भारत में बैंक ऋण के प्रकार | Types of Bank Loans in India!

सावधि जमा राशि के विरुद्ध अग्रिम (Bank Loans against Fixed Deposit Receipts):

सावधि जमाओं का भुगतान एक निश्चित अवधि के पश्चात् देय होता है किन्तु आवश्यकता होने पर या तो रसीद को परिपक्वता से पूर्व ही भुनाया जा सकता है अथवा उस रसीद की जमानत पर बैंक से अग्रिम स्वीकृत कराया जा सकता है ।

एक प्रतिभूति के रूप में सावधि जमा-रसीद (Fixed Deposit Receipt as a Security):

बैंकर सावधि जमा रसीदों को ऋण-अग्रिमों के लिए श्रेष्ठ जमानत मानते हैं क्योंकि उस प्रतिभूति (अर्थात् जमा रसीद) की राशि स्वयं बैंक में ही जमा रहती है । रिजर्व बैंक के निर्देशानुसार बैंक इस सावधि जमा राशि पर 25 प्रतिशत मार्जिन रखते हुए अग्रिम स्वीकार कर सकते हैं जिस पर बैंक द्वारा उस सावधि जमा पर देय ब्याज से 2 प्रतिशत अधिक ब्याज लिया जाता है ।

ADVERTISEMENTS:

बैंकर द्वारा ली जाने वाली सावधानियां (Precautions to be Taken by the Banker):

(1) बैंकर को केवल अपनी सावधि जमा रसीद के विरुद्ध ही अग्रिम देना चाहिए । किसी अन्य बैंक की जमा-रसीद के विरुद्ध अग्रिम स्वीकृत नहीं किया जाना चाहिए क्योंकि जमा-रसीद पर ग्रहणाधिकार (Paramount) रहता है तथा वह बैंक ऋणदाता बैंकर के ग्रहणाधिकार का पंजीयन करने से इन्कार कर सकता है ।

(2) यदि जमा-रसीद किसी अवयस्क के नाम में हो तो उन पर ऋण नहीं दिया जाना चाहिए ।

(3) सामान्यतः उसी रसीद पर अग्रिम दिया जाना चाहिए जो ऋणी के अकेले नाम में है । यदि संयुक्त नामों वाली रसीद के विरुद्ध एक जमाकर्ता को ऋण स्वीकृत करना हो तो बैंकर के पक्ष में ऋण स्वीकृत करने का अधिकर-पत्र सभी जमाकर्ताओं के हस्ताक्षरों से प्राप्त कर लेना चाहिए ।

ADVERTISEMENTS:

(4) जमा-रसीद पर रसीदी-टिकट लगाकर जमाकर्ता (या सभी जमाकर्ताओं के हस्ताक्षर करके रसीद की भुगतान मुक्ति (Discharge) करा लेनी चाहिए तथा एक अलग गिरवी-पत्रक (Memorandum of Pledge) भी प्राप्त कर लेना चाहिए ।

(5) कम-से-कम 25 प्रतिशत मार्जिन अवश्य रखना चाहिए ।

(6) ऋण स्वीकृत करने के पश्चात् बैंकर को अपने सावधि जमा रजिस्टर (Fixed Deposit Register) तथा जमा-रसीद (F.D.R.) पर नोट लगा लेना चाहिए ।

(7) यदि ऋण रसीद को निर्गमित करने वाले बैंकर की किसी अन्य शाखा द्वारा स्वीकृत किया जाना हो तो रसीद निर्गमितकर्ता बैंकर को पहले अपने जमा रजिस्टर में नोट लगा लेना चाहिए । इसके पश्चात् ही ग्राहक का अग्रिम का भुगतान किया जाना चाहिए ।

ADVERTISEMENTS:

(8) सामान्यतः तृतीय-पक्षकारों (Third Party) की जमा-रसीदों के विरुद्ध अग्रिम हतोत्साहित किये जाने चाहिए । यदि दिये ही जाए तो ऋणी जिस श्रेणी का हो उस श्रेणी के ऋणियों द्वारा देय ब्याज चार्ज किया जाना चाहिए । इस बात पर विचार नहीं किया जाना चाहिए कि सावधि जमा पर किस दर से ब्याज देय है ।

(9) यदि रसीद की परिपक्वता से पूर्व अग्रिम अदा कर दिया जाये तो बैंकर को जमाकर्ता की मुक्ति (Discharge) तथा ग्रहणाधिकार के नोट को निरस्त करके रसीद वापस कर देनी चाहिए ।

(10) यदि अग्रिम की अदायगी के पूर्व रसीद का भुगतान देय हो तो बैंकर को उस राशि अ समायोजन ग्राहक द्वारा देय शेष ऋण में कर देना चाहिए |

जीवन बीमा पॉलिसी के विरुद्ध अग्रिम (Bank Loans against Life Insurance Securities):

जीवन बीमा कम्पनी एवं बीमित (Insured) के मध्य अनुबन्ध होता है जिसके अन्तर्गत बीमा कम्पनी एक निश्चित अवधि के समाप्त होने अथवा बीमित व्यक्ति की मृत्यु हो जाने की दशा में एक निर्दिष्ट राशि भुगतान करने का वचन देती है । भारत में जीवन-बीमा व्यवसाय का पूर्ण राष्ट्रीयकरण है तथा यह व्यवसाय भारतीय जीवन-बीमा निगम द्वारा किया जाता है ।

जीवन बीमा पॉलिसी एक प्रतिभूति के रूप (Life Insurance Policy as a Security):

बैंकर निम्नलिखित कारणों से जीवन बीमा पॉलिसी को ऋणों/अग्रिमों के लिए श्रेष्ठ प्रतिभूति मानते हैं:

(1) जीवन बीमा व्यवसाय एक सार्वजनिक निगम, भारतीय जीवन बीमा निगम (L.I.C.) द्वारा किया जाता है ।

(2) पॉलिसी को विधिक रूप से बैंकर को अभिहस्तांकित (Assigned) किया जा सकता है जिसका पंजीयन जीवन-बीमा निगम द्वारा कराया जा सकता है । इस अभिहस्तांकन के द्वारा बैंकर को अवधि की समाप्ति अथवा बीमित की दशा में पालिसी की राशि, बोनस इत्यादि पाने का वैधिक अधिकार मिल जाता है ।

(3) यदि ऋणी द्वारा पालिसी पर प्रीमियम का भुगतान न किया जाये तो पॉलिसी का समर्पण-मूल्य (Surrender Value) बैंकर को मिल जाता है । पॉलिसी का समर्पण मूल्य आसानी से ज्ञात किया जा सकता है ।

(4) यह एक ऐसी प्रतिभूति है जिसके मूल्य में कमी आने का प्रश्न ही नहीं उठता । वास्तव में जैसे-जैसे प्रीमियम का भुगतान होता जाता है । पॉलिसी का समर्पण मूल्य बढ़ता जाता है ।

(5) पॉलिसी का अभिहस्तांकन एवं रजिस्ट्रेशन हो जाने पर पॉलिसी बैंकर को सौंप दी जाती है । अब बैंकर को इस प्रतिभूति की देख-भाल करने की कोई आवश्यकता नहीं होती ।

(6) बैंकर ऋणी की मृत्यु पर पॉलिसी की राशि आसानी से प्राप्त कर सकता है ।

कमियाँ (Drawbacks):

(1) जीवन-बीमा अधिकतम सद्‌विश्वास का अनुबन्ध है । यदि ऋणी ने बीमा कराते समय कोई बात सही एवं उचित ढंग से न बताई हो, अथवा गलत बयानी की है तो पॉलिसी शर्तों के अनुसार, पॉलिसी व्यर्थ हो जायेगी तथा बीमित व्यक्ति को देय लाभ या उसके दावे समाप्त हो जायेंगे इस स्थिति में बैंकर को हानि उठानी पड़ सकती है ।

(2) समर्पण मूल्य का भुगतान पॉलिसी के एक निश्चित न्यूनतम अवधि तक चल चुकने पर ही देय होता है ।

(3) बीमा पॉर्लिसी में कोई विशिष्ट शर्तें या प्रतिबन्धात्मक उपबन्ध (Restrictive Clause) हो सकते हैं ।

बैंकर द्वारा ली जाने वाली सावधानियां (Precautions to be taken by Banker):

(1) बैंकर को यह देख लेना चाहिए कि बीमा कराते समय ऋणी का उस बीमा में बीमा-योग्य हित (Insurable Interest) था ।

(2) बीमित व्यक्ति की आयु जीवन बीमा निगम द्वारा स्वीकार की जा चुकी है (age has been admitted by the L.I.C.) तथा उसका उल्लेख बीमा-पॉलिसी में है । यदि ऐसा न हो तो ऋण स्वीकार करने से पूर्व बैंकर को ऋणी से यह कार्य कद लेना चाहिए ।

(3) ऋण का अग्रिम पॉलिसी के समर्पण-मूल्य पर मार्जिन रखते हुए स्वीकार किया जाना चाहिए । समर्पण-मूल्य L.I.C. से ज्ञात कर लेना चाहिए ।

(4) बैंकर को अपने पक्ष में पॉलिसी पर प्रभार (Charge) या तो अभिहस्तांकन द्वारा (By Assignment) अथवा विश्वास-बन्धक द्वारा (By Equitable Mortgage) निर्मित कर लेना चाहिये ।

(5) बैंकर को ऋणी से यह लिखित वचन ले लेना चाहिये कि वह पॉलिसी पर प्रीमियमों का भुगतान नियमित रूप से करता रहेगा तथा उसकी रसीद बैंकर के पास भेजता रहेगा । वैकल्पिक रूप में, बैंकर ग्राहक के खाते से प्रीमियम जमा कराते रहने का अधिकार स्थायी-अनुदेश (Standing Instruction) के रूप में प्राप्त कर सकता है ।

(6) बैंकर को सम्पूर्ण-जीवन पॉलिसी (Whole Life Policy) की अपेक्षा बन्दोबस्ती पॉलिसी (Endowment Policy) प्राथमिकता देनी चाहिए ।

अचल सम्पत्ति के विरुद्ध अग्रिम (Bank Loans against Immovable Property or Real Estate):

ग्राहक अपनी किसी अचल सम्पत्ति (जैसे भूमि एवं भवन) की जमानत पर ऋण माँग सकता है । खण्ड अधिनियम, 1897 (General Clauses Act, 1897) की धारा 3(26) के अनुसार – ”अचल सम्पत्ति में भूमि, भूमि से उदित वाले लाभ, वे वस्तुएँ जो भू-बद्ध अथवा भू-बद्ध किसी वस्तु से अस्थायी रूप से जुड़ी हुई हैं, का समावेश होता है ।”

प्रतिभूति के रूप में अचल सम्पत्ति (Immovable Property as a Security):

बहुमूल्य मूर्त-सम्पत्ति (Tangible Assets) होते हुए भी बैंकर प्रायः अचल सम्पत्ति को श्रेष्ठ प्रतिभूति नहीं मानते क्योंकि इनके सम्बन्ध में व्यवहार करने में अनेक कठिनाइयाँ आती हैं जिनमें से कुछ महत्वपूर्ण निम्नानुसार हैं:

(1) भूमि पर स्वामी के स्वत्वाधिकार (Title of the Owner) की जाँच करना मुश्किल कार्य है । चूँकि अभी तक हमारे देश में भूमि सम्बन्धी रिकार्ड प्रमाणित ढंग से नहीं हैं, अतः कृषि भूमि के स्वत्वाधिकार का प्रमाणन तो अत्यन्त कठिन एवं जोखिमपूर्ण कार्य है ।

(2) Debt Relief Laws तथा अन्य अधिनियमों के अन्तर्गत् बैंकर को साधारण साहूकार (Money-Lender) के समकक्ष रखा गया है तथा कृषकों पर अनेक प्रतिबन्धात्मक नियम भी लागू किये गये हैं । इन सब कारणों से कृषकों एवं उनकी कृषि भूमि के सम्बन्ध में ऋण-वसूली की कार्यवाही करने में अनेक व्यावहारिक कठिनाइयाँ आती है ।

(3) भूमि एवं भवन जैसी सम्पत्तियों को आसानी से बेचा भी नहीं जा सकता है अतः बैंकर की दृष्टि से इनमें तरलता (Easy Liquidity) का गुण नहीं होता ।

(4) अचल सम्पत्ति के मूल्यांकन का कार्य भी आसान नहीं होता ।

(5) ऐसी सम्पत्तियों पर प्रभार उत्पन्न में बन्धक-पत्र, स्टाम्प ड्यूटी, रजिस्ट्रेशन आदि की अनेक व्यय-साध्य कार्यवाहियाँ करनी पड़ती ।

बैंकर द्वारा ली जाने वाली सावधानियां (Precautions to be taken by the Banker):

(1) ऋण स्वीकार करने से पूर्व ऋणी की वित्तीय सुदृढ़ता (Financial Soundness) तथा परियोजना की व्यवहार्यता (Validity of the Project) का मूल्यांकन कर लेना चाहिए ताकि बन्धक प्रतिभूति के विरुद्ध कार्यवाही किये बिना ही ऋण वसूल हो सके ।

(2) बैंकर को अपने विधि-विशेषज्ञ (Legal Expert) से सम्पत्ति पर ऋणी के पूर्ण एवं अविवादपूर्ण स्वत्वाधिकार (Absolute and Undisputed Title) का परीक्षण करा लेना चाहिए ।

(3) बन्धक एवं प्रभारों के रजिस्टर (Register of Mortgages and Charges) में कम-से-कम पिछले 20 वर्षों का रिकॉर्ड अपने वकील से दिखाकर बैंकर को यह देख लेना चाहिए कि सम्पत्ति सभी प्रकार के बन्धकों एवं प्रभारों से मुक्त है ।

(4) बैंकर को विशेषज्ञ-मूल्यांकनों (Expert Valuers) की सहायता से सम्पत्ति से वसूली योग्य मूल्य (Realizable Value) का आकलन करा लेना चाहिए ।

(5) यह भी देखना चाहिए कि सम्पत्ति पर स्वामित्व अधिकार कैसे हैं- फ्री-होल्ड या लीज-होल्ड । लीज होल्ड की दशा में पट्‌टे की समाप्त हो चुकी अवधि, पट्टे पर देय किराया, पट्टे के आगे और अवधि के लिए नवीनीकरण (Renewal) सम्भावनाएँ आदि तथ्यों को भी दृष्टिगत् रखा जाना चाहिए ।

(6) सम्पत्ति का मूल्यांकन करते समय उसी क्षेत्र में समान प्रखर की सम्पत्तियों के मूल्य, भवन का आकार, संरचना (Structure), ले-आल्ट तथा निर्माण आदि घटकों पर भी विचार किया जाना चाहिए ।

(7) अचल सम्पत्तियों पर अग्रिम स्वीकृत करते समय प्रायः 33 प्रतिशत से 50 प्रतिशत तक मार्जिन रखना उचित होगा ।

(8) सम्पत्ति को बन्धक रखने हेतु नियमानुसार बन्धक-पत्रक (Mortgage Deed) तैयार किया जाना चाहिए ।

पुस्तकीय-ऋणों के विरुद्ध अग्रिम (Bank Loans against Book Debts):

बैंक का कोई ग्राहक अपने उन पुस्तकीय-ऋणों की जमानत पर अग्रिम स्वीकृत किये जाने हेतु आवेदन कर सकता है जो या तो इसको देय हो गये हैं अथवा निकट भविष्य में देय होने वाले हैं । इस स्थिति में देनदार बैंकर को अभिहस्तांकित (Assign) दिये जाते है ।

सम्पत्ति हस्तांतरण अधिनियम, 1882 की धारा 130 के अनुसार कार्यवाही योग्य दावों (Actionable Claims) अभिहस्तांकन एक न्यायाधीश (Judge), विधि-वेत्ता (Legal Practitioner) तथा न्यायालय के किसी अधिकारी (an Officer of a Court of Justice) को छोड़कर किसी भी व्यक्ति को किया जा सकता है ।

बैंकर द्वारा सावधानियां (Precautions to be taken by a Banker):

(1) जिन ऋणों के विरुद्ध अग्रिम स्वीकार किया जाना है उनकी वैधता (Validity) तथा ऋणियों की शोध्यक्षमता (Solvency) की जाँच कर ली जानी चाहिए ।

(2) ग्राहक से यह वचन (Undertaking) लेना चाहिए कि यदि अभिहस्तांकित ऋण का कोई ऋणी ग्राहक को भुगतान कर देता है तो ग्राहक उसकी राशि बैंकर को दे देगा ।

(3) हस्तांतरणकर्ता ग्राहक को अपने हस्ताक्षरों से अभिहस्तांकन का लिखित प्रलेख बैंकर को देना चाहिए जिसमें अभिहस्तांकन की सूचना सम्बन्धित ऋण में अपने हित को बैंकर के पक्ष में हस्तांतरित करने का स्पष्ट उल्लेख हो ।

(4) बैंकर को अभिहस्तांकन की सूचना सम्बन्धित ऋणियों ले भी दे देनी चाहिए ।

(5) ऋणों के अभिहस्तांकन के पश्चात् ऐसे ऋणों के सम्बन्ध में ऋणदाता ग्राहक के समस्त अधिकार बैंकर को प्राप्त हो जायेंगे जो उनका प्रयोग ग्राहक की स्वीकृति के बिना तथा उसमें पक्षकार माने बिना स्वतन्त्र रूप से कर सकेगा ।

(6) अभिहस्तांकन स्वीकार करने से पूर्व बैंकर को यह भी सुनिश्चित कर लेना चाहिए कि ग्राहक द्वारा किसी ऋणी को कोई राशि देय तो नहीं है क्योंकि ऋणी ऐसी राशि का समंजन देय ऋण के विरुद्ध कर सकता है जिससे बाद में बैंकर को हानि उठानी पड़ सकती है ।

Home››Banking››Loans››