारतीयों ने इस सिद्धान्त को अपनाया था । महाभारत में विवरण मिलता है कि एक बार भीम को दुर्योधन ने विष खिलाकर गहरे जल में फेक दिया तथा वह अचेतावस्था में नाग लोक जा पहुंचा । वहां साँपों के काटने से उसके शरीर से विष का प्रभाव दूर हो गया तथा वह तत्काल स्वस्थ हो गया ।

बुद्धकाल में औषधि शास्त्र का व्यापक अध्ययन होता था । जातक ग्रन्थों से पता चलता है कि प्रसिद्ध विश्वविद्यालय तक्षशिला में वैद्यक के ख्याति प्राप्त विद्वान् थे जहां दूर-दूर से विद्यार्थी आयुर्वेद का अध्ययन करने के लिये आते थे । इन्हीं में जीवक का नाम मिलता है ।

वह मगध नरेश बिम्बिसार के पुत्र अभय द्वारा तक्षशिला पहुँचाया गया । वहाँ सात वर्षों तक निवास कर उसने विविध औषधियों का अध्ययन किया तथा वैद्यक का प्रसिद्ध विद्वान् बन गया । उसका शुल्क 1600 कार्षापण था । बिम्बिसार ने उसे अपना राजवैद्य बनाया तथा उसने बिम्बिसार, प्रद्योत तथा महात्मा बुद्ध तक की चिकित्सा कर उन्हें रोगमुक्त किया था ।

अर्थशास्त्र से पता चलता है कि मौर्यकाल में चिकित्सा शास्त्र विकसित था । साधारण वैद्यों, चीड़-फाड़ करने वाले भिजषों एवं चीड़-फाड़ में प्रयुक्त होने वाले यन्त्रों, परिचारिकाओं, महिला चिकित्सकों आदि का उल्लेख मिलता है । शव-परीक्षा भी किया जाता था ।

शवों को विकृत होने से बचाने के लिये तेल में डुबोकर रखा जाता था । अकाल मृत्यु के विभिन्न मामलों जैसे फांसी, विषपान आदि की जाँच कुशल चिकित्सक करते थे । आयुर्वेद में मुनि आत्रेय का वही स्थान है जो यूनानी चिकित्सा में हिपोक्रेटीस का ।

आत्रेय संहिता में वर्णित है कि रोगों के कई वर्ग हैं-साध्य रोग, असाध्य रोग, तंत्र-मंत्र द्वारा साध्य रोग, तथा वह रोग जिनके उपचार की संभावना काफी क्षीण है । ज्वर, अतिसार, पेचिश, क्षय, रक्तचाप आदि के उपचार की विशेष चर्चा की गई है । इस ग्रंथ में जल चिकित्सा का भी वर्णन है ।

चिकित्सा शास्त्र के क्षेत्र में उल्लेखनीय प्रगति ईसा पूर्व प्रथम शती से ही हुई जबकि चरक तथा सुश्रुत जैसे सुप्रसिद्ध आचार्यों ने आयुर्वेद विषयक अपने ज्ञान से सम्पूर्ण विश्व को आलोकित किया । चरक को कायचिकित्सा का प्रणेता कहा जा सकता है । वे कुषाण नरेश कनिष्क प्रथम के राजवैद्य थे ।

उनकी कृति ‘चरक संहिता’ काय चिकित्सा का प्राचीनतम प्रामाणिक ग्रन्थ है और महर्षि आत्रेय के उपदेशों पर आधारित है । अल्वरूनी ने इसे औषधि शास्त्र का ‘सर्वश्रेष्ठ ग्रन्थ’ बताया है । चरक संहिता में 120 अध्याय है । इसमें आठ खण्ड हैं जिन्हें ‘स्थान’ कहा गया है-सूत्र, निदान, विमान, शरीर, इंद्रिय, चिकित्सा, कल्प तथा सिद्धि ।

इसमें शरीर रचना, गर्भ स्थिति, शिशु का जन्म तथा विकास, कुष्ठ, मिरगी, ज्वर जैसे प्रमुख आठ रोग, मन के रोगों की चिकित्सा, भेदोपभेद आहार, पेथ्यापथ्य, रुचिकर स्वास्थवर्धक भोज्यों, औषधीय बनस्पतियों आदि का वर्णन किया गया है ।

प्राचीन वनस्पति एवं रसायन के अध्ययन का भी यह एक उपयोगी साथ है । इसमें चिकित्सकों के पालनार्थ जो व्यवसायिक नियम दिये गये है वे हिप्पोक्रेटस के नियमों का स्मरण कराते हैं तथा प्रत्येक समय तथा स्थान के चिकित्सक के लिये अनुकरणीय हैं ।

इनमें एक वैद्य को दिये गये निर्देश जो वह अपने शिष्यों को प्रशिक्षण समाप्ति के समय देता था उल्लेखनीय है-

”यदि तुम अपने कार्य में सफलता, धन, सम्मान तथा मृत्यु के पश्चात् स्वर्ग प्राप्त करना चाहते हो, तो तुम्हें प्रतिदिन प्रातः उठने पर और सोने ले पहले सभी प्राणियों विशेषकर गो एवं ब्राह्मणों के कल्याण के लिये प्रार्थना करनी चाहिए । तुम्हें सच्चे हृदय से रोगी के स्वास्थ्य के लिये प्रयास करना चाहिए, अपने स्वयं के जीवन के मूल्य पर भी तुम अपने रोगी के साथ धोखा न करो मद्यपान मत कर, पाप न करो तुम्हारे मित्र बुरे न हों, तुम मृदुभाषी एवं विचारवान बनो तथा सदैव अपने ज्ञान की वृद्धि के लिये प्रयत्नशील रहो । यदि तुम्हें किसी रोगी के घर जाना पड़े तो तुम्हें अपने वचन, मन, बुद्धि तथा इन्द्रियों को उसकी चिकित्सा के अतिरिक्त अन्यत्र कहीं नहीं लगाना चाहिए, रोगी के घर की बातों की चर्चा बाहर नहीं करनी चाहिए और न ही रोगी की दशा के विषय में उस व्यक्ति को बताना चाहिए जिससे रोगी को कोई हानि पहुँच सके ।”

‘चरक संहिता’ का न केवल भारतीय अपितु सम्पूर्ण विश्व चिकित्सा के इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान है । इसका अनुवाद कई विदेशी भाषाओं में हो चुका है । भारतीय चिकित्सा शास्त्र का तो यह विश्वकोश ही है । इसके द्वारा निर्देशित सिद्धान्तों के आधार पर ही कालान्तर में आयुर्विज्ञान का विकास हुआ ।

चरक के कुछ समय पश्चात् सुश्रुस् का आविर्भाव हुआ । यदि चरक काय चिकित्सा के प्रणेता थे तो सुश्रुत शल्य चिकित्सा के । उनके ग्रन्थ ‘सुश्रुत संहिता’ में उपदेष्टा धन्वंतरि है और संपूर्ण संहिता सुश्रुत को सम्बोधित करके कही गयी है । इसमें विविध प्रकार की शल्य एवं छेदन क्रियाओं का अतिसूक्ष्म विवरण दिया गया है । मोतियाबिन्द, पथरी जैसे कई रोगों का शल्योपचार बताया गया है ।

शवविच्छेदन का भी वर्णन है । सुश्रुत ने शल्य क्रिया में प्रयुक्त होने वाले लगभग 121 उपकरणों के नाम गिनाये है जो अच्छे लोहे के बने होते थे । वे चिकित्सा तथा शल्य विज्ञान में दीक्षित होने वाले छात्रों का विवरण भी प्रस्तुत करते है । वे सुइयों तथा पट्टी बांधने की विविध विधियाँ का भी उल्लेख करते है ।

चरक के समान सुश्रुत की ख्याति भी विश्वव्यापी थी । गुप्तकाल में भी चरक तथा सुश्रुत के सिद्धान्तों को मान्यता मिलती रही तथा उन्हें अत्यन्त सम्मान के साध देखा जाता था । उनके ग्रन्थों को व्यवस्थित करके छठीं शताब्दी के लेखक बाणभट्ट प्रथम ने एक संग्रह प्रस्तुत किया ।

मनुष्यों के साथ-साथ पशुओं की चिकित्सा पर भी ग्रन्थ लिखे गये । इसका एक अच्छा उदाहरण पालकाप्य कृत ‘हस्त्यायुर्वेद्य’ है । इस विस्तृत ग्रन्थ के 160 अध्यायों में हाथियों के प्रमुख रोगों, उनकी पहचान एवं चिकित्सा का वर्णन किया गया है । अनेक शल्य क्रियाओं का भी उल्लेख है ।

भारतीय चिकित्सा पद्धति तीन रसों-कफ, वात तथा पित्त के सिद्धान्त पर आधारित थी । इनके संतुलित रहने पर ही मनुष्य स्वस्थ रहता था । तीनों रस जीवनी शक्ति माने जाते थे । आहार-विहार के संतुलन (युक्ताहार विहारश्च) पर भी विशेष बल दिया जाता था । स्वच्छ वायु तथा प्रकाश के महत्व को भी भली भाँति समझा गया था ।

प्राचीन भारतीयों का औषधकोश अत्यन्त विस्तृत था और इसमें पशु, वनस्पतियां तथा खनिज उत्पादन सभी सम्मिलित थे । अनेक एशियाई जड़ी-बूटियां में पहुंचने के पहले से ही यहाँ ज्ञात थीं । इनमें विशेष उल्लेखनीय छीलमुग्र वृक्ष का तेल है जिसे कुष्ठ रोग की माना जाता था । आज भी इस रोग की चिकित्सा का यही आधार है ।

भारत में परोपकारी शासकों एवं धार्मिक संस्थानों के संरक्षण में चिकित्सा शास्त्र की यथेष्ठ प्रगति हुई । अशोक जैसा शासक इस बात पर गर्व करता है कि उसने अपने राज्य में मानव तथा पशु जाति, दोनों की चिकित्सा की अलग-अलग व्यवस्था करवाया था ।

चीनी यात्री फाह्यान लिखता है कि यहाँ धार्मिक संस्थानों द्वारा औषधालय स्थापित किये गये थे जहां मुफ्त दवायें वितरित की जाती थीं । भारतीय चिकित्सक विविध रोगों के विशेषज्ञ थे । यद्यपि शवों के सम्पर्क पर निषेध के कारण शरीर विज्ञान एवं जीव विज्ञान के क्षेत्र में यथेष्ट प्रगति नहीं हो सकी तथापि भारतीयों ने एक प्रयोगाश्रित शल्य शास्त्र का विकास कर लिया था ।

प्रसवोत्तर शल्य क्रिया विदित थी, अस्थि संधान में निपुणता प्राप्त कर ली गयी थी तथा चिकित्सक नष्ट, युद्धक्षत अथवा दण्ड स्वरूप विकृत किये गये नाक, कान एवं होठों को पुन जोड़कर ठीक कर सकते थे । इस दृष्टि से भारतीय शल्य विज्ञान यूरोपीय शल्य विज्ञान से अठारहवीं शती तक आगे रहा तथा तत्कालीन ईस्ट इण्डिया कम्पनी के चिकित्सकों ने भी भारतीयों से इस विद्या को सीखने में गर्व का अनुभव किया ।

प्राचीन भारत के प्रौद्योगिकी (Technology of Ancient India):

प्राचीन भारतीयों ने विज्ञान के साथ-साथ प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में महत्वपूर्ण प्रगति की । इसका प्रारम्भ प्रागैतिहासिक काल से ही दिखाई देता है । इससे तात्पर्य पाषाणकाल से है जिसका विभाजन पूर्व, मध्य तथा उत्तर अथवा नव पाषाणकाल में किया जाता है । इस काल में पाषाण प्रौद्योगिकी का खूब विकास हुआ ।

आदि मानव ने पाषाण से विविध प्रकार के उपकरणों का निर्माण किया । पाषाण काल के प्रमुख उपकरण कोर, फ्लेक तथा ब्लेड हैं । उपकरण बनाने के लिये कोई उपयुक्त पत्थर चुना जाता था, फिर उस पर किसी गोल-मटोल पत्थर से हथौडे के समान चोट की जाती थी जिससे उसका एक छोटा खण्ड निकल जाता था ।

इस विधि से कई छोटे-छोटे टुकड़े निकल जाते थे तथा बचे हुए आन्तरिक भाग को बार-बार चोट करके अभीष्ट आकार का तैयार कर लिया जात था । इसे ही कोर कहते थे जबकि अलग हुए टुकड़ों को फ्लेक कहा जाता था । इनके किनारों पर बारीक घिसाई करके उन्हें धारदार बना दिया जाता था जो ब्लेड कहलाते थे ।

कुछ के निर्माण में अत्यन्त उन्नत प्रौद्योगिकी के दर्शन होते हैं । पाषाण निर्मित प्रमुख उपकरण हैं – गड़ासा तथा खण्डक उपकरण, हैन्ड एक्स तथा क्लीवर, खुरचनी, बेधनी, तक्षणी, बेधक, आदि । पूर्व पाषाणयुगीन मानव ने पत्थरों की कटाई, घिसाई आदि के द्वारा अभीष्ट उपकरण बनाने में दक्षता प्राप्त कर लिया था ।

मध्य पाषाण काल में अपेक्षाकृत छोटे उपकरण तैयार किये गये जिन्हें लघु पाषाणोपकरण कहा जाता है । इस काल के मानव ने प्रक्षेपास्त्र तकनीक के विकास का प्रयत्न किया । यह एक महान् प्रौद्योगिक क्रान्ति थी । अब तीर-धनुष का विकास कर लिया गया । तीर की नोंक बनाने के लिये छोटे पत्थर के उपकरण सावधानीपूर्वक गढ़े जाते थे ।

इनकी धार अत्यन्त तेज बनाई जाती थी मध्य-पाषाणकालीन उपकरण अर्धचास्कि अर्धचान्द्रिक, छिद्रक, बेधनी, ब्लेड तथा ब्यूरीन आदि हैं जो चर्ट, चाल्सडनी और एगेट् पत्थरों से बने हैं । नवपाषाण काल तक आते-आते मनुष्य का तकनीकी शान और विकसित हो गया ।

अब मनुष्य ने पाषाण फलकों से गढ़ायी, घिसाई तथा उन पर पालिश करके अभीष्ट उपकरण तैयार कर लिये । पाषाण के साथ-साथ अस्थियों एवं सींगों से भी उपकरण तैयार किये जाते थे । इनमें सबसे प्रमुख पालिशदार पत्थर की कुल्हाड़ियां है जो देश के विभिन्न भागों से बड़ी मात्रा में पायी गयी है ।

ये विविध आकार-प्रकार की है । कुछ में तिकोना दस्ता लगा रहता था तथा कभी-कभी स्कन्धित भी होती थी जबकि कुछ के किनारे अण्डाकार तथा हत्थे नुकीले होते थे । इस प्रकार पाषाण प्रौद्योगिकी का विकास पाषाणकाल में हो चुका था । पत्थर से वस्तुयें बनाने का उद्योग कालान्तर में अत्यन्त विकसित हो गया ।

पाषाण प्रौद्योगिकी के पश्चात् धातु प्रौद्योगिकी का विकास पाते हैं । धातुओं में मनुष्य ने सर्वप्रथम ताँबे का प्रयोग किया । तत्पश्चात् कांसा तथा अन्ततः लोहे का प्रयोग किया । बहुत समय तक मनुष्य ने तांबे तथा पत्थर के उपकरणों का साथ-साथ प्रयोग किया । इसी कारण इस अवस्था को ताम्रपाषाणिक कहा जाता है ।

यह संस्कृति प्राक् हड़प्पा, हड़प्पा तथा उत्तर हड़प्पा काल तक फैली हुई है । प्राक् हड़प्पाई संस्कृति के लोग ताँबे के उपकरणों में कुल्हाड़ियों, चाकू, चूड़ियों, मुद्रिकाये, कंकण आदि का प्रयोग करते थे । इनका निर्माण अत्यन्त सूक्ष्मता एवं सफाई के साथ किया गया है । लोग ताँबे को पिघलाने की कला जानते थे ।

हड़प्पा संस्कृति में अत्यन्त उन्नत तकनीक धातुकर्म का विकास पाते है । यहाँ के विभिन्न स्थलों से ताँबे तथा कांसे की बनी हुई वस्तुयें प्राप्त होती हैं । ऐसा प्रतीत होता है कि समाज में कांस्य शिल्पियों का कोई महत्वपूर्ण संगठन कार्यरत था । वे प्रतिमाओं और बर्तनों के अतिरिक्त कई प्रकार के औजार और हथियार भी बनाते थे । मूर्तियों का भी निर्माण किया जाता था ।

मोहेनजोदड़ों से प्राप्त कांस्य नर्तकी की मूर्ति धातु शिल्प का सर्वश्रेष्ठ नमूना है । इसके अतिरिक्त इस सभ्यता में बड़े पैमाने पर पाषाण फलकों का उत्पादन, मनका उद्योग, सेलखड़ी की आयताकार मुहरें बनाने का उद्योग, इष्टिका उद्योग, आदि के भी सुविकसित होने का प्रमाण मिलता है ।

सैन्धव सभ्यता के बाद भारत के विभिन्न क्षेत्रों में विकसित ताम्रपाषाणिक संस्कृतियों के दर्शन होते हैं । इनमें ताम्र धातु का व्यापक प्रयोग हुआ । ताँबे को घरों में पिघलाकर वस्तुयें बनाने के साक्ष्य मिलते हैं । राजस्थान का क्षेत्र ताम्र धातु उद्योग का सर्वप्रमुख केन्द्र था ।

यहाँ के एक पुरास्थल अहाड़ का अपर नाम ताम्बवती अर्थात ताँबे वाली जगह भी मिलता है । इसी के समीप गणेश्वर नामक स्थल से बड़ी मात्रा में ताँबे के उपकरण मिलते हैं । इनमें अंगूठियाँ, चूड़ियां, कुल्हाडियों, सुरमा लगाने की सलाइयाँ, चाकू के फल, कंगन आदि हैं ।

इसके अतिरिक्त पूर्व में बंगाल से पश्चिम में गुजरात तथा दक्षिण में आन्ध्र प्रदेश से उत्तर में उत्तर प्रदेश तक के विशाल भूभाग से चालीस से भी अधिक ताम्र निधियाँ प्राप्त होती हैं । इनमें अंगूठी, सब्बर या खन्ती, टेकदार कुल्हाड़ी, मूठवाली तलवार, हार्पून, बसूली, श्रृंगिका तलवारें, मानव आकृतियाँ आदि है । इन सबसे सूचित होता है कि अब देश के विभिन्न भागों में धातु प्रौद्योगिकी काफी विकसित एवं लोकप्रिय हो गयी थी ।

लगभग 1200 ई॰ के आस-पास मध्य और पश्चिमी भारत से ताम्रपाषाणिक संस्कृतियों का विलोप हो गया । इसके बाद लौह धातु का प्रचलन हुआ । ई॰ पू॰ छठी शताब्दी अथवा बुद्ध काल में गंगा-घाटी में नगरों का तेजी से उत्थान हुआ । इसे द्वितीय नगरीकरण कहा जाता है । इसके पीछे लौह तकनीक का विकास भी उत्तरदायी था ।

पहले केवल युद्ध के उपकरण ही लोहे से तैयार किये जाते थे । मगध क्षेत्र में कच्चा लोहा आसानी से प्राप्त हो जाता था । यहाँ के लुहार लोहे के अच्छे-अच्छे हथियार बना लेते थे जो मगध के शासकों को सहज में सुलभ थे । जैन ग्रन्थों से पता चलता है कि अजातशत्रु ने प्रथम बार वज्जिसंघ के साथ युद्ध में रथमूसल तथा महाशिलाकण्टक जैसे विध्वंसक अस्त्रों का प्रयोग किया था ।

ये अवश्य ही लोहे के चने रहे होंगे । मगध साम्राज्यवाद को विकसित एवं सुदृढ़ करने में लौह तकनीक का भी हाथ रहा है । युद्ध संबंधी अस्त्र-शस्त्रों के साथ-साथ अब गंगाघाटी में बड़े पैमाने पर लोहे से कृषि में काम आने वाले उपकरण भी तैयार किये जाने लगे । इनकी सहायता से वनों की कटायी कर अधिकाधिक भूमि कृषि योग्य बनाई गयी तथा प्रभूत उत्पादन होने लगा । उत्पादन अधिशेष ने नगरीकरण को पुष्ट किया ।

मालवा, पूर्वी भारत तथा दक्षिण भारत के विभिन्न भागों में लौह तकनीक का तेजी से विस्तार एवं विकास हो गया । तकनीकी ज्ञान नगरीय एवं ग्रामीण अर्थव्यवस्था की उन्नति का मुख्य आधार सिद्ध हुआ । लुहारों ने कडे में कड़े औजार बनाना प्रारम्भ कर दिया । देश के विभिन्न भागों में समृद्ध लोहे की खानें थी ।

इस्पात का निर्माण भी होने लगा । बरार में माहुरझारी के एक वृहत्पाषाणिक स्थल से लोहे की एक ऐसी कुल्हाड़ी मिलती है जिसमें 6% कार्बन की मात्रा है । इसे इस्पात ही कहना पड़ेगा । इस्पात बनाने की कला सर्वप्रथम भारत में ही विकसित हुई । इस्पात निर्मित तलवारें पूरे विश्व में वेजोड़ थीं । भारत ईसा-पूर्व चौथी शती तक इनका निर्यात विश्व के अन्य देशों को करने लगा ।

मौर्य काल में पाषाण एवं लौह प्रौद्योगिकी का खूब विकास हुआ । अशोक के एकाश्मक स्तम्भ पाषाण तराशने की कला की उत्कृष्टता के साक्षी हैं । लगभग पचास टन वजन तथा तीस फीट से अधिक की ऊंचाई वाले स्तम्भों को पाँच-छह सौ मील की दूरी तक ले जाकर स्थापित करना तत्कालीन अभियान्त्रिकी कुशलता को सूचित करता है तथा आज के वैज्ञानिक युग में भी आश्चर्य की वस्तु है ।

इसी प्रकार का एक अन्य उदाहरण सुदर्शन झील का निर्माण है । इस कालू के पुरास्थलों से लोहे के औजार, हथियार भारी संख्या में मिलते हैं । चित्रित धूसर मृद्‌भाण्ड के प्रयोक्ता लौह उपकरणों से भलीभांति परिचित थे । यह संस्कृति लौह तकनीक के विकास को सूचित करती है ।

मौर्योत्तर काल प्रौद्योगिक प्रगति की दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण माना जा सकता है । महावस्तु में राजगृह नगर में निवास करने वाले 36 प्रकार के शिल्पियों अथवा कामगारों का उल्लेख मिलता है तथा मिलिन्दपन्ह में 75 व्यवसायों का उल्लेख है जिनमें लगभग 60 विभिन्न प्रकार के शिल्पों से संबद्ध थे ।

आठ शिल्प सोना, चाँदी, सीसा, टिन, ताँबा, पीतल, लोहा तथा हीरे-जवाहरात जैसे उत्पादों से संबंधित थे । इससे सूचित होता है कि धातुकर्म के क्षेत्र में पर्याप्त निपुणता हासिल कर ली गयी थी-विशेष रूप से लोहा ढलायी का तकनीकी ज्ञान काफी विकसित हो गया था ।

पेराप्लस के अज्ञात नामा लेखक ने अवीसीनिया के बन्दरगाहों में भारत से आयात की जाने वाली वस्तुओं की जो सूची दी है उनमें लोहा तथा इस्पात का प्रमुखता से उल्लेख किया गया है । प्रौद्योगिक प्रगति के परिणामस्वरूप ईसा की प्रथम तीन शताब्दियों में नगरीकरण अपने उत्कर्ष की पराकाष्ठा पर पहुँच गया । इसके बाद लौह धातु आम उपयोग की सबसे महत्वपूर्ण वस्तु बन गयी ।

गुप्तकाल भी प्रौद्योगिक प्रगति की दृष्टि से नगण्य नहीं रहा । अमरकोश में लोहे के लिये सात नाम दिये गये है । पाँच नाम हल क फाल से संबंधित है । मेहरौली लौह स्तम्भ से रचित होता है कि लौह कर्म का तकनीकी गान अपने चरमोत्कर्ष पर पहुंच गया ।

इस पर मात्र मैग्नीज आक्साइड (MgO) की पतली परत चढ़ाकर इसे जंगरहित बना दिया गया है । दुर्भाग्यवश इसके वाद इस तकनीकी विकास को समझने के लिये हमारे पास कोई सोत ही नहीं है । इसमें लगी पालिश आज भी धातु वैज्ञानिकों के लिये आश्चर्य की वस्तु बनी हुई है ।

इस प्रकार का स्तम्भ एक शती पूर्व विश्व के किसी भी दलाई घर में बन पाना संभव नहीं था । इस समय बहुसंख्यक कांस्य कृतियों का भी निर्माण हुआ । सुल्वानगज (बिहार) से प्राप्त महात्मा बुद्ध की लगभग साढ़े सात फुट ऊंची एक टन भार वाली कांस्य प्रतिमा उल्लेखनीय है ।

धातु प्रौद्योगिकी के सुविकसित होने का प्रमाण सिकों तथा मुहरों की बहुलता में देखा जा सकता है । धातु विद्या को चौसठ कलाओं में सम्मिलित कर लिया गया । अनेक स्थानों पर निपुण भानुकी निवास करते थे । बहुमूल्य धातुओं एवं पत्थरों से आभूषण तैयार करने का उद्योग भी प्रगति पर था ।

जहाजरानी उद्योग की भी उन्नति हुई । सुप्रसिद्ध कलाविद् आनन्द कुमार स्वामी के अनुसार यह पोत निर्माण का महानतम युग था । प्रौद्योगिकी का विकास गुप्तोत्तर काल में भी हुआ यद्यपि शिल्प विज्ञान तथा शिल्पकारिता में कोई क्रान्तिकारी परिवर्तन नहीं हुआ । कृषि की उग्रति तथा व्यापक आधार प्राप्त कर लेने के फलस्वरूप सिंचाई तकनीक उन्नत हो गयी ।

राजतरंगिणी में खुया नामक इंजीनियर का उल्लेख है जिसने झेलम तट पर बाँध बनवाया तथा नहरें निकलवायी थीं । चन्देल तथा परमार शासकों के काल में बड़ी-बड़ी झीलों तथा तालाबों का निर्माण किया गया । अधिकतर सिंचाई रहट (अरघट्ट) से की जाती थी । विविध प्रकार के उद्योग-धन्धे विकसित अवस्था में थे । शिल्पकारों तथा व्यापारियों की अनेक श्रेणियाँ थी । खानों से धातुयें निकाली जाती तथा उनसे उपकरण एवं बर्तन, आभूषण, अस्त्र-शस्त्र आदि तैयार किये जाते थे ।

साहित्यिक तथा पुरातात्विक, दोनों ही प्रमाण लौह तकनीक के सुविकसित होने के प्रमाण देते है । तेरहवीं शती के संग्रह रसरत्न समुच्चय में लोहे की कई किस्मों का उल्लेख किया गया है-मुण्ड, तीक्षा, कान्त आदि । प्रत्येक के कई उपभेद भी मिलते हैं । इनसे सूचित होता है कि लौह तकनीक के क्षेत्र में उच्च कोटि की निपुणता प्राप्त कर ली गयी थी ।

बड़ी-बडी शहतीरों का निर्माण किया जाने लगा था जैसा कि इस काल के मन्दिरों को देखने से पता चलता है । युद्ध संबंधी अस्त्र-शस्त्र भी बहुतायत में निर्मित किये जाते थे । कुछ क्षेत्रों में सफेद चमचमाती तलवारें बनाई जाती थी । बनारस, मगध, नेपाल, सौराष्ट तथा कलिंग के कारीगरों ने तलवार बनाने में दक्षता प्राप्त कर रखी थी ।

अन्य धातुओं में सोना, कांसा, सांवा आदि से आभूषण, उपकरण एवं वर्तन बनाने का उद्योग भी काफी विकसित था । कांसे की ढलाई कर सुन्दर-सुन्दर मूर्तियां तैयार की जाती थीं । मूर्ति बनाने वाले को ‘रूपकार’ तथा पीतल पर काम करने वाले कर्मकार को ‘पीतलहार’ कहा जाता था ।

चर्म-उद्योग भी प्रगति पर था । मार्को पोलो नामक यात्री गुजरात के अद्‌भुत रख सुविकसित चर्म उद्योग का उल्लेख करता है । वहां के शिल्पी लाल तथा नीले चमड़े से सुन्दर-सुन्दर चटाइयां बनाते थे जिनपर पशु-पक्षियों के चित्र बने होते थे ।

पाषाण एवं काष्ठ प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में भी उन्नति हुई । वास्तु शास्त्र के ग्रन्ध अपराजितपृच्छा से पता चलता है कि प्रत्येक नगर में पाषाण पर काम करने वाले दक्ष शिल्पी निवास करते थे । बढ़ई लकड़ी पर नक्काशी करके सुन्दर-सुन्दर वस्तुयें तैयार करते थे ।

उत्तर भारत के समान दक्षिण भारत भी प्रौद्योगिकी के विकास की दृष्टि से अत्यधिक समृद्ध रहा । सिंचाई के लिये जो बहुसंख्यक तालाबों एवं बांधों का निर्माण करवाया गया उनमें उच्चकोटि की अभियान्त्रिक कुशलता दिखाई देती है ।

इसका उत्कृष्ट उदाहरण कावेरी नदी तट पर चोल राजाओं द्वारा श्रीरंगम् टापू के नीचे बनवाया गया बांध है जो 1240 मीटर लम्बा और 12 से 18 मीटर चौड़ा था । सम्पूर्ण दक्षिण में विविध प्रकार के शिल्प एवं उद्योग धन्धे प्रचलित थे । वस्त्र उद्योग, नमक उद्योग, मोती, सीप आदि के व्यवसाय सभी प्रगति पर थे ।

दक्षिण के विभिन्न भागों से बहुसंख्यक पाषाण मन्दिर तथा मूर्तियां मिलती है जिनमें नाना प्रकार की नखाशी की गयी है । इससे पाषाण तकनीक के समुन्नत होने का प्रमाण मिलता है । पल्लव तथा चोलकालीन कलाकृतियां उच्चतम तकनीकी प्रगति की सूचक है । इस प्रकार प्राचीन भारत के विभिन्न कालों में विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में उल्लेखनीय प्रगति हुई । कुछ क्षेत्रों में भारतीय ज्ञान-विज्ञान को विदेशियों ने भी ग्रहण किया तथा उसकी प्रशंसा की ।

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