वरहमहिहिर की जीवनी | Biography of Varahamihir in Hindi!

1. प्रस्तावना ।

2. उनका जन्म परिचय ।

3. ज्योतिषशास्त्र को उनकी देन ।

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4. उपसंहार ।

1. प्रस्तावना:

यह सत्य है कि प्राचीन समय में मनुष्य को अन्तरिक्ष तथा उसके ग्रह-नक्षत्रों के बारे में जानने की रुचि अवश्य रही होगी, किन्तु इस रुचि के कारण जिन्होंने अपने अथाह एवं अथक परिश्रम से गूढ़ तथा सूक्ष्म अध्ययन से इसे जानने का ईमानदारी से प्रयास किया था, उनमें आर्यभट के साथ-साथ ज्योतिष व खगोलशास्त्री का नाम भी विशेष उल्लेखनीय है ।

सूर्य तथा चन्द्रमा के साथ-साथ आखों से दिखाई देने वाले ग्रहों की गतिविधियों के आधार पर जिस ज्योतिष विज्ञान की रचना की गयी, उनमें वराहमिहिर का नाम इसलिए सर्वोपरि है; क्योंकि उन्होंने ग्रह-नक्षत्रों के ज्ञान का सम्बन्ध मानव जीवन के विभिन्न पहलुओं से स्थापित किया ।

2. उनका जन्म परिचय:

वराहमिहिर का जन्म ई॰ सन् 505 में हुआ था । वृहज्जातक में उन्होंने अपने पिता आदित्यदास का परिचय देते हुए लिखा है कि: ”मैंने कालपी नगर में सूर्य से वर प्राप्त कर अपने पिता आदित्यदास से ज्योतिषशास्त्र की शिक्षा प्राप्त की । इसके बाद वे उज्जयिनी जाकर रहने लगे ।

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यहीं पर उन्होंने बृहज्जातक की रचना की । वे सूर्य के उपासक थे । वराहमिहिर ने लघुजातक, विवाह-पटल, वृहकत्संहिता, योगयात्रा और पंचसिद्धान्तिका नामक अन्यों की रचना की । वे विक्रमादित्य के नवरत्नों में से एक माने जाते हैं ।

3. वराहमिहिर की ज्योतिषशास्त्र को देन:

वराहमिहिर भारतीय ज्योतिष साहित्य के निर्माता थे । उन्होंने अपने पंचसिद्धान्तिका नामक  ग्रन्थ में पांच सिद्धान्तों की जानकारी दी है, जिसमें भारतीय तथा पाश्चात्य ज्योतिष-विज्ञान की जानकारी भी सम्मिलित

है । उन्होंने अपनी बृहत्संहिता नामक ज्ञानकोष में तत्कालीन समय की संस्कृति तथा भौगोलिक स्थिति की जानकारी दी है । फलित ज्योतिष की जानकारी उनके अन्यों में अधिक है ।

जन्मकुण्डली बनाने की विद्या को जिस होराशास्त्र के नाम से जाना जाता है, उनका बृहज्जातक  ग्रन्थ इसी शास्त्र पर आधारित है । लघुजातक इसी  ग्रन्थ का संक्षिप्त रूप है । योगयात्रा में यात्रा पर निकलते समय शुभ-अशुभ आदि से सम्बन्धित घटनाओं का वर्णन है ।

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इन अन्यों में ज्ञान के साथ-साथ अन्धविश्वास को मी काफी बल मिला । यदि अन्धविश्वास सम्बन्धी बातों को हम दरकिनार कर दें, तो इस कब्ध की अच्छी बातें हमारे ज्ञान में सहायक होंगी । पृथ्वी की अयन-चलन नाम की खास गति के कारण ऋतुएं होती हैं । इसका ज्ञान कराया । गणित द्वारा की गयी गणनाओं के आधार पर उन्होंने पंचांग का निर्माण किया ।

वराहमिहिर के अनुसार: ‘समय-समय पर ज्योतिषियों को पंचांग में सुधार करते रहना चाहिए; क्योंकि ग्रह-नक्षत्रों तथा ऋतुओं की स्थिति में परिवर्तन होते रहते हैं ।’ अल्वरूनी जब भारत आया था, तो उसने भी ज्योतिषशास्त्र तथा संस्कृत का अच्छा ज्ञान प्राप्त कर वराहमिहिर के कुछ ग्रंथों का अरबी भाषा में अनुवाद किया ।

4. उपसंहार:

यदि हमें प्राचीन भारतीय जो ज्योतिष-विज्ञान को जानना है, तो वराहमिहिर के ज्योतिष सम्बन्धी सिद्धान्तों का अवश्य अध्ययन करना चाहिए । हमारे देश के कुछ पुराणपन्थी ज्योतिष लकीर के फकीर बनकर अन्धविश्वास पर आधारित ज्योतिष को मानते हैं ।

वराह ने जिस तरह रोमेश और पुलिश, यूनानी, पाश्चात्य ज्योतिष सिद्धान्त को भारतीय ज्योतिष के साथ समन्वित किया था, आज के ज्योतिषाचार्यो को इसकी आवश्यकता है, तभी ज्योतिषशास्त्र को विज्ञान का दरजा मिल पायेगा ।

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