सर जगदीशचन्द्र बसु की जीवनी । Biography of Sir Jagadish Chandra Basu in Hindi Language!

1. प्रस्तावना ।

2. जन्म परिचय व उपलब्धियां ।

3. उपसंहार ।

1. प्रस्तावना:

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सर जगदीशचन्द्र बसु भारत के उन महान् वैज्ञानिकों में से एक थे, जिनकी खोज महान होते हुए भी न भारतीयता की भेंट चढ़ गयी । बेतार के तार के आविष्कार का जो श्रेय सर जगदीशचन्द्र बसु को मिलना था, वह दुर्भाग्यवश कह या सुनियोजित षड्‌यन्त्र के तहत को मिल गया ।

भारतीय होने की कीमत बसु ने चुकाई, उसे भारतवासी दुर्भाग्य का खेल ही मान सकते हैं । जीव विज्ञान के क्षेत्र में बसु ने पौधों में जीवन और चेतना की खोज करके बींसवी सदी में एक नयी खोज करके दुनिया को नया ज्ञान दिया ।

2. जीवन परिचय व उपलब्धियां:

सर जगदीशचन्द्र बसु का जन्म 30 नवम्बर सन् 1858 को बंगाल प्रान्त के ढाकूा जिले के विक्रमपुर नामक ग्राम के पास राड़ीखाल नामक स्थान में हुआ था । उनके पिता भगवानचन्द्र बसु डिप्टी मजिस्ट्रेट के पद पर कार्यरत थे ।

अंग्रेजों के अधीन रहते हुए भी उनमें भारतीयता एवं राष्ट्रीयता की भावना विद्यमान थी । उनके पिता ने उन्हें ग्रामीण पाठशाला में ही पढ़ाया, ताकि बालक अपनी मातृभाषा बंगला का समुचित ज्ञान प्राप्त कर

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सके । गांव में रहते हुए बालक जगदीश को पेड़-पौधों और प्रकृति के सानिध्य में रहने का अवसर मिला ।

एकान्त में होते, तो वे पेड़-पौधों के रहस्यों के साथ-साथ प्रकृति के रहस्यों को भी जानने की चेष्टा करते । उघरम्भिक शिक्षा के बाद उन्हें कलकत्ता के सेंट जेवियर स्कूल में भरती करा दिया गया । वहां उन्होंने मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की । सेंट जेवियर कॉलेज से ही ग्रेजुएशन करके इंग्लैण्ड के मेडिकल कॉलेज में दाखिला लिया ।

वहां चीर-फाड़ का कार्य करना उनकी रुचि के विपरीत था । अत: उन्होंने विशुद्ध विज्ञान पढ़ने का निश्चय किया । लंदन के क्राइस्ट कॉलेज से सन में बी॰एस॰सी॰ की परीक्षा उत्तीर्ण कर विज्ञान में राष्ट्रीय छात्रवृत्ति भी प्राप्त की स्वदेश लौटने पर उनकी नियुक्ति कलकत्ता के प्रेसीडेंसी कॉलेज में भौतिक शास्त्र के प्राध्यापक के रूप में हो गयी ।

अंग्रेजी प्राध्यापक उनसे ईर्ष्या, द्वेष व भेदभाव रखते थे । उनकी तुलना में उन्हें बहुत कम वेतन मिलता था । इस पक्षपातपूर्ण नीति के विरोधस्वरूप उन्होंने तीन वर्ष तक अवैतनिक ही कार्य किया । शर्त यह थी कि इस भेदभाव को समाप्त किया जाये । अपने स्वाभिमान और देशाभिमान पर अडिग रहने वाले इस भारतीय को अन्ततोगत्वा विजय प्राप्त हुई ।

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3 वर्ष का एक साथ वेतन तथा स्थायी नियुक्ति इसका सुखद परिणाम रही । सन् 1895 में उन्होंने इंग्लैण्ड की रॉयल सोसाइटी के मुख पृष्ठ हेतु अनेक अनुसन्धानपरक लेख लिखे । उन्होंने बिजली के प्रकाशन से सम्बन्धित उपकरण भी तैयार किया । 1896 में प्रकाशित शोध लेख ‘डिफ्राक्टिंग’ के द्वारा बिजली की लहरों की लम्बाई पर उन्हें काफी ख्याति मिली ।

विद्युत् संकेत तरंगों को बिना तार के प्रसारित करने के क्षेत्र में बसु को यद्यपि सर्वप्रथम सफलता मिली, जिसका प्रदर्शन उन्होंने कलकत्ता के गवर्नर के समक्ष किया, किन्तु पंजीकरण के अभाव में यह श्रेय मारकोनी को मिल गया ।

उन्होंने विद्युत् चुम्बकीय तरंगों के अपवर्तन व परावर्तन के सम्बन्ध में उसके ईट और तारकोल पर प्रभाव का भी परिणाम व निष्कर्ष सम्बन्धी नयी खोज भी की । इससे बसु निराश नहीं हुए । उन्होंने एक बिलकुल नयी खोज कर डाली, जिसमें बसु ने यह सिद्ध किया कि पौधे भी प्राणियों की तरह जीवनयापन करते हैं । उनमें भी संवेदना होती है ।

बसु ने अपने प्रयोग द्वारा यह सिद्ध कर दिखाया कि पौधों की प्रत्येक क्रिया खाने-पीने, जागने-सोने, सर्दी-गरमी की अनुभूति, वंश उत्पत्ति की इच्छा आदि इन्सान के समान ही होती है । पौधेस्मी बेहोश होते हैं । श्वसन करते हैं ।

उन्होंने स्वयं ही बैलेंस्त क्रेस्कोग्राफ यन्त्र बनाया, जो पौधे की गतिविधि को दस लाख गुना बढ़ाकर दिखाता था, जिसमें पौधों पर निद्रा, वायु, प्रकाश, ओषधि, थकान आदि को प्रदर्शित करने के लिए रिजोनेन्ट रिकॉर्डर तथा फोटोसिंथेटिक रिकॉर्डर का निर्माण किया ।

सन् 1902 में पेरिस के विज्ञान कांग्रेस अधिवेशन में भारत के प्रतिनिधि के रूप में उनके भाषण को सुनकर सभी ने तारीफ तो की, लेकिन उनके इस आविष्कार को मान्यता नहीं दी गयी । बाद में इंग्लैण्ड में उनके इस आविष्कार को मान्यता मिली । इसके बाद उन्हें अमेरिका तथा यूरोप में काफी ख्याति मिली ।

स्वदेश लौटने पर कलकत्ता विश्वविद्यालय ने उन्हें डी॰एस॰ की डिग्री तथा पंजाब विश्वविद्यालय ने उन्हें रुपये भेंट किये । उन्होंने यह रुपये किसी गरीब उानुसन्धानकर्ता विद्यार्थी को सौंपने का विचार किया ।

1911 में सरकार ने उनको सी०एस०आई० और 1917 में ”सर” की उपाधि से विभूषित किया ।

1915 में श्री बसु प्रेसीडेंसी कॉलेज से सेवानिवृत्त हुए । उन्होंने बसु विज्ञान मन्दिर की स्थापना अपने नये भवन में की । अपने परिश्रम से कमाये रुपयों में से 5 लाख रुपये इस संस्था को दान में दिये । अपनी मृत्यु के समय भी 15 लाख रुपये देकर वे अपना नाम अमर कर गये ।

3. उपसंहार:

डॉ॰ बसु महान् वैज्ञानिक थे । उन्होंने 10 से अधिक पुस्तकें तथा 80 से भी अधिक शोधयथ लिखे, जिनमें ‘द फिजियोलॉजी ऑफ फोटोसिंथेटिस’ तथा ‘द नरवस मैकेनिरम उतँफ प्लान्टस’ प्रसिद्ध हैं । उनकी रुचि साहित्य में भी विशेष थी । विदेशों में अपने व्याख्यानों के लिए ख्याति प्राप्त कर वे जीवन-भर वैज्ञानिक अनुसन्धान में लगे रहे ।

जीवन के अन्तिम क्षणों तक कार्य करते रहे । इसी दौरान उन्हें अस्वस्थता ने जकड़ लिया । पुत्र का वियोग भी उन्हें सहना पड़ा । वे कट्टर राष्ट्रवादी थे । राष्ट्रसेवा में आना चाहते थे, किन्तु विवेकानन्द के आग्रह पर वे वैज्ञानिक खोज में लगे रहे । आने वाले कई भारतीय वैज्ञानिकों को उन्होंने राह दिखायी । इस महान वैज्ञानिक का देहावसान 23 नवम्बर, 1937 में हो गया ।

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