आर्थिक विकास: ऐतिहासिक साक्ष्य और दुविधाएं | Read this article in Hindi to learn about the historical evidence and dilemmas of economic development.

विकास के ऐतिहासिक प्रमाण (Historical Evidence of Development):

विकास सामाजिक रूपान्तरण की ऐसी प्रक्रिया है जिसमें परम्परागत समाज आधुनिक समाज के रूप में परिवर्तित होता है । परम्परागत समाज के पातन एवं आधुनिक समाज के अभ्युदय हेतु अर्थशास्त्रियों ने वय: सन्धि काल अठारहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध को माना । इस अवधि में ऐसे परिवर्तन प्रारम्भ हुए जिन्होंने आधुनिक विकास की प्रक्रिया में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया ।

परिवर्तन के विविध पक्षों एवं आयामों को संक्षेप में हम निम्न बिन्दुओं के द्वारा निरूपित कर सकते हैं:

i. इंग्लैण्ड में तकनीकी एवं औद्योगिक क्रान्ति का आरम्भ 1750 से 1850 के मध्य हुआ । साथ ही जर्मनी में 1850 के उपरान्त, संयुक्त राज्य अमेरिका में 1865 के उपरान्त एवं जापान में उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध से आर्थिक परिवर्तन की लहर चली ।

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ii. 1750 के उपरान्त यूरोप में पूँजीवाद फला-फूला । लकड़ी की मशीनें बनीं जो जल एवं वायु शक्ति से चलायी जाती थीं । 1769 में जेम्स वाट ने वाष्प इंजन एवं रिचर्ड आर्कराइट ने कताई के फ्रेम की खोज की । 1785 में एडमण्ड कार्टराईट ने पावर लूम खोजा । 1750 के उपरान्त ही एडम स्मिथ की पुस्तक का प्रकाशन हुआ । संयुवत राज्य अमेरिका ने 1776 में अपनी आजादी की घोषणा की । 1789 में फ्रांस में क्रान्ति हुई । आर्थिक रूप से यह सभी घटनाएं स्वतन्त्र उपक्रम के रूप में पूंजीवाद के अभ्युदय का संकेत करती थीं तो सामाजिक एवं राजनीतिक रूप से इन्होंने एक क्रान्तिकारी रूपान्तरण का सूत्रपात भी किया जो स्वतन्त्रता एवं समानता की विचारधारा पर आधारित था ।

iii. 1750 से 1914 की समय अवधि में आधुनिक विज्ञान एवं तकनीक की सहायता से पश्चिमी यूरोप एवं उत्तरी अमेरिका में क्रान्तिकारी परिवर्तन हुए । यद्यपि इस परिवर्तन व रूपान्तरण को विकास शब्द द्वारा यदा-कदा ही अभिव्यक्त किया गया लेकिन आज प्रयुक्त परिभाषा के अनुसार इनका अपना एक विकास मॉडल था जिसे प्रतिष्ठित कहा गया । पश्चिम में 1913 तक यह मॉडल प्रचलित रहा । पहले विश्व युद्ध के उपरान्त विशेष रूप से रूसी क्रान्ति एवं महामंदी के उपरान्त प्रतिष्ठि मॉडल का पतन हुआ एवं वैकल्पिक सिद्धान्त सामने आये ।

iv. मोटे तौर पर 1750 के उपरान्त आधुनिक विकास का विवेचन दो अवधियों के अधीन किया जा सकता है । पहली- 1750 से 1913 तक जिसे प्रतिष्ठित मॉडल के नाम से जाना जाता है एवं दूसरी द्वितीय विश्व युद्ध के उपरान्त की अवधि ।

v. द्वितीय विश्व युद्ध के अपरान्त की सबसे महत्वपूर्ण घटना उपनिवेशों एवं अर्द्ध-उपनिवेशों का स्वतन्त्र होना था । 1950 के दशक में एशिया एवं 1960 के दशक में अफ्रीका में स्वतन्त्रता संग्राम चला । निर्धन देशों ने राजनीतिक परतन्त्रता से मुक्ति पाने के पश्चात् नियोजित विकास का आई गणेश किया ।

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vi. 1950 व 1960 का दशक आशावाद की समय अवधि थी । नयी तकनीकी क्रान्तियाँ हुई । 1950 के दशक में कम्प्यूटर खोज लिया गया । न्यूकिलीय तकनीक का उपयोग प्रारम्भ हुआ । 1957 में सोवियत रूस द्वारा स्पूतनिक छोड़े जाने के उपरान्त अन्तरिक्ष युग का प्रारम्भ हुआ । 1960 के दशक में भी तकनीकी क्रान्ति नियमित रही ।

1969 में अमेरिकी अन्तरिक्ष यात्री ने चाँद पर कदम रखे । स्वचालित यन्त्रों, परिष्कृत यन्त्रों, मानव निर्मित पदार्थों, नये रसायनों, इलेक्ट्रानिक्स, दूर-संचार, जेट-वायु यातायात, बेलास्टिक मिसाइल, फोटोग्राफी की नयी तकनीक, लेजर किरणों का प्रयोग, चिकित्सा व स्वास्थ्य हेतु नवीन अनुसन्धान, गहरे समुद्र के खोज अभियान चले कम्प्यूटर के साथ सूचना के क्षेत्र में क्रान्ति हुई ।

बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का तीव्र प्रसार हुआ, वैश्वीकरण एवं खुली नीतियों ने विश्व के आर्थिक परिदृश्य में अभिनव परिवर्तन किये । संक्षेप में, विश्व अति समृद्ध औद्योगिक तकनीक प्रौद्योगिकी व प्रबन्ध के युग में प्रवेश कर गया जिसने उत्पादन की क्षमता एवं कुशलता में वृद्धि की । इसी समय संस्थागत परिवर्तन भी तेजी से हो रहे थे ।

द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात् से साम्यवादी देशों की संख्या बढ़ी जिसमें पूर्वी यूरोप, चीन तथा एशिया के कुछ अन्य देश लेटिन अमेरिका में क्यूबा इत्यादि सम्मिलित थे । वहीं गोर्वोचोव के पेरेस्त्रेइका व ग्लासनोतस की नीतियों के अभुदय के उपरान्त सोवियत रूस में साम्यवादी विचारधारा विखण्डन एवं बदलाव के संकेत देने लगी । चीन और भारत विश्व में तीसरी शक्ति के रूप में उभर कर आए ।

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पश्चिमी यूरोपीय देशों में 1950 व 1960 के दशक में कींज के सिद्धान्त का प्रयोग आर्थिक वृद्धि के त्वरित होने हेतु किया गया । अधिकांश देशों में सामाजिक कल्याण एवं सामाजिक सुरक्षा की प्रणालियाँ अपनायी गयीं । संगठन के नये रूप एवं आधुनिक प्रबन्ध की तकनीकों का प्रयोग बढ़ता गया वहीं दूसरी ओर विकास के साथ अर्द्धविकास एवं कु-विकास की प्रवृतियाँ भी बढ़ती गयीं ।

vii. मानव के सम्मुख आज सबसे बड़ा सवाल यह है कि व उर्द्ध-विकास व कु-विकास की समस्या को किस प्रकार सुलझाया जाये । भुखमरी, कुपोषण, निर्धनता से मुक्ति हो । जनसंख्या व ऊर्जा की समस्याएं कैसे सुलझें? पर्यावरण का सन्तुलन किस प्रकार बनाये रखा जाए । लाभ एवं विकास प्राप्त करने के प्रयासों ने जो आर्थिक अकुशलता पर्यावरण प्रदूषण एवं मानव के अयोग्य कार्य की दशाएँ उत्पन्न की हैं, उनका निवारण कैसे हो ? अपने महत्वपूर्ण ग्रन्थ में डॉ.ई.एफ. शूमाखर इन्हीं प्रश्नों को उठाते हैं तथा आर्थिक तकनीकी व वैज्ञानिक विशिष्टीकरण के प्रचलित सिद्धान्तों को नकारते हुए मध्यवर्ती प्रौद्योगिकी को बेहतर व कारगर मानते हैं ।

विकास के सामान्य लक्षणों को स्पष्ट करने के उपरान्त अब हम विकास से सम्बन्धित विश्लेषण एवं मॉडलों की संक्षिप्त रूपरेखा प्रस्तुत कर रहे हैं ।

विकास का असमंजस (Dilemmas of Economic Development):

विकास की प्रक्रिया कई प्रश्नों एवं समस्याओं से जुड़ी है । विकास की प्राय: हर अवस्था में इनका उठना आवश्यक है ।

असमंजस के ऐसे कुछ पक्ष निम्न हैं:

1. विकास बनाम गैर विकास:

विगत तीस वर्षों में विकास प्रयासों की प्रवृत्तियों का अवलोकन करते हुए अर्थशास्त्रियों ने विकास को “मानवता के शत्रु” के रूप में भी अभिव्यक्त किया । वह गैर विकास की बात उठाते हैं । उनके अनुसार वृद्धि की शून्य दर का विचार एक वास्तविकता है । इस चिंतन के पीछे मुख्यत: ऐसी विसंगतियाँ हैं जिनके अन्तर्गत एक तरफ पश्चिमी देश तो एक समृद्ध समाज की अवस्था प्राप्त कर गए पर दूसरी और तीसरी दुनिया के देश जो जनसंख्या की विषम वृद्धि, ऊर्जा, खाद्यान्न एवं अन्य प्राकृतिक संसाधनों की तीव्र कमी व उनके कुवितरण एवं पर्यावरण की समस्याओं का कटु अनुभव कर रहे हैं ।

2. अन्तर्जात बनाम बर्हिजात घटक की उपस्थिती:

विकास का दूसरा असमंजस अन्तर्जात बनाम बर्हिजात घटक की उपस्थिति-विकास का दूसरा असमंजस अन्तर्जात बनाम बर्हिवात घटक की उपस्थिति से सम्बन्धित है । आधुनिक विश्व में यह विरोधाभास दिखायी देता है कि जहाँ इसके संघटक समाज एक-दूसरे के निकट आ रहे हैं, यातायात, संवाद वहन की अभिवृद्धि ने लोगों को समीप करने में योगदान दिया है, वहीं धर्म, संस्कृति, भाषा, क्षेत्र प्रदेश, रंग, वर्ण जैसी केन्द्र से दूर ले जाने वाली शक्तियों भी प्रभावी होती जा रही है ।

विकासशील देश की सांस्कृतिक वास्तविकताओं को एक किनारे नहीं किया जा सकता । विकास के समस्त प्रयास इसके प्रति संवेदनशील एवं प्रत्युत्तर युक्त होने चाहिएँ । विकास के उद्देश्यों को बर्हिजात घटक काफी अधिक प्रभावित करते हैं । ठीक इसी समय विचारों एवं नव-प्रवर्तनों का फैलाव मानव के सांस्कृतिक विकास में एक महत्वपूर्ण शक्ति की तरह कार्य करता है ।

कोई भी समाज बर्हिजात घटकों से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता । अत: अन्तर्जात एवं बर्हिजात घटकों के मध्य विवाद की अपेक्षा इनके एक संयोग की आवश्यकता अधिक महत्वपूर्ण हो जाती हे ।

3. स्वावलम्बन बनाम अर्न्तनिर्भरता:

विभिन्न देश अपने भौगोलिक क्षेत्रफल एवं जनसंख्या के आकार के साथ-साथ अपनी भौतिक साधन बहुलताओं में भी भिन्नता रखते हैं । प्राय: एक बड़े देश के लिए यह सम्भव होता है कि वह स्वावलम्बन के उच्च अंश की प्राप्ति करने में सफल हो लेकिन पूरी तरह से वह भी स्वावलम्बी नहीं बन सकते ।

दूसरी ओर छोटे देश स्वावलम्बन का समान अंश प्राप्त करने में सफल नहीं बन पाते । उन्हें विकास के लिए संसाधनों की प्राप्ति हेतु दूसरे देशों पर निर्भर रहना पड़ता है । अर्न्तनिर्भरता के उप-क्षेत्रीय, क्षेत्रीय व सांसारिक स्वरूप विकसित हो रहे है । तीसरी दुनिया के देशों में विकासित देशों की अन्तर्निर्भरता व अधीनता बढ़ती जा रही है । समृद्ध देशों द्वारा विकासशील व कम विकसित देशों को सहायता प्राय स्वहित व अपनी शर्तों पर प्रदान की जा रही है ।

4. वृद्धि बनाम वितरण:

आर्थिक विकास की समस्याओं में वृद्धि बनाम वितरण का असमंजस उभर रहा है । वर्तमान समय में सकल राष्ट्रीय उत्पाद के आधार पर विकास के मापन को पर्याप्त नहीं समझा जाता,क्योंकि यह समता एवं सामाजिक न्याय को उत्पन्न करने में असफल रहा है । आज ज्वलंत प्रश्न है निर्धनता का उन्मूलन बेरोजगारी, बेरोजगारी का निवारण एवं जन समुदाय को बेहतर सामाजिक सेवाएँ प्रदान करना ।

यहाँ बुनियादी प्रश्न फिर भी अनुत्तरित रह जाता है कि वृद्धि के बिना समाज किसी चीज/वस्तु/सेवा का वितरण करेगा । वृद्धि के घटक को भुलाया नहीं जा सकता, जबकि इसके वितरण सम्बन्धी प्रयोग को भी समान रूप से ध्यान में रखा जाना आवश्यक है ।

5. केन्द्रीयकृत नियोजन के विभिन्न आयामों से उत्पन्न असमंजस:

जो कि केन्द्रीयकृत नियोजन बनाम बाजार की क्रिया की क्रिया से सम्बन्धित है । प्रश्न यह उठता है कि क्या लक्ष्यों को केन्द्रीयकृत नियोजन प्रणाली या प्लेकी के द्वारा निर्धारित किया जाये अथवा बाजार प्रणाली के आधार पर । यह सत्य है कि विकासशील समाजों के प्रसंग में बाजार शक्तियों का योगदान ही महत्वपूर्ण नहीं । कीमत संकेतों में कई बार फेरबदल की जाती रही है । वहीं केन्द्रीय रूप से नियोजित अर्थव्यवस्थाएँ कीमत संकेतों के प्रति काफी अधिक संवेदनशील बन रही हैं । लेकिन बाजार प्रणाली को भी तब तक अस्वीकार नहीं किया जा सकता जब तक विश्व स्वतन्त्र बाजार एवं केन्द्रीय रूप से नियोजित अर्थव्यवस्था के मध्य विभक्त हैं ।

इस प्रसंग में दूसरा असमंजस, अन्तर्राष्ट्रीय केन्द्रीयकरण बनाम नियोजन का केन्द्रीयकरण है इससे ही सम्बन्धित असमंजस, जन सहभागिता बनाम पेशेवर या व्यावसायिकता का अभ्युदय है ।

6. कुछ असमंजस क्रियात्मक प्रवृत्ति के हैं जिनमें सही चुनाव की समस्या मुख्य हैं । इनमें सबसे महत्वपूर्णु है औद्योगीकरण बनाम पर्यावरण (Industrialization Vs. the Environment) पर्यावरण की समस्याएँ विकसित समाज से अधिक कम विकसित समाजों को प्रभावित कर रही हैं । औद्योगिक समाज द्वारा प्रयास किए जा रहे हैं कि वह न्यूनतम प्रदूषण करने वाली विधियों पर आश्रित रहे । इस दिशा में अनुसंधान व खोज की जा रही है ।

7. कुछ अन्य असमंजस हैं, उद्योग बनाम कृषि, आयात प्रतिस्थापन बनाम निर्यात संवर्धन, सहायता बनाम व्यापार, स्वतन्त्र अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार बनाम क्षेत्रीय एकीकरण एवं संरक्षण । इनमें से अधिकांश में एक उचित संयोग के चुनाव की समस्या सम्बन्धित हैं ।

8. एक अन्य महत्वपूर्ण असमंजस है भौतिक विनियोग बनाम मानव पूँजी में विनियोग जिससे दो समस्याएँ उत्पन्न होती हैं । भौतिक आदाएँ आवश्यक हैं लेकिन इनका अधिकांश भाग तब व्यर्थ हो जाता यदि मानव संसाधनों के द्वारा इनका उचित उपयोग न किया जा रहा हो ।

अत: मानवीय पूंजी का विनियोग भौतिक विनियोग के साथ समन्वित होना आवश्यक है । यह तर्क दिया जाता है कि भौतिक संसाधन अकेले कम उपलब्धियाँ प्राप्त कर पायेंगे, जबकि विकास के लिए आवश्यक भौतिक आदाएँ काफी सीमित हो । अत: मानवीय पूँजी एवं भौतिक विनियोग का उचित संयोग आवश्यक हो जाता है ।

मानव संसाधनों को समृद्ध करने, कुशलता एवं सक्रियता में वृद्धि करने के लिए शिक्षा की भूमिका महत्वपूर्ण है । इसमें औपचारिक बनाम गैर औपचारिक शिक्षा दोनों को ध्यान में रखना होगा, क्योंकि दोनों के विशिष्ट फलन हैं । जन समूह में व्याप्त अशिक्षा को दूर करने के लिए अनौपचारिक शिक्षा आवश्यक है ।

आधुनिक तकनीक बनाम मध्यवर्ती तकनीक का बिन्दु भौतिक विनियोग एवं मानवीय पूँजी के विनियोग से सम्बन्धित है इनमें शूमाखर ने मध्यवर्ती प्रौद्योगिकी को विकासशील देशों हेतु उपयुक्त बतलाया । यह विचारधारा भी पल्लवित हुई कि तकनीक को अवभ्य ही मानवता की सेवा के एक मच के फलन के रूप में कार्य करना चाहिए । इसके साथ ही कम विकसित देशों को ऐसी विधियों के प्रयोग पर ही आश्रित नहीं रहना चाहिए जो उन्हें वैज्ञानिक व तकनीकी दशाओं के प्रति हीन बनाता है ।

अन्तत: असमंजस की समस्या सम्बन्धित होती है सकल विकास बनाम बहु विकास (One Development Vs. many Development) से । प्रश्न यह है कि क्या विकास एक अरेखीय प्रक्रिया है जो मानवता को एक सामान्य उपलब्धि की ओर ले जाती है या विकास की ऐसी व्यूह नीतियाँ सम्भव है जो बहुरेखीय पक्षों की ओर जाती हैं, जिनमें प्रत्येक के विविध लक्ष्य एवं उद्‌देश्य हों ।