बैंकिंग क्षेत्र में उभरते रुझान | Read this article in Hindi to learn about the twenty eight emerging trends in banking sector of India. The trends are:- 1. विलय और अधिग्रहण (Mergers and Acquisitions) 2. मेहनत पूँजी (Sweat Equity) 3. उपभोक्ता साख ब्यूरो (Consumer Credit Bureau) 4. यूनीवर्सल बैंकिंग (Universal Banking) 5. वंश बैंकिंग (Generation Banking) and a Few Others.

बैंकिंग क्षेत्र में उभरती प्रवृत्तियाँ निम्नांकित हैं:

Trend # 1. विलय और अधिग्रहण (Mergers and Acquisitions):

वैश्वीकरण के वर्तमान युग में भारतीय बैंकिंग परिवेश में नयी चुनौतियाँ उभर रही है । इसी पृष्ठभूमि में परसिंहम कमेटी द्वारा अपनी दूसरी रिपोर्ट में बैंकों के विलय और अधिग्रहण की वकालत की है । आज भारतीय बैंकों के समक्ष विदेशी और निजी क्षेत्र के बैंक एक बढी चुनौती पेश कर रहे हैं । फलतः सार्वजनिक क्षेत्रों के बैंकों के मुनाफे में अपेक्षित वृद्धि नहीं हो पा रही है ।

दूसरी, विदेशी-निजी क्षेत्र के बैंक अपने साथ उन्नत तकनीक भी ला रहे है जिससे कम लागत पर उत्तर सेवा देने में सक्षम हैं सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक अपेक्षित कम उत्पादकता, पूँजी गाव और बढ़ती गैर-निष्पादित आस्तियों के दबाव से जूझ रहे है । बैंकों के सामने यह भी एक चुनौती है कि वह कैसे अपना अस्तित्व बनाये रखे विशेषकर छोटे और मझोले बैंकों के संदर्भ में यह अहम प्रश्न है ।

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वर्ष 1999-2000 के केन्द्रीय बजट द्वारा ऐसी सम्भावनाओं को तलाशने की पहल की है ।  वैसे तो वर्तमान भारतीय परिवेश में सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के बलात अधिग्रहण में ऐसी संभावनाएँ नगण्य है फिर भी निजी क्षेत्र के बैंकों के लिए खतरा बना रहता है क्योंकि वहाँ कम पूँजी निवेश है, उत्पादकता अधिक और परिणाम (मुनाफा) ललचाने वाला है ।

विदेशों में विलय और अधिग्रहण जब भी हुए है वह सम्बन्धित बैंकों/कम्पनियों द्वारा अपनी पहुँच बढाने, परिचालनों में विविधता और बलात अधिग्रहण से बचने के लिए किए गए है । उदाहरणार्थ बैंकर्स ट्रस्ट और बाल्टी मोर इन्वैस्टमैण्ट हाउस का विलय और हाल स्ट्रीट, न्यूयार्क की फर्म डिलन रीड को एलेक्सा ब्राउन और स्विस बैंकिंग कॉर्पोरिशन के खरीदने के संयुक्त प्रयास ।

जापान में भी एक योजनाबद्ध तरीके से बैंकों को मजबूती प्रदान करने के उद्देश्य से ऐसे प्रयास अनवरत किए जा रहे है । भारत में अब तक जो भी विलय हुए है वह कमजोर बैंकों के सशक्त बैंकों के साथ बिना किसी खास प्रयोजन के, केवल कर्मचारियों की नौकरियाँ बरकरार रखने के लिए किए गए हैं, जैसे- पंजाब नेशनल बैंक में न बैंक ऑफ इण्डिया लि., सेठ काशीनाथ बैंक लि. का भारतीय स्टेट बैंक के साथ ऐसे अनुभव यह बताते हैं कि बेमेल विलय बडे बैंकों पर बोझ बने है और उनके कर्मचारी की सघनता अधिक है, परन्तु व्यापार कम है तो ऐसी शाखाओं के विलय से अथवा बन्द करके नये गैर बैंकिंग क्षेत्रों में पैठ बनायी जा सकती है । ऐसे प्रयासों से लागत में कमी आयेगी, लाभ में वृद्धि होगी और दूसरे बैंकों को कडी प्रतिस्पर्धा दे सकेंगे ।

ऐसे बैंक जो अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर अपनी सशक्त उपस्थिति चाहते है तो उन्हें बडे बैंकों के साथ विलय के बारे में गम्भीरता से सोचना होगा तभी वह प्रतिस्पर्द्धा में बने रह पायेंगे । विलय-अधिग्रहण का अर्थ यह भी नहीं है कि जिन बैंकों की गैर-निष्पादित आस्तियां बढ रही हैं उन्हें मजबूत बैंक तलाशने है । ऐसे प्रस्ताव, बैंकिंग जनता का विश्वास नहीं पा सकेंगे ।

ADVERTISEMENTS:

भारत में अभी भी विलय अधिग्रहण की राह में कानून बहुत बडी बाधा है जहाँ शाखाओं के कम्प्यूटरीकरण से स्टाफ आधिक्य हो रहा है वही उन्हें नौकरी में बनाये रखने की लाचारी है । तब यदि विलय-अधिग्रहण को अधिक प्रभावी बनाने के लिए इन प्रश्नों के संतोषजनक उत्तर खोजने होंगे ।

Trend # 2. मेहनत पूँजी (Sweat Equity):

किसी कम्पनी द्वारा शेयरों को आवंटन-नकद भुगतान के सापेक्ष न कर बट्टे (Discount) या प्रतिफल (Consideration) पर इस उद्देश्य से किया जाये ताकि आवंटी (Allottee) से तकनीकी/ज्ञान (Technical/knowhow), प्रबंधकीय सहयोग (Managerial Co-operation), प्रज्ञासम्पन्न अधिकार (Intellectual Rights) या मूल्यवर्द्धन (Value Addition) का लाभ मिल सके, इस प्रकार आवंटित शेयर पूँजी को मेहनत पूँजी (स्वेट पूँजी) कहते हैं ।

Trend # 3. उपभोक्ता साख ब्यूरो (Consumer Credit Bureau):

भारत बैंकिंग परिदृश्य में आज बैंकों में कडी प्रतिस्पर्द्धा के चलते ऋणी के सही चयन और पुनर्भुगतान की बडी विकट समस्या है । गैर निष्पादित आस्तियों (NPAs) के फैलाव में ऋणी का सही चयन न हो पाना एक बडा कारक (Factor) है ।

इस समस्या को कुछ हद तक कम करने के और अन्य सम्बन्धित सूचना के संकलन आकलन के उद्देश्य से करते के गठन का प्रस्ताव उपस्थिति वाले ब्रिटिश कम्पनी ‘एक्सपेरियन’ और अमेरिकी कम्पनी ‘इक्वीफैक्स’ द्वारा लाया गया है जो कि उपभोक्ता की व्यक्तिगत वित्तीय स्थिति आधार और साख की विस्तृत रिपोर्ट तैयार करेगी और बैंकों को नियत शुल्क पर उपलब्ध कराएगी । इस आशय का प्रस्ताव भारतीय रिजर्व बैंक की स्वीकृति के लिए प्रेषित किया जा चुका है ।

Trend # 4. यूनीवर्सल बैंकिंग (Universal Banking):

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ऐसी परिस्थितियों जब बैंक और अन्य वित्तीय संस्थाएँ विकास बैंक उन्मुक्त तौर से अपना कार्य कर सकेंगे । वर्तमान में बैंकिंग संस्थाओं की एक सीमा से ऊपर दीर्घकालीन ऋण देने पर रोक है वहीं वित्तीय संस्थाएँ कार्यशील पूँजी वित्त प्रदान नहीं करते है । विकास वित्त संस्थाएँ (DFI) अपनी आवश्यकताओं हेतु भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा ‘दीर्घावधि परिचालन निधि खाता’ (Long Term Operation Fund) से प्राप्त कर रहे हैं ।

यह फण्ड दीर्घावधि की प्रकृति के होने के कारण दीर्घावधि परिपक्वता वाली परिसम्पत्तियों (Assets) के निर्माण में सहायक रही है । जब यह स्रोत सुख गया है । बैंकों की जमा राशियाँ अपेक्षित कम लागत पर बचत खातों चालू खातों से मिल जाती हैं जबकि वित्तीय संस्थाओं को यह सुविधा नहीं है और उन्हें जमा राशियों के लिए बॉण्डों को जारी करना होता है जो कि उन्हें अपेक्षित अधिक ब्याज दरों पर प्राप्त हो ।

फलतः वित्तीय संस्थाएँ कम ब्याज दरों पर ऋण नहीं दे पाती हैं । वर्तमान में जबकि बैंक कम लागत पर ऋण देने की स्थिति में ह । तीसरे, बैंकों को अपनी जमाओं पर सावधिक तरल अनुपात (SLR) और नकद आरक्षित अनुपात (CRR) के अनुपालन की आध्यता है तो वित्तीय संस्थाओं को इन अनुपातों से मुक्त रखा गया है ।

प्रतियोगिता के युग में बैंक, और वित्तीय संस्थाओं को यदि समान अवसर (Level Playing Fild) और नियमों में रखे जाने की आवश्यकता है जिससे ब्याज दरों में कमी आयेगी, प्रतिस्पर्द्धा बढेगी, उत्पादों के लागत मूल्यों में कमी आने से बैंकिंग उत्पाद प्रतियोगी बनेंगे । भारतीय रिवर्ज बैंक द्वारा ‘यूनीवर्सल बैकिंग’ के समस्त पहलुओं के अध्ययन हेतु भारतीय औद्योगिक विकास बैंक (IDBI) के अध्यक्ष श्री खान की अध्यक्षता में एक समिति गठित की थी जिसने अपनी रिपीर्ट दे दी है ।

Trend # 5. वंश बैंकिंग (Generation Banking):

इस दशक में नये विदेशी बैंक और निजी क्षेत्र में बैंकों के आने से आज प्रतिस्पर्द्धा कुछ ज्यादा ही हो चली है । बैंक यह प्रयास करते है कि उनके ग्राहक बन रहे है और, उनके माध्यम से उनके परिवार/कुटुम्ब के सदस्य भी उसी बैंक से अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करें । दूसरे शब्दों में, पर परिस्थितियाँ जब दादा पिता पुत्र सभी अपना खाता एक बैंक में रखे तो आप उनके विभिन्न पीढ़ियों की सेवा करते हैं । यही वश बैंकिंग (Generation Banking) है ।

फैक्टरिंग (Factoring):

कल्यानसुन्दरम समिति की संस्तुतियों को स्वीकार करते हुये भारतीय रिजर्ब बैंक ने भारत में फैक्टरिंग सेवा की अनुमति प्रदान की ।

फैक्टरिंग एक ऐसी व्यवस्था है जिसके अन्तर्गत सामान/सेवायें बेचने से जो प्राप्तियाँ उत्पन्न होती है । फैक्टर द्वारा खरीद लिया जाता है । परिणामस्वरूप प्राप्तियों के समान स्वत्वाधिकार फैक्टर को दे दिये जाते है, फैक्टर इसके दर्शनीय मूल्य के समान विक्रेता को अग्रिम उपलब्ध करवाता है । आधुनिक फैक्टरिंग सेवा के अन्तर्गत फैक्टर अपने ग्राहकों को अग्रिम व प्राप्तियों की व्यवस्था करता है, उसकी बिक्री से उत्पन्न प्राप्तियाँ खरीदता है, बिक्री सम्बन्धी बही व उसका लेखा-जोखा व अन्य सहायक सेवायें प्रदान करता है ।

फैक्टर द्वारा स्थानीय बिक्री के लिये दी जाने वाली सेवांयें इस प्रकार हैं:

(1) पूर्ण फैक्टरिंग

(2) संसाधन फैक्टरिंग

(3) देयता फैक्टरिंग

(4) अग्रिम फैक्टरिंग

(5) अघोषित फैक्टरिंग

(6) बीजक बट्टा

फैक्टर की देनदारियाँ प्राप्त करने के लिये व अपने अधिकार में लेने के का हस्तांतरण सम्पत्ति अन्तरण अधिनियम, 1882 की धारा 130 के अन्तर्गत अपने फैक्टरिंग सेवा को सुचारु रूप से चलाने के लिये फैक्टर की देनदारियों की न साख सम्बन्धी सूचनाओं की पर्याप्त जानकारी होनी चाहिये ।

भारतीय रिजर्व बैंक ने भारतीय स्टेट बैंक एवं कैनरा बैंक को पूर्ण स्वामित्व वाली अनुषंगी फैक्टर सेवा शुरू करने के लिये अनुमति प्रदान की है ।

Trend # 6. अनिवासी भारतीयों के लिए स्वर्ण आयात योजना(Gold Import Scheme for Non-Resident Indians):

वर्तमान में अनिवासियों को स्वदेश आते समय स्वर्ण लाने की सुविधा कुछ शर्तों के साथ उपलब्ध रही है । स्वर्ण को साथ में लाने वाले जोखिम, भाड़ा आदि के कारण उन्हें कठिनाई होती थी, अतः अब उन्हें देश में ही बैंकों के माध्यम से उन्हीं शर्तों के साथ स्वर्ण खरीदने की सुविधा प्रदान की जा रही है ।

योजना की मुख्य शर्तें इस प्रकार हैं:

 

पात्रता:

 

विदेश में कम से कम 6 माह का प्रवास:

अधिकतम सीमा – 10 कि. ग्राम प्रति व्यक्ति

मूल्य – अन्तर्राष्ट्रीय दरों पर

भुगतान – विदेशी मुद्रा में

सीमा शुल्क – रु. 400/- प्रति 10 ग्राम

अन्यकर – व्यापारा/बिक्री कर 12% (कीमत का)

Trend # 7. ई. आर. ए. एस. (Exchange Risk Administration Scheme):

देश के अग्रणी सावधिक ऋणदाता बैंकों- आई.डी.ब.आई., आई.सी.आई.सी., एल.सी. द्वारा तैयार की गई योजना है जो कि 1 अप्रैल, 1989 से लागू है । इस योजना के तहत कार्पोरेटस् द्वारा विदेशी मुद्रा में लिए गए ऋणों के भुगतान के समय विनिमय हानि से सुरक्षा बीमा किया जाता है और उन्हें सेवा शुल्क के भुगतान के बाद, ऋण लेने के दिन लागू दर पर ही भुगतान करने की सुविधा होगी जिसे ‘रूपी टाइड’ कहते हैं । यह सेवा शुल्क (कम्पोजिट कॉस्ट) प्रत्येक त्रैमासिक अन्तराल पर देय होगी ।

इस शुल्क के प्रमुख अंग निम्नवत् हैं:

(अ) ब्याज व्यय,

(ब) वित्तीय संस्थाओं का लाभांश (स्प्रैड),

(स) विनिमय जोखिम ।

यह योजना मात्र 2 वर्षों के लिए प्रभावी रही है अर्थात् 01.04.1989 से 31.03.1991 तक की अवधि में स्वीकृत विदेशी मुद्रा ऋणों पर ।

Trend # 8. निजी नियोजन बाजार (PPM : Private Placement Market):

भारतीय पूँजी बाजार में एक नया उभरता हुआ आयाम है जहाँ नये शेयर, निवेशक संस्थाओं तथा कुछ एक बड़े निजी (परिष्कृत- नाजुक, सोफीस्टिकेटेड) ग्राहकों को जारी किए जाये, न कि जनता को प्रस्तावित (इनीशियल पब्लिक ऑफर) किए जाएँ ।

इस योजना के लाभ है:

(i) कम लागत और समय में बचत ।

(ii) बेचने वाले (इश्यूअर) और खरीदने वाले (बायर) दोनों की अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु निजी नियोजन में संयुक्त रूप से लचीलापन पाते है ।

(iii) अनौपचारिक (Informal) बाजार होने के कारण नियमबद्ध नहीं है और दोनों पक्ष काफी गोपनीयता के साथ कार्य कर सकते हैं । वर्ष 1996-97 में कुल शेयर में निवेश का 12.8% नियोजन निजी नियोजन बाजार में हुआ उसका मूल्य रु. 15066 करोड जबकि सरकारी क्षेत्र में नियोजन 49.1% का रहा है ।

Trend # 9. तारापोर कमेटी (Tarapore Committee):

भारतीय अर्थव्यवस्था के विश्व अर्थव्यवस्था के साथ एकीकरण नियमों में शिथिलीकरण, आर्थिक/बैंकिंग क्षेत्र में सुधार के परिदृश्य में जब चालू खाता परिवर्तन कुछ शर्तों के साथ लागू हो चुकी है तब पूँजी खाता परिवर्तनीयता के दिन दूर नहीं हो सकते है । भारतीय रिजर्व बैंक ने इस विषय को गंभीरता से लेकर तारापोर कमेटी का गठन किया था ।

कमेटी की मुख्य सिफारिशे इस प्रकार है:

(i) सकल वित्तीय घाटा (ग्रास फिस्कल डेफिसिट) को 3.5% तक लाना

(ii) मुद्रा स्फीति की दर (रेट ऑफ इन्फलेशन) 3% से 5% के बीच

(iii) बैंकिंग संस्थानों के सकल और निष्पादित आस्तियों (NPA) का अधिकतम स्तर 5%

(ग्रास नान-परफॉरमिंग असैटस्) उपरोक्त लक्ष्यों की प्राप्ति (वर्ष 2000 तक) पूँजी खाता परिवर्तनीयता का मार्ग प्रशस्त रहेगी ।

Trend # 10. आर्थोपाय अग्रिम प्रणाली (Ways and Means Advances):

केन्द्र सरकार और भारतीय रिजर्व बैंक ने 40 वर्ष पुरानी तदर्थ खजाना बिल प्रणाली जो कि बाजार सरकारी प्राप्तियों और अदायगियों के अस्थायी बेमोल अन्तरों-घाटे की पूर्ति के लिए उपयोग में लायी जा रही थी, को 01.04.1997 के समाप्त कर ‘आर्थोपाय अग्रिम प्रणाली’ प्रतिस्थापित की है ।

इस करार के अधीन 31 मार्च को बकाया तदर्थ खजाना बिल ऐसी विशेष प्रतिभूतियों में परिवर्तित कर दिए जाएंगे जिन पर 1 अपैल को 4% वार्षिक की दर से ब्याज कमाया जाएगा, परन्तु इनकी कोई निर्धारित परिपक्वता नहीं होगी । नई व्यवस्था में वर्ष 1997-98 को पहली छमाही में बीमा 12000 करोड, दूसरी छमाही में 8000 करोड़ रु होगी ।

इन अग्रिमों पर ब्याज की दर पूर्व सहमति अथवा बाजार की ब्याज दर होगी । सीमा से अधिक निकासी की दशा में ओवरड्राफ्ट पर 2% दाण्डिक ब्याज वसूला जायेगा और 31.03.1999 से लगातार 10 कार्य दिवसों की अवधियों के ओवरड्राफ्टों की अनुमति नहीं होगी । विशेषज्ञों के अनुसार बाजार घाटों को तदर्थ खजाना बिलो से मौद्रीकृत करने की योजना की अपेक्षा यह ओवरड्राफ्ट प्रणाली अधिक बेहतर रहेगी ।

Trend # 11. सेबी – भारतीय प्रतिभूति विनिमय बोर्ड(SEBI – Securities and Exchange Board of India):

‘सेबी’ की स्थापना वर्ष 1988 में की गई थी, इसका मुख्यालय मुम्बई में स्थित है । ‘सेबी’ की स्थापना का मुख्य उद्देश्य, देशीय प्रतिभूति बाजार का स्वस्थ विकास, नियंत्रण एवं निवेशकों के हितों की सुरक्षा के लिए किया गया है । तदनुसार बोर्ड के नियमों के अनुपालन हेतु कड़े प्रावधान तैयार किए है ताकि रातों- रात चमकने वाली कम्पनियों के छोटे-निवेशक का बचाव किया जा सके ।

बाजार में आने वाली कम्पनियों के आचरण पारदर्शी हों अतः उन्हें कम्पनी के कार्य, निर्माण, उत्पाद प्रणाली कम से कम गत 3 वर्षों के परिणाम, भविष्य की योजना, लाभ आदि के विचरण के साथ जोखिम, कम्पनी की देयताओं का सम्पूर्ण सत्य ब्यौरा प्रकाशित करने की बाध्यता ।

असत्य विवरण पाये जाने पर कडे दाण्डिक प्रावधान भी नियम में किए गए हैं । निवेशकों को आपत्तिजनक मामलों पर सीधे बोर्ड से पत्राचार करने की छूट है । देश के विभिन्न केन्द्रों पर स्थित स्टॉक एक्सचेन्जों का लेखा परीक्षण एवं अनुश्रवण भी बोर्ड द्वारा आवश्यकता पड़ने पर किया जा सकता है ।

Trend # 12. जमा प्रमाण-पत्र (CD : Certificate of Deposit):

वाघुल कमेटीके सिफरिशों पर भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा अल्पकालीन अवधि का लिखित निर्गत करने का अधिकार, वाणिज्य बैंकों को दिया गया था । इस योजना के तहत बैंकों द्वारा कम से कम 3 माह और अधिकतम 1 वर्ष की अवधि के लिए राशियाँ एकल, कम्पनियों, कार्पोरिटस्, न्यास आदि से स्वीकार की जा सकती है ।

अनिवासी भारतीय भी निवेश करने को स्वतंत्र है । कम से कम निवेशित योग्य राशि रु. 5 लाख मात्र है । यह अन्तरणीय लिखत (Transferable Instrument) है, परन्तु ऋण की सुविधा उपलब्ध नहीं है । स्टाम्प शुल्क की दृष्टि से यह यूसैन्स प्रोमिजरी नोट है और स्टाम्प शुल्क बैंकों द्वारा समेकित रूप से देय है । सी.डी. पर एस. एल. आर. / सी. आर. आर. के प्रावधान लागू होते हैं ।

Trend # 13. वाणिज्यिक प्रपत्र (CP – Commercial Paper):

वाघुल कमेटी की सिफारिशों पर भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा अनुमोदित लिखित है जो कि लगभग सी.डी की तरह है, परन्तु कार्पोरिट्‌स द्वारा निर्गत किया जाता है । इस योजना में निवेश हेतु बैंक एकल, बीमा कम्पनियाँ, पेंशन, भविष्य निधि बोर्ड, म्यूच्यूअल फण्ड आदि स्वतंत्र है । परिपक्वता अवधि कम से कम 3 माह और अधिकतम 12 माह है । यह एक असुरक्षित (Unsecured) यूसैन्स प्रामिजरी नोट है ।

जारी करने की प्रमुख शर्तें इस प्रकार है:

(i) ताजा तुलन पत्र के अनुसार निर्गमक (Issuer) की कुल नैटवर्थ रु. चार करोड हो,

(ii) कार्यशील पूँजी की आवश्यकता रु. चार करोड,

(iii) स्वस्थ क्रेडिट रेटिंग प्राप्त हो,

(iv) बैंकों की किताबों में ऋण खातों का वर्गीकरण ‘स्टैण्डर्ड आस्तियाँ’ (S.A.)

(v) कम से कम पाँच लाख की जमा राशि ।

(vi) आर्थिक/वित्तीय मानक बैंक द्वारा निर्धारित मानकों के अनुरूप यह कर्यशील पूँजी की आवश्यकताओं के 100% तक जारी किए जा सकते हैं । स्टाम्प शुल्क देय है ।

Trend # 14. आर.सी.यइ.सी. (Risk Capital and Technology Finance Corp. Ltd.):

उपरोक्त निगम कई स्थापना इन्डस्ट्रीयल फइनेंस कॉर्पोरिशन (आई.एफ.सी) द्वारा तकनीक के विकास हेतु शोध को प्रोत्साहन देने हेतु वित्तीय सहायता प्रदान करना है । यह ऋण सहायता देशीय/आयातित तकनीकियों के उपयोग हेतु उद्यमियों को आसान शर्तों पर उपलब्ध कराता है, ताकि वह मध्यम श्रेणी के उद्योगों की स्थापना कर सके ।

Trend # 15. विश्व-व्यापी खजाना रसीदें (GDR : Global Depository Receipts):

जी.डी.आर. उन समुद्र पारीय (ओवरसीज) बैंकों द्वारा निर्मित ईक्विटी लिखत है जिन्हें इस प्रयोजन के लिए निर्गमकर्ता कम्पनी द्वारा प्राधिकृत किया गया है । मूलतः ‘यूरोप, अमेरिका के शेयर बाजार में क्रय-विक्रय की जाने वाली डॉलर में मूल्य दर्शायी गई लिखत होती है तथा वह निर्गमकर्ता कम्पनी के स्थानीय मुद्रा के क्रय-विक्रय की जाने वाली निर्दिष्ट संख्या के ईक्विटी शेयर दर्शाती है ।

Trend # 16. सीमित (संकीर्ण) बैंकिंग (Narrow Banking):

वर्तमान में भारतीय बैंकिंग के विश्वव्यापीकरण की प्रक्रिया के साथ एक चुनौतीपूर्ण वातावरण बन रहा है । फलतः वही बैंक सम्पूर्ण कार्य कर सकेंगे जो सुदृढ एवं सक्षम हैं । इन परिस्थितियों में कुछ अपेक्षाकृत कम सक्षम बैंकों की सेवा सीमित रह जायेगी । अतः ऐसे बैंक इस पारिभाषिक परिधि में होंगे । सामान्यतः ऐसे बैंक जमा राशियाँ ही स्वीकार करेंगे और उनका निवेश का सरकारी प्रतिभूतियों में कर लाभ कमायेंगे ।

Trend # 17. स्वर्ण बैंकिंग (Gold Banking):

बदलते बैंकिंग परिदृश्य में बैंकों को स्वर्ण व्यापार में एक प्रमुख भूमिका देकर सरकारी भूमिका में कमी लाना है । फलतः देशीय आवश्यकताओं के लिए बैंकों को स्वर्ण के आयात में छूट और निर्धारण दरों पर बिक्री । तारापोर कमेटी ने भी लगभग यही सिफारिश की है और तदानुसार भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा 8 वाणिज्यिक बैंकों और एम.एम.टी.सी. को इस कार्य के लिए अधिकृत किया है ।

इससे पूर्व भी बैंकों द्वारा अनिवासी भारतीयों के लिए स्वर्ण खरीद सेवा प्रदान की जा रही थी । भविष्य में इस योजना को और भी उदार किया जा सकता है जब बैंक स्वर्णाकित जमाएँ और ऋण स्वीकृत कर सकेंगे । दिल्ली मडल में ”चाँदनी चौक, दिल्ली” शाखा को लिन्क शाखा बनाया गया है और सेटेलाइट केन्द्रो के रूप में 13 अन्य शाखाओं को अधिकृत किया गया है । विश्व के विकसित और कई विकासशील देशों में बैंकों द्वारा स्वर्ण व्यापार पहले से ही किया जा रहा है । यह एक सुरक्षित लाभकारी व्यापार भी है ।

Trend # 18. आयात-निर्यात नीति 2001-02 (Exim Policy 2001-02):

घोषित पंचवर्षीय निर्यात-आयात नीति का प्रमुख उद्देश्य है कि विभिन्न योजनाओं का पुनर्विन्यास करके उन्हें नया रूप देकर भारत के निर्यातों की गति में तेजी लाई जाये तथा क्रिया-विधियों के सरलीकरण और मुक्ति युक्त बनाये जाने के व्यापक श्रेणी के उपायों की व्यवस्था की जाए ताकि क्रिया-विधियाँ अधिक पारदर्शी बनें और उनका संचालन आसान हो ।

Trend # 19. पारस्परिक फण्ड (Mutual Fund):

भारतीय यूनिट ट्रस्ट देश का प्रथम फण्ड है, जबकि बैंकों के सन्दर्भ में, इस सदी के 90वें दशक में, भारतीय परिवेश में एक नया आयाम, भारतीय स्टेट बैंक द्वारा स्टेट बैंक ऑफ इण्डिया कैपीटल मार्केट्स लि. की वर्ष 1987 में स्थापना कर निवेशकों के समक्ष निवेश विकल्प प्रस्तुत किया जो कि कालान्तर में भारतीय स्टेट बैंक म्यूच्युअल फण्ड, स्टेट बैंक आस्तियाँ प्रबन्ध लि. के रूप में वर्तमान में विद्यमान है ।

इस योजना के तहत फण्डस द्वारा निवेशित राशियाँ, एकत्र कर विभिन्न सरकारी-गैर सरकारी प्रतिभूतियों में लगाकर, जिसमें निवेश की सुरक्षा और आय का निरन्तर स्रोत हो, लाभ अर्जित किया जाता है । फण्ड का प्रबन्ध, उच्च व्यावसायिक ज्ञान रखने वाले, न्यासियों की नियुक्ति कर किया जाता है । इन योजनाओं में निवेशित राशियों में मूल धन में वृद्धि के साथ लाभांश की सुखद सम्भावनाएँ रहती हैं ।

फण्ड्स, सैबी के कडे नियंत्रण में रहते है । वर्तमान में सरकारी/गैर सरकारी क्षेत्र के बैंक, वित्तीय संस्थाओं, भारतीय जीवन बीमा निगम, सामान्य बीमा निगम इस क्षेत्र में कार्यरत हैं । फण्ड की योजनाओं की स्टॉक एक्सचेज पर लिस्टिंग भी होती है, ताकि ऐसी योजनाओं में से निवेशक चाहें तो अलग भी हो सकते है, जबकि कुछ योजनाओं में परिपक्वता के बाद ही राशि प्राप्त की जा सकती है ।

Trend # 20. जंक बोण्ड्स (Junk Bonds):

जैसा कि नाम से स्वतः स्पष्ट है कि ऐसे बॉण्ड जिनमें उच्च दर पर आय की सम्भावना तो रहती है परन्तु निवेश की सुरक्षा की कोई गारण्टी नहीं होती है ।

Trend # 21. वित्तीय निरीक्षण बोर्ड (Board for Financial Supervision):

वाणिज्यिक बैंकों, वित्तीय संस्थाओं, गैर वित्तीय कम्पनियों तथा अन्य समान कार्य करने वाली (पैरा बैंकिंग/पैरा फाइनेंशियल कम्पनीज) कम्पनियो पर प्रभावी, सघन नियंत्रण, निरंतर अनुश्रण हेतु बोर्ड जो कि भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा वर्ष 1994 में गठित किया गया ।

Trend # 22. सोढानी कमेटी (Sodani Committee):

श्री ओ. पी. सोढानी, कार्यकारी निदेशक भारतीय रिजर्व बैंक की अध्यक्षता में यह समिति गठित की गई थी ताकि वह भारतीय परिवेश में ‘विदेशी मुद्रा विनिमय बाजार’ का अध्ययन कर अवरोधो को स्पष्ट करे ।

कमेटी द्वारा वर्ष 1995 रिपोर्ट प्रस्तुत की गई जिसके मुख्य अंश निम्नलिखित हैं:

(अ) बाजार में सक्रिय बैंकर्स की संख्या नगण्य है । सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक मर्चेंट बैंक व्यापार में अग्रणी भूमिका निर्वाह कर रहे है जबकि विदेशी बैंक व्यापार में ।

(ब) अन्तर्राष्ट्रीय/समुद्रपारीय बाजार में व्यापार करने पर रोक के कारण ‘क्रॉस करैन्सी’ विकल्प का विकास अवरुद्ध है ।

(स) मुद्रा बजार और समुद्रपारीय बाजारों में एकीकरण के अभाव के कारण तथा समुद्रपारीय बाजारों में जमा और उधार लेने पर सीमित स्वतंत्रता के कारण, विकास में बाधा ।

(द) विनिमय में खुले सौदे रखने पर सीमित स्वायत्तता के कारण भी अवरोध ।

Trend # 23. स्टेट बैंक ‘ऋण लेखा परीक्षा’ (State Bank ‘Loan Statement Examination):

मैकेन्जी एण्ड कम्पनी की सिफारिशों के आधार पर बैंक में ऋणों की स्वीकृति में तेजी लाने और प्रभावी पुनर्निरीक्षण के उद्देश्य से एक अलग विभाग गठित किया गया है । प्रक्रिया के तहत रु. 100 लाख या अधिक के ऋणों की स्वीकृति के 6 माह में, स्वीकृत किए गए ऋणों के आकलन की प्रक्रिया का निरीक्षण कर यह आश्वस्त करना कि निर्णय नियमानुसार और नीति के अनुरूप हैं ।

दूसरे चरण में स्वीकृति के बाद का सत्यापन और तीसरे चरण में गहन निरीक्षण आदि है । दूसरे और तीसरे चरण की प्रक्रिया वर्ष में एक बार, जबकि प्रथम चरण प्रक्रिया 6 माह में एक बार, कुल 18 माह में 3 बार होगी । इससे उच्च प्रबन्धन को आस्तियों की गुणवत्ता के विषय में निरन्तर सूचना और भविष्य में होने वाले जोखिम आदि की समीक्षा निरन्तर मिलती रहेगी । इस प्रस्तावित प्रक्रिया से गैर निष्पादित आस्तियों पर प्रभावी रोक भी लगाई जा सकेगी ।

Trend # 24. साइबर व्यापार (Cyber Trading):

साइबर व्यापार शब्द जिसे इलेक्ट्रॉनिक वाणिज्य के नाम से भी जाना जाता है, का अर्थ विश्व स्थित देशों के मध्य क्रय-विक्रय कार्य करने के लिए इलेक्ट्रॉनिक साधनों (प्रमुखतः कम्प्यूटरों) का उपयोग करने से है जिसका उद्देश्य विश्व में कागज रहित (Paperless) और स्क्रीन आधारित (Screen Based) व्यापार से है ।

इस प्रणाली की तुलना डिपॉजिटरी व्यवस्था के माध्यम से शेयर बाजार में किये जाने वाले स्क्रिपलैस व्यापार से की जा सकती है जिसमें शेयरों का अन्तरण केवल डिपाजटरियों द्वारा अनुरक्षित इलेक्ट्रॉनिक फाइल मैं समायोजन करके ही किया जाता है ।

Trend # 25. विकास-वित्तीय संस्थाएँ (Development Financial Institutions):

मूल रूप से विकास वित्तीय संस्थायें (DFIs) विशिष्ट वित्तीय सस्थायें होती है, जो कि वास्तविक अर्थव्यवस्था के विशिष्ट खण्डी की दीर्घावधि की वित्तीय आवश्यकताओं एवं कुछ विकास परक आवश्यकताओं की पूर्ति करती है । भारत में वि.वि.सं. का आरम्भ 1948 से माना जा सकता है, जबकि भारतीय औद्योगिक वित्त निगम (IFCI) बनाया गया ।

इसके बाद 1955 में भारतीय औद्योगिक निवेश निगम (ICICI) और 1964 में भारतीय औद्योगिक विकास बैंक (IDBI) की स्थापना की गई । ये तीनों संस्थायें विकास वित्तीय (औद्योगिक) क्षेत्र में अग्रणी भूमिका का निर्वाह कर रही हैं । अन्य बडी वि. वि. सं. में नाबार्ड, एन. एच. बी. (NHB) एक्जिम बैंक, सिडबी शामिल है ।

परम्परागत रूप से ये संस्थाये उद्यमकर्ताओं को दीर्घावधि ऋण उपलब्ध कराती रही है ।

अन्य कार्यों में:

(i) भारतीय रिजर्व बैंक की दीर्घावधि परिचालन निधि (Long Term Operation Fund) से रियायती दरों पर

(ii) बहुआयामी/द्विपक्षीय एजेन्सियों के आसान शर्तों वाले गवाक्ष से एवं

(iii) बैंकों में सर्वाधिक चल निधि अनुपात (SLR) के रूप में योग्य माने जाते हैं । ये संस्थाएँ बॉन्डों के निर्गम से अपने कोष प्राप्त किया करती हैं ।

Trend # 26. आस्तियों का प्रतिभूतिकरण (Assets Securitization):

आस्ति प्रतिभूतिकरण-एक व्यवस्थापूर्ण प्रक्रिया है, जिसमें उधार व अन्य प्राप्य राशियों को सम्पुटित (Packaged) करके हामीदारी (Under Written) करके आस्तियों पर आधारित प्रतिभूतियो के रूप में योग्य अधिकारियों द्वारा विधिवत श्रेणी निर्धारित करके बाजार में बेचा जाता है ।

आ. प्र. (US) में उधारी व प्राप्य राशियों के नामित समूहों के सम्पुट बनाकर इन सम्पुटों को निवेशकर्ताओं को प्रतिभूतियों के रूप में बेचना होता है जिनकी समर्थक (Collateral) प्रतिभूति पूर्वता प्राप्त (Underlying) आस्तियाँ एवं उनसे जुडी आय प्रवाह होती हैं ।

इस प्रक्रिया में अतरल आस्तियाँ तरल आस्तियाँ (Liquid Assets) में रूपान्तरित हो जाती हैं और पूँजी बाजार के माध्यम से निवेशकों के एक विशाल समूह में वितरित हो जाती हैं । इस प्रक्रिया का आरम्भ वित्तीय संस्थाओं द्वारा नकदी की कमी यो जोखिम सघनता के कारण हुआ है ।

वह वित्तीय अभियांत्रिकि (Financial Engineering) का ऐसा का ऐसा उत्पाद है कि परक्राम्य लिखत (NI) को पनर्रचना और विक्रय योग्य बनाता है जिससे कि जोखिम, निवेशकों के एक विशाल समूह में वितरित हो गए । यह जोखिम ऐसा जो कि सामान्यतः एक उधार देने वाले या सहायता संघ (Consortium) द्वारा उठाया गया है, ताकि उधार कर्ताओं को धन प्राप्त हो सके, जो अन्यथा संभव न हो पाता ।

इस प्रकार यह एक जोखिम प्रबन्धन (Risk Management) के हथियार के रूप में कार्य करता है । यह निधि प्रबंधन (Assets Management) में भी सहायक होता है ।

Trend # 27. पूँजी सूचकांक बॉण्ड (Capital Indexed Bonds):

भारतीय अर्थव्यवस्था के वैश्वीकरण और सुधारों के परिप्रेक्ष्य में नये आयाम नित्य जुड रहे है । जिनमें कैपीटल इन्डैक्स्ट बॉण्ड नवीनतम प्रस्तुति है । केन्द्रीय वित्तीय बजट 1997-98 में इन बॉण्ड्स के निर्गमन का उद्देश्य निवेशक को पूर्व निर्धारित देर पर ब्याज का भुगतान और मूल की मुद्रा स्फीति के दबाव से सुरक्षा का प्रावधान है । इस दृष्टि से यह बॉण्ड अन्य परम्परागत बॉण्डस के सापेक्ष अधिक आकर्षण लिए हुऐ हैं । दूसरे शब्दों से यदि मुद्रा स्फीति की दर में वृद्धि होती है तो बॉण्ड के मूल निवेश में भी तदानुसार वृद्धि होगी ।

भारत सरकार द्वारा अभी 5 वर्ष की अवधि के बॉण्ड जारी किए हैं । जिस पर 6% वार्षिक ब्याज जो की छह माही अन्तराल पर देय होगी, जारी किए हैं, योजनान्तर्गत मूलराशि का भुगतान परिपक्वता पर थोक कीमत सूचकांक (WPI) में मासिक औसत पर गणना कर किया जायेगा । न्यूनतम निवेश राशि रु. 10,00,00 और 10,000 के गुणकों में है ।

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