प्राचीन भारत में शिक्षा | Education in Ancient India in Hindi!

1. प्रस्तावना ।

2. ऋग्वैदिककालीन शिक्षा, उत्तर वैदिककालीन शिक्षा, बौद्धकालीन शिक्षा ।

3. प्राचीन भारतीय शिक्षा के उद्देश्य ।

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4. प्राचीन भारतीय शिक्षा की विशेषताएं ।

5. उपसंहार ।

1. प्रस्तावना:

प्राचीन भारत की गौरवशाली सांस्कृतिक विरासत एवं प्रगति का मूल आधार युगीन शिक्षा ही थी । प्राचीन भारतीय शिक्षा का उद्देश्य व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास था ।

व्यक्तित्व के सर्वागीण विकास में उसके चारित्रिक विकास तथा आध्यात्मिक विकास का उद्देश्य ही सर्वप्रमुख था । प्राचीन भारतीय शिक्षा ने अपने देश में ही नहीं, समूचे विश्व में ऐसा उच्चकोटि का आदर्श स्थापित किया, जिससे न केवल व्यक्ति का व्यक्तित्व समुन्नत हुआ, अपितु सम्पूर्ण देश और समाज का नाम ऊंचा हुआ ।

2. ऋग्वैदिककालीन शिक्षा:

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ऋग्वैदिक काल में नैतिक आदर्शो पर अत्यन्त बल दिया गया है । चरित्र की शुद्धता के लिए ऋग्वेद काल में विशेष ध्यान दिया जाता था । असत्य एवं पापाचार को घूणित समझा जाता था । शिक्षा का उद्देश्य सभ्यता और संस्कृति का हस्तान्तरण भी था ।

ब्राह्मण, अर्थात् गुरा विद्यार्थियों को मौखिक शिक्षा देते थे । वैदिक मन्त्रों का पाठ ही ज्ञानार्जन का माध्यम था । इससे विद्यार्थी आत्मशिक्षण भी प्राप्त करते थे । इस युग की शिक्षा का मूल उद्देश्य ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति करके मोक्ष प्राप्त करना था ।

अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष चतुवर्ग की प्राप्ति मुख्य ध्येय था । स्वाध्याय एवं मनन की इस शिक्षा प्रणाली में विद्यार्थी बहुधा उपनयन संस्कार के बाद गुरु के आश्रम में ही रहने जाते थे । उनका आपसी सम्बन्ध पिता-पुत्र-सा होता था । गुरु ज्ञान-विज्ञान के पारंगत मर्मज्ञ विद्वान् थे । वे समाज के पथप्रदर्शक थे ।

उत्तर वैदिककालीन शिक्षा:  इस काल में विद्यार्थियों के नियमित पठन-पाठन के लिए पाठशालाओं की व्यवस्था थी । उपनयन संस्कार के पश्चात् आचार्य विद्यार्थी को ब्रह्मचर्य आश्रम में प्रवेश देते थे । इस प्रकार वह द्विज बन जाता था । आश्रम में प्रवेश के बाद विद्यार्थी को मेखला बांधनी होती थी । बड़े-बड़े बाल रखने पड़ते थे । वह यज्ञ के लिए समिधा बटोरता, भिक्षाटन भी किया करता था । ब्रह्मचारी विद्यार्थी को श्रम व तप करके विद्योपार्जन करना होता था ।

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गुरु विद्यार्थी को हर प्रकार से सत्पथ पर लाने का प्रयास करता था; क्योंकि शिष्यों के पापों के लिए गुरु ही उत्तरदायी होता था । शिष्य गुरु को भगवान् मानकर उनकी सेवा-सुश्रुषा करता हुआ आज्ञा पालन करता था । इस युग की शिक्षा का उद्देश्य श्रद्धा, मेधा, ज्ञान, धन, आयु तथा अमरत्व की प्राप्ति था । उपनिषदों में देवविद्या, ब्रह्मविद्या, भूतविद्या, नक्षत्रविद्या, तर्कविद्या तथा सच बोलने को विशेष महत्त्व दिया गया था ।

बौद्धकालीन शिक्षा:

मठों, विहारों में दी जाने वाली बौद्धकालीन शिक्षा का उद्देश्य चारित्रिक गुणों का विकास, ज्योतिष, तर्क, दर्शन था । बौद्धकाल में तक्षशिला, नालन्दा, विक्रमशिला, ओदलपुरी के विश्वविद्यालय विश्वप्रसिद्ध थे । यहां 118 विषय पढाये जाते थे । धर्म, दर्शन, न्याय, तर्क, ज्योतिष आदि की शिक्षा कुशल अध्यापक देता था । विद्यार्थी भौतिक उलझनों से दूर शान्त एवं प्राकृतिक वातावरण में शिक्षा प्राप्त करते थे । इन ख्याति प्राप्त विश्वविद्यालयों में दूर देशों-चीन, जापान आदि के भी विद्यार्थी अध्ययन हेतु आते थे ।

3. प्राचीन भारतीय शिक्षा के उद्देश्य:

प्राचीन भारतीय शिक्षा का प्रारम्भिक एवं व्यापक उद्देश्य चरित्र निर्माण करना था । ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए मानव जीवन का सर्वांगीण विकास करना, ताकि भावी जीवन में उसका पूर्ण सदुपयोग कर सकें । विद्यार्थियों को गृहस्थ आश्रम में प्रवेश के बाद अनेक प्रकार के कर्तव्य  एवं लोककल्याण के उद्देश्य को पूर्ण करना तथा अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष की प्राप्ति शिक्षा का उद्देश्य था । राष्ट्रीय गौरव व संस्कृति की रक्षा करना भी इस युग की शिक्षा की आवश्यकता थी ।

4. प्राचीन भारतीय शिक्षा की विशेषताएं:

सम्पूर्ण संसार का जगदगुरू कहलाये जाने वाले भारत की प्राचीन शिक्षा प्रणाली की विशेषता यह थी कि बालक का 6-7 वर्ष की अवस्था में उपनयन संस्कार कर दिया जाता था । यज्ञोपवीत हो जाने पर बालक 25 वर्ष की आयु तक ब्रह्मचर्य धर्म का पालन करते हुए उच्च शिक्षा ग्रहण करता था ।

ज्ञानार्जन के माध्यम से आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त कर वह गृहस्थ जीवन में प्रवेश कर कर्तव्यों का पालन करते हुए मोक्ष प्राप्ति करता था । विद्यार्थी गुरु के आश्रम में रहकर शिक्षा-दीक्षा पूरी होने पर स्नातक बनता था, फिर समावर्तन संस्कार होने के बाद अपने गृहस्थ धर्म का पालन करता था ।

विद्यार्थीकाल में सभी विद्यार्थी भिक्षाटन करते थे । किसी भी वर्ग का विद्यार्थी हो, वह गुरु की परिचर्या करता था । समिधा के लिए लकड़ियां लाना, गुरा की गायों को चराना, इन सब नियमों के पालन का उद्देश्य विद्यार्थियों में समानता की भावना के साथ-साथ शारीरिक, मानसिक, आध्यात्मिक, चारित्रिक विकास करना था ।

प्राचीनकाल में गुरु एवं शिष्य का सम्बन्ध भावात्मक होता था । उनका सम्बन्ध पिता एवं पुत्रवत था । शिष्य को गुरु के पहले सोकर उठना होता था । फिर गुरु के सो जाने के बाद उसे सोना होता था । गुरु के आश्रम में अनुशासन एवं कर्तव्य का पूर्ण पालन करना होता था । धनी या निर्धन उनके आहार-विहार तथा रहन-सहन में समानता का ध्यान रखना होता था । गुरुकुल आश्रम प्रणाली की शिक्षा व्यवस्था श्रेष्ठ थी ।

शिक्षा के विषयों में व्याकरण, गणित, ज्योतिष, भाषा, इतिहास, धर्म, दर्शन, अर्थशास्त्र, कृषि, न्याय, तर्क, चित्र, युद्धकला जैसे विषयों के अध्ययन के साथ-साथ वैदिक मन्त्रों को रटना, पिंगल के नियमों को याद करना सिखाया जाता था ।

अध्यापन शैली की विशेषता यह थी कि शिष्य गुरु द्वारा पढाये गये विषयों पर चिन्तन, मनन, तर्क किया करते थे । रहस्यात्मक एवं गूढ़ विषयों को शिक्षक की सहायता से समझ लेते थे । मौखिक परीक्षा प्रणाली प्रचलित थी । वाद-विवाद, प्रश्नोत्तर द्वारा विद्यार्थियों की योग्यता एवं क्षमताओं का  मूल्यांकन होता था ।

प्राचीनकालीन शिक्षा में अपाला, घोषा, लोपमुद्रा, विश्ववारा, गार्गी, मैत्रेयी जैसी विदुषी नारियां अनेक गूढ़तम विषयों पर शास्त्रार्थ करके अपने पाण्डित्य का परिचय देती थीं । वे वाद-विवाद, तर्क-वितर्क में, यज्ञ तथा कर्मकाण्डों में अपने पतियों के साथ सक्रिय रूप से भाग लेती थीं ।

प्राचीन भारतीय शिक्षा के केन्द्र-प्राचीनकाल में मठ, विहार, उम्रश्रमों, विद्यालयों एवं विश्वविद्यालयों को शिक्षा का केन्द्र माना जाता था, जहां संस्कृत, पालि भाषा की शिक्षा दी जाती थी । शिक्षा केन्द्रों के संचालन के लिए राजा तथा धनिक वर्ग मुक्त हस्त से दान दिया करते थे । उनके अनुदान से ही शिक्षण संस्थाओं की समूची शिक्षा प्रणाली संचालित होती थी ।

5. उपसंहार:

यह निष्कर्ष रूप से कहा जा सकता है कि प्राचीनकालीन शिक्षा व्यवस्था देश में ही नहीं, समूचे विश्व में भी प्रसिद्ध थी । चरित्र निर्माण, आध्यात्मिक ज्ञान के साथ-साथ व्यक्ति के सर्वागीण विकास के उद्देश्य पर आधारित इस शिक्षा प्रणाली की ख्याति चारों ओर फैली हुई थी ।

चीन, जापान, तिब्बत तथा लंका आदि देशों से यहां शिक्षार्थी अध्ययन हेतु आते थे । विभिन्न विषयों के विषय विशेषज्ञ आचार्यों के कारण नालन्दा, तक्षशिला विश्वविद्यालय विश्व में विख्यात थे । इस तरह प्राचीन भारतीय शिक्षा अपने उद्देश्यों एवं व्यावहारिकता के कारण संसार में अनूठी थी ।

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