बैंकों का प्रबंधन: ग्यारह सिद्धांत | Read this article in Hindi to learn about the management and managerial functions of bank in India.

बैंकों के राष्ट्रीयकरण के पश्चात् यदि देखा जाए तो बैंकों में प्रबन्ध के मूलभूत सिद्धांतों एवं संरचना में व्यापक परिवर्तन दिखाई देते हैं । यद्यपि विश्व आर्थिक व्यवस्था में होने वाले परिवर्तनों के अनुरूप बैंकिंग संरचना में भी बदलाव आया है साथ ही बैंकों के सिद्धांतों में भी व्यापक परिवर्तन दिखाई देता है ।

इकाई बैंकिंग, शाखा बैंकिंग, श्रृंखला बैंकिंग तथा वर्तमान में इंटरनेट बैंकिंग रूपी संरचनात्मक परिवर्तन दृष्टिगत होते हैं । बैंकिंग सिद्धांतों को ही लिया जाए तो आरम्भ में सुरक्षा का सिद्धांत अतिमहत्वपूर्ण होता था । वर्तमान में लाभदायकता के सिद्धांत को अधिक महत्व दिया जाने लगा है, क्योंकि आधुनिक परिवेश में मानवीय आवश्यकताएँ भिन्न रूप लिये हुए हैं ।

उदारीकृत एवं वैश्वीकृत व्यापार व्यवस्था के फलस्वरूप प्रत्येक व्यक्ति की वित्तीय आवश्यकताएँ विविधतापूर्ण होती जा रही है । इस विविध रूपी वित्तीय आवश्यकता को पूरा करने हेतु बैंकिंग व्यवस्था में भी नवीनतम परिवर्तन किये जा रहे हैं । नई-नई सेवायें प्रदान करने वाली नवोन्मेषी बैंकिंग संस्थाओं का तेजी से विस्तार हो रहा है ।

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एक ओर जहाँ बैंक औद्योगिक एवं व्यावसायिक क्षेत्रों की वित्तीय आवश्यकताओं की पूर्ति कर रहे है वहीं आम उपभोक्ता वर्ग बैंक का सुदृढ़ एवं परिपक्व ग्राहक सिद्ध हो रहा है । बैंकिंग संस्थाएं समाज के प्रत्येक वर्ग के लिए बैंकिंग सुविधाएँ पहुंचा रही हैं ।

उद्योगपति, पेशेवर व्यक्ति, दिहाडी मजदूर, नौकरी पेशा वर्ग इत्यादि कोई भी वर्ग ऐसा नहीं है जो बैंकिंग व्यवस्था से प्रत्यक्षतः सम्बन्ध नहीं रखता हो । अतः बैंकों के लिए यह आवश्यक हो जाता है कि वह अपने परम्परागत बैंकिंग सिद्धांतों में परिवर्तन कर बहुआयामी बैंकिंग सुविधाओं का विस्तार करे ।

बैंक का एक महत्वपूर्ण कार्य अपनी पूँजी का विनियोग करके लाभ प्राप्त करना होता है । विभिन्न साधनों से एकत्रित पूँजी को बैंक विभिन्न प्रकार के विनियोगों में लगाता है और उनसे आय प्राप्त करता है ।

बैंक की सफलता इस तथ्य पर निर्भर करती है कि वह किस पूँजी (Capital) का विनियोग करता है तथा उसे किस प्रकार की प्रतिभूतियों में विनियोजित करता है । सफल विनियोग नीति का निर्धारण करने के लिए बैंक अधिकारियों में दूरदर्शिता, अनुभव या परिपक्व निर्णय लेने के गुण होने चाहिए ।

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सामान्यतः बैंक को उचित विनियोग करने के लिए बैंकों के प्रबन्ध के निम्नांकित मूलभूत सिद्धांतों का पालन करना चाहिए:

(1) कोषों की तरलता:

सर्वप्रथम बैंक को अपने विनियोगों को करते समय तरलता का ध्यान रखना चाहिए । तरलता से अभिप्राय बैंक की माँग करने पर नकदी का भुगतान करने की क्षमता से होता है । किसी भी बैंक के लिए उसके कोषों की तरलता अत्यन्त आवश्यक है ।

बैंक का व्यापार विश्वास पर चलता है और जनता को बैंक पर विश्वास तब तक होता है जब तक कि वह माँग किए जाने पर नकदी भुगतान कर सकता है । इसलिए बैंक के पास प्रत्येक चैक का भुगतान करने के लिए पर्याप्त मात्रा में नकद मुद्रा होनी चाहिए ।

इसके लिए आवश्यक है कि बैंक के विनियोग ‘बिक्री योग्य’ हों अर्थात् उन्हें आवश्यकता पड़ने पर आसानी से तथा बिना किसी नुकसान के नकद मुद्रा में बदला जा सके । इसके लिए बैंक को ऐसी सम्पत्तियां रखनी चाहिए जिन्हें शीध्र ही नकदी में बदला जा सके । इस दृष्टि से बैंक के लिए अल्प अवधि के ऋण देना उपयुक्त होता है ।

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यदि बैंक अतरल सम्पत्तियों (जैसे भू-संपत्ति अबिक्री-साध्य प्रतिभूतियों अथवा दीर्घकालीन औद्योगिक तथा कृषि ऋणों) में अपना धन विनियोजत करता है तो संपत्तियों की तरलता समर्त हो जाती है । इस संबंध में श्री टैनन का कथन सामयिक है कि ”एक सच्चा बैंकर वह है जो विनिमय बिल तथा बन्धक के अन्तर को भली-भाँति समझता है ।”

विनिमय बिल एक अल्पकालीन साख-पत्र होता है, जिसे आवश्यकता पड़ने पर तुरन्त भुनाया जा सकता है, किन्तु बन्धक एक बडी ही गैर तरल सम्पत्ति है । यह सम्भव है कि बैंक के पास पर्याप्त गैर तरल संपत्ति रखते हुए भी, यदि वह अपनी नकदी संबंधी मांगो में तत्काल पूरा करने में असफल रहे, उसका दिवाला निकल जाय ।

अतः बैंक को अपने कोष सरकारी तथा प्रथम श्रेणी की प्रतिभूतियों तथा उत्तम अंशों और ऋण पत्रों में विनियोग करने चाहिए । स्टीड के शब्दों में – ”बैंक को केवल कार्यशील पूंजी की अनुपूर्ति के लिए ऋण देना चाहिए न कि अचल या स्थायी पूँजी बनाने के लिए ।”

(2) जोखिम की विविधता:

ग्रह भी बहुत आवश्यक है कि अपना सब या अधिकांश धन एक ही प्रकार के ऋणों, प्रतिभूतियों, व्यवसाय अथवा विनियोग में न लगायें, बल्कि उसस इस प्रकार प्रयोग करें ताकि एक व्यवसाय में मन्दी आने अथवा एक ही प्रकार की प्रतिभूतियों की तरलता या कीमतें घट जाने का बैंक साख पर बुरा प्रभाव न पड़े ।

यह अधिक उपयुक्त है कि बैंक कुछ थोड़े से उद्योगों अथवा व्यापारियों को बड़े- बड़े ऋण देने के स्थान पर छोटे-छोटे अथवा मध्यम प्रकार के ऋण बहुत से उद्योगों और व्यक्तियों को दे ताकि किसी समय में कुछ व्यक्तियों द्वारा भुगतान न करने से उत्पन्न जोखिम कम हो जाये ।

(3) उत्पादकता अथवा लाभदायकता:

प्रत्येक बैंक का उद्देश्य लाभ कमाना है । वह ऋण देने का निर्णय इस बात को देखकर करती है कि उसे इससे कितना लाभ प्राप्त होगा । किसी विनियोग अथवा आदेय की उत्पादकता जितनी ही अधिक होगी उसे उतना ही अधिक पसंद किया जायेगा ।

बैंक स्वयं ऋण लेकर विनियोग करती है । यदि ऋण प्राप्त करने और ऋण प्रदान करने की ब्याज की दर में अधिक अन्तर है, तो ऋण देना अधिक लाभदायक होगा । बिना समुचित लाभ की आशा के विनियोग का प्रश्न ही नहीं उठता परन्तु बैंक को अपनी सुरक्षा को भी ध्यान रखना चाहिए ।

(4) धन की सुरक्षा:

बैंक की अग्रिम तथा विनियोग नीति के सम्बन्ध में धन की सुरक्षा सबसे पहली आवश्यकता है, क्योंकि अधिक लाभ कमाने के लिए सुरक्षा पर ध्यान न देना घातक हो सकता है । इस कारण कहा जाता है कि बैंक को बिना उपयुक्त प्रतिभूति के ऋण नहीं देना चाहिये ।

बहुत बार अन्य बैंकों की प्रतियोगिता के कारण बैंक को कम विश्वसनीय प्रतिभूतियों पर ऋण देना पड़ जाता है । ऐसी दशा में बैंक के प्रबन्धक को बहुत सोच-विचार पर कम करना चाहिए । यदि व्यवसाय में लोच बनाए रखने के लिए कम सुरक्षित विनियोग आवश्यक हो तो उन्हें सावधानी से चुनना चाहिए ।

विनियोग की सुरक्षा के लिए निम्न बातों का ध्यान बैंक को रखना चाहिए:

(i) अपना समस्त कोष किसी एक ही व्यक्ति या उद्योग को उधार न दें,

(ii) ग्राहक की जमानत के बाजार मूल्य की पूर्ण जाँच कर लें,

(iii) अल्पकाल तथा अस्थायी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए ऋण दें,

(iv) सस्ती साख नीति न अपनायें, क्योंकि इसके कारण ऋणी अपव्ययी बन जाते हैं और

(v) ऋणी के आचरण की भली-भाँति जाँच करा लें ।

(5) प्रतिभूतियों की बिक्री-साध्यता:

बैंक को सरकारी प्रतिभूतियों, प्रथम श्रेणी के बिलों, अच्छी कम्पनियों के अंशों व ऋण पत्रों तथा माल आदि के आधार पर ही ऋण देने चाहिए क्योंकि इनकी बिक्री साध्यता अधिक होती है और बैंक जब चाहे इन्हें बेचकर धन प्राप्त कर सकता है ।

इसके विपरीत अचल संपत्ति में किया गया विनियोग तरल नहीं होता अर्थात् अचल संपत्तियों में लगाया गया धन सरलता से नहीं निकाल सकता । अधिकांश बैंक अचल संपत्ति में धन विनियोजन के कारण ही कठिनाई में फंसते हैं और कभी-कभी असफल हो जाते हैं ।

(6) प्रयोग की उद्देश्यपूर्णता का सिद्धान्त:

बैंक को अपनी निधियों का प्रयोग इस प्रकार करना चाहिए जिससे उनका व्यर्थ में अपव्यय न किया जा सके तथा जिनके प्रयोग से समुदाय, समाज अथवा देश को किसी भी प्रकार की हानि न हो ।

अन्य शब्दों में बैंक को अनुत्पादक, अनावश्यक सामाजिक रीतियों का पालन करने के लिए, असामाजिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए ऋण नहीं देने चाहिए । इस दृष्टि से बैंक को सट्‌टा व्यापार के लिए ऋण नहीं देना चाहिए, क्योंकि ऐसे ऋणों से बैंक की पूँजी जोखिम में पड़ सकती है ।

(7) हस्तान्तरणीयता का सिद्धान्त:

बैंक को अपना धन ऐसी सम्पत्तियों में लगाना चाहिए जिन्हें बिना अधिक कानूनी कार्यवाहियाँ सम्पन्न किये ही सरलतापूर्वक तथा शीघ्र ही दूसरे पक्ष को हस्तान्तरित किया जा सके । इस दृष्टि से बैंक को अचल सम्पत्तियों में कम विनियोग करना चाहिए ।

(8) विनियोगों तथा उनके मूल्यों में स्थिरता का सिद्धान्त:

बैंक को अपनी पूंजी ऐसी सम्पत्तियों में लगानी चाहिए जो शीघ्र नष्ट या खराब न हो जाती हो तथा जिनके मूल्य में अधिक अस्थिरता न हो क्योंकि ऐसा न करने से बैंक को हानि उठानी पड़ेगी । अतः बैंक को शीघ्र नष्ट होने वाली वस्तुओं, सट्टे पर लगायी जाने वाली प्रतिभूतियों, आदि में अपनी अधिक पूँजी नहीं लगानी चाहिए ।

(9) राष्ट्रीय हित का सिद्धान्त:

बैंकों को चाहिए कि वे केवल अपने ही आर्थिक हित की दृष्टि से कार्य न करें वरन् समाज और देश के व्यापारिक हितों को भी ध्यान में रखें, उन्हें अपनी पूँजी का विनियोग उन क्षेत्रों में भी करना चाहिए जो कि उनके लिए कम लाभदायक या कम सुरक्षित हो, किन्तु राष्ट्र के लिए अति आवश्यक एवं महत्वपूर्ण है जैसे- कृषि, लघु उद्योग, यातायात व आवास आदि ।

(10) विनियोग के भविष्य को देखने के सिद्धान्त: 

बैंक को अपने धन का विनियोग करते समय सम्बन्धित व्यक्तियों, संस्थाओं, व्यापारों तथा उद्योगों की वर्तमान स्थिति के औचित्य पर ध्यान देने के साथ-साथ इनके भविष्य पर भी पूर्ण विचार कर लेना चाहिए । यदि किसी विनियोग की वर्तमान स्थिति लाभदायक तथा आकर्षक हो, परन्तु भविष्य अधिक उज्ज्वल न हो तो बैंक को उसमें अपना धन नहीं लगाना चाहिए ।

(11) सरकारी नीतियों से सामंजस्य रखने का सिद्धान्त:

बैंकों को चाहिए कि अपने कोषों का विनियोग करने में सरकार की नीतियों का भी ध्यान रखे । आजकल भारत की कल्याणकारी सरकार कृषि व लघु उद्योगों के अधिक मात्रा में साख उपलब्ध कराना चाहती है । अतः बैंक को भी इन क्षेत्रों के प्रति उदार नीति अपनानी चाहिए ।

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