हरिश्चंद्र की जीवनी | Biography of Harishchandra in Hindi!

1. प्रस्तावना ।

2. जीवन  वृत्त एवं रचनाकर्म ।

3. उपसंहार ।

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1. प्रस्तावना:

आधुनिक गद्या साहित्य के प्रणेता, युग निर्माता, युगप्रर्वतक कवि उपन्यासकार, एकांकीकार अनुवादक, सम्पादक, पत्रकार, अभिनेता, राष्ट्रप्रेमी, उदार हृदयी, समाज सेवी भारतेन्दुजी एक महान व्यक्ति थे । हिन्दी तथा राष्ट्र एवं समाज के अग्रदूत के रूप में उन्होंने तत्कालीन पराधीनता के युग में आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक, भाषायी जागति का सन्देश दिया । तत्कालीन संक्रमणकाल में उन्होंने जो पुनर्जागरण की नयी चेतना जागत की, उसके लिए वह युगों तक जाने जाते रहेंगे ।

2. जीवन वृत एवं रचनाकर्म:

बहुमुखी प्रतिभासम्पन्न भारतेन्दुजी का जन्म काशी के एक धनवान घराने में सेठ अमीरचन्द की वंश परम्परा में सन 1850 में हुआ था । उनके पिता बाबू गोपालचन्द गिरधारदास भी अपने समय के प्रसिद्ध कवि रहे है । भारतेन्दुजी जब पाच वर्ष के थे, तो उनकी माताजी की मृत्यु हो गयी । उनकी अवस्था जब दस वर्ष की हुई, तब उनके पिता का देहावसान हो गया ।

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बाल्यावस्था से ही उन्हें कविता रचने की प्रेरणा मिली थी । 16 वर्ष की अवस्था तक उन्होंने शिक्षा ग्रहण की । कहा जाता है कि उन्हें साहित्य एवं साहित्यकारों से इतना प्रेम था कि उन्होंने अपनी धन-सम्पदा इसी के पीछे खर्च कर दी । वे स्वयं नाटक लिखते, उसमें अभिनय करते और अभिनयकर्ताओं को भी वे पारिश्रमिक दिया करते थे ।

उनके घर में हमेशा साहित्यिक गोष्ठियां इत्यादि होती थीं, जिसका खर्च वे स्वयं उठाते थे । उन्होंने पैंतीस वर्ष की अवस्था तक साहित्य की यथासम्भव सेवा की । उनकी मृत्यु विपन्नावस्था में सन् 1985 को हुई । उन्होंने लगभग 175 ग्रन्थ लिखे ।

साहित्यकारों एवं पत्रकारों ने उनकी साहित्य सेवा के लिए उन्हें “भारतेन्द्व” उपाधि से सम्मानित किया था । कवि होने के साथ-साथ वे पत्रकार भी थे । उन्होंने कविवचनसुधा हरिश्चन्द्र पत्रिका {भारतेन्दु मेग्जीन}  का सम्पादन भी किया । उन्होंने एक हाई-स्कूल खोला, जो बाद में कॉलेज के रूप में प्रतिष्ठापित हुआ ।

उन्होंने ”भारतेन्दु मण्डल” की स्थापना कर साहित्यकारों को आर्थिक सहायता देकर उन्हें उत्साहित किया । उनके द्वारा की गयी हिन्दी की सेवाएं अनन्त हैं । उन्होंने गद्या की शैली के विवाद को हटाकर सरल हिन्दी की गद्या शैली को जन्म दिया । ब्रजभाषा को गीतिकाव्य का रूप प्रदान किया । उन्होंने नवीन राष्ट्रीय चेतना का विकास किया ।

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रीतिकालीन नख-शिख की श्रुंगारिकता से निकालकर कविता के समाज सुधार एवं राष्ट्रसेवा तथा हिन्दी सेवा हेतु अग्रसर किया ।

निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल ।

बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटै न हिय को शूल ।।

कहकर राष्ट्रभाषा ‘हिन्दी’ मातृभाषा हिन्दी की सेवा करने का जोश ऐसा भरा कि उस युग के कवियों एवं लेखकों में ऐसी ही राष्ट्रीय व सामाजिक चेतना जागत कर डाली । उन्होंने वैदिक, हिंसा न हिंसा भवति, भारत दुर्दशा, नील देवी, सत्य हरिश्चन्द, अंधेर नगरी जैसे श्रेष्ठ नाटकों का प्रणयन किया ।

उनकी कविताओं का विषय देशभक्ति, कृष्ण-भक्ति, श्रुंगारिकता, सामाजिकता प्रकृति का परिवेश रहा है । उनकी रचनाए वर्णनात्मक होकर भी सरस व लालित्यपूर्ण हैं । उन्होंने प्रेम-मालिका, प्रेम सरोवर, गीत गोविन्दानन्द, वर्षा विनोद विनय, प्रेम पचासा, प्रेम फुलवारी, प्रेम सरोवर, वर्षा विनोद, वेणु गीत आदि 70 से अधिक रचनाएं लिखीं ।

उनकी कविताओं में हास्य-व्यंग्य की भी प्रधानता रही है, जिसकी भाषा इतनी ओजस्वी, सरल, भाव-प्रवण व प्राणवान रही है, जितना उस युग में किसी की नहीं  थी ।

3. उपसंहार:

हिन्दी साहित्य के इतिहास में कवि भारतेन्दु हरिश्चन्द्र युग प्रवर्तक ही नहीं थे, बल्कि उनके युग में ”कविता को ही नहीं, निबन्ध, कहानी, उपन्यास, नाटक, एकांकी, आलोचना, यात्रा-वृतान्त, संस्मरण, पत्रकारिता को भी नयी दिशा मिली । उनका रचनाकाल हिन्दी साहित्य का प्रथम एवं मूल्यवान उत्थानकाल था ।

उस समय के साहित्यकारों ने हिन्दी के प्रति प्रेम, राष्ट्र और समाज के प्रति निष्ठा दिखायी । खड़ी बोली के जिस रूप को भारतेन्दु ने स्थापित किया था, द्विवेदी युग में जाकर उसके रूप को नया परिमार्जन एवं व्याकरणसम्मत रूप मिला । भारतेन्दुजी की अनन्त सेवाएं युगों तक अमर रहेंगी ।

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