पूंजी निर्माण: अर्थ, प्रक्रिया और कारक | Read this article in Hindi to learn about:- 1. पूंजी निर्माण का अर्थ तथा परिभाषा (Meaning and Definition of Capital Formation) 2. आर्थिक विकास में पूंजी निर्माण का महत्व (Significance of Capital Formation in Economic Development) 3. प्रक्रिया (Process) and Other Details.

Contents:

  1. पूंजी निर्माण का अर्थ तथा परिभाषा (Meaning and Definition of Capital Formation)
  2. आर्थिक विकास में पूंजी निर्माण का महत्व (Significance of Capital Formation in Economic Development)
  3. पूंजी निर्माण की प्रक्रिया (Process of Capital Formation)
  4. पूंजी निर्माण को प्रभावित करने वाले कारक (Factors Affecting Capital Formation)
  5. स्थिरता सहित पूंजी समावेशन (Capital Absorption with Stability)

1. पूंजी निर्माण का अर्थ तथा परिभाषा (Meaning and Definition of Capital Formation):

पूंजी निर्माण शब्द का प्रयोग संकीर्ण एवं विस्तृत भाव में किया जाता है । तथापि, संकीर्ण भाव से इसका अर्थ है भौतिक पूंजी संग्रह जिसमें यन्त्र, मशीनरी आदि सम्मिलित हैं । विस्तृत भाव से पूंजीगत वस्तुओं में गैर भौतिक पूंजी अथवा मानवीय साधन सम्मिलित हैं जिनमें सार्वजनिक स्वास्थ्य, दक्षता, दृश्य और अदृश्य पूंजी सम्मिलित है ।

“पूंजी निर्माण का अर्थ है कि समाज अपनी समग्र उत्पादक गतिविधि का प्रयोग तुरन्त उपभोग की आवश्यकताओं और इच्छाओं के लिये नहीं करता बल्कि इसके एक भाग को पूंजीगत वस्तुओं, उपकरणों, यत्त्रों, यातायात सुविधाओं, उपक्रम और साजो-सामान के निर्माण की और निर्दिष्ट करता है तथा वास्तविक पूंजी के विभिन्न रूपों की ओर निर्दिष्ट करता है जो उत्पादक प्रयत्न की दक्षता को बहुत बढ़ा सकते हैं ।” –नर्कसे

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“पूंजी निर्माण में दोनों प्रकार की वस्तुएं सम्मिलित होती हैं- स्पष्ट वस्तुएं जैसे उपक्रम, उपकरण, यन्त्र और अमूर्त वस्तुएं जैसे शिक्षा, स्वास्थ्य, वैज्ञानिक परम्परा और अनुसंधान के उच्च मानक ।” –सिंगला

“घरेलू पूंजी निर्माण में केवल देश के बीच निर्माणों, साजो-सामान और माल सूचियों में वृद्धि ही सम्मिलित नहीं, बल्कि अन्य व्यय भी सम्मिलित (वर्तमान भूमियों पर हो रहे उत्पादन को बनाये रखने के लिये आवश्यक व्यय को छोड़ कर) हैं । इसमें शिक्षा, मनोरंजन तथा सामग्रिक विलासताओं पर व्यय भी सम्मिलित है जो व्यक्तियों के अच्छे स्वास्थ्य और उत्पादकता में योगदान करते हैं और समाज के वे सभी व्यय सम्मिलित हैं जो नौकरीपेशा लोगों के उत्साह को बढ़ाने का कार्य करते हैं ।” –साइमन कुज़नेटस


2. आर्थिक विकास में पूंजी निर्माण का महत्व (Significance of Capital Formation in Economic Development):

किसी अर्थव्यवस्था के आर्थिक विकास में पूंजी निर्माण को मुख्य कारक माना जाता है । नर्कस के अनुसार अल्प-विकसित देशों में पूंजी निर्माण द्वारा निर्धनता के कुचक्र को सरलता से तोड़ा जा सकता है । पूंजी निर्माण उपलब्ध साधनों के पूर्ण उपयोग द्वारा विकास की गति को तीव्र कर सकता है ।

वास्तव में यह राष्ट्रीय रोजगार, आय और उत्पादन को बढ़ाने में सहायक होता है जिससे मुद्रा स्फीति और भुगतानों के सन्तुलन की तीव्र समस्याएं उत्पन्न होती हैं ।

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पूंजी निर्माण के महत्व को निम्नलिखित बिन्दु स्पष्टतापूर्वक दर्शाते हैं:

I. सुदृढ़ संरचना का निर्माण (Formation of Sound Infrastructure):

पूंजी निर्माण अथवा संचय का अत्यावश्यक महत्व इसके प्रारम्भिक सोपानों में यह है कि यह निर्धन देशों में सामाजिक ऊपरिव्ययों की स्थापना करता है क्योंकि इन देशों को, इन संरचनाओं की प्राथमिकता के आधार पर आवश्यकता होती है । वास्तव में किसी अर्थव्यवस्था में आर्थिक विकास की सम्भवता उपलब्ध परिस्थितियों के आकार और सीमा से शक्ति प्रान्त करती है जैसे यातायात, संचार, बैंक व्यवस्था, ऊर्जा और अन्य सामाजिक सुरक्षा पग आदि । इस प्रकार पूंजी संचयन अथवा निर्माण अल्प-विकसित देशों में मौलिक पूंजी वस्तुओं के विकास में बहुत सहायक होता है ।

II. प्राकृतिक साधनों का अधिकतम उपयोग (Maximum Utilization of Natural Resources):

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अल्प विकसित देशों में पूंजी निर्माण द्वारा जोखिम उठाने की क्षमता में वृद्धि होती है जिससे प्राकृतिक संसाधनों के नये स्रोत उपलब्ध करवाये जाते हैं । यह प्राकृतिक साधनों के उचित और विचारशील प्रयोग द्वारा सम्भव बनाया जाता है ।

इसके अतिरिक्त, अतिरिक्त पूंजी निर्माण अर्थव्यवस्था के सामान्य साधनों से आधुनिक तकनीकों के आधार पर अधिक कार्य लेता है और प्राकृतिक साधनों के नये क्षेत्रों की खोज द्वारा विभागीय असन्तुलनों को रोका जाता है ।

III. मानवीय पूंजी निर्माण का उचित प्रयोग (Proper Use of Human Capital Formation):

पूंजी निर्माण मानवीय साधनों के गुणवत्तात्मक विकास में एक विशेष भूमिका निभाता है । मानवीय पूंजी निर्माण लोगों की शिक्षा, प्रशिक्षण, स्वास्थ्य, सामाजिक एवं आर्थिक सुरक्षा, स्वतन्त्रता और कल्याण सुविधाओं पर निर्भर करता है जिसके लिये पर्याप्त पूंजी की आवश्यकता होती है ।

श्रम शक्ति को नवीनतम औजारों और उपकरणों की पर्याप्त मात्रा में आवश्यकता होती है ताकि जनसंख्या की वृद्धि से उत्पादन में अनुकूलतम वृद्धि हो तथा बड़े हुये श्रम का सरलता से समावेशन हो जायेगा ।

IV. तकनीक में सुधार (Improvement in Technology):

अल्प विकसित देशों में, पूंजी निर्माण ऊपरिव्यय पूंजी और आर्थिक विकास के लिये आवश्यक वातावरण की रचना करता है । यह तकनीकी उन्नति को प्रोत्साहित करने में सहायता करता है जो उत्पादन के क्षेत्र में अधिक पूंजी के प्रयोग को असम्भव बनाता है ।

वास्तव में, आधुनिक आर्थिक उन्नति के लिये तकनीकी उन्नति एक आवश्यक शर्त बन गई है और आर्थिक विकास की गति तकनीकी उन्नति के दर पर निर्भर करती है ।

V. आर्थिक विकास का उच्च दर (High Rate of Economic Growth):

किसी देश में पूंजी निर्माण के उच्च दर का अर्थ है आर्थिक विकास का उच्च दर । प्राय: विकसित देशों की तुलना में अल्प-विकसित देशों में पूंजी निर्माण अथवा पूंजी संचय का दर बहुत कम होता है ।

निर्धन और अल्प-विकसित देशों के प्रकरण में यह एक प्रतिशत से पाँच प्रतिशत रहता है तथा 20 प्रतिशत से अधिक भी हो सकता है । संक्षेप में पूंजी निर्माण का उच्च दर किसी देश में उच्च आर्थिक विकास दर का प्रतीक होता है ।

VI. कृषि और औद्योगिक विकास (Agriculture and Industrial Development):

आधुनिक कृषि और औद्योगिक विकास को गवीनतम यांत्रिक तकनीकों को अपनाने, निवेशों, विभिन्न उद्योगों की स्थापना (भारी अथवा हल्के) के लिये पर्याप्त कोष की आवश्यकता होती है । उनके पास पूंजी का अभाव विकास को निम्न स्तर की ओर ले जाता है । वास्तव में इन दोनों क्षेत्रों का विकास पूंजी संचय के बिना सम्भव नहीं है ।

VII. विदेशी पूंजी पर कम निर्भरता (Lesser Dependence on Foreign Capital):

अल्प-विकसित देशों में पूंजी निर्माण की प्रक्रिया आन्तरिक साधनों पर निर्भरता को बढ़ाती है और घरेलू बचतों द्वारा पूंजी निर्माण से विदेशी पूंजी पर निर्भरता घटती है तथा इस प्रकार एक देश आर्थिक निर्भरता प्राप्त करके विदेशी पूंजी पर निर्भरता से छुटकारा पा सकता है ।

VIII. आर्थिक कल्याण में वृद्धि (Increase in Economic Welfare):

पूंजी निर्माण के दर के अधिक बढ़ने से लोगों को अधिक सुविधाएं हो रही हैं । फलत: सामान्य व्यक्ति को अधिक आर्थिक लाभ उपलब्ध हो रहे हैं । पूंजी निर्माण उत्पादकता और आय में अप्रत्याशित वृद्धि की ओर ले जाता है जिससे लोगों के जीवन स्तर में सुधार होता है । इससे जन कल्याण में वृद्धि होती है । अत: पूंजी निर्माण निर्धन देशों की जटिल समस्याओं का मुख्य समाधान है ।


3. पूंजी निर्माण की प्रक्रिया (Process of Capital Formation):

पूंजी निर्माण अथवा संचय तीन मुख्य सोपानों से होकर गुजरता है:

(i) बचतों की रचना,

(ii) बचतों की गतिशीलता और

(iii) बचतों का निवेश ।

इन तीन सोपानों द्वारा पूंजी निर्माण की प्रक्रिया का वर्णन करें:

(i) बचतों की रचना (Creation of Savings):

बचतों की रचना पूंजी निर्माण का पहला सोपान है । इसका अर्थ है कि वास्तविक बचतों की मात्रा में वृद्धि अत्यावश्यक है, ताकि साधनों का उपयोग उत्पादन और उपभोग के लिये किया जा सके और शेष को अन्य कार्यों के लिये छोड़ा जा सके ।

इसलिये, पूंजी निर्माण के लिये, कुछ वर्तमान उपयोग का बलिदान करना पड़ेगा ताकि समीप भविष्य में उपभोक्ता वस्तुओं के बहाव का बड़ा भाग प्राप्त किया जा सके । उदाहरणतया, यदि कोई समाज कोई बचत नहीं करता तथा सम्पूर्ण उत्पादन का उपभोग कर लेता है, कोई नई पूंजी निर्मित नहीं होगी जिसके परिणामस्वरूप भविष्य में उपभोक्ता वस्तुओं के उत्पादन में गिरावट आयेगी क्योंकि वर्तमान पूंजी परिसम्पत्तियां क्षीण हो जायेंगी ।

इसलिये आवश्यक है कि लोग वर्तमान उपभोग से बचत करें । बचतों की रचना बचत की शक्ति, बचत की इच्छा और बचत की सुविधा पर निर्भर है ।

(ii) बचतों की गतिशीलता (Mobilization of Savings):

बचतों की अगली प्रक्रिया यह है कि इनको निवेश योग्य कोष में स्थानान्तरित करके गतिशील बनाया जाना चाहिये । इस कार्य के लिये बैंकों और अन्य वित्तीय संस्थाओं का अस्तित्व अति आवश्यक है । बैंक सुविधाएं बचतों की गतिशीलता के दर को बढ़ाने में पर्याप्त सहायता करती हैं । सुदृढ़ और दक्ष बैंक प्रणाली निवेशकर्त्ताओं को अधिक-से-अधिक निवेश करने के लिये प्रोत्साहित करती है ।

(iii) बचतों का निवेश (Investment of Savings):

अन्तिम सोपान है बचतों का पूंजी वस्तुओं में निवेश । इसके लिये दक्ष, गतिशील, उत्साही और प्रशिक्षित उद्यमियों की आवश्यकता है । एक योग्य एवं दक्ष उद्यमी सदैव पूंजीगत वस्तुओं के उत्पादन के लिये निवेश करने के लिये निवेश करने के लिये तैयार रहता है । संक्षेप में, बचतें और निवेश पूंजी संचयन में बहुत महत्व रखते हैं ।


4. पूंजी निर्माण को प्रभावित करने वाले कारक (Factors Affecting Capital Formation):

पूंजी निर्माण पूंजी की पूर्ति और मांग का परिणाम है जो एक देश से दूसरे देश में भिन्न-भिन्न होती है । प्राय: उन्नत देशों में यह अल्प-विकसित देशों की तुलना में ऊंची होती है । निर्धन देशों में, पूंजी का अभाव या तो पूंजी के लिये मांग के अभाव के कारण होता है या पूर्ति के अभाव के कारण या फिर दोनों कारणों से ।

”निवेश, मांग कारकों के कार्य से या पूर्ति कारकों के कार्य से अथवा दोनों कारणों से उत्पन्न होता है ।” -ए. जे टांगसन

पूंजी के लिये मांग निवेश के लिए प्रोत्साहन द्वारा प्रशासित होती है जबकि पूंजी की पूर्ति लोगों की बचत के लिये इच्छा और योग्यता द्वारा निर्धारित होती है । निर्धन और अल्प-विकसित देशों के प्रकरण में, पूंजी के लिये मांग निर्बल और पूर्ति अपर्याप्त होती है अत: दोनों ही पूंजी के कम निर्माण के लिये उत्तरदायी हैं ।

अब हम इन दोनों कारकों का विस्तार में परीक्षण करते हैं:

(क) मांग पक्ष (Demand Side):

पूंजी के लिये मांग किसी अर्थव्यवस्था में निवेश के लिये प्रोत्साहनों पर निर्भर करती है । यदि निवेश के लिये उच्च प्रोत्साहन होगे तो पूंजी की मांग दृढ़ होगी जबकि प्रोत्साहन के दुर्बल होने पर पूंजी की मांग भी कम होगी । निवेश के लिये प्रोत्साहन मुख्यत: निवेश की लाभप्रदता पर निर्भर करते हैं ।

अल्प-विकसित देशों में पूंजी के लिये मांग का अभाव पूंजी की अत्यधिक कमी के कारण होता है परन्तु जहां मांग का अभाव केवल निजी निवेशकों की पूंजी की मांग के सन्दर्भ में होता है और समग्र अर्थव्यवस्था के दृष्टिकोण से इस प्रकार विचार नहीं किया जाता ।

इसलिये निजी निवेश के लिये प्रोत्साहनों का अभाव मुख्यता घरेलू बाजार के छोटे आकार से उत्पन्न होता है । यदि लोग निर्धन हैं तो बाजार का आकार छोटा होगा । निजी निवेश बहुत लाभप्रद नहीं होगा और निवेश के लिये प्रोत्साहन अपने आप दुर्बल होगे ।

दूसरी ओर, बाजार का आकार जितना बड़ा होगा, उद्यमियों के लिये निवेश और उत्पादन का प्रोत्साहन उतना ही बड़ा होगा । यदि बाजार अधिक विस्तृत है, श्रम के विभाजन और विशेषीकरण की सम्भावना उतनी ही अधिक होगी । बाजार के छोटे आकार के अतिरिक्त अन्य कारक भी हैं जो अल्प-विकसित देशों में पूंजी की मांग को सीमित करते हैं ।

उन्हें नीचे सूचीबद्ध किया गया है:

(i) उद्यमीय कला का अभाव (Lack of Entrepreneurship):

अल्प विकसित देशों में प्राय: दक्ष, सक्रिय और उत्साही उद्यमियों का बहुत अभाव होता है जो व्यापार में जोखिम उठा सके । उद्यमियों में ऐसे गुणों के अभाव के कारण लोगों की बचतों का सट्टेबाजी वाली गतिविधियों में उचित उपयोग नहीं हो सकता ।

अत: आगे पूंजी संचय नहीं होता । यदि निवेश के उच्च लाभप्रद अवसर भी विद्यमान हों तो भी पूंजी की मांग का अभाव रहता है, क्योंकि उद्यमियों और नव-प्रवर्तकों की कमी के कारण अवसरों और निवेश का उपयोग नहीं हो पाता ।

(ii) निपुण श्रम की उपलब्धता का अभाव (Lack of Availability of Skilled Labour):

अल्प विकसित देश सदा निपुण एवं प्रशिक्षित श्रम के अभाव के कारण दु:खी रहते हैं । तकनीकी पिछड़ेपन के कारण पूंजी के लिये मांग प्रतिबन्धित रह जाती है ।

(iii) मौलिक सुविधाओं की कमी (Shortage of Basic Facilities):

मौलिक सुविधाओं जैसे विद्युत, यातायात, संचार और अनुसंधान संस्थाओं की कमी के कारण निवेश सीमित रह जाता है । मौलिक सुविधाओं का अभाव उच्च निवेश को प्रतिबन्धित करता है ।

(iv) सस्ते श्रम की उपलब्धता (Availability of Cheap Labour):

जनसंख्या की अधिकता और उच्च स्तरीय बेरोजगारी के कारण अल्प विकसित देशों में श्रम पूर्ति की बहुलता होती है । इस कारण पूंजी-गहन तकनीकों के स्थान पर श्रम-गहन तकनीकों का प्रयोग किया जाता है जिस कारण पूंजी के लिये मांग कम हो जाती है ।

(v) कृषि की प्रारम्भिक और पुरानी तकनीकें (Primitive and Outdated Agriculture):

अल्प विकसित देशों में लोगों का मुख्य व्यवसाय कृषि होता है । लगभग 70 प्रतिशत लोग स्पष्ट अथवा परोक्ष रूप में निर्वाह के लिये कृषि पर आधारित होते हैं । वे कृषि के आरम्भिक और पुराने हो चुके ढंगों का प्रयोग करते हैं ।

कृषि के लिये भूमि के आकार बंटे हुये, खर्चीले और बिखरे हुये हैं । भूमि की काश्तकारी प्रणाली त्रुटिपूर्ण है जो इस क्षेत्र में निवेश को हतोत्साहित करती है । खेती के वैज्ञानिक ढंग नहीं अपनाये जाते ।

(vi) उच्च ब्याज दर (High Interest Rates):

एक अन्य कारण जो पूंजी की मांग को सीमित करता है वह निर्धन और अल्प विकसित देशों में ब्याज का उच्च दर है । उच्च ब्याज दर पूंजी की सीमांत दक्षता पर विपरीत प्रभाव डालता है जिस कारण देश में निवेश हतोत्साहित होता है ।

(vii) करारोपण की नीति (Taxation Policy):

अधिकांश अल्प विकसित देशों में विकास की आवश्यकताओं को पूरा करने तथा निर्धन एवं समृद्ध लोगों के बीच अन्तराल कम करने के लिये और अतिरिक्त साधनों की गतिशीलता के लिये करारोपण नीति का एक नियोजित मुक्ति के रूप में प्रयोग किया जाता है । आय और लाभों पर बहुत ऊंचे कर अर्थव्यवस्था में निवेश की प्रेरणा को प्रतिबन्धित करते हैं ।

(viii) अस्थिर राजनैतिक वातावरण (Unstable Political Environment):

अल्प विकसित देशों में प्राय: अस्थिर राजनैतिक वातावरण पूंजी की निम्न मांग के लिये उत्तरदायी होता है । इन देशों में पिछड़ी हुई और परम्परागत प्रणालियां विद्यमान होती हैं जो देश में हितकारी निवेश के लिये उचित वातावरण तैयार करने में असमर्थ होती हैं ।

(ix) राष्ट्रीय विचारों का अभाव (Lack of National Feelings):

आजकल अल्प विकसित देशों में राष्ट्रीय भावनाओं का अभाव होता है जिससे नया निवेश हतोत्साहित होता है । वास्तव में जीवन और सम्पत्ति की सुरक्षा पूंजी निर्माण के लिये आवश्यक है ।

(ख) पूर्ति पक्ष (Supply Side):

किसी अर्थव्यवस्था में पूंजी की पूर्ति सदा निवेश योग्य कोष की उपलब्धता द्वारा निर्धारित की जाती है जो लोगों की उपभोग आवश्यकताओं के ऊपर अतिरेक का प्रतिनिधित्व करता है ।

धन की पूर्ति के दो स्रोत हैं:

(i) धन की घरेलू पूर्ति और

(ii) आयात की गई पूंजी (विदेशी पूंजी) ।

इसलिये धन की कुल पूर्ति घरेलू बचतों और शुद्ध पूंजी आयातों से बनती है । बचतों के बिना पूंजी का संचय नहीं होता ।

बचतों की उत्पत्ति के तीन स्रोत हैं, जो इस प्रकार हैं:

(क) व्यक्तिगत और घरेलू बचतें,

(ख) उद्योग उपक्रमों, ज्वाइंट स्टॉक कम्पनियां और

(ग) सरकार द्वारा बचतें ।

अल्प विकसित देशों में पूंजी की अपर्याप्त पूर्ति मुख्यत: निम्नलिखित कारणों से होती है:

I. अधिकतर लोग केवल निर्वाह स्तर पर जीवन व्यतीत करते हैं इसलिये प्रति व्यक्ति आय का सार नीचा होता है ।

II. सामान्य लोगों में बचत करने की आदतें नहीं होती ।

III. बैंक और निवेश अवसरों का अभाव ।

IV. सुस्पष्ट और औपचारिक उपभोग पर अपव्यय ।

V. लोग सोना, आभूषण और भूमि आदि खरीदने में अधिक रुचि रखते हैं ।

VI. अहितकर संस्कृति और संस्थानिक व्यवस्था ।

VII. जनसंख्या में तीव्र वृद्धि ।

VIII. अन्य कारण, व्यर्थ की प्रथाएं उन्नति की इच्छा का अभाव, प्रदर्शक प्रभाव, दूरदर्शिता का अभाव, प्रतिकूल वातावरण आदि ।


5. स्थिरता सहित पूंजी समावेशन (Capital Absorption with Stability):

इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि आर्थिक रूप में अल्प विकसित देशों में पूंजी का सापेक्ष अभाव होता है जिसके कारण पूंजी निर्माण की दर नीची हो जाती है ।

उसी समय हम देखते हैं कि इन देशों को पूंजी निर्माण के उच्च दर की आवश्यकता होगी यदि वह अल्पकाल में अपनी अर्थव्यवस्था का विकास चाहते हैं । यहां यह नहीं भूलना चाहिये कि प्रत्येक देश/क्षेत्र सीमित पूंजी समावेशन क्षमता रखता है ।

आओ हम उन कारकों का स्पष्ट चित्रण करें जो अल्प विकसित देशों में पूंजी के समावेशन को रोकते हैं:

1. उत्पादन के पूरक कारकों का अभाव (Lack of Complementary Factors of Production):

किसी अर्थव्यवस्था में उत्पादन विभिन्न निवेशों जैसे भूमि, श्रम, पूंजी और उद्यमी का परिणाम है । अल्प विकसित देशों प्राय: नवीनतम तकनीकों, निपुण श्रम और उद्यमीय योग्यता का अभाव होता है । इन कारकों का अभाव सीमांत उत्पादकता में तीव्र गिरावट की ओर ले जाता है । यदि पूंजी संचय घटित होता है तो उत्पादन की पूर्ति उसी समय बढ़नी आरम्भ हो जाती है ।

2. स्फीतिकारी शक्तियां (Inflationary Forces):

अल्प विकसित देशों में स्फीतिकारी शक्तियां भी पूंजी के समावेशन में बाधा बनती हैं । यह देश, विकसित देशों की तुलना में अधिक स्फीति प्रवृत्तिक होते हैं । जब कभी निगमित क्षेत्र की बचतों अथवा साख की रचना द्वारा थोड़ा सा निवेश भी किया जाता है तो यह मुद्रा स्फीति का कारण बन सकता है ।

इन देशों की सरकारों के लिये मुद्रा स्फीति का नियन्त्रण कठिन हो जाता है क्योंकि वह अधिक समाज कल्याण सेवाओं के लिये मांग के बढ़ते हुये दबाव को नहीं रोक पाते । पुन: बाजार अशुद्धियाँ स्फीतिकारी शक्तियों को और भी तीव्र करती है ।

कभी-कभी यह अनुभव किया जाता है कि स्फीति की समान्य मात्रा वांछनीय है, परन्तु जब यह एक बार आरम्भ हो जाती है तो इसे सामान्य मात्रा तक सीमित रखना कठिन होता है । मुद्रा स्फीति उत्पादन में अदक्षता को जन्म देती है और साधनों को उत्पादक मार्गों में हटा कर अनुत्पादक मार्गों की ओर ले जाती है ।

3. भुगतानों के सन्तुलन को सन्तुलित बनाये रखना (Maintenance of Balance of Payment Equilibrium):

किसी अल्प विकसित देश की विकास प्रक्रिया को भारी आयातों का भुगतान करने के लिये विदेशी विनिमय की आवश्यकता होती है । अन्य शब्दों में, आर्थिक विकास का दर किसी देश की निर्यात और आयात क्षमता पर निर्भर करता है । यदि आयात निर्यात से बढ़ जाते हैं, तो इससे भुगतानों का सन्तुलन बिगड़ जाता है तथा यह अहितकर बन जाता है ।

इसके अतिरिक्त, अहितकर व्यापार सन्तुलन विदेशी विनिमय जिसकी पूंजी आयातों के लिए आवश्यकता होती है भी अति दुर्लभ पूर्ति का कारण बनता है तथा विदेशी विनिमय को विकास कार्यों पर व्यय करने के स्थान पर विलासतापूर्ण आयातों पर व्यय कर दिया जाता है । यहां ही अन्त नहीं, कभी-कभी विकास की तीव्र दर मुद्रा स्फीति की और ले जाती है जिस कारण वस्तुओं के उत्पादन की लागत बढ़ जाती है ।